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साम्राज्यवाद (नवीन साम्राज्यवाद) के कारण व परिणाम

साम्राज्यवाद (यूरोपीय साम्राज्यवाद)

1870 ई. से पूर्व यूरोपीय देशों के साम्राज्यवाद का मुख्य आधार वाणिज्यवाद था। व्यापार और उद्योग को राज्य द्वारा नियन्त्रित करके स्वर्ण और रजत का संकलन करने की नीति ही 'वाणिज्यवाद' कहलाती थी। 1870 ई. के पश्चात् यूरोपीय राष्ट्रों ने एशिया व अफ्रीका महाद्वीप में अपने साम्राज्य का विस्तार करना प्रारम्भ किया। अनेक इतिहासकार साम्राज्य विस्तार को नवीन साम्राज्यवाद के रूप में परिभाषित करते हैं। नवीन साम्राज्यवाद का उदय पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त तथा 16वीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुआ।

अठाहरवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यूरोपीय वाणिज्यवाद का पतन होने लगा और उसके स्थान पर 'मुक्त व्यापार' या 'अहस्तक्षेप' की नीति का प्रारम्भ हुआ। नवीन मुक्त व्यापार के सिद्धान्तों की लोकप्रियता के कारण यूरोपीय औपनिवेशिक साम्राज्य की नींव हिलने लगी। इसीलिए यूरोप में 1870 ई. के उपरान्त जिस नवीन साम्राज्यवाद का प्रचार और प्रसार हुआ वह पुराने साम्राज्यवाद से बिल्कुल अलग था।

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नवीन साम्राज्यवाद


1870 ई. के बाद औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप यूरोप के राज्यों में उत्पादन बहुत अधिक बढ़ गया। यूरोप के राष्ट्रों के सम्मुख अपने तैयार माल की खपत के लिए बाजारों की आवश्यकता अनुभव हुई। अत: उपनिवेशवादी नीति को स्वीकार कर उसका अनुसरण करना आवश्यक हो गया। यूरोप के देशों को उपनिवेशवादी नीति अपनाने के मूल में उनका औद्योगीकीकरण था। नवीन साम्राज्यवाद अथवा नवीन उपनिवेशवाद के प्रभाव के कारण यूरोप के महान् राष्ट्रों ने एशिया तथा अफ्रीका के अविकसित देशों पर अधिकार करने की प्रतिस्पर्द्धा शुरू हो गयी। एशिया का छोटा औद्योगिक देश जापान भी इस दौड़ में शामिल हो गया। इस प्रकार उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में नवीन साम्राज्यवाद का राजनैतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक रूप विश्व के सम्मुख नवीन रूप से प्रकट हुआ। फ्रांस ने अपनी औपनिवेशिक विस्तार नीति को सभ्यता के विस्तार का नाम दिया। इंग्लैण्ड ने इसे 'श्वेत जाति का दायित्व' कहा। इटली ने भी नवीन साम्राज्यवाद को 'पुनौत कर्तव्य' माना। नवीन साम्राज्यवाद के परिणामस्वरूप 19वीं शताब्दी के अन्त तक एशिया और अफ्रीका के अविकसित अधिकांश देशों पर यूरोपीय राज्यों का प्रभाव दृष्टिगोचर हुआ।

साम्राज्यवाद के उदय के कारण-

नवीन साम्राज्यवाद के उदय के निम्नलिखित कारण थे-

1. आर्थिक कारण-

1870 ई. तक तथा इसके पश्चात् यूरोपीय राज्यों में अभूतपूर्व औद्योगिक विकास हुआ। औद्योगिक विकास के फलस्वरूप प्रत्येक देश में उत्पादन इतना अधिक बढ़ गया कि उसे अपने ही देश में खपाना कठिन हो गया। अतः तैयार माल को खपाने के लिए ऐसे बाजारों की आवश्यकता हुई जिन पर औद्योगिक देश अपना एकाधिकार रख सके। इसके अतिरिक्त, औद्योगिक उत्पादन के लिए कच्चे माल की माँग भी बढ़ती रही थी। अतः औद्योगिक देश ऐसे उपनिवेशों पर अधिकार करने का प्रयत्न करने लगे जहाँ से उन्हें पर्याप्त मात्रा में सस्ते मूल्य पर कच्चा माल मिल सके तथा इन उपनिवेशों से खाद्यान्नों की मांग भी पूरी की जा सके। इस अवधि में यातायात एवं संचार साधनों में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए जिसमें उपनिवेशों को प्राप्त करने की आकांक्षा को बल मिला। यातायात के शीघ्रगामी सुविधा के कारण दूर-दूर के देशों से व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करना सम्भव हो गया।

2. जनसंख्या में वृद्धि-

19वीं शताब्दी के अन्त तक औद्योगिकरण की माँग के अनुरूप जनसंख्या में काफी वृद्धि हुई। एक अनुमान के अनुसार 1890-1914 ई. के बीच यूरोप की आबादी बढ़कर 45 करोड़ हो गयी। ब्रिटेन तथा स्केंडीनेवियाई देशों में आबादी में तीन गुनी वृद्धि हुई । जर्मनी, नीदरलैण्ड, आस्ट्रिया-हंगरी और इटली की आबादी दुगुनी हो गई। इस बढ़ती हुई आबादी को रोजगार देने तथा आन्तरिक आबादी को बसाने की समस्या दिनों-दिन गम्भीर होती जा रही थी। अत: बड़े-बड़े राज्यों ने अपनी अतिरिक्त जनसंख्या को बसाने और उन्हें रोजगार देने के लिए उपनिवेशों पर अधिकार स्थापित करना प्रारम्भ कर दिया। इन उपनिवेशों में बहुत से लोग सैनिकों के रूप में तथा अनेक प्रशासनिक अधिकारियों के रूप में जाकर रहने लगे तथा कुछ लोग अपने-अपने उद्योग एवं व्यापार के विस्तार के लिए वहाँ बसे गये।

3. राजनीतिक कारण-

वस्तुतः राजनीतिक और आर्थिक उद्देश्यों के संयुक्त प्रभाव के कारण ही नये साम्राजयवाद का विकास हुआ था। अनेक यूरोपीय राज्यों में राष्ट्रीयता की भावना के फलस्वरूप राष्ट्रीय गौरव एवं प्रतिष्ठा बढ़ाने की आकांक्षा प्रबल हो उठी। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यूरोप के अनेक प्रमुख देशों में कुछ ऐसे राष्ट्रवादी राजनीतिज्ञ, लेखक, विचारक और अर्थशास्त्री हुए जिन्होंने राष्ट्रीय गौरव, राष्ट्रीय सुरक्षा और आत्मनिर्भरता की दृष्टि से औपनिवेशिक विस्तार की नीति को प्रोत्साहित किया व उसका प्रचार किया। ब्रिटेन फ्रांस पुर्तगाल, बेल्जियम, इटली जैसे कुछ राज्यों में जिनका औद्योगिक विकास अपेक्षाकृत कम हुआ था जिन्हें मंडियों को विशेष आवश्यकता न थी ने मूल रूप से राजनीतिक उद्देश्यों से ही औपनिवेशिक विस्तार किया गया। इटली ने राष्ट्रीय गौरव की भावना के कारण ही लीबिया में उपनिवेश स्थापित किया था।

4. साहसिक व्यक्तियों का योगदन-

साहसिक व्यक्तियों तथा खोजकर्ताओं के कार्यों से भी औपनिवेशिक विस्तार को बल प्राप्त हुआ। कुछ प्रमुख प्रशासकों एवं सेनानायकों ने भी उपनिवेश स्थापना के कार्य को राष्ट्रीय दायित्व मानकर बड़े उत्साह, लगन एवं निष्ठा से उस दायित्व को पूरा करने का प्रयास किया। वास्तव में इन व्यक्तियों की सेवाओं के बिना अफ्रीका में यूरोपीय राज्यों के साम्राज्य का विस्तार एवं दृढ़ीकरण सम्भव भी नहीं हो पाता। यूरोपीय राज्यों ने अपनी सैनिक शक्ति में वृद्धि करने के उद्देश्य से तथा नौसेना के लिए उपर्युक्त स्थलों एवं सामरिक महत्त्व के स्थानों पर अधिकार करने का प्रयास किया।

5. ईसाई धर्म-प्रचारकों का योगदान-

ईसाई धर्म प्रचारकों ने अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करने तथा पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव बढ़ाने के उद्देश्य से नये साम्राज्यवाद के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इंग्लैण्ड के डॉक्टर लिविंगस्टन ने लगभग 20 वर्षों तक अफ्रीका के आन्तरिक प्रदेशों और कांगो नदियों के क्षेत्र की खोज की। 1873 ई. में अपनी मृत्यु से पहले उसने देशवासियों को यह संदेश भेजा कि अफ्रीका की भूमि उनके व्यापार और ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ राजनीतिक एवं आर्थिक साम्राज्य के विस्तार के लिए बहुत उपयुक्त है। फ्रांस के तृतीय गणराज्य के काल में फ्रांसीसी कैथोलिक पादिरयों ने ईसाई मत के प्रचार के साथ-साथ फ्रांस के औपनिवेशिक विस्तार के लिए पृष्ठिभूमि तैयार की। इस प्रकार ईसाई धर्म प्रचारकों ने ईसाई मत के प्रचार और मानवता के उद्धार के नाम पर साम्राज्यवाद के विस्तार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था।

6. साम्राज्यों की रक्षा अथवा साम्राज्यवादी देशों द्वारा बल प्रयोग-

अनेक साम्राज्यवादी यूरोपीय देशों ने एशिया और अफ्रीका के कुछ प्रदेशों पर उनके सैनिक या सामरिक महत्त्व के कारण अधिकार कर लिया, जैसा कि इंग्लैण्ड ने पोर्ट सईद, हांग-कांग, सिंगापुर और साइप्रस पर अपनी रक्षा के लिए कहीं अपितु प्रतिस्पर्धी राष्ट्रों ने अपने विजित प्रदेशों और व्यापारों की रक्षा के लिए अधिकार किया था। उसने इन सब बन्दरगाहों पर अपने नौ सैनिक अड्डे स्थापित किये तथा जहाजों के कोयला लेने के स्टेशन भी बनाए। इस प्रकार उसने अपनी समुद्रव्यापार की शक्ति को मजबूत बनाया। प्रतिद्वन्द्वी राष्ट्रों ने अन्य स्थानों पर इसी प्रकार के अड्डे स्थापित किये।

7. जनशक्ति प्राप्त करना-

साम्राज्यवादी यूरोपीय देशों ने इसलिए भी उपनिवेश स्थापित किए ताकि वे उनसे जनशक्ति प्राप्त कर लें। औपनिवेशिक देशों के निवासियों को सेना में भर्ती किया जाता था। उपनिवेशों के निवासियों में से कुछ दूसरे उपनिवेशों में भी यूरोपीय स्वामियों के खेतों पर अथवा खानों में नियत वर्षों तक काम करने के लिए ठेके पर ले जाये जाते थे।

8. सभ्य बनाने का अभियान-

यूरोप के बहुत-से निवासियों के मत मैं साम्राज्यवादी विस्तार बड़ी उत्तमता का कार्य था। वे साम्राज्यवाद को संसार में पिछड़े हुए लोगों को सभ्य बनाने का श्रेष्ठ साधन समझते थे। रुडयार्ड किपलिंग नाम के इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध लेखक ने अपने देशवासियों से कहा था कि असभ्य जातियों को सभ्य बनाने का भार खुशी से सम्भालना चाहिए। इसे उसने श्वेत जातियों का भार कहा । फ्रांस के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ जूल्स फैरी ने भी लिखा " श्रेष्ठ जातियों का यह कर्त्तव्य है कि वे अपने से हीन जातियों को सभ्य बनाएँ।"

9. दास प्रथा-

कुछ साम्राज्यवादी देशों ने अफ्रीका व एशिया में जाकर वहाँ के लोगों को दास बना लिया और उन्हें पुर्तगाल तथा अमरीका में बेचकर बहुत धन कमाया। जो लोग अफ्रीका व एशिया के दास खरीदते थे वे उनसे शारीरिक श्रम तथा कठोर कार्य करा करके स्वयं मध्यकालीन सामन्तों की तरह ठाठ-बाट से रह सकते थे। इन दास व्यापारियों तथा दासों के शोषण से ऐशो आराम का जीवन व्यतीत करने वाले लोगों ने भी साम्राज्यवाद के प्रसार में मदद दी।

इस प्रकार उपर्युक्त कारणों के परिणामस्वरूप एशिया व अफ्रीका में साम्राज्यवाद का प्रसार हुआ।

साम्राज्यवाद के परिणाम-

साम्राज्यवाद एक बुराई है। इसकी कहानी अत्याचार, पाशविकता और शस्त्रशक्ति के प्रयोग की कहानी है। साम्राज्यवाद से पराधीन राष्ट्रों की स्थिति शोचनीय हो गई उन्हें किसी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे। वास्तव में साम्राज्यवाद पराधीन राष्ट्रों के लिए अभिशाप सिद्ध हुआ। परन्तु साम्राज्यवाद के समर्थक इसके अच्छे प्रभावों की ओर संकेत करते हैं। साम्राज्यवाद के परिणामों का उल्लेख निम्न प्रकार से किया जा सकता है-

साम्राज्यवाद के अच्छे प्रभाव या परिणाम

साम्राज्यवाद के अच्छे परिणामों का उल्लेख निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है-

1. पिछड़े हुए देशों की भौतिक तथा आर्थिक प्रगति-

यूरोप के साम्राज्यवादी देशों से अपने-अपने उपनिवेशों में बसने के उपरान्त वहाँ कई परिस्थितियों से विवश होकर अपने स्वार्थ के लिए अनेक कार्य जाने-अनजाने में किये जिससे उपनिवेश देशों में औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन मिला उदाहरण के लिए साम्राज्यवादी राष्ट्रों ने यातायात के साधनों एवं दूर संचार के साधनों का विकास किया।

2. राष्ट्रीय भावनाओं का उदय-

साम्राज्यवादियों ने अपने-अपने उपनिवेशों का खूब जी भर कर आर्थिक शोषण किया। वहाँ के लोगों की दरिद्रता, भुखमरी तथा बेकारी को दूर करने के लिए उन्होंने कोई कदम नहीं उठाया। वहाँ के लोगों के प्रति जातीय तथा रंगभेद को नीति अपनायी। उन लोगों की प्राचीन सभ्यतासंस्कृति को नष्ट किया। साम्राज्यवादी राष्ट्रों के शोषण के कारण उपनिवेश राष्ट्रों में असन्तोष बढ़ गया। कालान्तर में राष्ट्रीयता की भावना विकसित हुई परिणामस्वरूप उपनिवेश राष्ट्रों ने साम्राज्यवादी राष्ट्रों के विरुद्ध आन्दोलन करना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार साम्राज्यवाद के कारण उपनिवेश राहों में स्वतन्त्रता की भावना का प्रसार हुआ।

3. पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार-

यूरोप के साम्राज्यवादी देशों ने अपने उपनिवेशों में प्रशासनिक कार्यों का संचालन करने के लिए स्थानीय लोगों का सहयोग प्राप्त किया। उन्होंने उपनिवेश में शिक्षा का प्रचार व प्रसार ताकि उन्हें सस्ते दर पर क्लर्क एवं अन्य कर्मचारी आसानी से मिल सके। साम्राज्यवादी राष्ट्रों का कार्य निजी स्वार्थ की भावना से परिपूर्ण था परन्तु इसका उपनिवेश जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ा। जनता शिक्षित हो गई परिणामस्वरूप उपनिवेश देशों में स्वतन्त्रता, समानता भाईचारे की भावना का प्रसार हुआ।

4. सभ्यता का विकास-

साम्राज्यवाद के कारण अफ्रीका व एशिया के देशों में सभ्यतासंस्कृति का प्रसार हुआ। साम्राज्यवादी राष्ट्रों के सम्पर्क से उपनिवेश राष्ट्रों में छापेखाने का विकास हुआ तथा नई शैली की वास्तुकला का विकास हुआ। यातायात व दूर संचार के आधुनिक साधनों का भी विकास हुआ।

साम्राज्यवाद के दुष्परिणाम-

 साम्राज्यवाद के दुष्परिणामों का उल्लेख निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है

1. धन की लूट-

साम्राज्यवादी शासन के कारण एशिया तथा अफ्रीका की समस्यायें बढ़ गयीं। इन महाद्वीपों के उन सभी देशों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा क्योंकि साम्राज्यवादी राष्ट्रों ने कच्चा माल सस्ती दर पर क्रय किया तथा तैयार माल को मंहगी दर पर उपनिवेश राष्ट्रों में बेचा जिससे इन देशों की आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ा। साम्राज्यवादी राष्ट्रों ने भूमिकर अन्य करों के रूप में बड़ी मात्रा में धन वसूल किया फलस्वरूप साम्राज्यवाद के चंगुल में फँसे देश पहले की अपेक्षा अधिक निर्धन होते चले गये।

2. जातिपरक भेदभाव-

यूरोपवालों का विश्वास था कि उनकी जाति एशिया और अफ्रीका वालों की जाति से श्रेष्ठ है और ईश्वर ने उन्हें इस विश्व में अन्य हीन जातियों पर शासन करने के लिए भेजा है। इसलिए वे अपने उपनिवेशों के निवासियों से बिल्कुल अलग होकर रहे । व्यापार और शासन में एशिया और अफ्रीका के निवासियों को उच्च पदों पर नियुक्त नहीं किया गया। उन्होंने उपनिवेश जनता पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध लगाये। यूरोपवासियों ने उपनिवेशों की जनता को मौलिक अधिकारों से वंचित रखा जिसके कारण इन देशों की जनता के हृदय में यूरोपवासियों के व्यवहार की कटुता बढ़ गई।

3. सांस्कृतिक पतन-

साम्राज्यवादी देशों ने उपनिवेशों के भोले-भाले लोगों को प्रलोभन देकर ईसाई बनाया। कई बार लोगों का जबरदस्ती भी धर्म परिवर्तन कर दिया गया। उन पर जबरदस्ती पश्चिमी भाषा, साहित्य, कला, शैलियाँ, संगीत, रहन-सहन तथा खान-पान के ढंग थोप दिये गये। कई स्थानों पर नैतिकता के सभी मूल्यों को ताक पर रखकर उपनिवेशों की जनता में या जाति तथा क्षेत्र के आधार पर फूट डाली गयी ताकि साम्राज्यवादी सरकारें अपने प्रशासन को बनाये रख सके।

4. भयंकर युद्ध तथा लड़ाइयाँ-

साम्राज्यवाद के उदय एवं प्रसार के साथ-साथ साम्राज्यवादी देशों में कई बार युद्ध तथा लड़ाइयाँ हुई । उदाहरण के लिए जापान रूस में युद्ध हुआ। साम्राज्यवादी राष्ट्रों में एक स्थान पर उत्पन्न युद्ध की स्थिति पूरे विश्व में फैल जाती थी क्योंकि जहाँ-तहाँ इनके उपनिवेश होते थे वहाँ भी युद्ध शुरू हो जाता था। प्रथम महायुद्ध का प्रमुख कारण साम्राज्यवाद ही था।

5. स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए लम्बे संघर्ष-

उपनिवेशों की जनता ने, जिन्हें साम्राज्यवादी शक्तियाँ अपना दास बनाना चाहती थी, हर कदम पर उनसे संघर्ष किया। जब साम्राज्यवादी शक्तियों ने इन प्रदेशों पर पूर्ण अधिकार कर लिया तब भी ये विदेशी शासक शान्ति से नहीं रह सके। पराजित जनता ने विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए ही आन्दोलन नहीं चलाये अपितु अपने देशों को आधुनिक राष्ट्रों के रूप में बदलने के लिए भी आन्दोलन चलाये। इस प्रकार से साम्राज्यवाद के विरुद्ध इन आन्दोलनों का स्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय था। एक देश के निवासियों ने जो स्वयं साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे, दूसरे देशों में संघर्ष करने वाली जनता की सहायता की। साम्राज्यवादी देशों ने अपने उपनिवेशों पर दूसरे महायुद्ध तक कब्जा किये रखा। किन्तु युद्ध के पश्चात् करीब दो दशकों में ही दशकों में ही अधिकतर देश स्वतन्त्र होने में सफल हो गये।

इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि साम्राज्यवाद के अच्छे प्रभावों की अपेक्षा बुरे प्रभाव अधिक पड़े। साम्राज्यवाद के कारण उपनिवेश जनता को लम्बे समय तक शोषण का शिकार होना पड़ा। उपनिवेश देशों का आर्थिक दृष्टि से ही नहीं अपितु सांस्कृतिक दृष्टि से भी पतन हुआ।

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