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नव पाषाण काल

नवपाषाण काल (Neolithic Period)

पुरातात्विक शब्दावली में पुरापाषाण और मध्यपाषाण युग के बाद नवपाषाण युग (Neolithic Period) का आगमन होता है। इसका काल विस्तार 6 हजार वर्षों में लगभग 12 हजार वर्ष पूर्व से लेकर 6 हजार वर्ष पूर्व के बीच फैला हुआ है। प्राचीन पाषाण काल या पुरापाषाण काल से भिन्नता स्थापित करने के लिए 1865 में पुरातत्ववेत्ता जॉन लुब्बॉक (Lubbock) ने नवपाषाण युग की अवधारणा सामने रखी। 'नियोलिथिक (Neolithic) शब्द दो यूनानी शब्दों नियो (अर्थात नया या नव) और लिथोस (मतलब पत्थर या पाषाण) से मिलकर बना है।

बीसवीं शताब्दी के मध्य तक नवपाषाण युग शब्द नए परिष्कृत और चमकदार औजारों के उपयोग के काल के रूप में देखा जाता था परंतु यह शब्द केवल नए औजारों के उपयोग तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह शिकारी-संग्रहकर्ताओं के जीवन में होने वाले परिवर्तन को भी उद्योतित करता है। पौधों को उगाया जाना और पशुओं को पाला जाना तथा खेती पर लगभग पूर्ण निर्भरता, जनसंख्या में वृद्धि बस्तियों के आकार में वृद्धि, मिट्टी के बर्तनों का उपयोग और कपड़े की बुनाई, व्यापक पैमाने पर होने वाला सामाजिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान नवपाषाण युग की कुछ प्रमुख विशेषताएं हैं। दुनिया के तमाम समाजों में नवपाषाण युग के बाद जटिल समाज और सभ्यता का जन्म हुआ।

नवपाषाण शब्द उस काल को सूचित करता है जब मनुष्य को धातु के बारे में जानकारी नहीं थी। परन्तु उसने स्थायी निवास, पशु-पालन, कृषि कर्म, चाक पर निर्मित मृदभांड बनाने शुरू कर दिए थे। इस काल की जलवायु लगभग आज कल के समान थी इसलिए ऐसे पौधे पैदा हुए जो लगभग आज गेंहू तथा जौ के समान थे। मानव ने उनमें से दाने निकालकर भोजन के रुप में प्रयुक्त करना शुरू कर दिया और पकने के विषय में भी जानकारी एकत्रित की। इस प्रकार स्थाई निवास की शुरूआत हुई। जिस कारण पशुपालन और कृषि कर्म को प्रोत्साहन मिला। कृषि और पशुपालन दोनों एक-दूसरे के पूरक है।

दुनिया में कृषि की शुरूआत के क्रांतिकारी महत्व को उजागर करने के लिए वी गॉर्डन चाइल्ड ने अपनी पुस्तक मैन मेक्स हिमसेल्फ (1936) में 'नवपाषाण क्रांति' संज्ञा का इस्तेमाल किया था। उनके अनुसार आरंभिक होलोसिन के विकट जलवायु संकट को पार करते हुए इस युग में मनुष्य ने प्रकृति को अपना सहचर बनाया न कि प्रकृति पर परजीवी की तरह चिपक गया। अद्यतन अनुसंधानों से यह साबित हो चुका है कि जलवायु में परिवर्तन न तो अचानक हुआ और न ही आमूल चूल हिमाच्छादन के अंतिम समय में तापमान धीरे-धीरे बढ़ने लगा। पश्चिम एशिया में जलवायु नव-थर्मल यानी न अधिक गर्म और न अधिक ठंडा था। 

ऑफर बार-यूसेफ (Ofer bar- Yosef) जैसे विद्वानों ने यह दिखाया है कि परवर्ती हिमाच्छादन गर्माहट लगातार ठंडे से गर्म और सूखे से नमी की ओर चरणबद्ध तरीके से नहीं बढ़ा बल्कि बर्फ की परतों के पिघलने पर मौसम में उतार-चढ़ाव होने लगता था। लगभग 10000 साल पहले जलवायु धीरे-धीरे गर्म होती चली गई। जलवायु परिवर्तन से कभी कोई संकट पैदा नहीं हुआ परंतु जीवनयापन की शैली पर इसका दूरगामी प्रभाव पड़ा।

तकनीकी विकास और औजार

नवपाषाण संस्कृति समाज में हुए निम्न परिवर्तन को दर्शाता है। तकनीकी तौर पर मुख्य परिवर्तन यह हुआ कि इस काल के मानव ने औजार को घर्षित कर उन्हें पालिश करके चमकदार बना दिया। आर्थिक तौर पर परिवर्तन यह हुआ कि इस काल का मानव खाद्य संग्रहकर्ता से खाद्य उत्पादनकर्ता बन गया। नवपाषाण स्तर पर धातुक्रम के व्यापक संकेत नहीं मिलते, वास्तविक नवपाषाण काल धातुरहित माना जाता है। जहां कहीं नवपाषाण स्तर पर धातु की सीमित मात्रा दिखाई दी उस काल को पुरातत्वेताओं ने ताम्रपाषाण काल की संज्ञा दी है।

इस काल के मानव ने नई तकनीक से औजार का विकास किया जिन्हें घिसकर तथा पालिश करके चमकदार बना दिया गया। औजार बनाने के लिए सर्वप्रथम पत्थर के फलक उतारे जाते थे, दूसरी अवस्था में उसके ऊबड़-खाबड़ उभारों को साफ किया जाता था इसे पैकिंग कहा जाता था। तृतीय अवस्था में उस औजार को किसी बड़े पत्थर या चट्टान से घिसकर साफ किया जाता था तथा उसके किनारों को घर्षित कर तीखा किया जाता था। अंतिम अवस्था में उन पर पशुओं की चर्बी या वनस्पति के तेल से पालिश करके चिकना किया जाता था। इस प्रकार नवपाषाणकाल के मानव में चिकने-चमकदार तथा सुडौल औजार बनाए। जिनमें कुल्हाड़ियाँ, छैनियां, हथौड़, बसौले, इत्यादि प्रमुख है। इसके अतिरिक्त हल, दाने अलग करने का औजार (गिरड़ी) तथा ब्लेड इत्यादि थे। ये औजार कृषि कर्म में उपयुक्त होने के अतिरिक्त गहकार्यों में भी प्रयोग किए जाते थे।

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नव पाषाण काल

इस काल में आए मानव के जीवन ने इन महत्वपूर्ण परिवर्तनों को कई विद्वानों जैसे कि गार्डन चाइल्ड ने नवपाषाण क्रांति की संज्ञा दी है। क्योंकि पाषाण काल के मानव की अपेक्षा इस काल के मानव में मूलभूत परिवर्तन हुए। पहले के काल में वह घुमक्कड़ था। इस काल में उसके जीवन में स्थायित्व आ गया। पहले वह खाद्य सामग्री के लिए प्रकृति पर निर्भर था इस काल में स्वयं अन्न उत्पादन करने लगा। मानव के जीवन में ये परिवर्तन अचानक से नहीं हुए बल्कि इन परिवर्तनों के प्रारंभिक स्वरुपों की शुरूआत पुरापाषाण काल एवम् नवपाषाण काल के बीच देखने को मिलती है।

इस काल से पूर्व पुरापाषाण काल तक की संस्कृतियों का स्वरुप जिस प्रकार अफ्रीका, यूरोप और एशिया के विभिन्न स्थलों पर एक समान दिखाई देता है, वैसा हमें नवपाषाण काल में देखने को नहीं मिलता। नवपाषाण संस्कृति के विकास की प्रकिया विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग समयों पर हुई। इस काल की पहली अवस्था को मृदभांड रहित नवपाषाण कहा गया क्योंकि इस काल में मृदभांड कला की शुरूआत नहीं हुई थी। मृदभांड रहित नवपाषाण के प्रमाण हमें जार्डन घाटी स्थित जैरिको, ऐन-गजल, हसिलियार मेरेयबिर, बीघा, मेहरगढ़ (पाकिस्तान) तथा गुफ्कराल (कश्मीर, भारत) इत्यादि से मिलते हैं। इस संस्कृति का प्रांरभ ई० पू० के आसपास हुआ। इनमें सबसे महत्वपूर्ण स्थल जेरिको था, जहाँ सर्वप्रथम इस संस्कृति का विकास हुआ। इसके अतिरिक्त मृदभांड सहित नवपाषाण काल के प्रमाण भी इन्हीं क्षेत्रों से मिलते है; जो अपेक्षाकृत पहले के है।

तृतीय अवस्था के प्रमाण हमें स्यिालक, फांयूम तथा (जो कैरो के समीप मिस्र में स्थित है, जारमों मेसोपोटामिया) इत्यादि ये मिलते हैं। यूरोप में अल्पस पर्वत श्रृंखला के उत्तर में नवपाषाण संस्कृति के प्रमाण बाद के काल के हैं और यह संस्कृति भी निम्न स्तर की है। मध्य यूराप में ड्रेवे से बाल्टिक तथा डेन्यूब और विस्तुला के मध्य क्षेत्र में इस संस्कृति के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। यहाँ से गेहूँ और जौ की कृषि एवम् पत्थर के औजार तथा पशुपालन के अवशेष प्राप्त हुए हैं। जर्मनी के राइनलैंड में शंख के बने आभूषण प्राप्त हुए हैं। कोल्न लिन्डस्थल के समीप एक विशाल घर के प्रमाण मिले हैं संभवतः यह पूरे समुदाय के लिए था। डेन्यूब से प्राप्त मृदभांडों पर चित्रकारी के प्रमाण मिलते है। इसी प्रकार स्विटजरलैंड, बेल्जियम तथा ब्रिटेन में रेशेदार पौधे और अन्न पैदा किए जाने के भी प्रमाण मिलते हैं। स्विजरलैंड स्थित नवपाषण कालीन मानव झील में लकड़ी के खंबे गाड़कर उन पर अपना निवास स्थान बनाता था।

नवपाषाण कालीन संस्कृति का विस्तार

प्रथम चरण-

भारतीय उपमहाद्वीप में कृषि पर आधारित जीवन (जिसमें गेंहू, जौ, भेड़ बकरी, पशु इत्यादि की भूमिका हो) सर्वप्रथम ब्लूचिस्तान के कूच्ची मैदानें में बोलन नदी (Bolan river) पर प्राप्त हुए है जिन्हें हम 7000 ई. पूर्व मान सकते हैं। इसके बाद भी अगली दो या तीन सहस्त्राब्दियों में यह प्रमाण ब्लूचिस्तान तक ही सीमित रहे। परन्तु इसके बाद प्रमाण झोब घाटी (Zhob Valley), क्वेटा घाटी (Quetta Valley) कलात पठार (Kalat plateau), लास बेला (Las Bela) मैदान इत्यादि में सीमित रहे।

मेहरगढ़ के काल प्रथम (7000-6000 ई. पूर्व) में जौ जंगली तथा पैदा किए गए प्राप्त होते हैं। जबकि गेंहू के कम प्रमाण मात्रा में प्राप्त हुई है। इसके अतिरिक्त जंगली भेड़ बकरी गधा, हिरण, साभर तथा चितल, पानी की भैंस इत्यादि के साथ-2 इन्हे पालने के प्रमाण इन में भेड़ तथा पशुओं से घटते आधार से मिलते हैं। इस काल में मृदभांड बनाने का प्रमाण नहीं है (Aceramic Neolithic)। मृदभांड यहां काल IIA में उपलब्ध होने शुरू होते है तो हाथ से बने हैं। मेहरगढ़ जैसी इस संस्कृति के प्रमाण हमें क्वेटा घाटी में किले गुल मुहम्मद (Kile Gul Mohammad) के काल प्रथम (5000-4500 ई. पूर्व) से, झोब घाटी में राणा घुण्डाई (Rana Ghundai) के काल प्रथम से (4500-4300 ई. पूर्व कलात पठार में अंजीरा के काल प्रथम से भी हमें अद्धघुम्मकड़) लोगों के प्रमाण मिलते हैं। जो पशु इत्यादि पालते थे।

उत्तर पश्चिमी भारत :- जहां तक भारत का प्रश्न है यहां पर उत्तर पश्चिमी भारत में काश्मीर के पुलवामा (Pulwama) जिले के गुफकराल (Gufkral) नामक स्थान से सर्व प्रथम हमें नवपाषाण काल के प्रारम्भिक काल के प्रमाण मिलते हैं। यहां से प्राप्त काल-IA मृदभांड रहित नवपाषाण है जिसमें उस काल में जमीन मे गड्ढे खोद कर रहता था (Pit dwellings)। जो ऊपर से 150 मीटर से 3.80 मीटर व्यास के थे। प्रारम्भिक काल में ये अधिक गहरे नहीं थे तथा इनके आसपास अनाज संग्रहण के गड्ढे (Pits) तथा चुल्हे थे। इन पर घास फूस की छत्त बनाई जाती थी। जबकि इसके अगले चरण में दो चैम्बर (Two Chambered) रहने के गड्ढे भी बनने लगे थे। इस काल के चुल्हे आयताकार तथा वृताकार दोनों प्रकार के थे।

उपकरण :- इस काल में गुफकराल में रहने वाले पत्थर के पालिश दास उपकरणों का प्रयोग करते थे जिनमें कुल्हाड़ियां, प्वांइटस (Points), एक टूटा हुआ छेद वाला गोलाकार (ringstone) उपकरण, बड़ी सिल जो कि बट्टे के घिसने से बीच से घिस चुकी थी। इसके अतिरिक्त हड्डी पर बने प्वाइंटज (Points) तीराग्र, सूए, खुरचनीयां (Sirapers) के साथ-2 आंख वाली एक सूई इत्यादि प्राप्त हुई। आलंकरणों में यहां से सिलन्डरनुमा हड्डी का मण्का (bead), दो सेलखडी के जिनमें एक बैरल आकार का (barrel shaped) तथा एक सिलण्डरनुमा था, प्राप्त हुए हैं।

पशु :- इस काल में मानव मुख्यतः जंगली शिकार पर आश्रित था तथा पालतु प्रजाति के पशुओं का केवल प्रारम्भ ही हुआ था। जंगली जानवरों मे भेड़, बकरी, पशु (Cattle) बारहसिंगा, लोमड़ी, हिरण की कई प्रजातियां थी। पालतु जानवरों में केवल भेड़ तथा बकरी के प्रमाण मिलते हैं।

अनाज :- इस काल में मानव जंगली जौ तथा गेंहू इक्ट्ठा करता था तथा कुछ सीमित स्तर पर इन्हे उगाना भी प्रारम्भ कर दिया था। इसके अतिरिक्त मसूर के प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त उत्तरप्रदेश की बेलन घाटी (Belan Valley) के कोल्डीहवा (Koldihwa) नामक स्थान से भी नवपाषाण से पहले मध्य पाषाण काल जंगली चावल के प्रमाण प्राप्त हुए बताए गए हैं। इसी तरह नवपाषाण में भी यहां चावल उपजाए जाने के प्रमाण हैं। यद्यपि यहां की तिथियों के बारे में तो विद्यवानों में मतभेद है। परन्तु एक अन्य स्थल चोपानी मान्डो (Chopani Mando) से भी जंगली चावल के प्रमाण प्राप्त हुए है। इसी तरह विन्धय क्षेत्र के एक अन्य स्थल कुन्झुन (Kunjhun) से नवपाषाण के कुछ ऐसे प्रमाण मिले हैं। इस से यह तो तय है कि इस क्षेत्र में सर्वप्रथम चावल जंगली अवस्था में स्वयं उगे मिलते थे तथा बाद में उनकी पैदावार शुरू कर दी गई क्योंकि कोल्डीहवा के धातु रहित (Metal free) स्तर से इस तरह के प्रमाण प्राप्त हुए है जबकि यहां मानव घास फूस पर गारा लगी दिवारों (Wattle and daub) वाले घरों में रहता था। पालिशवार कुल्हाड़ियों के साथ लप्पपाषाण उपकरण प्रयोग करता था। यहां हाथ से बनाई मृदभांडं (Pottery) के प्रमाण हैं जो कि ताम्राष्मीय संस्कृति से पहले के हैं।

द्वितीय चरण-

नवपाषाण काल की द्वितीय अवस्था में मानव ने कृषि कार्य पूरी तरह से शुरू कर दिया था तथा एक स्थान पर रहना, पशु पालना, मृदभांड कला का विकास इत्यादि प्रारम्भ को गया था। इस काल में मानव भोजन उत्पादक हो चुका था परन्तु इसके साथ- 2 वह थोड़ा बहुत जंगली जानवरों का शिकार भी करने लगा था। भारतीय उपमहाद्वीप में नवपाषाण की यह अवस्था सबसे प्राचीन मेहरगढ़ में ही प्राप्त होती है। यहां के काल प्रथम में मानव ने कच्ची ईंटों के घरों में रहना प्रारम्भ कर दिया था, नवपाषाण कालीन पालिशदार उपकरणों जैसे कुल्हाड़ियों, बसलों, छैनियों, हथौड़ों के साथ-साथ लघु पाषाणीय उपकरण भी प्रयोग करता था। काल IIA में हाथ से बनी टोकरी से बने मृदभांड बनने शुरू हो गए II-C में चाक पर बने बतर्न बनने शुरू हो गए जिन पर काली धारियों वाले डिजाइन बनने लगे। कृषि के लिए इस काल में सिंचाई का प्रारम्भ भी होने लगा।

उत्तर-पश्चिमी भारत :- भारत में नवपाषाण काल के कई क्षेत्र हैं जिनमे सबसे महत्वपूर्ण है उत्तरपश्चिमी भारत के गुफाकराल तथा बुर्जहोम (काश्मीर)। इन दोनों स्थलों पर मानव जमीन में गडे खोद कर रहता था पालिश दार पाषाण उपकरणों के साथ-2 हड्डियों के बने सुए (awls), सुइयां (needles), तीराग्र, छैनियां, हारपून (Harpoon) इत्यादि प्रयोग करता था। मृदभांड कला का प्रारम्भ इस काल में हो गया था। इस काल के दूसरे उपकाल में मानव ने गडडों (Pit dwellings) में रहना छोड़ कर मिट्टी तथा मिट्टी की ईंटों के घर बनाने प्रारम्भ कर दिए। चाक का प्रारम्भ होने से चाक पर बने बर्तन बनने लगे। बुर्जहोम से मिले एक बर्तन पर तो बैल के सिर वाले देव का चित्रण है जिस तरह का गुमला (Gumla) तथा कोटदीजि (Kot Diji) से प्राप्त हुआ है। खेती इस काल में पहले से अधिक होने लगी थी।

मुख्य फसलों में जौ, गेंहू, मटर, मसूर इत्यादि थे। पशु में भेड़, बकरी, गाय, भैंस, बटेर (fowl) थे। परन्तु अब भी कुछ शिकारी जानवरों को मार कर भोजन के लिए प्रयुक्त किया जाता था। इस काल में मानव अपने मृतकों को दबाता था तथा इनके साथ कभी-2 कुत्ते, बकरी इत्यादि भी दबाए जाते थे पशुओं को अलग से दबाने के प्रमाण भी मिलते हैं। बुर्जहोम से एक स्थान पर 5 जंगली कुत्ते, एक बाराहसिंगा दबा मिला। पशु एवं मानव दोनों ही रिहाइसी क्षेत्रों में दफनाए जाते थे। बुर्जहोम में पाषाण काल की इस अवस्था की तिथि 2400-1400 ई. पूर्व मिलती है। जबकि गुफकराल (Gufkral) में भी यह काल इसी के आसपास का है।

उत्तर पूर्वी भारत में नवपाषाण के प्रमाण हमें आसाम मेघालय इत्यादि की गारो, खासी तथा जयनतिया पर्वत क्षेत्रों से प्राप्त होते हैं। इसके अतिरिक्त देवजली हडिंग (Deojali Hading) थे उत्खनन से भी नवपाषाण उपकरण प्राप्त हुए है। इसके अतिरिकत सर्वेक्षण से भी पालिशदार नवपाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं। उत्तरी पूर्वी भारत में नवपाषाण दक्षिणी पूर्वी एशिया तथा चीन के नवपाषाण से प्रभावित है। इसकी तिथि 4000-2000 ई. पूर्व आंकी गई है।

पूवी भारत :- पूर्वी भारत में बंगाल बिहार उड़िसा से हमें न केवल सर्वेक्षण से बल्कि उत्खननों से भी नवपाषाण काल के प्रमाण मिले हैं। पश्चिमी बंगाल के मिदनापुर (Midnapur) जिले के तमलुक (Tamluk) उड़िसा के म्युरभंज जिले के कुचई (Kuchai) तथा बिहार के चिरांद के उत्खनन से हमें इस काल के प्रमाण मिले हैं इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण चिरांद है जहां यह काल 2500 ई. पूर्व से 1650 ई. पूर्व के मध्य आंका गया है। यहां पर इस काल में लाल, काले, काले तथा लाल एवं पीले तथा गहरे धूसर मृदभांड प्रयुक्त होते थे।

पाषाण उपकरणों में पालिशदार हथौड़े, छैनियां, बसौसे, तीराग्र, भेदनिया, ड्रिल (Drill) खुरचनिया (Scrappens), तीरे सीधाने वाले उपकरण इत्यादि प्रयुक्त होते थे। तीरकमान में तीराग्र तथा पकी मिट्टी के फेंक कर मारने वाली गोलियों (balls) का प्रयोग होता था। कृषि कर्म यहां अधिक मात्रा में नहीं होता था क्योंकि अधिकता अधिकतर जंगली जानवरों के शिकार पर आधारित थी। परन्तु फिर भी गेहूं, मूंग, चावल इत्यादि पैदा करने के प्रमाण हैं। ये लोग सुन्दर मणके तथा हार (pendauts) इत्यादि बनाते थे जिनके लिए कीमती पत्थरों का प्रयोए होता था साथ ही फियांस (faience) तथा पकी मिट्टी की चूड़िया भी बनाई जाती थी। पकी मिट्टी के खिलौनों में बैल तथा पक्षि आकृतियां बनाई जाती थी। यहां सांप की पूजा भी की जाती थी क्योंकि यहां से बहुत सी पकी मिट्टी की सर्प आकृतियां मिली हैं जिनके सिर (hood) पर फूल इत्यादि रखने के लिए छेद बने थे। पाकिस्तान के गुमला तथा हथाला (Hathala) से भी प्रकार की आकृतियां प्राप्त हुई हैं जिससे हमें सर्प की पूजा के प्रमाण नवपाषाण काल से ही मिलते हैं।

दक्षिण भारत :- दक्षिण भारत में नवपाषाण काल में मानव कृषि तथा पशुपालन करता था। भारत के सभी क्षेत्रों में सर्वाधिक उत्खनित क्षेत्र यही पर है इनमें आंध्र के कोडेकाल, उत्नूर, नार्गाजुनीकोंडा, पलवाय, कर्नाटक के टेरडल, टेकलकोटा, हल्लूर, टी. नरसिंहपुर, ब्रह्मगीरि, पिकलीहल, तमिलनाडू के पैयम्पल्ली इत्यादि महत्त्वपूर्ण हैं। यहां से नवपाषाण की तिथि 2500-1000 ई. पूर्व के मध्य आंकी गई है। दक्षिणी भारत की नवपाषाण संस्कृति का विशेष स्वरुप है इसमें तीखे पिछले भाए वाली (Pointed Butt end) पालिशदार कुल्हाड़ियों के साथ हड्डियों के उपकरणों का पाया जाना। मृदभांडो में हाथ के बने धूसर बर्तन जोकि पिकलीहल (Piklihal) संगनकल्लु (Sangaukallu) तथा ब्रह्मगीरि (Brahmagiri) से प्राप्त हुए है मास्की से अधिकतर चाक पर बने बर्तन मिलते हैं, जो कि बाद के ही हैं।

इस काल में मानव पशु पालन भलीभांति करता था भैंस, भेड़, बकरी के पालने के प्रमाण हमें मिलते है। कृषि का कोई सीधा प्रमाण यहां नहीं मिलता परन्तु, सिलबट्टे, के दाने निकालने वाले मूसलों (Pounders) इत्यादि से इसका प्रमाण मिलता है। इसके अतिरिक्त नरकंकालों के घिसे दांत भी इसी ओर प्रमाण करते हैं। कुछ बर्तनों में भूसे तथा दानों के निशानों से यहां गेहुं, कुलथी, मूंग इत्यादि के प्रमाण मिलते हैं। परन्तु अधिकतर आर्थिकता पशुपालन पर आधारित थी। उत्नूर कोडेकाल, कुपगल से राख के अनेक टीले प्राप्त हुए हैं कुछ तो बस्तियों से दूर भी है। विद्वानों का मत है कि ये नवपाषाण कालीन पशुओं के बाड़ों के स्थल है जो कि गोबर के ढेरों को आग लगने से राख में परिर्वतित हो गए होंगे।

इस काल के लोग झोपड़ियों तथा घरों में रहते थे ब्रह्मगिरी, मास्की, पिकलीहल से लकड़ी के खम्बों से बनी गोलाकार झोंपड़ियों के प्रमाण हैं जबकि पिकलीहल से आयताकार या वर्गाकार झोंपड़ियों की दीवारे बांस के स्क्रीन दोनों ओर गारा लगाकर बनी है। फर्श गोबर या गारे से लीपे जाते थे यहां से चूने का प्रयोग होने के प्रमाण भी हैं। बाद में नवपाषाण कालीन मानव ने मिट्टी की या मिट्टी की ईंटों की दिवारों का भी प्रयोग घर बनाने के लिए किया। परन्तु प्राचीनतम घर या केवल फर्स इत्यादि थे जो कि चट्टान या कन्दराओं के सम्मुख बनाएगा।

पक्की मिट्टी की आकृतियों में कूबडदार बैल नवपाषाण काल के प्रथम चरण से ही मिलने लगते हैं जो कि हाथ से बने थे, इनकी कूबड़ (hump) तथा नाक अलग मिट्टी लगा कर बने थे। क्योंकि बैल का इनकी आर्थिकता में काफी योगदान था इसी कारण यह उनके धर्म का भी रहा। जिसकी शायद वे पूजा करते थे। मानव आकृतियों में एक काले धूसर रंग की अर्धनारीश्वर जैसी आकृअि महत्त्वपूर्ण है। नवपाषाण काल के तीन मानव कंकाल, जिनमें एक पुरुष, एक महिला तथा एक बच्चे का कंकाल है, से हमें उनके दफनाए जाने की प्रक्रिया का पता चलता है। पुरुष तथा स्त्री सीधे लिटाए गए थे जबकि बच्चा इनके साथ दफनाया गया था। इनके अध्यन से पता चलता है कि इस काल के मानव लम्बे, हृष्ठ पुष्ठ, मध्य आकार के सिर वाले तथा जिनका उपरी जबड़ा थोड़ा बाहर को था। ये आज काल के दक्षिण भारतीय द्रविड़ लोग के समान ही थे।

उत्तरीमध्य तथा पश्चिमी दक्कन क्षेत्र :- इस क्षेत्र में कृष्णा तथा गोदावरी के अतिरिक्त इनकी सहायक नदियों से मुहाने से इस काल के प्रमाण अलग से तो नहीं मिलते बल्कि धातु के प्रारम्भिक चरण वाले काल या ताम्राष्मिय संस्कृति के साथ के हैं। परन्तु बीना की घाटी में ऐरण तथा दक्षिणी गुजरात में जोखा से दक्षिणी भारतीय नवपाषाण कालीन नुकीले कुंदा सिरों वाली (butt ended) त्रिभुजाकार कुल्हाड़ियां प्राप्त हुई हैं। उत्तरप्रदेश, में कोल्डीहवा के उत्खनन से नवपाषाण संस्कृति का पता चलता है तथा इसी प्रकार महागरा भी एक महत्त्वपूर्ण स्थल है। इन दोनों स्थलों से स्थाई निवास, कृषि उत्पादन (चावल इत्यादि) तथा पशु पालन (भेड़, बकरी आदि) के प्रमाण मिलते हैं। रस्सी के चिन्ह वाले मृदभांड, पत्थर की कुल्हाड़ियां, छैनियां, बसौले इत्यादि अन्य प्रमाण भी प्राप्त होते हैं।

नवपाषाण काल की विशेषताएँ

1. खान-पान के तौर तरीके-

नवपाषाण युग में मुख्य रूप से अनाज खाया जाने लगा। पश्चिम एशिया और यूरोप में गेहूं और जौ, दक्षिणी और पूर्वी एशिया में चावल, अफ्रीका में बाजरा, अमेरिका में मक्का पाया जाता था। खाद्य उत्पादन करने वाली अर्थव्यवस्थाओं का विकास दो चरणों में हुआ। पहले चरण में थोड़ी बहुत खेती और पशुओं को रखना और चराना शुरू किया गया और मुख्य रूप से शिकार और जंगली कंदमूल इकट्ठा कर भोजन सामग्री जुटाई जाती थी। अगला चरण लगभग 8000 वर्ष बाद आया जब अधिक उत्पादक अनाज उपजाए जाने लगे और मवेशी, भेड़, बकरी और सुअर पाले जाने लगे। इससे पूर्ण रूप कृषि और पशुधन आधारित अर्थव्यवस्था का विकास हुआ से और समय गुजरने के साथ-साथ इसका रूप विस्तार हुआ। मवेशियों को पालने से खान पान के तौर तरीके पूरी तरह बदल गए और इसमें दूध और दूध से बने खाद्य पदार्थ शामिल हो गए।

2. रहन-सहन-

पौधे उगाए जाने और जानवरों के पाले जाने के फलस्वरूप लोगों के जीवन में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए। खाद्य उत्पादन से लोग एक जगह टिक कर रहने लगे। पहले यह माना जाता था कि यदि किसी स्थल पर हंसिया, पत्ती, घिसाई के पत्थर और भंडारण के लिए। बनाए गए गड्ढे मिलते हैं तो यह माना जाता है कि वह स्थल एक स्थाई बस्ती होगी। अनुसंधानों ने यह साबित किया है कि कई ऐसे भी गांव थे जहां औजार और किसान नहीं पाए जाते थे। उदाहरण के लिए ऊपरी पुरापाषाण और मध्यपाषाण युग के दौरान विकसित शिकारी संग्रहकर्ताओं ने पूरे साल देशांतरण का कार्यक्रम बना रखा था और मौसम के अनुसार वे एक जगह से दूसरी जगह जाकर रहते थे और अस्थाई प्रकार के वे आवास बना कर रखते थे। मल्लाहा (उत्तरी इजराएल लगभग 11000 बी. पी. के समय), तेल मुरेबित (सीरिया) और सुबेरदे (तुर्की) कुछ ऐसे आरंभिक नवपाषाण गांव थे जो वन भोजन के सघन संग्रह पर आधारित थे।

3. कृषि के तौर तरीके -

इस काल में मानव ने मिट्टी में बीज डालकर फसल उगानी शुरू कर दी। मानव ने इस काल में गेहूँ और जौ की खेती के अतिरिक्त चावल, बाजरे और मक्की के प्रमाण मिलते हैं। कपास की खेती के भी प्रमाण इस काल में मिलने शुरू हो गए। इस काल में सिंचाई व्यवस्था की शुरूआत भी हो गई थी। इस काल में कृषि के लिए उपर्युक्त फसलें और उनके अनुरूप कृषि के तरीके ही नहीं बल्कि भूमि की खुदाई के लिए और फसलों की कटाई, संग्रह तथा अनाज पीसने के लिए सिलबट्टे तथा भोजन बनाने के लिए विशेष औजार, बर्तन तथा तकनीक प्रयोग में लाई गई। हड्डी के बने उपकरणों का भी प्रयोग इस काल में हो चुका था जैसे- मछली पकड़ने का काँटा इत्यादि। अनाज की अगली फसल पकने तक भण्डारन किए जाने के भी प्रमाण यहां से मिलते हैं। अन्न भण्डारण बर्तनों में किया जाता था।

4. औजार व अन्य उपकरण-

खेती के लिए जमीन तैयार करने के लिए खती और फावड़ा जैसे औजार सबसे पहले बनाए गए कुदाल से जहां मिट्टी खोदी जाती थी वहीं खती से बीज बोने के लिए खेत में लीक बनाई जाती थी। पकी फसल को काटने के लिए चाकू और हंसिए का इस्तेमाल किया जाता था। गेहूं और जौ जैसे अनाजों को झाड़कर और फटककर भूसे से अलग किया जाता था और उसके बाद उसको फर्श पर फैला दिया जाता था। खल, मूसल और चक्की से इन्हें कूटा और पीसा जाता था। ये औजार सख्त पत्थरों से बनाए गए थे।

नव पाषाणकालीन मानव ने अपनी सुख-सुविधानुसार और भी उपकरणों का अविष्कार किया। उसने ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ी बनाई झीलों और नदियों को पार करने के लिए नाव का अविष्कार किया। फसल काटने के लिए दंराती, सूत कातने के लिए तकली तथा चरखा, कपड़ा बुनने के लिए करघों का निर्माण किया। इस काल के मानव को नरकूल की शाखाओं से सीढ़ियाँ बनाने की कला के बारे में भी जानकारी थी।

5. कातने या बुनने की कला-

इस काल में कपड़ा बुनने की कला का भी अविष्कार हो गया था। अब वे लोग खाल व पत्तियों के वस्त्र पहनने लगे थे। करघे का अविष्कार एशिया में नव-पाषाण काल में हुआ था। यह अविष्कार अवशेष मिस्र तथा पश्चिमी एशिया में मिलते हैं। इस युग के मानव ने चरखे, तकले तथा करघे की सहायता से कपड़ा बनाना शुरू कर दिया था। स्विटजरलैंड से कुछ कपड़े के अवशेष, मछली पकड़ने के जाल का एक टुकड़ा तथा टोकरी प्राप्त हुई है। नव-पाषाण गाँवों में कपास के प्रमाण मिले हैं। यहाँ कपास की खेती और भेड़-पालन होता था। अतः कपड़ों का व्यापक प्रयोग इस काल में शुरू हो गया था। सुईयों से वस्त्र सीले जाते थे।

6. बर्तन निर्माण-

यद्यपि मृदभांड कला के प्रचलन से पूर्व भी नवपाषाण काल का एक उपकाल अवश्य था तथापि मदभांड होने की नवपाषाण काल की एक उपलब्धि माना जाता है। प्रारम्भ में तो ये बर्तन हाथ से, टोकरी की सहायता से बनाए जाते थे परन्तु बाद में चाक का प्रयोग प्रारम्भ हो गया था। इस काल में मानव अपनी आवश्यकतानुसार बर्तन बनाने लगा था। बर्तन चॉक पर भी बनाए जाते थे। अवशेषों में इस काल के पॉलिशदार मृदभांड भी मिली है जो पकाने पर Pate या Pink रंग की हो जाती थी। पाकिस्तान के मेहरगढ़ से भी इसके प्रमाण मिले हैं।

7. पशुपालन-

इस काल में कृषि के साथ-साथ मानव ने पशु पालन की आवश्यकताओं का अनुभव किया। पशु कृषि में तो सहायक होते ही थे, साथ ही इनसे दूध तथा मांस की प्रप्ति भी होती थी। इस काल में कुत्ता, गाय, भैंस, भेड़, बकरी, सूअर तथा बैल आदि पाले जाने लगे। ये पशु उस समय के मानव की लगभग सभी आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक, अर्थात मांस और दूध का स्त्रोत भी ये पशु ही बने, सिलाई-बुनाई के लिए भेड़ों से प्राप्त होने वाले रेशों का इस्तेमाल किया जाता था।

पहिए के अविष्कार के परिणामस्वरुप पहले-पहले बोझे को ढ़ोने या आवागमन के लिए पशु का ही प्रयोग किया गया। सम्भवतः इस काल का पहला पालतु जानवर कुत्ता था। इस काल में मनुष्य पशुओं से काफी परिचित हो चुका था। वह यह समझने लगा था कि अगर पशु उनके समीप रहेंगे तो हव जब चाहेगा इनका शिकार कर सकेगा। इसलिए वह अपने खेतों से उत्पन्न चारा उन्हें देने लगा था। धीरे-धीरे आवश्यकता एवम् उपयोगिता के अनुसार पशुओं की संख्या बढ़ती चली गई।

8. उद्योग धंधे-

इस युग में कृषि अविष्कार हो जाने से मानव भोजन की तलाश में इधर-उधर नहीं भटकता था। उसके जीवन में स्थिरता और वह अपना भरण पोषण एक की स्थान पर रहकर करने लगा। समय की उपलब्धता ने उसे उद्योगों एवं व्यवसायों को विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया। इस युग में चाक का अविष्कार हुआ जिससे मिट्टी के बर्तन बनाए जाने लगे। पहिए के अविष्कार से यातायात के साधनों का विकास हुआ। मानव ने घोड़ों तथा बैलों की सहायता से खींची जाने वाली गाड़ियां बनाई। कृषि के विकास से कपास उगाई जाने लगी जिससे वस्त्र निर्माण उद्योग भी विकसित हुआ। इस काल में मछली मकड़ने के लिए जाल प्रयोग में लाया जाता था। इसके प्रमाण मिले हैं, इससे स्पष्ट होता है कि मछली उत्पादन करने लगे थे। जलमार्ग से यातायात के लिए नाव का निर्माण किया।

9. व्यापार एवं दूरस्थ क्षेत्रों से सम्पर्क-

आरम्भिक नवपाषाण गाँव और कब्रों में ऐसा सामान मिला है जो दूरस्थ स्थानों से आया जैसा कि सीप, जो कि भूमध्यसागर या लाल सागर से लाई गई थी। जिन्हे अच्छी किस्म का काटने वाला पत्थर, बढ़िया किस्म का चकमक पत्थर आदि दूर-दूर से लाए जाते थे। यातायात के साधनों के विकास ने व्यापार में प्रोत्साहित किया। व्यापार वस्तु विनिमय पद्धकि पर आधारित था। इस प्रकार नव-पाषाण कालीन समुदाय की आत्मनिर्भरता वास्तविक नहीं थी। इस काल में दूर दराज के क्षेत्रों से सम्पर्क शुरू हो गया था जैसे बिहार की चिरान्द नामक स्थल से प्राप्त नाग मूर्तियां पाकिस्तान के गुमला, हथियाला से प्राप्त मूर्तियों जैसी ही है। काश्मीर के बुर्जहोम से प्राप्त एक बर्तन पर चित्र सिंग वाले बैल का चित्रण भी गुमला से प्राप्त चित्र के सर्दश है इससे इन क्षेत्रों के आपस के सम्पर्क का पता चलता है।

10. आर्थिक व्यवस्था-

नवपाषाण काल में नए-नए अविष्कार के परिणामस्वरुप मनुष्य का आर्थिक जीवन सुदृढ़ हो गया था। स्थाई कृषि व्यवस्था से उत्पादन में वद्धि हुई। अब मनुष्य का सम्पति के प्रति लगाव बढ़ने लगा था। अपने परिवार के लिए उपयोग की वस्तुओं के संग्रह में व्यक्तिगत सम्पति की भावना को जागृत किया। नव पाषाण काल में विनिमय व्यापारिक अर्थव्यवस्था प्रचलित थी। इस काल में मनुष्य ने रेशेदार फलों का उत्पादन आरम्भ कर दिया था। नवपाषाण अर्थव्यवस्था में विशेषकरण में चिन्ह प्रारम्भ हो गए। नवपाषाण कालीन समुदाय चकमक को खदानों से निकालने लगे थे। ये खान खोदने वाले वास्तव में खान खोदने के विशेषज्ञ थे।

11. श्रम विभाजन-

नवपाषाण कालीन समाजों में किसी प्रकार का औद्योगिक श्रम विभाजन नहीं था। श्रम विभाजन था तो केवल श्रम स्त्री-पुरूषों के बीच था। स्त्रियां खेत जोतती थी। अनाज पीसती थी और पकाती थीं कातकर और बुनकर कपड़ा तैयार करती थी। बर्तन बनती और उन्हें पकाती थी। दूसरी तरफ पुरूष शायद खेत साफ करते झोपड़ी बनाते, जानवर पालते, शिकार करते और औजार व हथियार बनाते थे। समाज मे स्त्री की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी और प्राप्त प्रमाणों के आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि समाज मातृप्रधान था।

12. स्थाई जीवन को प्रोत्साहन-

पूर्व पाषाण काल में मनुष्य अपनी उदरपूर्ती के लिए इधर-उधर घूमता रहता था। परन्तु नवपाषाण काल में कृषि कार्य, पशुपालन तथा नए-नए अविष्कारों के कारण स्थाई रुप से रहना आरम्भ कर दिया। स्थायी रुप से रहने के लिए उसे घर की आवश्यकता महसूस होने लगी। प्रारम्भ में वह झाड़ों, घास-फूस व पत्तों का घर बनाकर रहता था। Pit-houses और Mud-houses के प्रमाण लगभग सभी नवपाषाण कालीन स्थानों पर मिले हैं नवपाषाणकालीन यूरोप और एशिया की जनसंख्या छोटे-छोटे समुदायों के रुप में गाँवों में रहती थी। नवपाषाण काल में सुरक्षा के लिए बस्तियाँ ऊँचे स्थानों पर बसाई जाती थी।

13. सामाजिक व्यवस्था-

नवीन अविष्कारों से मानव जीवन सामाजिक व्यवस्था में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। एक स्थान पर इकट्ठा रहने से उनमें सामाजिक संगठन आया जिसमें सब सदस्य मिल जूलकर कार्य करते थे। अनुमान है कि सामाजिक संगठन की इकाई कबीला था। हर कबीले के अपने-अपने चिन्ह होते थे। जिन्हें कबीले के सदस्य अपना आदि-पूर्वज मानते थे। कुछ विद्वानों के अनुसार इस काल में राजा का अस्तित्व आरम्भ हो गया था। परन्तु इसके बारे में निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।

सामाजिक व्यवस्था में विवाह की नियमित व्यवस्था चल पड़ी। व्यक्तिगत सम्पति की प्रथा से आपसी संघर्ष को बढ़ावा मिला। आपसी संघर्ष तथा युद्ध में जो शत्रु पकड़े जाते थे उनसे दबाव देकर काम कराया जाता था। इस प्रकार गुलाम की प्रथा भी चल पड़ी। कालान्तर में नगरों की भी स्थापना होने लगी। इस प्रकार नव-पाषाण कालीन सामाजिक व्यवस्था पूर्व-पाषाण काल की व्यवस्था से काफी विकसित थी।

14. ज्ञान विज्ञान व कला-

इस काल के मानव का ज्ञान-विज्ञान पूर्व-पाषाण कालीन मानव के ज्ञान-विज्ञान से बहुत ही उन्नत था। उन्होंने शताब्दियों के प्रयोगों और अनुभवों द्वारा बहुत सी नई जानकारियां प्राप्त कर दी थी। नवपाषाण कालीन समुदायों के पास नए विज्ञान जैसे बर्तन बनाने का रसायन विज्ञान, पेय पदार्थ बनाने का विज्ञान या कृषि से सम्बन्धित वनस्पति विज्ञान और अनेकों ऐसे विज्ञान थे जो पुरापाषाण काल में अनजाने थे। उन्हें इस बात की भी जानकारी थी कि कृषि का जलवायु से घनिष्ठ संबंध होता है।

नवपाषाण काल वास्तव में एक क्रांतिकारी और युग प्रवर्तक काल था। इसे प्रगति का महान युग कहा जाता इस युग में बड़े की क्रांति अविष्कार हुए। प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए मानव ने इस युग में प्रयास किए मनुष्य ने प्राकृति साधनों का प्रयोग करना इसी काल में सीखा, जिससे उसमें नई आशा उत्साह तथा उपलब्धि का संचार हुआ। इस काल में मानव सभ्यता का आधार वास्तव में स्थापित हो चुका था। इसी कारण इतिहासकारों ने इस युग को मानव सभ्यता का प्रथम क्रांतिकारी चरण माना है। इस काल के मानव में मनुष्यता तथा विवेक की जागति हो चुकी थी। इस काल में कला का विकास हो चुका था जो उन द्वारा बनाई गई मृण्मूर्तियों तथा मृदभांडों पर बने चित्रणों से होता है।

15. धर्म व मान्यताएं-

नवपाषाण युग के धर्म प्रमुखतः प्रजनन पंथ थे जिसमें पुरुष (आकाश, सूर्य, वर्षा) और महिला (पृथ्वी चाद) धर्म के प्रमुख प्रतीक थे। सभी नवपाषाण समाजों में मिट्टी, पत्थर और अस्थि की बनी स्त्री मूर्तियां मिली हैं। ये सब बाद की मां देवी की पूर्वज हैं। इससे यह अर्थ निकाला गया है कि पृथ्वी महिला है क्योंकि उसकी कोख से अनाज पैदा होता है और इन्हें प्रार्थनाओं, बलियों और अनुष्ठानों और जादू टोना से प्रभावित किया जा सकता है। प्रजनन क्षमता में पुरुष का प्रतिनिधित्व मिट्टी और अन्य वस्तुओं के बने लिंग से किया गया है।

कुछ विद्वानों के मत में जब महिलाओं के लिए खेतों में हल जोतना, सिचाई की व्यवस्था करना और नाली बनाना बहुत श्रमसाध्य हो गया और बैल और भैंस जैसे जानवर को साधना उनके लिए कठिन साबित होने लगा तो फिर धीर-धीरे कृषकों के धर्म में पुरुष सिद्धांत महत्त्वपूर्ण होता चला गया। कताल हुयुक की कुछ इमारतों की दीवारों पर बने विशाल भित्ति चित्रों में बैलों के बाहर निकले हुए शीर्ष बने हुए हैं जो धार्मिक कला अभिव्यक्ति और प्रतीक को द्योतित करते हैं और यह बताते हैं कि यह विस्तृत और जटिल होता जा रहा था।

जादू और अनुष्ठान इन समाजों के अनिवार्य हिस्सा बनते चले गए। पुरापाषण संस्कृतियों की अपेक्षा मृतकों को ज्यादा शानोशौकत से दफनाया जाने लगा। जॉर्डन में जेरिको और ऐन गजल में लोगों का सिर काटकर दफन किया जाता था और कभी-कभी घर के नीचे ही दफन कर दिया जाता था। दोनों ही प्रकार के स्थलों में मृतक व्यक्तियों के रूप रंग की आकृतियां प्राप्त हुई हैं जिससे पूर्वज पंथ की पूजा के एक रूपक का पता चलता है।

पुरातात्विक अवशेषों से यह पता चलता है कि ये आरंभिक किसान मृत्यु के बाद भी किसी प्रकार के जीवन में भी विश्वास करते थे। इन समुदायों में मृत्यु पंथ की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी। नवपाषाण कब्रों में एकल कब्र और सामूहिक कब्रें भी मिली हैं। जैसे-जैसे नवपाषाण समाजों में सम्मान और सत्ता के आधार पर अन्तर पैदा होने लगा वैसे-वैसे समाज के विभिन्न हैसियत वाले लोगों के दफनाने की पद्धति में अन्तर आने लगा । यूरोप में विशाल पाषाण मकबरों में बृहद और विशाल कब्रें मिली हैं। निश्चित रूप से इनमें समाज के विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को ही दफनाया जाता होगा। इसी प्रकार नवपाषाण युग के आरंभ में कब्रों में दफनाए जानेवाले सामान बहुत ही साधारण थे परंतु जैसे-जैसे सामाजिक अन्तर बढ़ा और समाज में स्तरीकरण पैदा हुआ वैसे-वैसे कब्रों में रखी जाने वाली वस्तुओं में भी अन्तर आया। बुल्गारिया में वर्ना के शहर में तथा अनातोलिया में कताल हुयुक में कुछ विशिष्ट सदस्यों के लिए बनाए गए अत्यधिक शानदार मकबरे मिले हैं।

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