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नियतिवाद की अवधारणा क्या है?

नियतिवाद क्या है? (What is the determinism?)

नियतिवाद एक विश्वास है कि कुछ घटित होता है, उसके एक अथवा कई कारण होते हैं और वह किसी कारण अथवा कारणों से भिन्न हुए बिना भिन्न तरीके से घटित नहीं हो सकता। नियतिवाद इतिहास की ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण मानव कार्य-व्यापार की समस्या है। इतिहासकार द्वारा मानवीय व्यवहार के कारणों की व्याख्या की जाती है। 

अन्य शब्दों में, इतिहासकार नियतिवाद अवधारणा के अन्तर्गत मानवीय व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारणों की व्याख्या करता है। यूनानियों का विश्वास नियतिवाद में नहीं है। उनके अनुसार इतिहास का स्वरूप लोचदार होता है और मानवीय इच्छा की प्रबलता के अनुसार उसके स्वरूप में प्रायः परिवर्तन होता रहता है।

कालिंगवुड ने लिखा है कि "मानवीय व्यवहार में स्थायित्व असम्भव है। जीवन में कुछ अपरिवर्तित नहीं रह सकता।"रेनियर ने भी लिखा है कि परिवर्तन मानव-जीवन का अभिन्न अंग है।

इतिहास में नियतिवाद की अवधारणा

भारतीय दर्शन में नियतिवादी अवधारणा की व्याख्या-

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म योग का ज्ञान देते हुए कहा है "निष्काम कर्म करो, वांछित फल विराट पुरुष की इच्छा पर छोड़ दो।" भगवान श्रीकृष्ण का यह उपदेश नियतिवादी सिद्धान्त की पुष्टि करता है। सांख्य-दर्शन में विकास प्रक्रिया एक अटल एवं निश्चित नियम के अधीन है जिसका उल्लंघन सम्भव नहीं है। यह परिणामक्रम नियम है। इसके अनुसार समस्त प्रकृति नियति, संगति तथा भाव के नियन्त्रण के अनुसार अग्रसर होती है। नियति जीवन की अटल गति है, संगति आकस्मिकता की क्रिया है तथा भाव प्रकृति का निजी स्वरूप है। सांख्य योग के अनुसार उत्थान एवं पतन की यांत्रिक प्रक्रिया नियम के अनुसार अटल है। इसी को नियतिवाद की संज्ञा दी गई है। इतिहास की नियतिवादी प्रवृत्ति में मानवीय पुरुषार्थ को पूर्ण रूप से अस्वीकार किया गया है।

पाश्चात्य दार्शनिकों का नियतिवाद में अटूट विश्वास-

पाश्चात्य दार्शनिकों का भी नियतिवाद में अटूट विश्वास है। यूनानी इतिहास की अवधारणा के अनुसार इतिहास का स्वरूप युग चक्रवादी है- स्वर्ण युग, रजत युग, कांस्य युग तथा लौह युग। इन युगों की प्रवृत्तियों ने समसामयिक समाज में मानवीय कार्यों तथा सामाजिक गतिविधियों को सदैव प्रभावित किया है।

प्रो. गोविन्दचन्द्र पाण्डेय के अनुसार मानवीय इतिहास एक पूर्वांकित योजना के अनुसार अग्रसर होता जा रहा है। इसका लक्ष्य निश्चित है। इस प्रकार यूनानी अवधारणा भी नियतिवादी अवधारणा की पुष्टि करती है। यूनानी-रोमन इतिहास अवधारणा में हेसियड का युग चक्रवादी सिद्धान्त सर्वथा महत्त्वपूर्ण है। मानवीय कार्य-व्यापार भाग्य अथवा नियति द्वारा नियन्त्रित होते हैं। देवतागण भी भाग्य अथवा नियति के नियन्त्रण से नहीं बच सकते। ईसाई अवधारणा के अनुसार मानवीय कार्य ईश्वरीय इच्छा को प्रतिबिम्बित करता है। ईश्वर इतिहास का प्रमुख अभिनेता है। उसकी कृपा में सृष्टि की सम्पूर्ण घटनाएँ होती हैं।

आधुनिक पाश्चात्य दार्शनिकों की नियतिवादी अवधारणा-

हीगेल के अनुसार विश्वात्मा इतिहास की घटनाओं को प्रेरित, प्रोत्साहित तथा विवश कराती है। दास प्रथा, पुनर्जागरण काल, निरंकुश राजतन्त्र, प्रबुद्ध युग रोमांतिक युग, क्रान्ति युग, लोकतांत्रिक युग, उपनिवेश युग तथा राष्ट्रवादी युग आदि इतिहास की प्रमुख प्रवृत्तियों अथवा इतिहास प्रवाह को प्रभावित करने वाली शक्ति विश्वात्मा चेतना है। उसके विपरीत चलने वाला कोई भी महान शक्तिशाली शासक इतिहास में सफल नहीं हुआ है। ब्रिटेन में चार्ल्स द्वितीय, फ्रांस में लुई सोलहवाँ, नेपोलियन बोनापार्ट, आस्ट्रिया का चांसलर मेटरनिख, भारतीय इतिहास में मुहम्मद तुगलक तथा मुगल-सम्राट औरंगजेब की विफलता तथा पराजय का प्रमुख कारण विश्वात्मा, प्रवृत्तियों तथा इतिहास-प्रवाह के विपरीत चलना था।

स्पेंगलर ने अपने नियतिवाद को अपनी पुस्तक 'संस्कृति' में प्रकट किया है। इस ग्रन्थ में कठोर नियतिवाद और निराशावाद भरा पड़ा है। इसके अनुसार प्रत्येक संस्कृति एक जीवधारी प्राणी के समान पैदा होती है और नष्ट होती है। स्पेंगलर ने इतिहास-दर्शन के जो दो भाग किये हैं-प्रकृति विषयक तथा इतिहास विषयक, उनमें काल की प्रवृत्ति को 'नियतिवाद' कहते हैं। उनके अनुसार इतिहास में केवल गति, नियति और प्रक्रिया ही पा सकते हैं। वे इतिहास की मौलिक गति को ही नियति कहते हैं।

कार्ल मार्क्स के इतिहास की आधारशिला नियतिवाद है। इसका स्वरूप ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठा की अपरिहार्यता है। यही इतिहास का कारण है। नियतिवाद ऐतिहासिक अनिवार्यता का आधार है। मार्क्स का विश्वास ऐतिहासिक नियति तथा अवश्यम्भाविता थी। उन्होंने लिखा है कि "अपनी आजीविका के सामाजिक उत्पादन में मानव जाति एक निश्चित एवं आवश्यक सम्बन्ध में प्रवेश करती है, जो उनकी इच्छाओं से पूर्ण स्वतन्त्र है।" इस मान्यता के अन्तर्गत मनुष्य अपनी जीविका के लिए न चाहते हुए भी सामाजिक सम्बन्धों को स्वीकार करता है, चाहे वे स्वामी और दास के सम्बन्ध ही क्यों न हों। नियतिवाद तथा मानव व्यवहार-कुछ विद्वानों के मतानुसार मानव व्यवहार अपरिवर्तनीय है।

पावक ने लिखा है कि यदि मानव व्यवहार एक समान नहीं रहता, तो इतिहास का स्वरूप अत्यन्त कठि तथा दुरूह होता है। फ्रांसीसी इतिहासकार अनातोले फ्रांस का कथन है कि जब मानव शरीर के प्रमुख अंगों में परिवर्तन नहीं होगा, तब तक मानवीय व्यवहार में परिवर्तन की कल्पना व्यर्थ है।" परन्तु कालिंगवुड ने इसकी आलोचना करते हुए कहा है कि "मानव व्यवहार निरन्तर परिवर्तनशील रहा है तथा परिवर्तन को रोकना असम्भव है। मानव व्यवहार समान नहीं है, अपितु भिन्न है, अन्तरिक्ष तथा गतिशील काल परिधि में मानव व्यवहार की विभिन्नता का परीक्षण स्पष्ट दिखाई देता है। इसे समझने का हमें प्रयास करना चाहिए।"

प्राचीन युग में मानव व्यवहार में पुरुषार्थ, मध्य युग में साधु-संन्त, कलाकार तथा साहित्यकार के स्वभाव में समरूपता तथा आधुनिक युग में व्यक्तिवादी दृष्टियों को अपनाना मानव-व्यवहार की परिवर्तनशीलता का अकाट्य प्रमाण है।

भारतीय इतिहास में मुहम्मद तुगलक, सिकन्दर लोदी, मुगल-सम्राट अकबर की शासन- नीति परिस्थितियों की परिवर्तनशीलता का परिणाम था। 1919 में वर्साय की सन्धि ने हिटलर को प्रतिशोधात्मक तथा आक्रामक नीति के लिए विवश कर दिया था। इस प्रकार मानव व्यवहार परिस्थितिजन्य होता है। यह सत्य है कि इतिहास प्रवाह, विश्वात्मा के विपरीत व्यवहार करने बाला कोई भी शक्तिशाली शासक इतिहास में सफल नहीं हुआ है। लुई सोलहवाँ, नेपोलियन बोनापार्ट, मेटरनिख, मुहम्मद तुगलक तथा औरंगजेब को नियति का शिकार होना पड़ा, क्योंकि उन लोगों ने इतिहास प्रवाह (नियति) के अनुरूप अपने को ढालने में असमर्थता का परिचय दिया था।

ई. एच. कार के अनुसार मानवीय कार्य नियति के अधीन और कुछ स्वतन्त्र होते हैं। नियतिवाद में अटूट आस्था रखने वाले इतिहासकारों का विश्वास है कि बाह्य परिस्थितियाँ तथा व्यक्तित्व की बाध्यता के कारण मनुष्य व्यवहार करता है। मैंडेलबाम ने भी नियतिवाद का समर्थन किया है। विश्व की सभी घटनाएँ नियति के परिणामस्वरूप घटती हैं। एक कारण दूसरे से सम्बन्धित होता है। यह सार्वभौमिक नियम है कि घटनाएँ तथा मानवीय कार्य-व्यापार कारणों के नियतिवादी परिणाम होते हैं।

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