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ताम्र पाषाण काल

ताम्रपाषाण काल (Chalcolithic Period)

नव पाषाण युग के अन्तिम चरण में तांबे नामक धातु का उपयोग प्रारम्भ हुआ। अतएव पाषाण युग के पश्चात् 'धातु युग' का प्रारंभ होना अनुमानित है। यद्यापि ताम्र युग में तांबे के हथियार उपकरण व्यवहार में लाए गए, तथापि पत्थर के पूर्व प्रचलित हथियारों का भी उपयोग होता रहा है अतएव ताम्रयुग को ताम्रपाषाणिक काल भी कहा जाता हैं। तांबे से निर्मित औजार पत्थरों के औजारों से ज्यादा प्रभावशाली थे, क्योंकि ये उनकी अपेक्षा तीखे थे और इन्हें किसी भी आकार में आसानी से ढाला जा सकता था। दूसरा तांबे से औजारों का निर्माण करना भी आसान था क्योंकि इसे पिघलाना आसान था और बाद में इसे कोई भी आकार देना भी सरल था।

नवपाषाण काल में कृषि की शुरूआत के साथ ही मानव के जीवन में स्थायित्व आ गया था और साथ ही उसने पशुपालन की भी शुरूआत कर दी थी। इस काल का मानव अब खाद्य संग्रहकर्ता से खाद्य-उत्पादनकर्ता बन गया था। कृषि कार्य में प्रायः स्त्रियां संलिप्त रहती थी तथा शिकार में पुरूष संलग्न थे। हांलाकि कृषिकर्म अभी विस्तृत पैमाने पर नहीं था। चाक पर निर्मित मृदभांडों की शुरूआत हो चुकी थी, लेकिन अधिकतर टोकरी पर बने, हाथ निर्मित और घुमावदार तरीके से बनाए जाते थे। यह कार्य इस काल के मानव में अन्य कार्यों के साथ ही किए। मिश्र में फायूम तथा मेरिमदे नामक स्थलों पर तरीके से कृषि करने के प्रमाण नवपाषाण में मिलने शुरू हुए। सिंचाई व्यवस्था की भी शुरूआत हो चुकी थी। लेकिन इन सभी उपलब्धियों के लिए किसी प्रकार के विशेषीकरण की अभी आवश्यकता नहीं थी।

कालान्तर में जब मानव स्थायी तौर पर बसने लगा तथा जनसंख्या की वद्धि के कारण उनके भरण-पोषण के लिए जब अतिरिक्त अन्न की आवश्यकता पड़ी, तो इस जरूरत को पूरा करने के लिए नई तकनीक के विकास पर जोर दिया गया। तकनीकी क्षेत्र में यह परिवर्तन लाने में धातुओं के अविष्कार का बड़ा योगदान है। जिसके कारण इस समय के समाज में आमूल परिवर्तन आए। सर्वप्रथम मानव में जिस धातु का प्रयोग करना सीखा वह तांबा था। इसके पीछे कारण यह था कि तांबे तथा अन्य अलोह धातुओं से निकालना आसान है। क्योंकि इनकी गलाने की मात्रा कम है। तांबे को प्रयोग में लाने के लिए असे उसके धातुज्ञान का होना आवश्यक था। पहले उसे अलग करना या इससे पूर्व उसे वैसे ही पीट-पीट कर द्वारा औजार बनाए जाने थे या तांबे को गलाकर धातु अलग करना इसे तरीका कहते है। इसके लिए पर्याप्त तापमान का होना आवश्यक है। यह समस्त कार्य एक विशेषज्ञ ही कर सकता है। इस प्रकार समाज के ऐसे निपुण वर्ग की उत्पति हुई जो अन्न उत्पादन की प्रक्रिया में लगा हुआ था। इस वर्ग की खाद्य जरूरतों की पूर्ति कृषक वर्ग करता था तथा कृषकों के लिए औजार तथा वस्तुओं की पूर्ति यह कारीगर वर्ग करता था। दूसरे शब्दों में समाज के वे दोनों वर्ग एक-दूसरे पर आश्रित हो गए थे।

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ताम्र पाषाण काल

तांबे के ज्ञान तथा इसके औजारों के प्रयोग से समाज में न केवल एक नए वर्ग का उदय हुआ हांलाकि इसके साथ ही नवपाषाणकालीन समाज की आत्म-निर्भर अर्थव्यवस्था के स्थान पर अतिरिक्त उत्पादन की आर्थिकता का उदय हुआ। क्योंकि समाज के इस विशेष कारीगर वर्ग को उसी अतिरिक्त उत्पादन में से ही अनाज दिया जाता था। दूसरे, तांबा सभी स्थानों से मंगवाया जाता था। इस कारण इस काल में व्यापारिक गतिविधियों की भी शुरूआत हुई। प्रारंभ में यह विनिमय प्रणाली (वस्तुओं के आदान-प्रदान) पर आधारित थी। वन गतिविधियों को बढ़ावा देने में घुम्मकड़ कबीलों या जातियों का विशेष योगदान रहा क्योंकि एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में घुमते रहने के कारण इन्हें विभिन्न प्रदेशों के प्राकृतिक संसाधनों की पूरी जानकारी रहती थी। ताम्रपाषाणीय युग में धातु ज्ञान के अतिरिक्त और भी बहुत चीजों का अविष्कार हुआ जैसे कुम्हार की भट्टियां और चाक इत्यादि। इससे बर्तनों को अच्छी तरह बनाया तथा पकाया जा सका। इस कार्य को भी निपुण व्यक्ति या वर्ग ही सम्पन्न कर सकता था साधारण व्यक्ति नहीं। इसलिए मदभांडों का निर्माण करने वाला एक अन्य वर्ग (कुम्हार वर्ग) भी इस काल में अस्तित्व में आया, जो अन्य उत्पादन गतिविधियों में किस्स नहीं लेता था।

इस काल में चूंकि कृषि से अधिक अन्न उत्पादन की आवश्यकता थी तो इसके लिए भी कृषि में नए-नए तरिकों का आविष्कार हुआ। अभी तक कृषि का कार्य अधितर स्त्रियां ही करती थी परन्तु अन्न उत्पादन की मांग में वद्धि होने के कारण मानव ने बैलों द्वारा हल खींच कर खेती करना आरंभ कर दिया। इस प्रकार उसने पशु शक्ति को काबू कर अपना प्रभुत्व भी बढ़ा लिया। इस काल के मानव ने व्यक्तिगत संपति की अवधारणा को अपना लिया। जिसके पास ज्यादा धन उसका ज्यादा महत्व। इसके साथ-साथ ईटों के घर बनाना, मुद्रांक का प्रचलन भी इस काल में शुरू हुआ जो व्यक्तिगत संपति तथा शक्ति का द्योतक था। इस प्रकार हम देखते हैं कि ताम्रपाषाण युग विशेषीकरण का काल था। इसके अतिरिक्त पहिए वाली गाड़ी की शुरूआत हो गई जिससे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना आसान हो गया।

सामाजिक जीवन (Social Life)

यद्यपि इस काल में लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था लेकिन इसके अतिरिक्त विभन्न प्रकार के शिल्प उद्योग भी अस्तित्व में आ गए थे। जैसेः धातु विशेषज्ञ, कुम्हार, कारीगर इत्यादि। इस प्रकार वर्ग की कार्य निपुणता इस काल में देखने को मिलती है समाज के विभिन्न वर्ग एक-दूसरे पर आश्रित थे। प्रत्सेक वर्ग का प्रत्येक काम के लिए विशेषिकरण देखने को मिलता है। इस काल मे लोगों ने विशेषिकरण में अत्यधिक विकास किया जिसकी भरपाई कृषकों द्वारा अतिरिक्त उत्पादन करके की गई। यहां भी पितृसतात्मक समाज देखने को मिलता है। इस काल कुम्हारों तथा अन्य शिल्पियों के प्रशिक्षण कार्य में शिक्षा पुत्र का या शिष्य को दी जाती थी तथा लोगों के स्थानतरंण के प्रमाण मिलते हैं। ये लोग प्रायः व्यापार विनिमय द्वारा ही अपनी आवश्कताओं की पूर्ति कर लेते थे। इनका मुख्य व्यवसाय कृषि था। भारतीय स्थलों में इनाम गांव प्रमुख है जो कृषि पर ही आधारित ग्रामीण व्यवस्था में रहते थे। यहां पर जातीयता के प्रमाण सरदार के घर के प्रमाण बस्ती के केंद्र में होने से मिलते हैं। यहां पर अन्न संग्रह के लिए भी स्थान मिले हैं।

घर निर्माणः

इस काल में लोग मुख्यतः स्थायी रुप से कच्ची ईटों या सूर्य की रोशनी में सुखाई ईंटों के बने घरों में रहते थे। लोग गांवों में रहते थे जो खंडहरों के ऊपर बसाए जाते थे। यहां पर घर खांचे में तली सूर्य की धूप में पकी ईंटों से बनाए जाते थे। परन्तु कुछ स्थानों पर जैसे राजस्थान के क्षेत्र में कुछ घरों में पत्थरों के भी दीवारों के प्रमाण मिलते हैं। इसके विपरीत दक्कन क्षेत्र में घरों के प्रमाण जमीन के नीचे मिलते हैं जिनके छोटे कमरे होते थे। ये लोग चूने से निर्मित फर्श तथा दीवारों पर प्लास्टर करते थे। इनाम गांव में चूल्हों सहित बड़ी-बड़ी कच्ची मिट्टी के मकान और गोलाकाट गढ़ढों के मकान मिले हैं। यहां पर एक घर ऐसा मिला है जहां पर चार कमरे आयताकार एवं एक कमरा वर्गाकार है। यहां पर अन्न संग्रह तथा राजस्व के एग्रीकरण के लिए अलग से व्यवस्था देखने को मिलती है।

औजारः

इस समय जो सबसे अधिक एवं महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिलता है वह है इस काल के औजारों में आया परिवर्तन, क्योंकि अब तांबे को विभिन्न आकृतियों में सुगमता से ढाल कर तथा पीटकर अधिक प्रभावशाली तथा मजबूत औजार बनाए जाते थे। हल्फ में तांबे के साथ पत्थरों तथा हड्डियों से बनाए गए औजारों के भी प्रमाण मिलते है। तांबे के औजारों में मुख्यतः चाकू तथा छुरी प्राप्त हुए हैं। स्थल में युद्ध होने के प्रमाण मिलते हैं क्योंकि यहां पर मछली पकड़ने का कांटा, बरछी, तलवार जोकि तेज धार वाले तांबे से बनाए गए औजार थे। ये औजार एक बार टुटने पर दोबारा ढाले जा सकते थे। इस प्रकार सभी स्थलों से प्राप्त औजारों में अधिकता तांबे के औजारों की मिलती है।

कलाः

इस काल के मृदभांडों में विशेष रुप से परिवर्तन देखने को मिलते हैं। सभी स्थलों पर तेज गति से घूमने वाले चाक पर बनाई गई मृदभांड के प्रमाण मिलते हैं। जोरवे (Jorwe) में कुम्हार द्वारा पहिए पर सुंदर बर्तन के बारे में प्रमाण मिलते हैं। यहां पर शिल्पी के बारे में भी प्रमाण मिलते हैं। यहां पर चरखें व तकलियाँ मिली हैं जिनसे इनके सूत कातने तथा वस्त्र निर्माण के प्रमाण मिलते हैं। ये चाकों पर मदभांड भी बनाते थे। इन्होंने कला के क्षेत्र में विशेषीकरण प्राप्त था। इस काल में सूती वस्त्र, रेशमी वस्त्र तथा चटाईयों के भी प्रमाण मिलते हैं तथा ये काफी डिजाइन की मिलती है। यहां पर हाथी दाँत से वस्तुएं तथा पकी मिट्टी की मूर्तियां भी प्राप्त होती है। इसी तरह लगभग सभी स्थलों पर बैलगाड़ियों के प्रमाण मिलते हैं। इनामगांव के शिल्पकार अधिक कुशल थे। यहां से विशेषतः कार्नेलियन, स्टेटाइट, क्वार्टज, क्रिस्टल जैसे महंगे पत्थरों के मोती मिलते हैं।

आर्थिक स्थिति (Economic Condition)

इनके आर्थिक जीवन में मुख्यतः व्यापार कृषि तथा पशुओं के बारे में जानकारी मिलती है।

कृषिः

ताम्राष्मीय काल की लगभग सभी स्थलों की अर्थ व्यवस्था कृषि पर निर्भर थी। कुछ स्थलों पर अतिरिक्त उत्पादन के लिए विभिन्न उपायों का प्रयोग किया गया। ये प्रायः कृषि को जोतने के लिए पशुओं का प्रयोग करते थे। इनकी मुख्य फसलें जौ, गेहूँ, बाजरा, चावल, मसूर तथा दालें तथा तिलहन थी इसके अलावा कुछ स्थलों पर सब्जियों के उत्पादन के प्रमाण मिलते हैं। कुछ स्थलों जैसे इनाम गांव से सूत के भी प्रमाण मिले हैं। क्योंकि इस काल में कृषि करने के लिए बधिय कर जूले (yoke) की साथ बैलों का प्रयोग कृषि में करने लग गए थे इस लिए इन पशुओं को विशेष बाड़ों में रख अच्छी तरह खिलाया जाता था इन का गोबर इक्कठा कर खेतों में खाद के रुप प्रयोगों कर अधिक फसल ऊगाई जाने लगी।

पशुपालनः

काफी मात्रा में पशुओं का पालतु बनाया जाना नवपाषाण में ही गया था पंरतु अब यह और भी अधिक देखने को मिलता है। स्यिालक में गाय, भेड़, बकरी इत्यादि को पालतू बनाया जाना देखने को मिलता जिनका प्रयोग दूध एवं मांस के लिए किया जाता था। बैल तथा ऊंट को भी पालने के प्रमाण मिलते हैं जिनकी सहायता से कृषि की जाती थी। ये इनका प्रयोग स्थलों से ताम्बे तथा हड्डी के बने मछली पकड़ने के कांटे प्राप्त हुए हैं जो मछली इत्यादि के शिकार के प्रमाण मिलते हैं। हल जोतने में काम लाने के लिए इस काल में बैलों को बघिया करने का काम शुरू किया गया तथा जूलो (Yoke) का प्रयोग इस काल में ही हुआ और भार वाहक के रूप में बैलों का प्रयोग दो तथा चार पहिए की (Wheeled) ढकी हुई गाड़ियों में किया जाने लगा।

व्यापारः

ताम्राष्मीय काल में व्यापार का अत्यधिक प्रचलन देखने को मिलता है। लगभग सभी स्थलों पर अतिरिक्त उत्पादन किया जाता था जिसका मुख्य उद्धेश्य व्यापार करना था। कीमती पत्थरों, धातुओं इत्यादि के आयात के लिए कृषि उपजों को दिया जाता था। जिन्हें इन लोगों को जरूरत से अधिक उपजाना पड़ता था ताकि वस्तु विनिमय के आधार पर व्यापार में इन्हें प्रयुक्त किया जा सके। बैल गाड़ियों का प्रयोग व्यापार के लिए किया जाता था।

धर्मः

यहां पर लगभग सभी स्थलों से लोगों की धार्मिक आस्था का पता चलता है लोग मतकों का संस्कार एक विशेष विधि द्वारा करते थे। मतकों के साथ खाने पीने की चीजें, आंगन में दबाते थे। इस काल में बैल की भी पूजा की जाती थी। उनका प्रयोग मांस, दूध तथा भारवाहक के रूप में मिलता है यहां ऊँट का प्रयोग मरूस्थल को पार करने के लिए किया जाता था। परन्तु इनाम गांव में ये लोग विशेष रूप से उत्तर दक्षिण की ओर गाड़ते थे। यहां पर सभी स्थानों से किसी अराध्य देवी की पूजा के प्रमाण मिलते हैं।

भारत में ताम्राष्मीय संस्कृतियां (1750-1000 ई. पूर्व)

भारत में हड़प्पा सभ्यता की नगरीय संस्कृति के पश्चात् स्थानीय तथा ग्रामीण ताम्राष्मीय संस्कृतियों का उद्भव हुआ जब मान गांवों में मिट्टी के बने घरों में रहता था। यहां के कृषक अपनी जमीन जोतते थे तथा पशुपालन करते थे। मृदभांडों से साथ ताम्बे की वस्तुओं का प्रयोग होना इस काल की विशेषता है। क्योंकि ये कृषक आवश्यकता से अधिक अन्न उपजा नहीं सकते हैं इस कारण न तो विकसित धातु क्रम ही प्रारम्भ हो सका न ही शहरीकरण हुआ। भारत में अलग-2 स्थानों पर ताम्राष्मीय संस्कृतियां विकसित हुई। यद्यपि उनका भोजन उत्पादन तथा तकनीक का स्तर तो एक समान ही रहा परन्तु अलग-2 के मृदभांडों के प्रयोग के कारण वे एक दूसरे से भिन्न की जा सकती है तथा तिथिक्रम में 1750 से 1000 ई. पूर्व के मध्य में इन्हें रखा जा सकता है। विभिन्न नदियों की घाटियों में हजारों की संख्यां में भारत में ताम्राष्मीय स्थल प्राप्त हुए है तथा इनमें से बहुत से उत्खनित भी हो चुका है। इस कारण उनके जीवन शैली का ज्ञान हमें भली भांति हो जाता है। भारत की ताम्राष्मीय संस्कृति 6 मुख्य क्षेत्रों में पनपी।

1. राजस्थान की आहाड या बनास संस्कृति-

राजस्थान की ताम्राष्मीय संस्कृति के मुख्य स्थल अहाड बागोर तथा गिलुण्ड हैं जो कि 2000 ई. पूर्व के आसपास की तथा सफेद चित्रों वाली काले तथा लाल (Black & Red) मृदभांड प्रमुख्यता मिलते हैं जिनमें कुछ बर्तन हड़प्पा संस्कृति से प्रभावित है तथा सौराष्ट्र तथा मालवा की संस्कृतियों के अतिरिक्त इस संस्कृति के ब्लूचि स्थलों से भी सम्पर्क रहे। उत्खनन में पत्थर की नींव वाले मिट्टी के घरों के प्रमाण मिले। इनके गेहूँ पैदा करने के प्रमाण हैं तथा गाय, भैंस, भेड़, बकरी, सूअर इत्यादि पालते थे। जो इनके भोजन का अंग थे इसके अतिरिक्त मछली, कछुआ, बटेर इत्यादि वे खाते थे ताम्बे की कुल्हाड़ियां, बलेड, आदि औजारों के अतिरिक्त ताम्बे के गहने, जैसे अंगूठियां, चूड़ियां इत्यादि भी मिलती है।

2. मध्य प्रदेश की ताम्राष्मीय संस्कृति-

मध्य प्रदेश की ताम्राष्मीय संस्कृति के महत्त्वपूर्ण स्थल कायथा महेश्वर, नावदातोली, नागदा, अवरा, मनोटी, ऐरण, बेसनगर इत्यादि हैं जहां के उत्खनन से इस संस्कृति का ज्ञान होता है। यहां पर समुहों में (clusters) में झोंपड़ियां बनाई जाती थी तथा कच्ची ईंटों के घर तथा नागदा, ऐरण इत्यादि में सुरक्षा दिवार के भी प्रमाण है। मृदभांडों में कायथा प्रकार के मृदभांड, लाल तथा काले मृदभांड, काले डिजाइन वाली लाल मदभांड जिसे मालवा मृदभांड ( Malwa ware) के अतिरिक्त सफेद लेप वाली (नावदा तोली) मृदभांड कला महत्त्वपूर्ण है तथा धूसर रंग थी जोरवे मृदभांड कला (Jorwe ware), धूसर मृदभांड इत्यादि हैं। इन मृदभांड कलाओं के बने कप, कटोरे, थालियां, चाय का बर्तन (Tea Pot) काफी सुन्दर थे।

यहां पर बहुत से प्रकार के अनाज तिलहन, दालें तथा फल पैदा करने के प्रमाण हैं। पशुओं में बैल, गाय, सूअर, भेड़, बकरी, हिरण तथा घोड़ा इत्यादि पालते तथा खाते थे। मछली पकड़ने में भी ये निपूण थे। ताम्बा तथा कांसे के औजारों तथा गहनों के अतिरिक्त सोने के गहने, बहुमूल्य पत्थरों के मणके ये प्रयोग करते थे। पकी मिट्टी के खिलौने काफी मात्रा में इन स्थानों पर मिलते हैं जिनमें बैल, पक्षी इत्यादि प्रमुख है।

3. उत्तरी दक्कन की संस्कृति-

उत्तरी दक्कन क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थल अहमदनगर जिले के जोरवे (Jorwe), नेवासा तथा दैमाबाद, पूणे के चन्दोली, सोनगांव तथा इनामगांव (Inamgaon) के अतिरिक्त प्रकाश तथा बहल इत्यादि है जिससे यहां की संस्कृति के प्रमाण मिलते हैं। इनामगांव तथा नेवासा में गडढे खोद कर बने घर (Pit houses) के प्रमाण हैं बाद में आयताकार घर भी बनने लगे जिनकी छतें घास फूस की बनी थी। इनामगांव में पत्थरों तथा मिट्टी से बनी किले की दिवार भी मिली है।

मृदभांड में सर्वप्रथम पीले धूसर रंग के सफेद डिजाइन वाले बर्तन प्रकाश तथा नेवासा से प्राप्त हुए। उसके बाद मालवा प्रकार के काले रंग से चित्रित लाल मृदभांड जिनमें टोटीदार लोटा महत्त्वपूर्ण हैं मिलने शुरू हुए। परन्तु दैमाबाद (Daimabad) से सुन्दर बर्तन मिले हैं परन्तु प्रमुख प्रकार थी जोरवे (Jorwe) प्राप्त मृदभांड जिनमें लोटे, कटोरे, टोटीदार बर्तन प्रमुख हैं जिन पर स्वस्तिक पशु आकृतियां तथा जामितिय (Geomatric) डिजाइन बने हैं ये लोग कपास, सण (flax) तथा रेशमी कपड़े पहनते थे तथा ताम्बे, हाथी दांत, कीमती पत्थरों के मणके के साथ-2 हड्डी तथा पकी मिट्टी के गहने भी पहनते थे ताम्बे का प्रयोग औजार बनाने के लिए होता था जिनमें कुल्हाड़ियां, छैनियां, छुरे, मछली पकड़ने के कांटे इत्यादि प्रमुख थे। यहां के कृषक गेहूं, जौ, बाजरा, तिलहन, चना, मटर पैदा करते थे। बेर, खजूर के प्रमाण भी मिले हैं पशुओं में वे भेड़, बकरी, गाय, भैंस, गधा, घोड़ा पालते थे तथा बराहसिंग, नीलगाय, हिरण, साम्भर, तीतर, बटेर का शिकार तथा मछली इत्यादि पकड़ते थे। अपने मतकों के साथ बर्तन, भोजन इत्यादि रखते थे।

4. दक्कन की ताम्राष्मीय संस्कृति-

दक्षिण भारत में बहुत से स्थानों से ताम्राष्मीय संस्कृति के प्रमाण मिलते हैं। इनमें ब्रह्मगिरी, मास्की, पिकलिहल, संगनकल्लु, टैकलकोटा, हल्लूर, उत्नूर, कुपगल, टीनरसिंहपुर इत्यादि से इस संस्कृति के प्रमाण मिलते हैं। जिसकी विशेषता यह है कि यहां नवपाषाणीय उपकरण भी प्राप्त होते हैं जिस कारण इस संस्कृति को नवपाषाण-ताम्राष्मीय संस्कृति कहा जाता है।

5. गंगा दोआब की ताम्रष्मीय संस्कृति-

गंगा दोआब में भाद्राबाद, बड़गांव, अम्बाखेड़ी, बरिछत्रा, अतरंजीखेड़ा, आलमगीरपुर नोह इत्यादि से ताम्राष्मीय संस्कृति के प्रमाण हैं। यहां गेरुए रंग के बर्तनों के साथ ताम्बे की निधियां भी प्राप्त हुई हैं। गेरुए रंग के बर्तन उत्तर हड़प्पा संस्कृति से मिलते जुलते हैं इसी कारण कई विद्यवान इन्हे हड़प्यायी रफूजी (Refugee) भी कहते हैं। ताम्बे के औजारों में कुल्हाड़ियां, हारपून, हुकवाला भाला, मूठे वाली तलवार, पुरूष आकृति (anthropomorphic figure) इत्यादि हैं।

6. पूर्व की ताम्राष्मीय संस्कृति-

पूर्व की ताम्राष्मीय संस्कृति के प्रमुख उत्खनित स्थल बिहार के चिरान्द, सोनपुर, वैशाली, मनेर, ओरपूप, बंगाल के पांडुराजर धीबी, महिस्दाल, ननुर, हरईपुर (बीरभूम जिला) बंकुरा का थुसीपुर इत्यादि हैं। यहां पर सामान्यता काली तथा लाल मृदभांड कला का प्रचलन था जो 1700 ई. पूर्व के आसपास की है। मिट्टी की इंटों का प्रयोग घर बनाने तथा चूने और मिट्टी मिला फर्स बनाए जाते थे।

अन्न उगाना, पशुपालन, शिकार, मछली पकड़ना लोगों के व्यवसाय थे चावल का प्रमाण पांडुराजर धीबी से मिलता है ताम्बे के औजार, मछली पकड़ने के कांटे, गहनों का प्रयोग होता था। कीमती पत्थरों के मणके, हड्डी के कंघे, ताम्बे की सुरमा डालने की सलाई इत्यादि का प्रयोग होता था, कातने बुनने की कला में भी ये दक्ष थे।

धातु युग

नव पाषाण के अंत में धातु का विकास हुआ। इस युग में मनुष्य ने धातुओं की खोज की। इससे मानव-जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। मनुष्य को सबसे पहले सोना और चांदी का ज्ञान हुआ। ये धातु विकास में कोई योगदान नहीं दे सके इसका मुख्य कारण यह था कि एक तो ये बहुत कम मात्रा में उपलब्ध थे और दूसरा इनका प्रयोग केवल आभूषण आदि में ही हो सकता था बड़े औजारों के निर्माण में नही। लेकिन मानव ने शीघ्र ही अन्य धातुओं की जानकारी प्राप्त कर ली, उसने तांबा, लोहा आदि खोज निकाला।

(क) ताम्र-युग-

धातु-युग का पहला चरण था, ताम्र युग। इसमें मनुष्य को तांबे के विषय में जानकारी मिली। ताँबा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था और इससे मजबूत हथियार और औजारों का निर्माण हो सकता था।

(ख) कांस्य युग-

धातु-युग का दूसरा चरण था कांस्य युग। इसने मनुष्य ने तांबा और टिन को मिश्रित कर कांसा बनाने की जानकारी हासिल कर ली। कांसा का अविष्कार होते ही, औजार मिश्र धातु से बनने लगे। ये औजार पत्थर और तांबे के औजारों से अधिक मजबूत थे। इस काल मे जहाज निर्माण, औजारों का निर्माण तथा बढईगिरी आदि के मामले में प्रगति हुई।

(ग) लौह-युग-

धातु युग का सबसे महत्वपूर्ण चरण लौह युग है। लोहे की खोज से औजारों के निर्माण तथा कृषि के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। 1000 ई० पू० से मनुष्य ने लोहे का प्रयोग शुरू कर दिया था। लोहा अब तक खोजे गए सभी धातुओं से ज्यादा उपयोगी व सहायक था। अब मनुष्य लोहे से भारी अस्त्र-शस्त्र, कृषि के औजार तथा जीवनोपयोगी सामान बनाने लगा। लोहे की खोज ने मशीनों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और इससे विज्ञान को विकसित करने में काफी सहायता मिली। धातु-युग में मनुष्य सभ्य बना और उसके सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक अवस्था में परिवर्तन हुआ और वे विकसित और सुदृढ़ हुए। राज्य, राजा, साम्राज्य आदि इसी काल में उदित हुए। लेखन कला भी मनुष्य ने इसी काल में सीखा।

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