Heade ads

जनपद काल

जनपद काल

प्रारम्भिक वैदिक काल में लोहे के प्रयोग का स्पष्ट वर्णन नही है परन्तु उत्तर वैदिक काल में कृष्ण अयस का संदर्भ निश्चय ही लोहे का द्योतक है। लोहे का प्रयोग औजार बनाने के लिए होता है जो कि पहले से प्रयुक्त ताम्बे से कहीं मजबूत है। प्रारम्भ में गंगा घाटी में लोहे के प्रयोग से हथियारों का निर्माण हुआ। इससे जंगलों की कटाई में सुविधा हुई तथा खेती के लिए नई भूमि उपलब्ध हुई। दूसरे हल के फालों (Plough Share) के रूप में इसके प्रयोग से न केवल जमीन को जोतना आसान हुआ अपितु गहराई तक खुदाई भी संभव हुई। गंगा प्रदेश के पानी की सुविधा के कारण चावल की खेती आसान हुई जो कि पारम्परिक गेंहुँ, जौ इत्यादि से अधिक लाभकारी है। इस कृषि में परिवर्तन के कारण एक नए प्रकार के समाज का प्रारम्भ हुआ जो मूलभूत रूप में वैदिक समाज से भिन्न था। समकालीन ब्राह्मण, बौद्ध इत्यादि ग्रन्थों से हमें इस काल का ज्ञान होता है।

इस काल में (1000 ई०पू० से 600 ई०पू०) में जनपद तथा महाजनपदों का वर्णन है। वैसे तो कुछ जनपदों का उत्तर वैदिक काल में में भी वर्णन है। ये जनपद सामान्यतः वैदिक जनों के नाम पर थी जैसे कुरु जनपद, पांचाल जनपद, इत्यादि। पहली बार भिन्न प्रकार की मानव बस्तियों को क्षेत्र विशेष प्रकार के भौगोलिक नामों पर देखा गया है। 

इस काल के ग्रन्थों में विभिन्न क्षेत्र तथा भौगोलिक विभाजनों का स्पष्ट उल्लेख है जैसे अहिछत्रा, हस्तिनापुर, कौशान्दी, उज्जैन, श्रावस्ती, वैशाली इत्यादि क्योकिं जनपदों तथा महाजनपदों पर एक राजा के द्वारा शासन किया जाता था तथा उनके आधीन क्षेत्र में एक ही जन या कबीले के लोग न होकर विभिन्न जन समुदायों के लोग थे। आपस में इन जन पदों का अपना अधिकार क्षेत्र बढाने के लिए संघर्ष चलता रहा तथा महाजनपदों के शक्तिशाली राजाओं के बीच दूसरे जनपदों को मिलाने की होड़ लगी रही जो अन्त में मगध साम्राज्य के उत्कर्ष में जाकर सम्पन्न हुई। 

दूसरी ओर इस काल में कुछ गणराज्यों की स्थापना भी इस काल में हो चुकी थी जो गणतन्त्र रुप में शासित के इन लच्छिवी, वज्जी इत्यादि थे। जहां पर राज्य एक शासक के हाथ में होकर पूरे समुदाय के अधिकार में थे। कभी-2 उन्हे राजा की उपाधि भी दी जाती थी। एक गणराज्य में 7007 राजा (सदस्य) थे।

इसके अतिरिक्त इस काल के समाज में एक अन्य मूलभूत परिवर्तन भी देखने को मिलता है वह है कि बहुत से लोगों का मूल रुप से कृषि पर आधारित न होना। वह संभव हुआ आवश्यकता से अधिक उत्पादन के कारण। इससे लोगों में कृषि उपज से अतिरिक्त अन्य चीजों की मांग बढी। इससे एक नए वर्ग का उदय हुआ जो वस्तुओं के विनिमय करता था। विभिन्न व्यक्तियों एवं क्षेत्रों के बीच वस्तुओं के आदान प्रदान की प्रक्रिया के कारण व्यवसायिक मध्यस्थों और व्यापारियों का यह वर्ग श्रेष्ठिन (या सेठों) था जो काफी धनी भी हो गए थे। प्रथम बार इस काल में हमें न केवल पशुधन के अतिरिक्त अनाज का धन के रुप में देखा जाने लगा। इसी कारण धनी व्यापारियों का महत्व समाज में बड़े-2 भूस्वामियों की भांति हो गया। व्यापार में अधिकता होने के कारण विनिमय की दिक्कतों को दूर करने के लिए धातु का विनिमय के माध्यम के रुप में प्रयोग होने लगा। कालान्तर इनकी शुद्धता परखने के लिए इन पर व्यापारियों की इन श्रेणियों ने अपने चिन्ह लगाने शुरु कर दिए। इस तरह इस काल में धातु के सिक्कों की शुरुआत हो गई।

janpad kal, janpad kaal hindi me
जनपद काल

भारत के प्रारम्भिक सिक्कों में 'नेगम' प्रकार के सिक्के इन्ही व्यापारिक श्रेणियों के चलाए हुए थे। व्यापार के कारण ही कस्बों एवं नगरों का उदय हुआ तथा भारत का द्वितीय नगरीकरण भी इसी काल में हुए परन्तु अधिकतर लोग गांवो में रहते थे तथा कृषि कार्य में खाद्य उत्पादन में लगे थे। वैदिक चर्तुवर्ण व्यवस्था इस काल में भी सैद्धान्तिक रूप से चल रही थी परन्तु इस काल में सभी सामाजिक समुहों का वर्णन इस व्यवस्था में परिभाषित नही है जैसे दासों का होना, उनकी स्थिति इत्यादि । इस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था का उदय गंगा घाटी में हुआ तथा यहीं पर जनपद, महाजनपद इत्यादि बने ।

स्त्रोत :-

इन जनपदों एवं महाजनपदों के बारे में हमें अधिकतर जानकारी वैदिक तथा बौद्ध साक्ष्यों से प्राप्त होती है। वैदिक ग्रन्थों में उस काल के उपनिषद हैं। यद्यपि ये प्रमुखतः दार्शनिक (Philosphy) से सम्बन्धित है परन्तु इनमें जहाँ-तहाँ पर कृषक समुदायों की बस्तियों के बारे में विविध जानकारी है। इसके अतिरिक्त बौद्ध ग्रन्थों में विनयपिटक, सुत्तपिटक तथा जातक कथाएं इत्यादि भी हैं। इन ग्रन्थों में तथा अन्य साक्ष्यों में विभिन्न भौगोलिक विभाजनों जैसे अहिक्षेत्र, हस्तिनापुर, कौशाम्बी, श्रावस्ती, वैशाली इत्यादि का वर्णन है। इसके अतिरिक्त इस काल के पुरातात्विक साक्ष्य उत्तरीय कृष्ण पालिशदार (North Black Polished Ware) मृदभांड तथा उनका संस्कृति के रूप में मिलती है। लोहकाल की इस मृदभांड संस्कृति में लाहे का प्रचुर प्रयोग, सिक्कों का प्रयोग तो मिलता ही है तथा साथ ही अन्य वस्तुओं, घरों, इमारतों, गाँवों, कस्बों, तथा शहरों के बारे में पता चलता है।

जनपद-

समकालीन साहित्य में हमें बहुत सी सुव्यवस्थित बस्तियों जैसे ग्राम, नगर, जनपद, महाजनपद इत्यादि का उल्लेख मिलता है। इनमें जनपद तथा महाजनपद महत्वपूर्ण है।

जनपद का शाग्दिक अर्थ है जहाँ लोग पैर रखते हैं" वैदिक साहित्य में जन का वर्णन एक कुल के सदस्य के रूप में मिलता है।

ऋग्वैदिक काल में तो जन के सदस्य मुख्यतः पशुपालक थे तथा थोड़ी बहुत कृषि करते थे। ये जन हमेशा ही घुमक्कड़ थे तथा चारागाहों की तलाश में घुमते थे परन्तु उत्तर वैदिक काल में जन के लोगों ने एक स्थान पर रहकर कृषि कार्य शुरु कर दिया। इस तरह की कृषि बस्तियां जनपद कहलाई। प्रारम्भ में इनका नामकरण जनों के नाम पर था जैसे कुरु जनपद, पांचाल जनपद इत्यादि। परन्तु बाद में लोहे के प्रयोग, मध्य गंगा में धान की कृषि, जनसंख्या में वद्धि इत्यादि के कारण ये जनपद आकार में बढ़ते चले गए। इसके साथ ही आपसी संघर्ष तथा दूसरे जनपदों को अपने जनपद में मिलाने से न केवल जनपद का आकार ही बढ़ा बल्कि इसमें सामाजिक परिवर्तन भी हुए।

अब जनपद में एक जन या वंश के लोग न होकर विभिन्न जन या जनपदों के लोग होने लगे। दूसरे कृषि उत्पाद के अतिरिक्त परस्पर युद्धों के दौरान लूटपाट से धन की प्राप्ति भी होने लगी। इससे प्रारम्भिक काल के जनपद में स्वेच्छा से राजा या मुखिया का भाग, भोग, बलि इत्यादि के अतिरिक्त जनपद के दूसरे जनों से कर लेना भी प्रारम्भ हो गया। इससे जनपदों में छोटी-छोटी जनजातियों का विलय हुआ जैसे पांचाल में अनेक छोटी-छोटी जनजातियां थी। साथ ही इन जनपदों की आंतरिक सामाजिक, राजनैतिक संरचना में भी परिवर्तन हुए। आर्थिक क्षेत्र में अब पशु के साथ भूमि को भी सम्पति के रूप में मान्यता मिली।

नए समुदायों का उदय-

इन मूलभूत परिवर्तनों के कारण तत्कालीन समाज में कई नई श्रेणियों एवं समुहो का उदय हुआ इनमें भूसम्पन्न पारिवारिक इकाई का मुखिया गृहपति था। कई गहपति तो काफी समद्ध हो गए थे जिनके पास अपार भूमि थी। भूमि इस काल में कुल की सम्पति मानी जाती थी। प्रारम्भ में भूमि पर क्षत्रियों या शासक वर्ग तथा अन्य सामाजिक समुहों (जैसे ब्राह्मण) ने अपना कब्जा कर लिया। यद्यपि ये लोग उत्पादन कार्य में नही लगे थे इसलिए इन्हें उत्पादन का एक भाग प्राप्त होता था। इस प्रकार कर प्रणाली तथा संग्रहण मानी जाती थी। प्रारम्भ में भूमि पर क्षत्रियों या शासक वर्ग तथा अन्य सामाजिक समुहों (जैसे ब्राह्मण) ने अपना कब्जा कर लिया।

यद्यपि ये लोग उत्पादन कार्य में नही लगे थे इसलिए इन्हें उत्पादन का एक भाग प्राप्त होता था ।इस प्रकार कर प्रणाली तथा संग्रहण कर सम्पति बढ़ाने की प्रवृति का उद्भव हुआ। इन समुहों से गृहपति का उदय हुआ जो अपनी भूमि पर शुद्रों, कर्मकारों एवं युद्धबन्दी दासों से कृषिकर्म करवाते थे। जिनके श्रम से अतिरिक्त खाद्य उत्पादन कर गहपति बड़े व्यक्तिगत भूस्वामी बनने लगे।

व्यापारी वर्ग-

दूसरा महत्वपूर्ण वर्ग इस काल में व्यपारी या श्रेष्ठिन (सेठ या सेठी) वर्ग का था। बौद्ध साहित्य में सेट्ठी शब्द बहुत बार प्रयुक्त हुआ ये लोग व्यपार एवं विनियम लगे थे। ब्राह्मण ग्रन्थों में सामान्यतः व्यापारिक वर्ग को वैश्य में रखा गया है परन्तु इस काल में व्यपारिक एवं आर्थिक गतिविधियों का एक अलग रूप बन चुका था। अपने व्यापार एवं श्रेणी के सदस्यों के लिए इन्होंने अपनी अलग-अलग श्रेणियो बना रखी थी तथा नियम बनाए हुए थे। जिनके नियमों को शासक वर्ग भी मान्यता देता था। ये स्वतन्त्र व्यापारी थे जो सामान्यत शहरों में रहते थे। इस तरह इस काल में स्वतन्त्र व्यापार एवं कृषि के कारण निजी सम्पति का अस्तित्व सामने आया।

शासक एवं शासिक वर्ग-

इस प्रकार के सामाजिक एवं आर्थिक विकास के कारण राजनैतिक परिवर्तन होना प्रारम्भ हो गया। जनपदों के राजनैतिक स्वरूप में भी परिवर्तन हुए। पहले राजा शब्द एक कुल के मुखिया के लिए प्रयुक्त होता था अब वह एक विशेष स्थान पर राज्य करने वाला, नियमित कर वसूलने वाला तथा अपनी स्वयं की सेना का मालिक था। इस सेना को वह कर से प्राप्त धन से वेतन देता था। कृषक से कर लिया जाता था। यही नही बल्कि कर वसूली के लिए नियुक्त कर्मचारियों का वर्णन भी इस काल में हमें मिलता है। कृषि उत्पादन से भाग वसूली के लिए भागदुध नाम से कर्मचारी होता था। एक अन्य अधिकारी राजुगाहक था जो कृषि भूमि का सर्वेक्षण करता था। जातकों में तो हमें राजा के गोदामों, वहाँ नियुक्त कर्मचारियों इत्यादि का भी उल्लेख मिलता है।

इस काल में जनपद तथा महाजनपदों के नाम किसी कुल के नाम पर नही होते थे क्योकिं अब जनपदों के आपस के युद्धों के कारण एक बड़े जनपद या महाजनपद में अनेक जनों के विलय के कारण इस तरह के नाम तर्कसंगत नही थे। इस तरह काशी, वत्स, मगध, अवन्ती इत्यादि नाम किसी जन विशेष के कारण नही थे बल्कि क्षेत्रीय आधार पर थे। ये जनपद आपस में संघर्षरत थे तथा शत्रु पर आक्रमण कर लूटपाट करते थे तथा माल राजा के कोष में जाता था न कि उसका आपस में बंटवारा होता था।

इसके अतिरिक्त कर वसूलने तथा एक सेना होने के कारण राजा का गौरव तथा शक्ति बढ़ने लगी। राजा किसानों एवं से कर वसूलने के कारण उनकी सुरक्षा करता था। वह आन्तरिक एवं बाहरी दोनों तरह की हो सकती थी। इस प्रकार धीरे-धीरे राजनैतिक-भौगोलिक ईकाइयां बड़ी होती चली गई तथा महाजनपद बनी। छठी शताब्दी ई०पू० तक पहुँचते-पहुँचते कई महाजनपद तो पूर्व काल के स्वायत्त जनपदों को शक्ति से जीत कर मिलाने से बने।

आशा हैं कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।

Back To - प्राचीन भारत का इतिहास

Post a Comment

0 Comments