महाजनपद काल
छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक भारत में कोई भी सर्वभौम शक्ति नही थी अपितु पूरा भारत तथा विशेषकर उत्तर भारत में काफी मात्रा में स्वतन्त्र शक्तियां राज्य कर रही थी। इनमें चार तो बड़े शक्तिशाली महाजनपद थे जिनमें मगध, कौशल, वत्स तथा अवन्ति थे। इसके अतिरिक्त बहुत से छोटे महाजनपद थे जिनमें काशी, कुरु, पांचाल, मिथिला, शूरसेन, अंग, कलिंग, अश्मक, गांधार, कम्बोज इत्यादि थे। पुराणों में हमें हैहेय तथा वितिहोत्र जनपद का भी वर्णन मिलता है परन्तु ये कहाँ स्थित थे इसकी जानकारी नही मिली है।
प्राचीन भारतीय
साहित्य में सोलह
महाजनपदों का उल्लेख मिलता है इनमें बौद्ध ग्रन्थों में
बार-बार इनका वर्णन मिलता है इसके अतिरिक्त जैन ग्रन्थ भी हमें इनके
होने का प्रमाण देते है यद्यपि दोनो में दी गई सूची कुछ भिन्न है। बौद्ध साक्ष्यों
में हमें सोलह महाजनपदों (षोडस महाजनपद) का वर्णन मिलता है जो बुद्ध
के काल में फल-फूल रहे थे।
अंगुत्तरनिकाय में
16 महाजनपद-
अंगुत्तरनिकाय (Anguttara Nikaya), जो कि सुत्तपिटक (Sutta Pitaka) का एक भाग है, में निम्नलिखित 16
महाजनपदों का वर्णन है-
महाजनपद | राजधानी |
---|---|
अंग | चम्पा |
मगध | पाटलिपुत्र (राजगृह, गिरिव्रज) |
काशी | वाराणसी |
कौशल | श्रावस्ती |
वज्जि | वैशाली |
मल्ल | कुशीनारा, पावा |
चेदी | शक्तिमति |
वत्स | कौशाम्बी |
कुरु | इन्द्रप्रस्थ |
पाँचाल | अहिच्छत्रं, काम्पिल्य |
मत्स्य | विराटनगर |
शूरसेन | मथुरा |
अश्मक | पोतन |
अवन्ति | उज्जयिनी, महिष्मती |
काम्बोज | राजपुर |
गांधार | तक्षशिला |
महावस्तु में भी सोलह जनपदों
की सूची है लेकिन इनमें गांधार तथा कम्बोज के नाम के स्थान पर सिबी
तथा मध्य भारत का नाम जोड़ा गया है।
भगवती सूत्र या
व्याख्या प्रज्ञाप्ति में सोलह महाजनपद-
जैन ग्रन्थ भगवती
सूत्र या व्याख्या प्रज्ञाप्ति में भी सोलह महाजनपदों
का वर्णन है परन्तु इसमें कुछ भिन्न नाम दिए गए है- (1) भंग (2) वंग (3)
मगह (4) मलय (5) मालव (6) अच्छ (7) वच्छ (8) कोच्छ (9) पढ़ (10) लाढ (या राढ) (11)
बज्जि, वज्जि (12) मोली (13)
काशी (14) कोशल (15) अवाह तथा (16) सम्भुत्तर।
ब्राह्मण ग्रन्थों
में महाजनपद-
ब्राह्मण ग्रन्थों में भी
हमें महाजनपदों का वर्णन मिलता है, जैसे महागोविन्द सुत्तांत
(Mahagovinda
Suttanta) में राजा रेणु
के साम्राज्य को सात अलग-अलग राज्यों बांटा गया है तथा उनकी राजधानियों
के नाम भी दिए हुए है, ये निम्न हैं-
महाजनपद | राजधानी |
---|---|
अंग | चम्पा |
कलिंग | दन्तपुर |
काशी | वाराणसी |
अस्सक | पोतन या पोटन |
अवन्ति | महिष्मति (महिस्सति) |
सोवीर | रोरूक |
विदेह | मिथिला |
बौद्ध साक्ष्यों
में-
यद्यपि पौराणिक
तथा बौद्ध साक्ष्यों में काफी समानता है तथापि इनमें भेद भी है जिसका कारण
है कि यह सूचियां अलग-अलग समय में बनाई गई थी। इसके अतिरिक्त बहुत से गणतनत्रतात्मक
राज्य भी इस काल में थे परन्तु पुराणों में इनका वर्णन नही हैं। बौद्ध साक्ष्यों
से हमें इनका अच्छा वृत्तान्त मिलता है, ये निम्नलिखित हैं-
1. कपिलवस्तु के
साकिय या शाक्य
2. वैशाली के
लिच्छवी
3. मिथिला के
विदेह
4. पावा तथा
कुशीनारा के मल्ल
5. रामगाम के
कोलिय
6. अल्लकप्प के
बुलि
7. केशपुत्त के
कालाम
8. पिप्फलीवन के
मोरिय
9. सुंसमार पर्वत
क्षेत्र के भग्ग।
पाणिनी के व्याकरण
में-
बौद्ध साहित्य के
इन गणराज्यों का प्रमाण हमें पाणिनी के व्याकरण से भी मिलता है जहां
इन्हें संघ या गण का नाम दिया गया है। इनमें क्षुद्रक, मालव, अम्बस्थ, हास्तिनायन, प्रकण्व, माद्र, आप्रीत, वसाति, भग्ग, शिबी, आश्वायन तथा आश्वाकायन
इत्यादि है। इनमें से कुछ तो सिकन्दर के आक्रमण के समय भी थे।
महाजनपद काल |
इस प्रकार हम
देखते हैं कि ईसा से छठी शताब्दी पूर्व न केवल राजतन्त्र (महाजनपद)
विद्यमान थे साथ ही गणराज्य भी विद्यमान थे।
सोलह महाजनपद-
1. अंग-
अंग महाजनपद को, जैन ग्रन्थ प्रज्ञापना, वंग के साथ आर्य
लोगों की प्रथम श्रेणी में रखते हैं। महाभारत के विवरण के आधार पर आज का भागलपुर
तथा मुंघेर जिले इसका क्षेत्र थे। यह मगध के पूर्व में चम्पा
नदी के बीच का क्षेत्र था जिसकी उत्तरी सीमा गंगा थी। इसकी राजधानी चम्पा
उस काल के बड़े नगरों में से एक थी जो कि उस समय का व्यापारिक केन्द्र थी
तथा दिघ निकाय के अनुसार यह उस समय के 6 व्यापारिक एवं वाणिज्यिक
केन्द्रों में से एक थी। यहां के व्यापारी दूर-दराज स्वर्णभूमि तक समुन्द्री मार्ग
से व्यापार करते थे।
इसके अतिरिक्त दो
अन्य महत्वपूर्ण नगर, भद्दिय (Bhaddiya) तथा अस्सपुरा भी
इस महाजनपद में थे। अंग का मगध में भी राजनैतिक संघर्ष था
तथा अंत में यह मगध साम्राज्य में शामिल कर लिया गया। भागलपुर में चम्पा
नामक स्थल पर करवाई गई उत्खनन से भी इसके छठी शताब्दी ई०पूर्व में होने के
प्रमाण मिलते हैं। यहां करवाए गए उत्खनन में उत्तरी कृष्ण पालिश वाले मृदभांड (Northen Black Polished
Ware) संस्कृति के
प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
2. मगध-
मगध महाजनपद दक्षिण बिहार
के पटना व गया जिलों पर स्थित था। इसकी प्रारम्भिक राजधानी राजगृह
थी जो चारो तरफ से पर्वतो से घिरी होने के कारण गिरिव्रज के नाम से जानी
जाती थी। मगध की स्थापना बृहद्रथ ने की थी और ब्रहद्रथ के
बाद जरासंध यहाँ का शासक था। शतपथ ब्राह्मण में इसे 'कीकट' कहा गया है। आधुनिक पटना
तथा गया जिले और आसपास के क्षेत्र। सभी महाजन पदों में सबसे शक्तिशाली महाजनपद
के रूप में जाना जाता है इस पर हर्यक, नंद, मौर्य आदि ने
शासन किया। भविष्य में जाकर चंद्रगुप्त मौर्य ने धनानंद को
हराया और वह मगध का प्रतापी शासक बना
3. काशी-
इस काल में काशी
एक बहुत समृद्ध महाजनपद था। जातकों (Jatakas) में इसका क्षेत्रफल 300 लीग (Leagues) था। काशी की राजधानी के
एक तरफ वरुणा तथा दूसरी तरफ असी नदी बहती थी। इसी कारण इसका नाम वाराणसी
पत्र था। जातकों में काशी और कौशल में संघर्ष का वर्चस्व के लिए था। इसके
अतिरिक्त काशी और अंग तथा काशी और मगध में भी खींचातानी रही है, जिसे महात्मा बुद्ध के
काल में कौशल ने अपने राज्य में मिला लिया था।
वाराणसी जो काशी की राजधानी था
सूती कपड़े तथा घोड़ों की मण्डी के रूप में विख्यात था। बुद्ध के समय इस
शहर के उदित होने के प्रमाण हैं परन्तु राजघाट नामक स्थल से उत्खनन में तो
इसके इतने बड़े व्यपारिक केन्द्र होने के प्रमाण नही मिले। परन्तु साहित्य में
प्रमाण इसके विपरीत मिलते हैं। दशरथ जातक में दशरथ तथा राम
के वंश को काशी का राजा बताया गया है। साथ ही जैन साक्ष्य श्री पार्श्वनाथ
के पिता को बनारस का राजा बताते हैं। महात्मा बुद्ध ने भी अपना पहला उपदेश बनारस
के पास सारनाथ में दिया था।
4. कौशल-
कौशल महाजनपद आज के अवध
क्षेत्र को ही माना जा सकता है जिसके पश्चिम में गोमती, पूर्व में सदानीरा, दक्षिण में स्यान्दिका
(साई) नदी थी जबकि उत्तर में नेपाल की पहाड़ियां थी। साहित्य में हमें प्रमाण
मिलते है कि कौशल दो भागों में विभाजित था उत्तरी तथा दक्षिणी जिनके मध्य सरयु
नदी बहती थी। दक्षिणी कौशल की राजधानी कुशवती तथा उत्तरी कौशल की राजधानी श्रावस्ती
थी। इसके अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण नगर साकेत तथा आयोध्या थे। कुछ
छोटे नगर सेतव्या,
उक्कटठा तथा
कीटागिरी थे। काशी की विजय के पश्चात् कौशल एक शक्तिशाली राज्य बन गया था तथा इनका
प्रभुत्व कपिलवस्तु के शाक्यों पर भी हुआ तथा साथ के क्षेत्र केसपुत्त (Kesaputta) के कालमों (Kalamas) इत्यादि पर भी हुआ।
कौशल का राजा प्रसेनजित
महात्मा बुद्ध के समकालीन था तथा अपने समय के चार प्रमुख राजाओं में से एक था। मगध
के राजा अजातशत्रु के साथ इसका संघर्ष चलता रहा। कौशल के राजा ने
ब्राह्मणवाद तथा बौद्ध दोनों को प्रोत्साहन दिया। यह तो स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा
सकता कि प्रसेनजित बौद्ध मतवालम्बी हो गया था परन्तु वह महात्मा बुद्ध
का प्रशंसक तथा मित्र था। बौद्ध साहित्य में दोनों के परस्पर वार्तालापों का वर्णन
है।
प्रसेनजित का शाक्यों से भी स्नेह
था, जिस कुल में महात्मा
बुद्ध पैदा हुए। एक बार उसने शाक्य राजकुमारी से विवाह करने की
इच्छा की। शाक्य इतने शक्तिशाली राजा को न तो नाराज कर सकते थे और न ही अपने अपने
स्वाभिमान से समझौता कर सकते थे। उन्होंने चालाकी से एक दास लड़की को शाक्य
प्रमुख की बेटी बताकर उसकी शादी प्रसेनजित से कर दी। इस विवाह से एक
पुत्र (विढुढाव) का जन्म हुआ। विढुढाव जब अपने नाना के यहां गया तब
उसे अपनी माता के बारे में सच्चाई का ज्ञान हुआ। गुस्साए प्रसेनजित
ने अपनी रानी तथा पुत्र दोनों को घर से निकाल दिया परन्तु महात्मा बुद्ध
के समझाने पर उसने उन दोनो को पुनः स्वीकार कर लिया।
इस कहानी में
कितनी सच्चाई है यह तो कहा नही जा सकता परन्तु इतना जरूर है कि उसके काल के अन्त
में उसे आन्तरिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। एक बार जब वह महात्मा बुद्ध से इस
बारे में बातचीत कर रहा था तो उसके मंत्री ने विढुढाव को राजा घोषित कर
दिया। उसकी खुद प्रजा ने उसका साथ नही दिया तो वह सहायता के लिए मगध के
राजा अजातशत्रु से सहायता मांगने गया परन्तु शहर के द्वार पर ही उसकी मत्यु
हो गई।
मइिझम निकाय में यह
वर्णन है कि विढुढाव ने शाक्यों को नष्ट कर दिया। इसके बाद कौशल का
नियन्त्रण कई छोटे-छोटे राजाओं के हाथ में आया जिसके बाद मगध ने इस को अपने
क्षेत्र में मिला लिया।
5. वज्जि-
वज्जि आज के वैशाली
क्षेत्र का एक महाजनपद था जिसमें आज के बसाढ़ तथा उत्तरी बिहार
का क्षेत्र था। वज्जि शब्द का अर्थ है पशुपालक समुदाय। इसके
संघ में आठ या नौ कुलों का समुह था जिनमें विदेह, लिच्छवी, ज्ञात्रिक तथा
वज्जि प्रमुख थे। लिच्छवियों की राजधानी वैशाली इस संघ का प्रमुख
केन्द्र थी। रामायण में इसे एक बहुत ही समृद्ध शहर बताया गया है। विदेह
प्रारम्भ में राजतन्त्र था जिसकी राजधानी मिथिला थी, जिसके पूर्व में कौशिकी, दक्षिण में गंगा, पश्चिम में सदानीरा तथा
उत्तर में हिमाचल पर्वत थे। कनिकम ने आज के जनकपुर (नेपाल स्थित) पुर का
समीकरण मिथिला से किया है।
जैन साहित्यों के
अनुसार भगवान महावीर ज्ञात्रिक संघ से थे जिनकी राजधानी कण्डपुरा
या कुण्डग्राम थी जो वैशाली के समीप ही है। इसके अतिरिक्त जो अन्य गणराज्य
इस संघ में सम्मिलित थे उनके बारे में हमें अधिक ज्ञान नही है। इन सभी गणराज्यों
का संचालन लोगों द्वाराचुने हुए होता था। ये लोग अपने मामले आपसी सभाओं में तय
करते थे। एक जातक कथा के अनुसार वज्जियों पर अनेक वंशो
के सरदार शासन करते थे। छठी शताब्दी में यह एक प्रमुख महाजनपद था परन्तु न
तो इसके पास सेना थी तथा न ही कृषि राजस्व प्राप्त करने की कोई व्यवस्था थी।
कुछ विद्वानों का
मत है कि लिच्छवी विदेशी उत्पत्ति के थे परन्तु साक्ष्य इसके विपरीत हैं।
भारतीय साहित्य में इन्हे क्षत्रिय माना गया है। छठी शताब्दी में इनके संघ
को उनकी एकता,
शक्ति तथा
गणतन्त्रत्मक (Republican)
ढ़ाचें के कारण
जाना जाता था। कौशल के राजा प्रसेनजित से इनके घनिष्ठ सम्बन्ध थे
तथा अपने पड़ौसी मल्लों के साथ भी अच्छे सम्बन्ध थे। ऐसा कहा जाता है कि इन्होंने बिम्बिसार
(Bimbisara) के काल में अपनी सेना मगध
पर आक्रमण करने को भेजी। निरयावली सूत्र (Nirayavali Sutra) के कथनानुसार बिम्बिसार
ने लिच्छवी राजकुमारी चेल्लना से शादी की थी जो वैशाली के राजा चेटक
(Chetaka) की पुत्री थी।
डा० भण्डारकर के अनुसार यह वैवाहिक
सम्बन्ध दोनो शक्तियों के बीच शान्ति समझौते के स्वरूप सम्पन्न हुआ परन्तु यही इस
संघ के अन्त का कारण बना। बिम्बिसार के पुत्र अजातशत्रु ने इस वज्जि
संगठन को नष्ट कर दिया परन्तु इसमें उसे बहुत कठिनाई हुई क्योकिं इस संघ की आपसी
एकता ही इसकी बड़ी शक्ति थी। इालिए अजातशत्रु ने अपने मंत्री वस्सकार
को इनमें बैर के बीज बो एकता खत्म करने का जुम्मा सौंपा। कई वर्षों की मेहनत के
बाद ही यह कार्य संभव हुआ तब अजातशत्रु ने लिच्छवियों पर आक्रमण कर हराया।
6. मल्ल-
बौद्ध तथा जैन साहित्य
में मल्ल का वर्णन पूर्वी भारत के एक शक्तिशाली संघ के रूप में दिया गया
है। भीमसेन को मल्ल के प्रमुख पर विजय करने वाला बताया गया है। महाभारत
के भीष्म पर्व में भी इसके पूर्वी भारत के अंग, वंग तथा कलिंक के साथ वर्णन किया गया है। प्राचीन ग्रन्थों
में मल्ल एक क्षत्रिय राजवंश के रूप में दर्शाया गया है। ऐसा कहा
गया है कि मल्लों की नौ क्षेत्र तथा प्रत्येक का एक अलग क्षेत्र था। बुद्ध
के काल में इनके दो प्रमुख केन्द्र थे। एक का प्रमुख केन्द्र कुशीनारा में
तथा दूसरे का पावा में था। कुशीनगर उत्तरप्रदेश के गोरखपुर
जिले में कसिया क्षेत्र माना जाता है जबकि पावा के बारे में
विद्वानों के मतभेद हैं। इन दो के अतिरिक्त कई अन्य शहर भी थे जैसे भोगनगर, जो जम्बुग्राम तथा पावा
के बीच था, अनुपिया जो अरोमा नदी तथा
उरूवेलकप्प के मध्य स्थित था।
लिच्छवियों की तरह ही मल्लों
को भी मनु व्रात्य क्षत्रिय मानते है। महापरिनीब्बान सुत्तान्त
(Mahaparinibbana
Suttanta) में इन्हे वशिष्ठ
या वासेट्ठ कहा गया है। विदेहों के समान ये भी प्रारम्भ में एक राजतन्त्रात्मक
प्रणाली वाले थे। कुस जातक में इक्ष्वाकु का राजा बताया गया है
परन्तु बाद में मल्लों ने गणतन्त्रात्मक प्रणाली अपना ली जिसके प्रत्येक
सदस्य को राजा कहा गया है। मल्ल तथा लिच्छवियों ने अपना एक संघ बना रखा था जबकि भद्दसाल
जातक इनके मध्य लड़ाइयों के भी संदर्भ देता था। महात्मा बुद्ध के
काल तक मल्ल एक स्वतन्त्र ईकाइ थे जिन्होंने महात्मा बुद्ध के
अवशेषों में अपना अधिकार जताया था परन्तु बुद्ध की मत्यु के कुछ समय बाद ही
इन्होंने अपनी स्वतन्त्रता खो दी तथा मगध ने इन्हे अपने साम्राज्य में मिला
लिया।
7. चेदी या चेती-
इनकी दो अलग-अलग
बस्तियां थी इनमें एक तो नेपाल की पहाड़ियों में तथा दूसरी आज के बुन्देलखण्ड
में साक्ष्यों के अनुसार इनका क्षेत्र यमुना के समीप कुरु तथा वत्स
महाजनपद के बीच स्थित था। इनकी राजधानी सोत्थिवतीनगर थी जिसको
महाभारत की शुक्ती या शक्तिमती से जोड़ा जा सकता है जो उत्तरप्रदेश
के बान्द्रा जिले स्थित है। इनके अन्य प्रमुख नगर सहजाति तथा त्रिपुरी
थे। चेदी एक बहुत ही प्राचीन गण था। इनकी एक शाखा ने कलिंग
में साम्राज्य बनाया था जिनका बाद में हाथीगुम्फा अभिलेख में भी वर्णन है।
8. वत्स-
वत्स का क्षेत्र बहुत ही
समद्ध क्षेत्र था तथा उच्चकोटि के सूती कपड़ों के लिए प्रसिद्ध था।
इसकी राजधानी कोशाम्बी थी जो आज के इलाहाबाद जिले का गाँव कोसल है।
महात्मा बुद्ध के समय में यहां का राजा उद्यन (Udayana) था जो कि एक शक्तिशाली
राजा था। अवन्ति के राजा प्रद्योत (Pradyota) से इसका संघर्ष था ।
नाटककार भास ने अपने नाटकों के द्वारा वत्स के राजा उद्यन
तथा अवन्ति की राजकुमारी वासवदत्ता के बीच प्रेम सम्बन्धों का वर्णन
किया है। इनमें मगध, वत्स, अवन्ति जैसे शक्तिशाली महाजनपदों
के बीच संघर्ष का उल्लेख है। उद्यन की बहुत सी रानियां थी उनमें एक थी मगध
के राजा दर्शक की बहन। कथासरितसागर में इसकी दिग्विजय का वर्णन है।
प्रियदर्शिका (हर्ष द्वारा रचित) इसने कलिंग को जीता। अपने श्वसुर दधिवाहन
को अंग जीतकर भेंट कर दिया।
बौद्ध साक्ष्यों के
अनुसार प्रारम्भ में तो उद्यन बौद्ध धर्मावलम्बी नही था। उसने बौद्ध संघ के
एक सदस्य पिन्डोला को यातनाएं भी दी परन्तु बाद में इसी ने उसे बुद्ध का
अनुयायी बनाया । बुद्ध की मत्यु के पश्चात् भी उद्यन राज करता रहा। उसके
पश्चात् उसका पुत्र बोधीस्या राज्य करता रहा। इसके बारे में बौद्ध साहित्य
में अधिक वर्णन नही है। एक जातक के अनुसार बोधी संसुमारगिरी पर्वत
पर विचरण करता बताया गया है जिससे पता चलता है कि उसके काल में भग्ग (या
भर्ग) वत्स के आधीन क्षेत्र था। मगध के साथ संघर्ष में अन्त में वत्स
की पराजय हुई क्योकिं बाद में वत्स मगध का अंग बन गया।
9. कुरु-
जातकों के अनुसार कुरु महाजनपद
की राजधानी इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली के समीप) थी। युधिष्ठिर इसी परिवार
से सम्बन्धित थे। अर्थशास्त्र तथा अन्य ग्रन्थों में इन्हे राजशब्दोंपजिविनह
अर्थात राजा की पदवी रखने वालों की संज्ञा दी गई है। लेकिन महाराजा बुद्ध
के काल में कुरु जनपद कोई महत्वपूर्ण महाजनपद नही था और इस क्षेत्र
में एक कम महत्व का नाममात्र का राजा था जिसका नाम कोरव्य था। जैन
उत्तराध्ययन सुत्र में राजा इसुकार का संदर्भ है जो कि प्राचीन वैभवशाली
सुन्दर शहर इसुकार (तीर बनाने वाले) का राजा था। कुरु राजवंश के
यादवों से वैवाहिक सम्बन्ध थे तथा भोज एवं पांचालों से भी निकट सम्बन्ध थे। काफी
स्थानों पर तो कुरु और पांचाल को इक्कठा भी सम्बोधन किया है जो इनकी घनिष्ठ निकटता
या संघ का द्योतक है। जातकों में युधिष्ठिर के राजवंश के एक राजा का वर्णन
है।
10. पांचाल-
प्रारम्भिक काल
में पांचाल का क्षेत्र दिल्ली के उत्तर तथा पूर्व में था। जिसका विस्तार हिमालय
की तलहटी से चम्बल नदी तक। गंगा नदी इसे उत्तर तथा दक्षिण पांचाल दो भागों में
बांटती थी। इसका क्षेत्र आज के उत्तरप्रदेश के फरुखाबाद तथा आस-पास के
क्षेत्र में था। महाभारत, जातकों एवं
दिव्यावदान में भी उत्तर तथा दक्षिण पांचाल का वर्णन है। उत्तर पांचाल की राजधानी
अहिछत्रा के क्षेत्र में था। महाभारत, जातकों एवं दिव्यावदान में भी उत्तर तथा दक्षिण पांचाल का
वर्णन है। उत्तर पांचाल की राजधानी अहिछत्रा थी तथा दक्षिण पांचाल की
राजधानी काम्पिलय थी। पांचाल के राजा चूलनी ब्रह्मदत्त (Chulani Brahmadatta) का वर्णन रामायण एवं तहाउभ्भग
जातक, उत्तराध्ययन सूत्र एवं स्वप्नवासव्दत्त
में मिलता है। कान्यकुब्ज (कन्नौभ) इसी पांचाल के राज्य में स्थित था। पहले
यहां राजतन्त्रात्मिक शासन था परन्तु ईसा से छठी शताब्दी पूर्व यहां गणराज्य की
स्थापना हो गई थी।
11. मत्स्य-
मत्स्य या मच्छ का
क्षेत्र जयपुर,
भरतपुर तथा अलवर
क्षेत्र में था। इसकी राजधानी विराट नगर (आज का वैराट) थी जो इसके
संस्थापक विराह के नाम पर रखा गया था। पाली साहित्य में मत्स्य का
वर्णन शूरसेन के साथ किया गया है। उत्तर मत्स्य या पश्चिमी मत्स्य शायद चम्बल
के आसपास का क्षेत्र था। इसी तरह रामायण में इस तरह के वीर मत्स्य
का संदर्भ है। ऐसा माना जाता है कि इनकी एक शाखा बाद के दिनों में विशाखापट्टनम
में बस गई। महात्मा बुद्ध के काल में इनका कोई राजनैतिक महत्व नही था। इस समय यह चेदी
महाजनपद का अंग बन गया था क्योकिं राजा सहज को मत्स्य तथा चेदी
दोनों पर राज करता बताया गया है।
12. शूरसेन-
शूरसेन जनपद की राजधानी यमुना
पर स्थित मथुरा थी जिन्हें युनानी लेखक सौरसेनोइ (Sourasenoi) नाम से जानते हैं। बुद्ध
के प्रारम्भिक शिष्यों में यहां का राजा अवन्ति पुत्र था जिसने मथुरा
क्षेत्र में बौद्ध धर्म को फैलाया। पाणिनी की अष्टाध्यायी में अंधक
तथा वष्णि संघ को मथुरा में राज्य करते बताया गया है। कौटिल्य के
अर्थशास्त्र में भी इन्हे संघ ही कहा गया है। इनका मुखिया वासुदेव
कृष्ण था। मैगस्थनीज (Megasthanese) के समय में भी शूरसेन की राजधानी मथुरा कृष्ण की पूजा का केन्द्र
था। छठी शताब्दी ईसा पूर्व शूरसेन का राज्य मगध साम्राज्य में मिला
लिया गया।
13. अश्मक-
अश्वक, अस्सक या अश्मक
प्रारम्भ में सिन्धु नदी पर स्थित एक राज्य था। बौद्ध साहित्य में अस्सक
को एक महाजनपद कहा गया है जिसकी राजधानी पोतन या पोताली
(महाभारत का पौण्डय) था। बौद्ध साहित्य में इसे दक्षिण भारत का एक राज्य बताया गया
है। गोदावरी नदी अस्सक तथा मूलक महाजनपदों को अलग
करती थी। मूलकों की राजधानी प्रतिस्थान (आज का पैठन) अस्सक
के दक्षिण में थी। सुत्तनिपात के टीका के अनुसार अस्सक तथा मूलक दो
आन्ध्र राज्य थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इसे महाराष्ट्र से समीकृत किया गया
है। बौद्ध साक्ष्यों के अनुसार भी यह गोदावरी के आसपास स्थित था। अश्मक एवं मूलक
इक्ष्वाकु वंश से सम्बन्धित थे। अस्सक राजा ब्रह्मदत्त, अंग तथा काशी के राजा धृतराष्ट्र
(धतरत्थ) का समकालीन था। अस्सक के एक अन्य राजा अरून ने कलिंग के राजा को
हराया था। बुद्ध के काल में यहां पर जो राजा राज्य कर रहा था उसके का नाम सुजात
था।
14. अवन्ति-
अवन्ति पश्चिमी भारत का एक
महत्वपूर्ण महाजनपद था तथा ईसा से छठी शताब्दी पूर्व की चार महान शक्तियों
में से एक था। वेतरावती नदी इसे उत्तर तथा दक्षिण दो भागों में बांटती थी। महिष्मति
नामक नगर अवन्ति की राजधानी थी परन्तु पाली साहित्य में यहां की राजधानी उज्जेनी
(आज का उज्जैन) थी तथा महात्मा बुद्ध के काल में यहां का राजा चण्ड प्रद्योत
था।
डा० डी० आर०
भंडारकर का कहना है कि
ऊपर लिखित विवरण में इस कारण से दोष है कि अवन्ति दो भागों में बंटा था। एक
दक्षिणापथ में जिसकी राजधानी महिष्मति थी तथा दूसरा उत्तरी साम्राज्य जिसकी
राजधानी उज्जयनी थी। बौद्ध तथा जैन साक्ष्य ईसा से छठी शताब्दी में अवन्ति
के दो अन्य नगरों का वर्णन करते है एक कुररघर तथा दूसरा सुदर्शनपुर।
पुराणों के
अनुसार पुलिक (या पुणिक) ने अपने राजा की हत्या कर उसके स्थान पर अपने
पुत्र प्रद्योत (Pradyota) को राजा बना दिया जो बुद्ध के समकालीन था। इस काल में वत्स मगध तथा कौशल से
अवन्ति का संघर्ष चल रहा था। प्रद्योत (प्रद्योत) के कौशाम्बी के राजा
उद्यन से सम्बन्ध थे। बौद्ध साक्ष्य के अनुसार मगध नरेश अजातशत्रु
को प्रद्योत के भय के कारण अपनी राजधानी राजगृह की किलाबन्दी करनी
पड़ी थी। पुराणों के अनुसार प्रद्योत ने अपने आसपास के क्षेत्रों को विजित कर लिया
तथा 23 वर्ष तक राज्य किया। बौद्ध साक्ष्य महावग्ग में प्रद्योत को
बहुत निर्दयी राजा कहा गया तथा इसे चण्ड तथा महासेन की संज्ञा दी।
पुराणों में भी इसे चण्ड प्रद्योत महासेन नाम दिया गया था।
इसके बाद चार अन्य राजाओं पालक, विशाखयुज, अजक तथा नन्दिवर्धन ने
क्रमशः 24,50,21 तथा 20 वर्ष तक राज्य किया। अन्तिम राजा को शिशुनाग ने पराजित कर
राज्य को मगध साम्राज्य में मिला लिया।
15. गांधार-
गांधार (या गार्धव विषय) उत्तर
पश्चिमी भारत में आज के पेशावर, रावलपिण्डी तथा
काबुल के मध्य का क्षेत्र था। इसकी राजधानी तक्षशिला थी जो कि व्यापार एवं
शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केन्द्र था। छठी शताब्दी ई०पूर्व यहां के राजा पुक्कुसाती
(Pukkusati) या पुष्करसारिन ने
मगध के राजा बिम्बिसार के पास एक दूत के हाथ पत्र भेज मित्रता का संदेश
भेजा। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के उत्तरार्ध में गांधार पर फारस ने
विजय प्राप्त कर अपने साम्राज्य में मिला लिया।
16. कम्बोज-
प्राचीन साहित्य में कम्बोज
को गांधार के साथ वर्णित किया गया है। अशोक के अभिलेखों में भी ऐसा
ही वर्णन है। इनका क्षेत्र पाकिस्तान के हजारा तथा उत्तर पश्चिमी क्षेत्र
में काफिरिस्तान तक था। इनकी राजधानी द्वारिका थी। जिसके सही स्थान
का पता नही चल सका है। सातवीं शताब्दी ईसा पूर्व में कम्बोजों को ब्राह्मण
ग्रन्थों में असभ्य लोगों की संज्ञा दी गई है। अर्थशास्त्र में भी इन्हे वर्क्सशास्त्रपजीविन
संघ अर्थात कृषकों, चरवाहों, यौद्धाओं इत्यादि का संघ
कहा गया है।
स्वशासी अथवा
गणतन्त्रात्मक संघ
ईसा से छठी
शताब्दी पूर्व में राजतन्त्रों के अतिरिक्त बहुत सी छोटी गैर राजतान्त्रिक, स्वशासी एवं अर्द्ध
स्वतन्त्र राज्य भी थे। इनमें से बहुत से गणराज्य भी थे जिनका वर्णन हमें बौद्ध
साक्ष्यों से प्राप्त होता है। महात्मा बुद्ध ने तो अपने संघ
का संविधान भी इन्ही गणतन्त्र संघो के संविधान पर ही आधारित बनाया था। इन राज्यों
में से निम्नलिखित महत्वपूर्ण है-
कपिलवस्तु के
शाक्य
वैशाली के
लिच्छवी
पावा तथा
कुशीनारा के मल्ल
रामग्राम के कोलिय
मिथिला के विदेह
पिप्लिवन के
मोरिय
संसुमार पर्वत
क्षेत्र के भग्ग
कोसपुत्त के
कालाम
अलक्रप्प के बुलि
कपिलवस्तु के शाक्य-
इनमें शाक्य
सबसे महत्वपूर्ण थे। महात्मा बुद्ध का जन्म भी इसी कुल में हुआ था।
राजनैतिक तौर पर उनका इस काल में इतना महत्व नही था। अन्त में विढुढाव ने
इन्हे हरा कर इनका राजनैतिक वजूद समाप्त कर दिया। शाक्य अपने आप को सूर्य
वंशी मानते थे तथा कौशल के निवासी मानते थे। इसी कारण से राजा प्रसेनजित
भी अपने आप को गौतम बुद्ध की तरह ही शाक्य का नागरिक मानते थे।
शाक्यों का राज्य उत्तर में हिमालय, पूर्व में रोहिणी नदी, पश्चिमी तथा दक्षिण में राप्ती नदी के बीच का क्षेत्र था।
इनकी राजधानी कपिलवस्तु थी जिसे कुछ विद्यमान नेपाल तराई का आज का तिलौराकोट
मानते हैं परन्तु आज कल इसे बिहार में स्थित माना जाता है। बौद्ध साहित्य में इनके
कई नगरों का भी वर्णन है। ऐसा बताया गया है कि इनके 80,000 परिवार थे।
शासन व्यवस्था- शाक्य गण का संविधान गणतन्त्रात्मक
या जनतन्त्रात्मक था। इसमें सत्ता 80000 कुलीन परिवारों के प्रमुखों के हाथ
में थी। इन्ही में से एक को अपना मुखिया चुना जाता था। महात्मा बुद्ध के
पिता इसी तरह निर्वाचित एक मुखिया या राजा थे। इन्हाने अपने राज्य के संचालन के
लिए एक परिषद का चुनाव किया हुआ था जो राजा या प्रमुख को महत्वपूर्ण मामलों में
परामर्श देती थी। यहां तक कि काई भी कार्य इस परिषद की सहमति के बिना नही
होता था। बौद्ध साक्ष्यों में वर्णित कपिलवस्तु की संथागार
यही परिषद थी। ललितविस्तार में इसके सदस्यों की संख्या 500 दी गई है। राज्य
के प्रत्येक नागरिक को राष्ट्र सेवक माना जाता था तथा इसकी रक्षा के लिए वे हमेशा
तत्पर रहते थे। इसी कारण महात्मा बुद्ध के काल में शाक्य गण
एक मजबूत एवं स्वतन्त्र संघ था परन्तु प्रसेनजित के पुत्र विढुढाव
(विरूद्धक) ने इस पर आक्रमण कर इसे अपने राज्य में मिला लिया। इस आक्रमण के समय
में भी इनकी संथागार में यह वाद-विवाद चलता रहा कि क्या आक्रमण के लिए नगर के
द्वार खोले जाए या नही।
वैशाली के लिच्छवी-
इस संघ का
क्षेत्र आज के उत्तरी बिहार में था तथा इनकी राजधानी वैशाली (बसाढ)
थी। ललित विस्तार में इस नगर का एक वैभवशाली एवं समृद्ध नगर बताया गया है जो कि वज्जि
संघ की भी राजधानी था। लिच्छवी संघ के शासक अपने आप को क्षत्रिय बताते है।
महावीर के पिता सिद्धार्थ ने लिच्छवी कन्या से विवाह किया था। अपने
क्षत्रिय होने के कारण ही इन्होंने महात्मा बुद्ध के अवशेषों में अपना हिस्सा
मांगा था।
शासन पद्धति- लिच्छवी संघ की राजनैतिक
व्यवस्था भी शाक्यों की तरह गणतन्त्र थी। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र
में इस को राजशब्दोपजीवी संघ का नाम दिया गया है जिसका अर्थ ललित विस्तार
में वर्णित है कि इस संघ के हर सदस्य को राजा कहा जाता था। यहां न कोई बड़ा था न
छोटा तथा सब बराबर थे। इन्ही में से योग्य व्यक्तियों का चुनाव इस संघ की सभा के
लिए किया जाता था। इसी प्रतिनिधि सभा के प्रत्येक सदस्य को राजा की उपाधि दी गई
थी। इनकी बैठक संथागार में होती थी ऐसा कहा जाता है कि यहां 7707 राजा थे।
इसके अतिरिक्त उपराजाओं एवं सेनापतियों की संख्या भी इतनी ही थी। चुल्लकलिंग
जातक तथा अट्ठकथा में ऐसा वर्णन है। राज्य में इनका एक प्रमुख होता
था जिसका चुनाव किया जाता था। राज्य में अपराधों के मुकद्दमों के लिए 8 न्यायालय
थे तथा अपराधों के लिए सजा तथा नियम कठोर थे। राज्य में एक विनिश्चय महापात्र
हुआ करता था जो अपराध की जांच करता था। इसके अतिरिक्त व्यवहारिक नामक
अधिकारी था, जिसे हम आजकल के मैजिस्ट्रेट
के समान मान सकते है, जिसके सामने
अपराधी का प्रस्तुत किया जाता था। इसके बाद उसे सूत्रधार नामक कर्मचारी
अभियुक्त को प्रस्तुत किया जाता था। यदि अपराध सिद्ध हो जाता था तो उसे अट्ठकुलक
के सामने लाया जाता था। इसके अतिरिक्त अन्य अधिकारियों, भाण्डागारीक, सेनापति, उपराजा तथा राजा के सामने
प्रस्तुत होना पड़ता था। दण्ड केवल अपराध सिद्ध होने पर ही दिया जाता था जिसका
आधार पवेणियोत्थक नामक एक पूर्व-दृष्टांत संहिता था।
गणराज्य के प्रशासन में राजसत्ता
समस्त परिवारों के हाथों में थी जो कि यहां के मूल कुलीन परिवार थे। इनकी एक
प्रतिनिधि सभा चुनी जाती थी जिसे संथागार कहा जाता था जो राज्य की
व्यवस्थापिक सभा थी। इसकी मीटिंग के लिए एक निश्चित संख्या में सदस्यों का होना (Quorum) आवश्यक था। जो भी मामला
सभा में लाया जाता था उस पर प्रत्येक सदस्य अपना मत व्यक्त करता था। जो सदस्य
प्रस्ताव के पक्ष में होते थे वे मौन रहते थे तथा जो विरोध करते थे वे बोलते थे।
विवादाग्रस्त प्रशन पर मत (छन्द) विभाजन होता था। एक अन्य समिति उव्वाहिक
भी थी जो कभी-कभी विवादाग्रस्त प्रश्न पर निर्णय ले सकती थी। अधिवेशन की पूरी
कार्यवाही को लिख लिया जाता था जो काम लिपिक किया करते थे। संथागार
ही राजा, उपराजा, सेनापति एवं अन्य
पदाधिकारियों की नियुक्ति करती थी। राजा की सहायता के लिए एक परिषद या मंत्रिमंडल
होता था जिसकी संख्या नौ होती थी। इस तरह की शासन पद्धति अन्य गणराज्यों में भी
थी।
रामग्राम के कोलिय-
ये शाक्यों के
पूर्वी पड़ोसी थे जो रोहिणी नदी के दूसरी ओर रहते थे। बौद्ध साक्ष्यों
के अनुसार इनका शाक्यों से निकट खून का सम्बन्ध था। यद्यपि कभी-कभी आपस में इनके
झगड़े भी हुआ करते थे। कोलियों की राजधानी तथा व्यग्घपज्ज (Vyagghapajja) तथा कई नगर थे। इनका एक
उपनाम था जैसे शाक्यों का गौतम था। कोलियों का पुलिस बल का हमें विशेष
वर्णन मिलता है जिनकी अपनी एक वर्दी थी। आज की पुलिस के समान ये भी हिंसा
पर उतर आते थे तथा लोगों से जबरन वसूली करते थे। इनका संघ भी गणतन्त्रात्मक
प्रणाली पर आधारित था।
संसुमार पर्वत क्षेत्र के भग्ग-
इस काल की यह गौण
शक्ति थी जो शायद एतरेय ब्राह्मण में वर्णित भार्गायण ही
होगी। पाणिनी की अष्टाध्यायी (Astadhyayi) में भी इसका वर्णन है। महाभारत तथा हरिवंश के
अनुसार इसका तथा वत्स का निकट का सम्बन्ध था।
पिप्लिवन के मोरिय-
इस काल के इस गणराज्य का क्षेत्र आज के कुशीनगर के आसपास था तथा इनकी राजधानी पिप्फलीवन थी। इन छोटे-छोटे गणराज्यों का गणतन्त्रात्मक संविधान था तथा अपनी एक केन्द्रीय सभा हुआ करती थी जिसमें प्रत्येक सदस्य राज्य के कामों में भाग लेता था। शाक्य तथा लिच्छवी संविधान की तरह इनका संचालन होता था तथा केन्द्रीय संथागार के अतिरिक्त एक मंत्रिमंडल भी हुआ करता था जिसमें सदस्यों की संख्या गणराज्य के विस्तार पर हुआ करती थी जैसे लिच्छवियों के यहां यह संख्या नौ थी जबकि मल्लों के यहां यह संख्या केवल चार थी। परन्तु ये गणराज्य अधिक देर तक राजतन्त्रात्मक शक्तियों के सामने टिक नही सके जिनमें एक कारण इनकी आन्तरिक कलह भी था क्योकिं निरन्तर वादविवाद से फूट पड़ना स्वाभाविक था। इसी कारण अजातशत्रु के मंत्री वस्सकार को सफलता प्राप्त हुई।
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