भारतीय प्रधानमंत्री
की नियुक्ति
भारतीय संविधान में प्रधानमंत्री के पद का उल्लेख अनुच्छेद 74 (1) में किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 75 (1) के अन्तर्गत प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति उसी व्यक्ति को प्रधानमः बनने का आमंत्रण देता है, जिसे पहले ही लोकसभा का बहुमत दल अपना नेता चुन लेता है। वर्तमान में 26 मई, 2014 से भारत के प्रधानमंत्री पद को नरेन्द्र मोदी संभाल रहे हैं। दूसरे कार्यकाल के लिए 30 मई, 2019 से पुन: नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री पद को सुशोभित कर रहे हैं। 1950 से लेकर आज तक प्रधानमंत्री के चयन और नियुक्ति के प्रसंग में चार प्रकार की स्थितियाँ रही हैं। ये निम्नलिखित हैं-
(1) स्वयं जनता
द्वारा प्रधानमंत्री का चयन-
जब किसी एक नेता के नाम पर कोई राजनीतिक दल या दलीय गठबन्धन
लोकसभा में बहुमत प्राप्त करता है, चुनाव जीतता है, तब
यह समझा जाता है कि स्वयं जनता ने प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर प्रधानमंत्री
का चयन किया। 1952,57 और 62 में स्वयं जनता ने प्रधानमंत्री पद के लिए
नेहरू का चयन किया था। 1971 और 1980 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी और दिसम्बर, 1984
में राजीव गाँधी का इस पद के लिए चयन भी स्वयं जनता ने किया था। 1999, 2014
एवं 2019 के चुनाव में भी प्रधानमंत्री के चयन में जनता ने महत्त्वपूर्ण
भूमिका निभायी।
भारतीय प्रधानमंत्री के कार्य, शक्तियाँ तथा स्थिति |
(2) आम सहमति के
आधार पर प्रधानमंत्री का चयन-
1964 में शास्त्रीजी,1967 में श्रीमती गाँधी, 1977
में मोरारजी देसाई,
1989 में वी.पी. सिंह, जून 1991 में नरसिंहा राव, मई
1996 और अप्रेल,
1977 तथा 2004 में क्रमश: देवगौड़ा, गुजराल
और डॉ. मनमोहनसिंह का चयन आम सहमति के आधार पर किया गया।
(3) लोकसभा के बहुमत
दल के लिए चुनाव संघर्ष और प्रधानमंत्री का चयन-
1966 में शास्त्रीजी के निधन के बाद कांग्रेस संसदीय
दल ने श्रीमती गाँधी और मोरारजी देसाई दो उम्मीदवारों में से श्रीमती गाँधी को
नेता चुना था।
(4) राष्ट्रपति
द्वारा स्वविवेक के आधार पर प्रधानमंत्री का चयन-
लोकसभा में दलीय स्थिति स्पष्ट न होने या आकस्मिक रूप से प्रधानमंत्री
का पद रिक्त हो जाने पर कुछ प्रधानमंत्रियों का चयन राष्ट्रपति और स्वविवेक के
आधार पर भी किया गया। यथा-
(i)
1979 में चरणसिंह और नवम्बर, 1990 में चन्द्रशेखर
का प्रधानमंत्री के पद पर चयन राष्ट्रपति द्वारा स्वविवेक के आधार
पर ही किया गया।
(ii)
1984 में श्रीमती गाँधी के देहावसान के बाद राजीव गाँधी का
प्रधानमंत्री पद के लिए चयन भी लगभग इसी श्रेणी में आता है।
(iii)
लोकसभा चुनाव के तुरन्त बाद अप्रेल, 1996
में वाजपेयी की प्रधानमंत्री पद पर नियुक्ति भी इसी श्रेणी में आते हैं।
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि प्रधानमंत्री
के चयन और नियुक्ति में,
किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने पर राष्ट्रपति को पूरा
विवेकाधिकार प्राप्त है। लेकिन यह परम्परा स्थापित हो चुकी है कि प्रधानमंत्री के
रूप में चयनित होने वाला ऐसा व्यक्ति शीघ्र ही लोकसभा में अपना विश्वास हासिल करे।
राष्ट्रपति की पसंद भावी प्रधानमंत्री के बहुमत के दावे अर्थात् स्थायी
सरकार दे सकने के दावे पर केन्द्रित रहती है।
भारतीय प्रधानमन्त्री के कार्य और शक्तियाँ
भारतीय प्रधानमन्त्री की प्रमुख शक्तियाँ निम्न हैं-
(1) मन्त्रिमण्डल का
निर्माण करना-
प्रधानमन्त्री को अपने साथियों को
चुनने की पर्याप्त छूट रहती है। प्रधानमन्त्री ही निर्णय करता है कि मन्त्रिपरिषद्
में कितने मन्त्री हों और कौन-कौन मन्त्री हों। प्रधानमन्त्री यदि चाहे तो
अपने राजनीतिक दल और संसद के बाहर के व्यक्तियों को भी मन्त्रिपरिषद् में शामिल कर
सकता है।
(2) नीतियों का
निर्माता-
प्रधानमन्त्री शासन का वास्तविक
प्रधान होता है। वह सभी नीतियों का निर्माता होता है, वह मन्त्रिमण्डल
के सभी महत्त्वपूर्ण निर्णयों से अवगत रहता है तथा मन्त्री उसके परामर्श से ही
कार्य करते हैं।
(3) मन्त्रियों के
विभागों का बँटवारा और परिवर्तन-
प्रधानमन्त्री अपने विवेक के अनुसार
ही मन्त्रियों के विभागों का बँटवारा करता है तथा साधारणतया इस पर कोई आपत्ति नहीं
की जाती है। प्रधानमन्त्री जिस प्रकार चाहे और जब चाहे विभागों में
परिवर्तन कर सकता है। मन्त्रिपरिषद् का अन्त भी प्रधानमन्त्री की
इच्छा पर ही निर्भर करता है। संसदीय शासन में प्रधानमन्त्री के त्यागपत्र को
सम्पूर्ण मन्त्रिपरिषद् का त्यागपत्र समझा जाता है।
(4) लोकसभा का नेता-
लोकसभा के नेता के रूप में प्रधानमन्त्री
निम्न कार्य करता है-
(i)
व्यवस्थापन की समस्त कार्यवाही के
संचालन में प्रधानमन्त्री ही नेतृत्व प्रदान करता है। वार्षिक बजट सहित सभी सरकारी
विधेयक प्रधानमन्त्री के निर्देशानुसार ही तैयार किये जाते हैं।
(ii)
वह सरकार का मुख्य प्रवक्ता होता है। वह सदन में
सरकारी नीति को स्पष्ट करता है, प्रश्नों का उत्तर देता है तथा सभी
महत्त्वपूर्ण विषयों के सम्बन्ध में सदन को सूचित करता है और इस बात का ध्यान रखता
है कि जो सरकारी विधेयक सदन में प्रस्तुत किये गये हैं वे पास हो जायें।
(iii)
वह स्पीकर से सम्पर्क बनाए रखता है। वह लोकसभा के
अधिवेशन को बुलाने व उसके सत्रावसान करने की तिथियाँ प्रस्तावित करता है, संसद
के कार्य के प्रोग्राम तैयार करता है, विधेयक सम्बन्धी सरकारी
नीतियों को स्पष्ट करता है तथा संकट के समय सदन की प्रक्रिया सम्बन्धी विषयों पर
परामर्श देता है।
(iv)
संविद सरकारों में वह अपने दल के साथ-साथ अपने अन्य सहयोगी
दलों के नेतृत्व से सम्पर्क बनाये रखता है तथा उनके बीच एक सन्तुलन स्थापित करने
का कार्य करता है।
(v)
वह विरोधी दल से सम्पर्क बनाए रखता है और राष्ट्रीय
एकता और अखण्डता तथा सार्वजनिक महत्त्व के अन्य विषयों पर वह विरोधी
दलों का समर्थन प्राप्त करने की कोशिश करता है। इसके लिये वह विरोधी दलों के साथ
समय-समय पर विचार-विमर्श करता है।
(5) मन्त्रिपरिषद्
और राष्ट्रपति के मध्य कड़ी-
संविधान के अनुच्छेद 78 के अनुसार मन्त्रिपरिषद् के
निर्णयों तथा प्रशासन सम्बन्धी कार्यों की सूचना राष्ट्रपति को प्रधानमन्त्री
के माध्यम से ही दी जाती है। विधायन तथा प्रशासन के सम्बन्ध में अन्य किसी प्रकार
की सूचना भी राष्ट्रपति के माँगने पर प्रधानमन्त्री द्वारा दी जाती है। इसी
प्रकार किसी मन्त्री द्वारा किये गये किसी निर्वाचन को मन्त्रिपरिषद् के समक्ष
विचाराधीन रखने का आदेश राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री के माध्यम से दे सकता है।
(6) लोकसभा को भंग
करने की शक्ति-
लोक सदन को समय से पूर्व भंग कराने की
शक्ति प्रधानमन्त्री के हाथों में एक महत्त्वपूर्ण अस्त्र है। इसके माध्यम
से वह अपने दल के सदस्यों को नियन्त्रण में रखता है तथा विपक्षी सदस्यों पर भी
दबाव डाले रखता है। 1970,1979,1989, 1991 तथा 2004 में तत्कालीन
प्रधानमन्त्रियों के परामर्श पर राष्ट्रपति ने लोकसभा को समय से पूर्व भंग
किया था।
(7) प्रधानमन्त्री
का राज्य सरकारों पर प्रभाव-
भारत की संघात्मक व्यवस्था में राज्य सरकारों के सम्बन्ध
में भी प्रधानमन्त्री की भूमिका बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है। एक मुख्यमन्त्री
का पदासीन होने तथा अपने पद पर बने रहने के लिए प्रधानमन्त्री की सहानुभूति बहुत
अधिक आवश्यक होती है और एक विरोधी प्रधानमन्त्री एक मुख्यमन्त्री की
राजनीतिक मृत्यु का कारण बन सकता है।
(8) दल का नेता-
लोकसभा का नेता होने के साथ-साथ प्रधानमन्त्री दल का
नेता भी होता है। लोकसभा में बहुमत दल का नेता होना ही प्रधानमन्त्री की
शक्ति का आधार है। लोकसभा में बहुमत दल का नेता होने पर ही वह शासन का प्रधान हो
जाता है। प्रधानमन्त्री दल का प्रतीक माना जाता है। उसके साथ दल का भविष्य
जुड़ा रहता है। सामान्य निर्वाचन उसके नाम से लड़ा जाता है। प्रधानमन्त्री
के व्यक्तित्व में दल की प्रतिष्ठा समा जाती है।
(9) देश का सर्वोच्च
नेता तथा शासक-
सिद्धान्त रूप में ही नहीं लेकिन व्यवहार में भी देश का
समस्त शासन प्रधानमन्त्री की इच्छानुसार संचालित होता है। वह व्यवस्थापिका
से इच्छानुसार कानून बनवा सकता है तथा संविधान में आवश्यक संशोधन करवा सकता है।
मन्त्रिपरिषद् में उसकी स्थिति सर्वोपरि होती है। देश की जनता हो या संसद, राज्य
सरकारें हो या प्रधानमन्त्री का अपना राजनीतिक दल, प्रत्येक नेतृत्व के
लिए प्रधानमन्त्री की ओर देखता है।
(10) अन्तर्राष्ट्रीय
सम्बन्धों के निर्धारण सम्बन्धी शक्तियाँ-
अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारतीय प्रधानमन्त्री
का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। विदेश नीति का निर्धारण अन्तिम रूप से
प्रधानमन्त्री के द्वारा ही किया जाता है। इस सम्बन्ध में उसके शब्द ही अन्तिम तथा
अधिकृत माने जाते हैं।
(11) नियुक्तियाँ-
राष्ट्रपति द्वारा जितनी नियुक्तियाँ की
जाती हैं, वस्तुत: उनकी नियुक्ति प्रधानमन्त्री के परामर्श से ही की जाती है। इन
नियुक्तियों के द्वारा भी वह अपना प्रभाव बनाए रखता है।
भारत में प्रधानमन्त्री की स्थिति
भारत में प्रधानमन्त्री की स्थिति का विवेचन
निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-
(1) मन्त्रिपरिषद्
के निर्माण, पुनर्गठन, कार्य संचालन और अन्त में प्रधानमन्त्री की केन्द्रीय भूमिका-
भारत में इंग्लैण्ड की भाँति ही संसदीय पद्धति अपनाई
गयी है, इसलिए स्वाभाविक है कि भारत के प्रधानमन्त्री की स्थिति इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री
से काफी मिलती-जुलती है। मन्त्रिपरिषद् में भारतीय प्रधानमन्त्री की केन्द्रीय
स्थिति है। इसका विवेचन अग्रलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-
(अ) सैद्धान्तिक स्थिति
(i) मन्त्रियों की नियुक्ति तथा
पदच्युति- प्रधानमन्त्री को अपने मन्त्रियों को नियुक्त करने का
अधिकार है। प्रधानमन्त्री जो नाम राष्ट्रपति के समक्ष रखता है, राष्ट्रपति
उन्हें स्वीकार कर मन्त्री घोषित कर देता है। प्रायः प्रधानमन्त्री अपने सहयोगियों
का चयन अपने विवेक के आधार पर ही करता है। लेकिन वह किन्हीं विशेष प्रभावी
व्यक्तियों को मन्त्रिपरिषद् में लेने तथा उन्हें उनकी इच्छानुसार विभाग देने के
लिए बाध्य भी हो सकता है। फिर भी प्रधानमन्त्री ऐसे व्यक्तियों को भी
मन्त्रिपरिषद् में ले सकता है जिन्हें दल में कोई महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त न
हो। इस /D तरह मन्त्रिपरिषद् का निर्माण प्रधानमन्त्री का विशेषाधिकार है।
एक बार मन्त्रिपरिषद् का निर्माण हो जाने के बाद
प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों के विभागों को परिवर्तित करने के सम्बन्ध
में लगभग पूर्ण स्वतन्त्र होता है। जब किसी मन्त्री के प्रधानमन्त्री से मतभेद हो
जाते हैं तो सम्बन्धित मन्त्री को ही त्यागपत्र देना पड़ता है। इस बारे में
डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी,
देशमुख, छागला, अशोक मेहता, टी.टी.
कृष्णामाचारी,
देसाई, चरणसिंह, वी.पी. सिंह आदि के
उदाहरण दिये जा सकते हैं।
इस तरह मन्त्रिपरिषद् का निर्माण और उसमें परिवर्तन तथा
मन्त्रियों की पदच्युति बहुत अधिक सीमा तक प्रधानमन्त्री की इच्छा पर निर्भर करते
हैं।
(ii) मन्त्रिपरिषद् के संचालन में
केन्द्रीय स्थिति- प्रधानमन्त्री की मन्त्रिपरिषद् के
संचालन में भी केन्द्रीय स्थिति है। यद्यपि मन्त्रिमण्डल में विभिन्न बातों का
निर्णय बहुमत के आधार पर होता है, तथापि व्यवहार में प्रधानमन्त्री का
परामर्श ही निर्णायक होता है। प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् की बैठकों का सभापतित्व
करता है और उसकी समस्त कार्यवाही का संचालन करता है।
(iii) मन्त्रिमण्डल की कार्यविधि पर
नियन्त्रण- प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल की कार्यविधि पर पूर्ण
नियन्त्रण रखता है। इसके कारण प्रधानमन्त्री अपने सहयोगियों की तुलना में अधिक
प्रभावी हो जाता है। प्रधानमन्त्री को मन्त्रियों के विभिन्न विभागों पर नियन्त्रण
रखने में मन्त्रिमण्डलीय सचिवालय' और 'प्रधानमन्त्रीय सचिवालय' से
बहुत अधिक सहायता मिलती है।
(ब) व्यावहारिक स्थिति
(i) मन्त्रिमण्डलात्मक शासन- मन्त्रिपरिषद् में प्रधानमन्त्री की समकक्षों में प्रथम या उससे केवल कुछ
अधिक की स्थिति होती है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रथम चार वर्ष तक, अर्थात्
जब तक पटेल जीवित रहे,
नेहरू को मन्त्रिमण्डल में समकक्षों में प्रथम' जैसी
स्थिति प्राप्त रही।
इसी तरह प्रारम्भ में लाल बहादुर शास्त्री और श्रीमती गाँधी
की स्थिति भी इसी प्रकार की रही जबकि जनता पार्टी के शासन (1977-79) के मध्य भी
मोरारजी देसाई,
1989-90 में वी.पी. सिंह, 1991 में पी.वी.
नरसिंह राव, 1996-98 में देवगौड़ा की गिनती कमजोर प्रधानमन्त्री के रूप में की जाती है।
लेकिन 2014 एवं 2019 में निर्वाचित नरेन्द्र मोदी के बारे में ऐसा नहीं है।
(ii) प्रधानमन्त्री शासन- जब मन्त्रिपरिषद् पर प्रधानमन्त्री का लगभग पूर्ण नियन्त्रण होता है, तब
प्रधानमन्त्री की शक्तिशाली भूमिका वाला शासन होता है। 1951 से 1961 तक नेहरू की
स्थिति, 1971 से 1977 तथा 1980 से 1984 तक श्रीमती गाँधी की स्थिति ऐसे ही
प्रधानमन्त्री की रही। 2014 के चुनावों से नरेन्द्र मोदी की स्थिति भी मजबूत
प्रधानमंत्री की है जो पुन: 2019 के लोकसभा चुनावों ने प्रकट की है।
(ii) मन्त्रिमण्डलीय शासन तथा
प्रधानमन्त्रीय शासन के बीच की स्थिति- मन्त्रिमण्डलीय शासन
से प्रधानमन्त्रीय शासन और प्रधानमन्त्रीय शासन से मन्त्रिमण्डलीय शासन को ओर
प्रस्थान का क्रम निरन्तर चलता रहा है। प्रधानमन्त्री के रूप में एक ही व्यक्ति के
कार्यकाल में कभी तो मन्त्रिमण्डलात्मक शासन तथा कभी प्रधानमन्त्रीय शासन की
स्थिति रही है। श्री नेहरू,
श्रीमती गाँधी तथा श्री अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में
प्रारम्भ में जहाँ मन्त्रिमण्डलीय शासन की स्थिति रही और धीरे-धीरे यह
प्रधानमन्त्री के शासन की ओर बढ़ती गयी। श्री राजीव गांधी का शासन काल
प्रधानमन्त्रीय शासन से मन्त्रिमण्डलीय शासन की ओर चलता गया।
(स) प्रधानमन्त्री एवं
मन्त्रिमण्डल के सम्बन्धों के निर्धारक तत्त्व
मन्त्रिमण्डल में प्रधानमन्त्री की स्थिति जिन तत्त्वों से
निर्धारित होती है,
वे निम्नलिखित हैं-
(i) मन्त्रिमण्डल का स्वरूप- एकदलीय या मिला-जुला सामान्यतया एकदलीय मन्त्रिमण्डलों में प्रधानमन्त्री को
अधिक महत्त्वपूर्ण स्थिति प्राप्त होती है, जबकि मिले-जुले मन्त्रिमण्डल
में प्रधानमन्त्री की स्थिति कमजोर हो जाती है।
(ii) प्रधानमन्त्री का व्यक्तित्व- एक निर्बल व्यक्तित्व वाला प्रधानमन्त्री अपने आपको जहाँ मन्त्रिमण्डल की
बैठकों की अध्यक्षता करने और शासन के निर्णयों की औपचारिक घोषणा तक सीमित कर लेता
है; वहीं प्रभावी व्यक्तित्व वाला प्रधानमन्त्री शासन के वास्तविक अध्यक्ष और
सर्वोच्च जन नेता की स्थिति प्राप्त कर लेता है।
(iii) मन्त्रिमण्डल के सदस्यों का
व्यक्तित्व और स्थिति- मन्त्रिमण्डल में
प्रधानमन्त्री की स्थिति इस बात पर भी निर्भर करती है कि उसके मुख्य सहयोगी
मन्त्रियों का व्यक्तित्व कैसा है। वे मन्त्री जो मन्त्रिमण्डल में लिये जाने से
पूर्व भी दल में अपनी स्वतन्त्र स्थिति रखते थे, प्रधानमन्त्री की
सत्ता को नियन्त्रित करते हैं, लेकिन ऐसे मन्त्री जो मन्त्रिमण्डल में
लिये जाने पर ही महत्त्वपूर्ण बने, प्रधानमन्त्री की प्रत्येक
बात की हाँ में हाँ मिलाते हैं। ऐसे मन्त्रियों की अधिकता होने पर मन्त्रिमण्डल
में प्रधानमन्त्री की स्थिति प्रभावी हो जाती है।
(iv) राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय
क्षेत्र में तत्कालीन परिस्थितियाँ- मन्त्रिमण्डल में
प्रधानमन्त्री की स्थिति तत्कालीन परिस्थितियों पर ही निर्भर करती है। राष्ट्रीय
और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक अथवा आर्थिक क्षेत्र में गम्भीर स्थिति होने
पर प्रधानमन्त्री अधिक शक्तिशाली हो जाता है, वह सामान्य प्रक्रिया की
अवहेलना करते हुए अकेले ही कुछ निर्णय ले सकता है, लेकिन सामान्य
परिस्थितियों में वह मन्त्रिमण्डल से परामर्श के बाद ही निर्णय ले पाता है।
संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि मन्त्रिमण्डल
में प्रधानमन्त्री की स्थिति बहुत महत्त्वपूर्ण होती है, लेकिन
प्रधानमन्त्री मन्त्रियों के साथ अधिनायक की भाँति व्यवहार नहीं कर सकता, बल्कि
वह उन्हें साथ लेकर चलता है।
(v) अपने दल या दलीय गठबंधन में
प्रधानमंत्री की स्थिति- यदि प्रधानमंत्री अपने दल या
मिले-जुले मंत्रिमण्डल की स्थिति में दलीय गठबंधन का निर्विवाद नेता होता
है, तो मंत्रिमण्डल में उसकी स्थिति बहुत सुदृढ़ होती है। लेकिन यदि मंत्रिमण्डल
के अन्दर या बाहर दल में प्रधानमंत्री के नेतृत्व को चुनौती देने वाला व्यक्ति
विद्यमान है,
तो प्रधानमंत्री की स्थिति कमजोर हो जाती है।
(2) प्रधानमन्त्री
सदन के नेता के रूप में-
प्रधानमन्त्री लोकसभा में बहुमत दल
का नेता होता है। इसके कारण प्रधानमन्त्री को अपनी सभी नीतियों के लिए संसद
में दलीय बहुमत के कारण पूर्ण समर्थन प्राप्त हो जाता है। सदन के नेता के रूप में प्रधानमन्त्री
सदन की कार्यवाही पर नियन्त्रण करता है।
(3) प्रधानमन्त्री
वास्तविक शासक के रूप में-
यद्यपि सैद्धान्तिक रूप से संविधान द्वारा शासन की समस्य
शक्तियाँ राष्ट्रपति को सौंपी गई हैं, लेकिन व्यवहार में इन समस्त
शक्तियों का प्रयोग प्रधानमन्त्री ही करता है। 42वें तथा 44वें संविधान
संशोधन के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह
मानने के लिए बाध्य है।
(4) अन्तर्राष्ट्रीय
क्षेत्र में देश का प्रतिनिधि-
विदेशों में प्रधानमन्त्री अपने देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। अपने देश की नीतियों के बारे में वक्तव्य देते हैं, दूसरे देशों के साथ समझौते करते हैं। इस प्रकार प्रधानमन्त्री अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में देश का प्रतिनिधित्व करते हैं, इससे उनकी शक्ति व भूमिका प्रभावी बनती है।
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