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भारत में न्यायिक पुनरावलोकन

न्यायिक पुनरावलोकन

न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ एवं परिभाषा-

न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ है, न्यायालय द्वारा कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका के कार्यों की वैधानिकता की जाँच करना। इस प्रकार जब न्यायपालिका व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों तथा कार्यपालिका द्वारा जारी किये गये अध्यादेशों या आदेशों का अवलोकन करके उनकी वैधानिकता तथा अवैधानिकता की जाँच करती है तो उसकी यह शक्ति न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति कहलाती है। एम.वी. पायली के अनुसार, "विधायी नियमों को संवैधानिक या असंवैधानिक घोषित करने की न्यायालय की क्षमता ही न्यायिक पुनरावलोकन का सार तत्त्व है।"

न्यायिक पुनरावलोकन की शर्ते-

न्यायिक पुनरावलोकन के लिए निम्न शर्तों का होना अनिवार्य है-

(i) लिखित तथा कठोर संविधान।

(ii) राज्य की संघीय व्यवस्था अर्थात् विषयों का संघ सरकार और राज्य सरकारों में विभाजन।

(iii) संविधान में नागरिकों के मूल अधिकारों की व्यवस्था।

भारत में न्यायिक पुनरावलोकन

भारतीय संविधान में न्यायिक पुनरावलोकन के सम्बन्ध में स्पष्ट संवैधानिक उपबन्ध नहीं हैं लेकिन न्यायिक पुनरावलोकन के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ, जैसे लिखित तथा कठोर संविधान, केन्द्र व राज्यों के मध्य शक्तियों का विभाजन और मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की मौजूदगी के कारण न्यायिक पुनरावलोकन का सिद्धान्त गतिमान है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12, 32, 246, 226, 245, 368 तथा 132 में न्यायिक पुनरावलोकन के लक्षण देखे जा सकते हैं।

भारत में न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ और प्रकृति का आलोचनात्मक परीक्षण
भारत में न्यायिक पुनरावलोकन

भारत में न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवस्था का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है-

न्यायिक पुनरावलोकन के आधारभूत संवैधानिक प्रावधान एवं उसका क्षेत्र

भारत संविधान के अनेक प्रावधानों में न्यायिक पुनरावलोकन के अधिकार का सुदृढ़ आधार उपलब्ध है, यथा-

(1) अनुच्छेद 4- संविधान के अनुच्छेद 4 के अनुसार "सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित विधि भारत राज्य क्षेत्र के भीतर सब न्यायालयों को बंधनकारी होगी।"

(2) अनुच्छेद 13- इस अनुच्छेद में यह प्रावधान किया गया है कि यदि किसी कानून द्वारा राज्य मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है तो उस कानून को अवैध घोषित किया जा सकता है।

(3) अनुच्छेद 32- संविधान के अनुच्छेद 32 में सर्वोच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों को लागू करने की शक्ति प्रदान की गई है। इस अनुच्छेद के द्वारा अपने मूल अधिकारों का उल्लंघन होने पर कोई भी नागरिक संवैधानिक उपचार प्राप्त करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की शरण ले सकता है।

(4) अनुच्छेद 246- इस अनुच्छेद के अन्तर्गत संघ एवं राज्यों की विधायी सीमा का उल्लेख किया गया है। यदि कोई भी इस सम्बन्ध में अपने क्षेत्राधिकार का उल्लंघन करता है तो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे किसी भी कानून को अवैध घोषित कर सकता है।

(5) अनुच्छेद 368- इस अनुच्छेद के अनुसार यदि कोई संविधान संशोधन विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार नहीं होता है तो न्यायालय उसे अवैध घोषित कर सकता है।

(6) अनुच्छेद 131 तथा 132- अनुच्छेद 131 में सर्वोच्च न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार का वर्णन है और अनुच्छेद 132 में संवैधानिक मामलों में उच्च न्यायालयों से सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने के बारे में बताया गया है। इस अनुच्छेद के अनुसार ऐसे मामलों में जहाँ संविधान की व्याख्या का प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। इस प्रकार अनुच्छेद 131 एवं 132 सर्वोच्च न्यायालय को संघीय तथा राज्य सरकारों द्वारा बनाये गये कानूनों को न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति प्रदान की गई है।

अतः स्पष्ट होता है कि भारत में संसदीय सम्प्रभुता के बजाय संवैधानिक सर्वोच्चता के सिद्धान्त को मान्यता दी गई है। इसी कारण न्यायालय को संसद के कार्यों की वैधता की जाँच करने की शक्ति प्राप्त है।

भारत में न्यायिक पुनरावलोकन की प्रकृति एवं सीमाएँ

भारत में न्यायिक पुनरावलोकन की प्रकृति एवं सीमाओं की विशेषताओं को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा व्यक्त किया गया है-

1. सीमित क्षेत्र-

भारत में न्यायिक पुनरावलोकन का क्षेत्र उतना व्यापक नहीं है जितना कि संयुक्त राज्य अमेरिका में है। इसका कारण यह है कि अमरीकी संविधान अत्यधिक संक्षिप्त है और इस कारण वहाँ शासन और इकाइयों के मध्य विभिन्न प्रकार के विवाद उत्पन्न होते रहते हैं। भारत के संविधान में संघ तथा राज्य के मध्य कानून निर्माण की शक्तियों का विभाजन पर्याप्त विस्तार के साथ कर दिया गया है। इन विस्तृत उपबन्धों के कारण न्यायिक पुनरावलोकन का क्षेत्र सीमित हो गया है।

दूसरे, अमरीका का अधिकार पत्र निरपेक्ष शब्दावली में लिखा गया है, अमरीकी संविधान में अधिकारों की सीमाओं का उल्लेख नहीं किया गया है। इसलिए अमरीका में कार्यपालिका 'पुलिस शक्ति' तथा 'सामान्य कल्याण' के आधार पर अधिकारों की सीमा निश्चित कर सकती है। सर्वोच्च न्यायालय इस बात की जाँच करता है कि कार्यपालिका ने अपनी शक्ति का प्रयोग उचित रूप में किया है या नहीं। लेकिन भारतीय संविधान में प्रत्येक मौलिक अधिकार के साथ-साथ उसकी सीमाएँ भी संविधान में निश्चित कर दी गई हैं। इसके कारण भारत में न्यायिक पुनरावलोकन का क्षेत्र सीमित हो गया है।

2. पृथक्करणीयता का सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त के अनुसार न्यायालय को कानून के वैध और अवैध भागों को पृथक् करने का अधिकार है, अर्थात् यदि किसी कानून का कोई भाग, खण्ड या अंश संविधान का उल्लंघन करता है और उसका शेष भाग संवैधानिक है तो न्यायालय पूर्ण कानून को अवैध घोषित करने के स्थान पर केवल उस भाग,खण्ड या अंश को ही अवैध घोषित करेगा जो असंवैधानिक है और शेष संवैधानिक भाग को क्रियाशील (प्रभावयुक्त) बना देगा।

3. विधायी क्षमता का सिद्धान्त-

इसे सार तत्त्व का सिद्धान्त भी कहते हैं। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत न्यायालय को परीक्षण कर यह निर्धारित करने का अधिकार होता है कि जिस कानून का विरोध किया गया है, उसको व्यवस्थापिका का निर्माण करने का अधिकार है या नहीं, न्यायालय इस बात का निर्धारण करता है कि कानून बनाते समय विधानमण्डल ने अपनी शक्ति का अतिलंघन अथवा संविधान द्वारा लगायी गयी मर्यादाओं का अतिक्रमण तो नहीं किया है। यदि ऐसा हुआ हो तो न्यायालय उसे असंवैधानिक घोषित कर प्रभावहीन बना सकता है।

यद्यपि भारत में न्यायालय अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय की तरह निहित शक्तियों के सिद्धान्त का विस्तार और विकास नहीं कर सकता, फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने उन गौण विषयों को व्यवस्थापिका की विधायी क्षमता में स्वीकार किया है, जिन्हें युक्तियुक्त ढंग से उसके अन्तर्गत लिया जा सकता है।

4. संवैधानिक भावना का सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त के अनुसार न्यायालय सामान्यतः यह मानकर चलता है कि व्यवस्थापिका अपनी शक्तियों का साधारणतः अतिलंघन नहीं करती और वह ऐसे किसी कानून का निर्माण नहीं कर सकती जो संविधान की भावना के प्रतिकूल हो। इस प्रकार जब किसी कानून को चुनौती दी जाती है, तब तक न्यायालय उसे अमान्य, असंवैधानिक और प्रभावहीन नहीं बनाता जब तक उसकी असंवैधानिकता निश्चित और निर्विवाद न हो।

5. उत्तरोत्तर व्याख्या का सिद्धान्त-

भारत में सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तरोत्तर व्याख्या के सिद्धान्त को स्वीकार किया है। सामान्यत: न्यायालय अपने पूर्व के निर्णयों को रद्द नहीं करता, परन्तु उसने नवीन तथ्यों के प्रस्तुत होने पर अपने पूर्व निर्णयों को रद्द किया है। उदाहरणतः 1952 में शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ' के मुकदमे में न्यायालय ने अनुच्छेद 13 को अनुच्छेद 368 के अधीन स्वीकार करते हुए संसद के मूल अधिकारों में संशोधन करने के अधिकार को स्वीकार किया। सन् 1965 में सज्जनसिंह' के मुकदमे में निर्णयों को उलट दिया और यह निर्णय दिया कि संसद मूल अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती। बाद में केशवानंद भारतीय विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पूर्व निर्णयों में सुधार करते हुए यह निर्णय दिया कि संसद मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है, लेकिन संविधान के मौलिक ढाँचे से सम्बन्धित अनुच्छेदों में संशोधन नहीं कर सकती।

42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति को सीमित कर दिया गया था और साथ ही न्यायिक पुनरावलोकन की प्रक्रिया को कठिन बना दिया था, किन्तु 43वें संवैधानिक संशोधन द्वारा स्थिति पूर्ववत् कर दी गई।

न्यायिक पुनरावलोकन का मूल्यांकन

न्यायिक पुनरावलोकन के विपक्ष में तर्क-जिन आधारों पर न्यायिक पुनरावलोकन की आलोचना की गयी है उनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं-

1. न्यायालय जन-इच्छा को अभिव्यक्त नहीं करता या न्यायालय तीसरे सदन के रूप में कार्य नहीं कर सकता- प्रजातन्त्र में जन-इच्छा को अभिव्यक्त करने वाली संसद या व्यवस्थापिका होती है, न्यायपालिका नहीं। इसलिए कानून निर्माण के क्षेत्र में अन्तिम निर्णय व्यवस्थापिका का होना चाहिए। न्यायपालिका जन-इच्छा की रक्षा कर सकती है, उसे अभिव्यक्त नहीं कर सकती। इसलिए न्यायपालिका का न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार कानूनों की वैधानिक समीक्षा तक ही सीमित होना चाहिए, उन्हें उनके औचित्य तथा अनौचित्य को निर्धारित करने की क्षमता नहीं होनी चाहिए। न्यायिक पुनरावलोकन की असीमित शक्ति द्वारा जब न्यायालय की प्रवृत्ति विधान कार्यों को अपनाने की बन जाती है तो वहाँ उनका हस्तक्षेप अनुचित होता है। 

आलोचकों का कहना है कि जहाँ न्यायिक पुनरावलोकन का डण्डा सर्वदा विद्यमान रहता है वहाँ न तो राजनीतिज्ञ अपनी सुधार या विकासवादी योजनाओं को कार्यान्वित करने में अपने आपको स्वतन्त्र समझते हैं और न ही जनता अपने आपको उनकी (विधानसभाओं और राजनीतिज्ञों की) स्वामिनी समझती है।

2. संसद और न्यायपालिका के मध्य तनाव की स्थिति- संसद द्वारा निर्मित कानून को जब सर्वोच्च न्यायालय अवैध घोषित कर देता है तो संसद और न्यायपालिका के मध्य तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसी स्थिति में शासन सामान्य रूप से नहीं चलता।

3. न्यायिक अतिसक्रियतावाद- न्यायिक पुनरावलोकन के बल पर उच्चतम न्यायालय ने जनहित याचिकाओं एवं मूल अधिकारों की उदार व्याख्या के माध्यम से शासन को निर्देशित करने की भूमिका ग्रहण कर ली है। यह न्यायिक अति सक्रियता है लेकिन न्यायाधीशों के अधिकाधिक शक्ति सम्पन्न होने के समानान्तर उन्हें उत्तरदायी बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए। ऐसा न होने पर न्याय प्रक्रिया की निष्पक्षता बाधित होने का खतरा है।

4. न्यायालय के निर्णयों में एकरूपता का अभाव तथा अपने पूर्व निर्णयों में अनवरत परिवर्तन- न्यायिक पुनरावलोकन पर सबसे तीव्र आलोचना इस आधार पर की गई है कि न्यायालय के निर्णयों में स्थिरता एवं एकरूपता नहीं रहती। इसके निर्णय कभी उदार तो कभी अनुदार भावनाओं से प्रेरित होते हैं; कभी इसका दृष्टिकोण संघ तथा कभी एककों के पक्ष में होता है; कभी यह सामूहिक और कभी निजी हितों का समर्थन करता है। आलोचकों का यह भी कथन है कि न्यायाधीशों का निजी राजनीतिक दर्शन भी कभी-कभी निर्णयों पर प्रभावी होता है। निर्णयों की इस परिवर्तनशीलता के कारण ही आलोचक कानून एवं न्याय की अनिश्चितता की बात करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय अपने पूर्व निर्णयों में अनवरत परिवर्तन करता रहा है, जिसके परिणामस्वरूप संवैधानिक कानून की समस्त व्यवस्थाओं के प्रति भ्रांतियाँ उत्पन्न हुई हैं।

5. अनुदारवादी शक्ति के रूप में कार्य- आलोचकों का कथन है कि समाज में मूलभूत परिवर्तन करने के लिए उग्र सुधारों की आवश्यकता होती है जिसे रूढ़िवादी, कुलीन या उच्च वर्ग के लोग स्वीकार नहीं करते। इतना ही नहीं, वे इन नीतियों की कार्यान्विति में बाधा प्रस्तुत करते हैं, क्योंकि न्यायाधीश प्रायः उच्च एवं कुलीन वर्ग से सम्बन्धित होते हैं। इसलिए उनका दृष्टिकोण प्रायः उसी वर्ग के हितों की रक्षा करना होता है। यद्यपि भारतीय उच्चतम न्यायालय ने अब तक व्यक्ति स्वातन्त्र्य तथा नागरिक अधिकारों के रक्षक के रूप में कार्य किया है, तथापि सम्पत्ति सम्बन्धी प्रश्नों पर इसने एक अनुदारवादी शक्ति के रूप में कार्य किया है।

6. सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन में अस्थिरता- न्यायिक पुनरावलोकन के कारण हमेशा यह भय बना रहता है कि संसद द्वारा निर्मित कानून तथा शासन द्वारा अपनायी गई नीति न्यायपालिका द्वारा सदैव अवैध घोषित की जा सकती है। ऐसी स्थिति में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में अस्थिरता का वातावरण बना रहता है जो बहुत अधिक हानिकारक है। आलोचकों का मत है कि न्यायालयों को कानूनी मामलों तक ही अपने आपको सीमित रखना चाहिए, राजनीतिक और आर्थिक मामलों पर उन्हें निर्णय देने का कोई अधिकार नहीं है।

7. संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण- भारतीय संविधान में न्यायिक पुनरावलोकन का क्षेत्र 'कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया' के अन्तर्गत सीमित किया गया है। इसके अन्तर्गत न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या संविधान के शाब्दिक अर्थ के आधार पर ही कर सकती है,न कि 'कानून की आत्मा' अर्थात् कानून के औचित्य के आधार पर। यद्यपि न्यायालय ने सामान्यतः अपनी सीमाओं को स्वीकार किया है। परन्तु 1967 के गोलकनाथ विवाद तथा उसके बाद दिये गये कुछ निर्णयों में सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति पर संविधान द्वारा लगायी गई सीमाओं का अतिक्रमण किया है। इसी तरह केशवानंद-भारती' के विवाद में संविधान के मूल ढाँचे' की अवधारणा का विकास और उसके आधार पर संवैधानिक संशोधनों का मूल्यांकन करना भी संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण ही है।

न्यायिक पुनरावलोकन का महत्त्व या न्यायिक पुनरावलोकन के पक्ष में तर्क-

उपर्युक्त आलोचना के पश्चात् भी न्यायिक पुनरावलोकन की आवश्यकता और महत्त्व को कम नहीं आंका जा सकता, वस्तुतः प्रजातान्त्रिक, संघीय एवं सभ्य समाजों में इसकी आवश्यकता निर्विवाद है। इसके पक्ष में ये तर्क दिये जा सकते हैं-

(i) संघीय राज्यों में संघीय तथा एककों की सरकारों में क्षेत्राधिकार के सम्बन्ध में उत्पन्न होने वाले विवादों का निपटारा करने के लिए एक स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष मध्यस्थ की आवश्यकता होती है और न्यायपालिका से बढ़कर और अधिक निष्पक्ष और स्वतन्त्र स्थान कोई नहीं हो सकता।

(ii) संविधान के अभिरक्षक तथा निर्वाचक के रूप में न्यायिक पुनरावलोकन की आवश्यकता होती है। यदि न्यायालय के पास न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति न हो तो कार्यपालिका या व्यवस्थापिका पर लगायी गयी संवैधानिक सीमाएँ और प्रतिबन्ध 'रद्दी कागज के टुकड़े के समान निरर्थक बनकर रह जायेंगी।

(iii) कार्यपालिका की स्वच्छन्दता तथा व्यवस्थापिका की निरंकुशता से नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए न्यायिक पुनरावलोकन की आवश्यकता होती है। न्यायिक पुनरावलोकन के अभाव में नागरिक स्वतन्त्रताएँ शासकों की दासी मात्र बन कर रह जायेंगी और संविधान सत्तारूढ़ दल के हाथों की कठपुतली बनकर रह जायेगा।

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