आधुनिक इतिहास लेखन
के आवश्यक तत्त्व
आधुनिक इतिहास लेखन
में निम्न तथ्यों का ध्यान रखना चाहिए-
1. प्रतिमानों की
स्थापना करना अनुचित है-
डेविड थामसन ने लिखा है कि "इतिहास लेखन में प्रतिमानों की स्थापना नहीं होनी चाहिए अथवा विशेष दृष्टिकोण से इतिहास लेखन नहीं होना चाहिए।" यह इतिहासकार का गुण नहीं, अपितु दोष होता है। प्रायः इतिहासकार अतीत का प्रस्तुतीकरण किसी न किसी विशेष दृष्टिकोण से करते हैं। इसी को प्रतिमान लेखा कहते हैं। प्रतिमान लेखन प्राय: दार्शनिक इतिहासकारों द्वारा किया जाता है। हीगेल ने आदर्शवादी दृष्टिकोण से इतिहास की व्याख्या की है और द्वन्द्ववादी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। कार्ल मार्क्स ने इतिहास की भौतिकवादी का प्रतिपादन किया है।
फिशर ने इतिहास के स्वर, गति तथा योजना की भूमिका को
स्वीकार किया है। हीगेल तथा कार्ल मार्क्स ने इतिहास में स्वर,
गति तथा परियोजना की निर्णायक भूमिका को मान्यता दी है। हीगेल
के अनुसार विश्वात्मा घटनाओं को गति अथवा प्रवाह प्रदान करती है। दास प्रथा, सामन्तवादी, क्रान्ति युग, राष्ट्रवादी
युग, निरंकुशवाद, प्रजातंत्रवादी
व्यवस्था युगात्मा के अनुसार घटित होती रही है।
अधिकांश इतिहासकारों
ने प्रतिमानों में माध्यम से इतिहास की व्याख्या की कटु आलोचना की है। इतिहासकार
के शिल्प का अभिप्राय इतिहास में स्वर, गति तथा परियोजना की गवेषणा नहीं,
अपितु अतीत की वैज्ञानिक विधि तथा सूक्ष्म विवेचन पर आधारित अतीत का
यथार्थ प्रस्तुतीकरण होना चाहिए। इतिहास में स्वर, गति तथा
योजना को मान्यता देने का अभिप्राय इतिहास को अर्थहीन बनाना होगा।
आधुनिक वैज्ञानिक
इतिहासकारों ने प्रतिमान, स्वर,
गति तथा परियोजना के माध्यम से अतीत के अध्ययन की कटु आलोचना की है।
क्रिस्टोफर हिल का कथन है कि "प्रायः अतीत के साक्ष्य प्रतिमान,
स्वर, गति तथा परियोजना में जब सहायक सिद्ध
नहीं होते, तो इतिहासकार ऐतिहासिक तथ्यों की व्याख्या में
उन्हें अपने अनुकूल तोड़-मरोड़ करके प्रस्तुत करता है।" अतीत की व्याख्या में
तर्क की आवश्यकता होनी चाहिए। तथ्यों को स्वयं बोलने का अवसर देना चाहिए। यद्यपि प्रतिमान
लेखन का परित्याग कठिन है, परन्तु इतिहासकार का यह कर्त्तव्य
है कि वह तथ्यों पर आधारित घटनाओं का निरूपण करे। तर्कयुक्त व्याख्या इतिहास का
प्राण-स्रोत होता है।
जे. एच. हेक्सटर का कधन है कि "प्रतिमान स्थापना, स्वर, गति,
परियोजना दार्शनिकों के उपादान हो सकते हैं, इतिहासकार
के कदापि नहीं।" जनमानस के अभाव में इतिहास का कोई अस्तित्व नहीं होता है।
जनमानस संबंधी घटनाओं का ही उल्लेख इतिहास की पृष्ठभूमि होनी चाहिए।
2. इतिहास के
वैज्ञानिक स्वरूप पर बल देना-
इतिहास के वैज्ञानिक स्वरूप आस्था
रखने वाले अनेक इतिहासकारों ने विषय की साहित्यिक शैली को कटु आलोचना की है। 1939 में 'हिस्टारिकल एसोसिएशन' के समक्ष अपने भाषण में अर्थक्राफोर्ड
तथा बालकेरीज कहा था कि "अपने युग के अनेक इतिहासकारों को भय है कि इतिहास
में गद्य शैली के प्रति विशेष रुचि अथवा इसे विशेष रोचक बनाने के प्रयास में कहीं
इतिहास अपने गुण से वंचित ना जाए। संक्षेप में इतिहास स्वयमेव एक सुन्दर
चित्र है, जिसको शोभा आकार में मढ़कर नहीं बढ़ाई जा सकती
अथवा यह एक बहुमूल्य रत्न है जिसकी सुन्दरता की अभिवृद्धि आभूषण में जटित कर नहीं
की जा सकती है।"
1903
में प्रो. जे. बी. ब्यूरी ने अपने एक अभिभाषण में कहा था कि "इतिहास
विज्ञान है, न कम और न अधिक।" बीसवीं शताब्दी के अनेक
इतिहासकारों ने इतिहास को साहित्यिक शैली से अतिरंजित करने के प्रयास का विरोध
किया तथा इतिहास को यथातथ्य बनाने में सफलता प्राप्त की।
आधुनिक इतिहास-लेखन
संबंधी मूलभूत सिद्धान्त
आधुनिक इतिहास-लेखन
संबंधी मूलभूत सिद्धान्तों का विवेचन इस प्रकार है-
1. तथ्यों का चयन-
इतिहासकार द्वारा चयन किये गये तथ्य
इतिहास की सामग्री होते हैं। इसी से इतिहास रूपी प्रासाद का निर्माण होता है। लिटन
स्ट्रेची का कथन है कि “इतिहासकार के लिए विस्मरण शक्ति आवश्यक गुण है, क्योंकि अधिकाधिक तथ्यों का समावेश उसके इतिहास को दुरूह बना देगा।" डेविड
थामसन का कथन है कि "इतिहासकार तथ्यों को बुलवाता है क्योंकि मृत
ऐतिहासिक तथ्य स्वयं नहीं बोलते हैं।" प्रो. लुई गाट्सचाक ने लिखा है
कि "अतीतकालिक समाज को समझने के लिए इतिहासकार में समसामयिक समाज को समझने की
दक्षता होनी चाहिए, क्योंकि इस क्षमता के अभाव में अतीतकालिक
समाज का यथोचित मूल्यांकन नहीं कर सकता है।
2. वैज्ञानिक तकनीकी
विधि-
अनेक इतिहासकारों की
यह मान्यता है कि यदि इतिहास अध्ययन में वैज्ञानिक तकनीकी विधि का प्रयोग किया जाए, तो इतिहास की उपादेयता में
अत्यधिक वृद्धि होगी। प्रो. टायन्बी का कथन है कि "इतिहासकार के लिए
वैज्ञानिक तकनीक की आवश्यकता उस समय अपरिहार्य हो जाती है, जब
संकलित सूचियों की संख्या अधिक रहती है।" आवश्यक तथ्यों का चयन एवं अनावश्यक
तथ्यों के परित्याग में वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग आवश्यक है।
इतिहासकार इस विधि
से तथ्यों को सामान्यीकरण सिद्धान्त द्वारा विश्वसनीय ऐतिहासिक तथ्यों को अपने इतिहास-लेखन
में उपादान स्वरूप स्वीकार करता है। बेकन, ब्यूरी, रांके,
काम्टे तथा बकल आदि का अटूट विश्वास इतिहास के वैज्ञानिक
स्वरूप में रहा है। कालिंगवुड इतिहास लेखन प्रक्रिया में वैज्ञानिक विधि के
प्रबल समर्थक हैं। इन नियमों तथा विधाओं से इतिहास को अलंकृत करना इतिहासकार का
कौशल होता है।
3. कैंची तथा गोंद
शैली-
कैंची तथा गोंद शैली में
आस्था रखने वाले इतिहासकार ऐतिहासिक स्रोतों से संकलित तथ्यों को यथावत शृंखलाबद्ध
करके अपनी रचना में स्थान देते हैं। ऐसे इतिहासकारों में शिल्प का स्पष्ट अभाव
दिखाई देता है। कालिंगवुड के अनुसार वैज्ञानिक तकनीक में कैंची तथा गोंद
शैली का कोई स्थान नहीं है।
4. साक्ष्य-
इतिहासकार बाह्य आलोचना तथा आन्तरिक
आलोचना के माध्यम से स्रोतों को विश्वसनीयता की पुष्टि के बाद तथ्यों का संकलन
करता है । तथ्य ही उसके साक्ष्य होते हैं। इसी विधि से साक्ष्यों की विश्वसनीयता
सिद्ध की जानी चाहिए।
5. प्रश्न-
बेकन के अनुसार वैज्ञानिक
प्रकृति से प्रश्न करता है तथा वैज्ञानिक विधाओं द्वारा अपने प्रश्न का उत्तर
प्राप्त करता है। इतिहासकार अतीत से प्रश्न पूछता है, परन्तु यह इतिहासकार का
व्यक्तिगत प्रश्न नहीं होता है, बल्कि समसामयिक समाज
का प्रश्न होता है। इतिहासकार अतीत के अन्तस्तल में प्रवेश करके समाज के प्रश्नों
का उत्तर ढूँढता है। ऐतिहासिक तथ्यों की गवेषणा के समय इतिहासकार के
मस्तिष्क में प्रश्न सदैव विद्यमान रहना चाहिए। कालिंगवुड के अनुसार
इतिहासकार साक्ष्य पर आधारित अतीत की पुनरावृत्ति करता है। वह कैंची तथा गोंद
शैली में इतिहास का प्रस्तुतीकरण नहीं, बल्कि तथ्यों का
वैज्ञानिक विश्लेषण करता है।
6. कबूतरी कोटर-
वैज्ञानिक इतिहासकार
प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्यों को यथावत् स्वीकार नहीं करते, अपितु अतीतकालिक घटना के
अन्तस्तल में प्रवेश करके यथार्थता का रहस्योद्घाटन करते हैं, जैसे एक भूगर्भशास्त्री पृथ्वी के अन्दर छिपे हुए लोहा, कोयला, स्वर्ण, हीरा, पन्ना आदि का पता लगाता है। कबूतर नदी के किनारे अथवा पहाड़ी की
चट्टानों में सुराख बनाकर अपना निवास स्थान बनाता है, ठीक
उसी प्रकार अतीत के अन्तस्थल में प्रवेश करके इतिहासकार को यथार्थता का पता
लगाना चाहिए। इतिहासकार अपने शिल्प से ही इतिहास के स्वरूप रचनात्मकता प्रदान करता
है।
7. कलात्मक
प्रस्तुतीकरण-
अनेक विद्वानों को
मान्यता है कि इतिहास का कलात्मक प्रस्तुतीकरण किया जाना चाहिए। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, सारनाथ आदि की खुदाई के पश्चात् प्राप्त सामग्री ईंट, पत्थर, इमारतों के भग्नावशेष, खण्डित
मूर्तियाँ, बर्तनों के अवशेष आदि इतिहास की निर्जीव सामग्री
होते हैं। यह इतिहासकार की काव्यात्मक तथा साहित्यिक शैली की विशेषता है कि
निर्जीव इतिहास की सामग्री से अतीत का एक सुन्दर आकर्षक तथा सजीव प्रासाद का
निर्माण करके उसे अनुप्राणित करता है। उपलब्ध निर्जीव ऐतिहासिक तथ्यों का यथावत्
प्रस्तुतीकरण इतिहास की रोचकता को समाप्त करके उसे निर्जीव, दुरूह तथा अपठनीय बना देगा।
आई.ए. रिचई का कथन है कि "कला
सम्प्रेषण प्रक्रिया को सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति है।" रेनियर के
अनुसार इतिहास कला है तथा एक कलाकार को भाँति इतिहासकार समाज की सेवा कर सकता है।
परन्तु इतिहासकार को कल्पना को प्रधानता देकर यथार्थता की उपेक्षा नहीं
करनी चाहिए।
इतिहासकार जब चयन तथा परित्याग
प्रक्रिया का सहारा लेता है, तो अपने को साहित्य-जगत् में पाता है तथा एक कलाकार की भाँति
अतीत के निर्जीव तथ्यों को साहित्यिक शैली में प्रस्तुतीकरण के लिए विवश हो जाता
है। इस दृष्टि से मैकाले, गिबन, कारलायल, वाल्टर स्काट को
उच्चकोटि के कुशल कलाकार तथा महान् इतिहासकार की श्रेणी में रखा जा सकता है। मैकाले
की रचनाएँ साहित्यिक शैली में इतिहास को सुन्दरतम कृतियाँ हैं। मैकाले जैसे
इतिहासकार को इतिहास लेखन संबंधी उत्कृष्ट कल्पना ने उनकी रचनाओं को सर्वाधिक
लोकप्रिय बना दिया।
8. परिकल्पना-
इतिहास को तथ्य तथा
परिकल्पना का सुन्दर सम्मिश्रण कहना उचित प्रतीत होता है। ट्रेवेलियन का कथन
है कि अन्तस्तल में इतिहास की अभ्यर्थना परिकल्पनात्मक है। कालिंगवुड के
अनुसार "यथार्थता ऐतिहासिक अध्ययन की कसौटी है, परन्तु उसका उत्प्रेरक पुनरावेदन
काव्यात्मक है।" परन्तु इतिहासकार तथा साहित्यकार की कल्पना में अन्तर है।
कवि के लिए यथार्थता का कोई महत्त्व नहीं है, परन्तु इतिहासकार
यथार्थ साक्ष्यों के अभाव में कुछ नहीं कर सकता है।
इतिहास-लेखन एक प्रकार का निर्माण
कार्य है। ऐतिहासिक सामग्री के संकलन तथा निर्माण कार्य में उसके समुचित प्रयोग के
पश्चात् रचना को सुन्दर स्वरूप प्रदान करने के लिए कुछ विशेष उपकरणों का प्रयोग
आवश्यक हो जाता है। अत: इतिहासकार अपनी रचना को रोचक तथा ग्राह्य बनाने के लिए कुछ
नवीन विधाओं का प्रयोग करता है। इसी को निष्कर्ष को संज्ञा दी जा सकती है।
आशा हैं कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी
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