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इतिहास लेखन की चीनी परम्परा

इतिहास-लेखन की चीनी परम्परा

चीन की सभ्यता संसार की सर्वाधिक प्राचीन सभ्यता स्वीकार की जाती है और विद्वान इतिहास लेखन की परम्परा से ईसा पूर्व के समय से ही सम्बद्ध है परन्तु चीन के लोग सांस्कृतिक दृष्टि से अपने को श्रेष्ठ मानते हैं। यही कारण है कि उन्होंने विश्व के देशों से सम्बन्ध स्थापित करने में कोई रुचि प्रदर्शित नहीं की है। उनकी सर्वोच्चता की भावना इतिहास लेखन में उनको एक बाधा बनी रही और वे तुलनात्मक और विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण को विकसित करने में असफल रहे। चीनी इतिहास को पाँच उत्कृष्ट ग्रन्थों में से एक मानते हैं जिनकी रचना सुदूर अतीत में को गयी थी और जो उनके जीवन के प्रमुख प्रतिमान मान लिये गये।

चीनी इतिहास लेखन में मानव को अपेक्षा समाज को अधिक महत्त्व दिया गया है। उनकी मान्यता के अनुसार, इतिहास लेखन का एक नैतिक उद्देश्य यह है कि उसके द्वारा अच्छाई को प्रोत्साहित व बुराई को हतोत्साहित एवं भयभीत किया जाता है। एक विद्वान ने संकेत किया है कि, भारतीयों से अलग चीनी ऐतिहासिक तथ्यों में अधिक रुचि रखते हैं। वह अमूर्त सिद्धान्तों की अपेक्षा पूर्ण दृष्टान्तों को अधिक महत्त्वपूर्ण स्वीकार करते हैं।

सर्वोच्चता की भावना के कारण चीनियों ने पक्षपात पूर्ण इतिहास लेखन किया क्योंकि वे विश्व के सम्मुख यह प्रकट करना चाहते थे कि उन्हें बाह्य संसार से कुछ भी ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए पूर्व निर्धारित विचारों के आधार पर उनके द्वारा लिखा गया इतिहास कदाचित आलोचनात्मक नहीं था, क्योंकि चीनी दरबारी इतिहासकारों द्वारा इतिहास लेखन की अविच्छिन्न परम्परा रही है।

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इतिहास लेखन की चीनी परम्परा

प्रारम्भ में चीनी इतिहासकारों ने अपने भगवानों और संस्कृति का वर्णन अपने ग्रन्थों में किया और बाद में उन्होंने अपनी पुरानी परम्पराओं को भी अपने लेखन में स्थान दिया। कालान्तर में चीनी इतिहासकारों ने पुरातन काल के इतिहास को भी अपने लेखन से सम्बद्ध कर लिया। धीरे-धीरे इतिहासकारों ने कला, खगोलाशास्त्र, आत्मकथाओं और प्रकृति विज्ञानों को भी अपने लेखन में स्थान देना प्रारम्भ कर दिया। अफीम के कारण विद्वान चीनियों का सम्पर्क विश्व के अन्य देशों से हुआ और दोनों ने एक-दूसरे को प्रभावित किया।

प्राचीन काल में चीनी इतिहास-लेखन-

प्रारम्भ में ही चीनियों ने इतिहास लेखन की ओर ध्यान दिया। वे संसार में अपनी सांस्कृतिक सर्वोच्चता को स्थापित करना चाहते थे और इतिहास लेखन को वह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक क्रिया-कलाप समझते थे। उन्होंने जन-साधारण की भाषा में इतिहास को लिपिबद्ध किया। प्रारम्भ में उन्होंने धर्म और सांस्कृतिक गतिविधियों को महत्त्व प्रदान किया।

चू-ही का विकासवादी सिद्धान्त (Evaluation Theory of Chu-Hi)- चीनी इतिहास दर्शन में चू-ही के विचार हरबर्ट स्पेन्सर से समानता रखते हैं। चू-ही का विकासवाद गतिमान था। उनके अनुसार 'ताई बी' को 'ली' को गति चलायमान करती है। 'ली' से 'बी' को शक्ति प्राप्त होती है और इसी शक्ति चिन-याइ के द्वारा सृष्टि का निर्माण होता है।

डॉ. पाण्डेय द्वारा सम्पादित ग्रन्थ में उल्लेख मिलता है "कनफूशियस और उसके अनुयायियों ने 'ली' को एक नैतिक अर्थ प्रदान किया है तथा इसे समाज तथा व्यक्ति के जीवन का नियन्त्रक तत्त्व माना है जिसके अभाव में दोनों, अशान्ति, अव्यवस्था और उच्छृखलता से ग्रसित हो जाते हैं। 'ली' के नियन्त्रण के कारण ही विभिन्न सामाजिक स्थितियों में रहने वाले लोगों में सामंजस्य दिखायो पड़ता है।"

चू-ही के सिद्धान्त के अनुसार प्रारम्भिक अवस्था में आकाश व पृथ्वी गतिमान पिण्ड थे जो एक चक्की के समान घूमते थे। गति की तीव्रता के कारण भारी भाग केन्द्र से घनीभूत हो गये, जिससे पृथ्वी का निर्माण हुआ तथा हल्के भाग के परिधि की ओर आने से आकाश को रचना हुई। समय के साथ-साथ पिण्ड का विघटन और विकेन्द्रीकरण होने के कारण ही शक्ति अपना मूल धारण कर लेती है तदन्तर यह सृष्टि चक्र पुनः प्रारम्भ हो जाता है। चू-ही के अनुसार 'ली' का स्वरूप नैतिक है तथा सुव्यवस्थित और सुखी जीवन के लिए 'ली' का ज्ञान व पालन अत्यन्त आवश्यक है।

प्रथम चीनी इतिहासकार सु. मा. चिन (First Chinese Historian-Ssu-Ma-chien)- सु-मा-चिन को चीनी इतिहास लेखन के जनक के रूप में मान्यता प्राप्त है। वह एक दरबारी भविष्यवक्ता का पुत्र था। उसने बाल्यकाल में ही प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया था, उसने विस्तृत यात्राएँ भी की। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् वह वू-तो के दरबार में ज्योतिषी के पद पर नियुक्त हुआ। उसने 'द-शो-ची' अथवा रिकार्ड्स ऑफ हिस्टोरियस' को रचना की। इस पुस्तक को रचना में उसने अपने प्राचीन ज्ञान और यात्राओं को साक्ष्य के रूप में प्रयोग किया। इस पुस्तक में उसने प्रारम्भ से लेकर अपने समय तक के चीन के इतिहास का वर्णन किया। इस पुस्तक में उसने उस समय की प्रसिद्ध राजनीतिक घटनाओं, युद्धों की काल-क्रमानुसार सूची, महत्त्वपूर्ण आर्थिक आँकड़ों और महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों की आत्मकथाओं का भी उल्लेख किया है। उसने अपने वर्णन में उन देशों का भी विवरण प्रस्तुत किये जहाँ वह अपनी यात्राओं के दौरान भ्रमण करते हुए गया था। उसने उन देशों को राजनीतिक एवं आर्थिक दशा को भी अपनी पुस्तक में वर्णित किया है।

यह ग्रन्थ अन्य चीन के इतिहास लेखकों का प्रमुख-प्रेरणा स्रोत सिद्ध हुआ जिन्होंने उसकी लेखन शैली एवं पद्धति का अवलोकन किया। कुछ चीनी विद्वानों ने जिनमें फाह्यान, हेनसांग और इत्सिंग के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, भारत के सन्दर्भ में विस्तृत वर्णन किया है। इनके भारत आगमन के पृथक्-पृथक् समय होने के कारण इन्होंने अपने-अपने समय में उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर भारत की तत्कालीन स्थिति का वर्णन किया है।

सातवीं शताब्दी से पूर्व इतिहास-लेखन-

वस्तुत: उसकी पुस्तक के प्रकाशन के बाद प्राचीन चीनी कथाओं को संग्रह करने और उन्हें पुन: व्यवस्थित करके प्रस्तुत किया जाने लगा। साथ ही ऐतिहासिक घटनाओं को भी कालक्रमानुसार लिखने की पद्धति को अपनाया गया और कभी-कभी कुछ घटनाओं एवं मामलों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और विश्वसनीय आंकड़ों को प्रस्तुत किया गया कि वे बाद में इतिहास की जानकारी एवं लेखन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यवान सिद्ध हुए। इसको रचना का महत्त्व इस कारण भी है कि कालान्तर में अनेक विद्वानों ने इसका अनुसरण करते हुए इसी पद्धति पर अपने ग्रन्थों की रचना की।

प्राचीन समय में एक अन्य प्रकार की इतिहास लेखन की विधा भी सामने आयी और इतिहासकारों ने कथाओं और गीतों को महत्त्व प्रदान करना प्रारम्भ कर दिया। यह इतिहास अधिकांशत: मौखिक एवं प्रचलित कहावतों पर आधारित था जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दी जाती रहीं। इसके बाद एक अन्य ऐतिहासिक विधा भी प्रकाश में आयी जिसे तसो-परम्परा के नाम से जाना जाता है, जिसने मौखिक परम्परा की अपेक्षा कथाओं और घटनाओं को कम महत्त्व देना प्रारम्भ किया। इस लेखन पद्धति के वर्णन में कुछ दार्शनिक विचारों को भी स्थान दिया जाने लगा।

सु-मा-चिन के इतिहास में मुख्य रूप से पाँच शासन वंशों का वर्णन मिलता है जिसमें उनके उत्थान व पतन पर अत्यन्त सुन्दर ढंग से प्रकाश डाला गया है। सु-मा-चिन ने स्वयं अपने इतिहास लेखन के लक्ष्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है, "अतीत के कार्य व्यापार और घटनाओं का परीक्षण एवं उनकी सफलताओं एवं असफलताओं, उनके उत्थान पतन के पीछे स्थित सिद्धान्तों का अनुसन्धान प्रस्तुत करना था।" प्राचीन समय के अन्य इतिहासकारों के समान उसकी कृति भी उपदेशात्मक शैली में लिखी गयी है। एक स्थान पर इस सन्दर्भ में कहा गया है कि वह पाप के निराकरण और पुण्य के प्रोत्साहन में प्रवृत्त है।

221ई.पू. में चीन में एक केन्द्रीकृत साम्राज्य का उदय हुआ और इतिहास लेखन का स्वरूप परिवर्तित होने लगा। अब कथाओं और परम्पराओं को इतिहास में कम महत्त्व दिया जाने लगा और उसके स्थान पर नवीन पद्धति का प्रयोग प्रारम्भ हो गया। उस समय पर्याप्त ऐतिहासिक सामग्री को उत्पादित किया गया किन्तु दुर्भाग्य यह है कि उसमें से बहुत कम सामग्री ही अब उपलब्ध है।

कन्फ्यूशियस ने युक ऑफ चेन्जेस' को लिखा और उनके एक शिष्य ने 'दि बुक ऑफ हिस्ट्री 'स्प्रिंग एण्ड औटम', 'दि मिडिल पाथ और मनग-जू-शू' की रचना की। कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियाँ शी-ची, दि हान-शू, दि हान-ची और तुंग-कोई-हान-ची का भी वर्णन उपलब्ध होता है। बाद में हान वंश के इतिहास लेखन की ओर विशिष्ट ध्यान दिया गया। साथ ही विश्वसनीय इतिहास लेखन पर अधिक बल दिया जाने लगा और 'माओ-चियांग ओड' को इस अवधि में प्रस्तुत किया गया। शाऊ-वन ने अपना शब्द-कोष लिखा और तांग ने सुविधाजनक शैली का प्रयोग प्रारम्भ किया।

दूसरी शताब्दी के अन्त तक उत्तरकालीन हान वंश का पतन हो गया, जिसके फलस्वरूप चीन का केन्द्रीकृत साम्राज्य दुर्बल हो गया तथा चीन कई छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया और प्रत्येक राज्य ने इतिहास लेखन की ओर ध्यान देना प्रारम्भ किया। यद्यपि इस अवधि में श्रेष्ठ इतिहास की रचना हुई परन्तु बहुत कम दस्तावेज अपने मूल रूप में अब उपलब्ध हैं। इस काल की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि इतिहास का अध्ययन एक स्वतन्त्र विषय के रूप में किया जाने लगा और शासकों के साथ-साथ जनता ने भी इतिहास लेखन में रुचि लेना प्रारम्भ कर दिया।

सातवीं शताब्दी में इतिहास लेखन-

चीन में तांग शासन काल में पुनः राजनीतिक एकता का उदय हुआ। यह वंश लगभग 300 वर्ष तक शक्ति सम्पन्न बना रहा। इस काल को इतिहास का 'गौरवपूर्ण युग' के नाम से जाना जाता है। इस काल के शासकों ने ललित कलाओं के साथ-साथ राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पहलुओं को भी इतिहास लेखन में महत्त्व प्रदान करना प्रारम्भ किया। उन्होंने केवल चीन के प्राचीन इतिहास के लेखन में ही रुचि का प्रदर्शन नहीं किया अपितु उन विद्वानों को भी प्रोत्साहन प्रदान किया जो चीन के राष्ट्रीय इतिहास को लिखने में रुचि रखते थे।

इस काल में विद्वानों के एक बड़े समूह ने उच्च स्तरीय वंशों से सम्बन्धित इतिहास लेखन की ओर अपना ध्यान आकर्षित किया। इस कार्य हेतु तांग शासक ने एक पृथक 'इतिहास कार्यालय' की भी स्थापना की। इसके द्वारा लेखकों को स्रोत सामग्री एकत्रित करने के लिए विस्तृत यात्राओं हेतु धन उपलब्ध कराया जाता था। सरकार ने विश्वसनीय एवं समीचीन इतिहास लेखन की दृष्टि से ये सुविधाएँ विद्वानों को प्रदान की थीं ताकि वे अपनी श्रेष्ठ कृतियाँ प्रस्तुत करके इतिहास लेखन को उन्नत स्वरूप दे सके।

शुंग कालीन इतिहास-

तांग शासकों के पतन के पश्चात् चीन में शुंग वंश के शासकों ने सत्ता को ग्रहण किया। इस वंश ने भी लम्बे समय तक चीन पर शासन किया किन्तु इस वंश के शासक तांग वंश के शासकों के समान शक्तिशाली नहीं थे। अतः वे राजनीतिक एकता को बनाये रखने में असफल रहे। फिर भी देश सांस्कृतिक एवं आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न बना रहा। इस काल में चीन में सरकारी इतिहास लेखन की तकनीक और विकास में वृद्धि हुई और उसका सुधरा हुआ रूप सामने आया। यू-ची ने अपनी कृति 'दि वेस्टर्न पिलग्रमेज' प्रस्तुत की। निःसन्देह इतिहास लेखन की दिशा में इस युग में पर्याप्त विकास हुआ परन्तु महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री का संग्रह नहीं किया जा सका।

मिंग वंश के अन्तर्गत इतिहास लेखन-

चीनी इतिहास लेखन की परम्परा में मिंग शासकों के काल में नवीन परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगा। इस वंश का संस्थापक यू-युवान-चांग था और इस वंश ने लगभग 275 वर्ष तक चीन में शासन की बागडोर को संभाला। इस काल में चीन में समुद्री जोखिम पूर्ण कार्यों को किया गया था परन्तु ये शासक अधिकांश समय तक युद्धों में संलग्न रहे। अब इतिहास कार्यालय में भिन्न-भिन्न राज्यों से सम्बन्धित सामग्री भी उपलब्ध की गयी। इस काल में साऊ-नो-तया, हसी-यू-ची ने अपनी कृतियाँ प्रस्तुत की तथा इतिहास कार्यालय को यह विश्वास दिलाया कि अभिलेखों को नष्ट नहीं किया गया है और उनकी विश्वसनीयता भी पूरी तरह सुरक्षित है।

17वीं शताब्दी में चीनी इतिहास लेखन-

प्राचीन काल में चीनी इतिहास लेखन में पर्याप्त प्रगति हुई। इसमें कई परिवर्तन भी हुए और विद्वानों ने इतिहास लेखन की नयी विधाओं का भी अध्ययन किया। इससे पूर्व इतिहास लेखन पश्चिमी प्रभाव से पूर्ण रूप से मुक्त था। इतिहास कार्यालय की स्थापना हो चुकी थी और इतिहास लेखन के क्षेत्र में शासकों एवं तत्कालीन लोगों में भी पर्याप्त जागृति आ गयी थी। सही और विश्वसनीय ऐतिहासिक सामग्री एवं साक्ष्यों को महत्त्व दिया जाने लगा था और इतिहास लेखन में कथाओं का महत्त्व भी उत्तरोत्तर कम होता जा रहा था। अब सन्धियों और पाण्डित्यपूर्ण लेखों का लिखा जाना भी प्रारम्भ हो चुका था परन्तु इस काल में दस्तावेजों के विश्लेषण हेतु कोई विशेष प्रयास नहीं किये गये थे। ऐतिहासिक लेखन केवल घटनाओं को कालक्रमानुसार व्यवस्थित करने तक सीमित था।

निःसन्देह कुछ व्यक्तियों ने इतिहास के अध्ययन में और अधिक गहनता और तीक्ष्ण दृष्टि डालने का प्रयास किया किन्तु उन्हें अपने प्रयास में अधिक सफलता नहीं मिली और वह टिकाऊ भी सिद्ध नहीं हुए। कुछ आत्मकथाएँ भी इस समय में लिखी गयीं जो व्यक्ति से सम्बन्धित थीं। इतिहास कार्यालय द्वारा केवल सरकार द्वारा प्रायोजित इतिहास ही लिखा गया और व्यक्तिगत रूप में विद्वानों ने इतिहास लेखन में अत्यन्त मूल्यवान कृतियों की रचना की परन्तु वास्तविकता यह है कि सरकारी कार्यालय द्वारा और व्यक्तिगत रूप से लिखे गये इतिहास में कोई विशेष अन्तर नहीं था क्योंकि दोनों की सोत सामग्री एक ही प्रकार की थी। दोनों में एकमात्र अन्तर लेखन की स्वतन्त्रता का था।

व्यक्तिगत इतिहासकार अपने लेखन में पूर्णतया बन्धन मुक्त थे जिनका सामना सरकारी इतिहासकारों को करना पड़ता है। इस समय के प्रसिद्ध इतिहासकारों में तो-चू, या-त्वान-लिन, सियो-ओहिन ओहि और सुसुम क्वांग, ती-यू लिन चिन ची आदि उल्लेखनीय इतिहासकार थे। इन विज्ञानों ने न केवल पिछले इतिहासकारों की लेखन विधि की अत्यधिक आलोचना की अपितु उन्होंने इतिहास लेखन की नवीन पद्धति का अनुसरण करने की भी राय दी। ऐतिहासिक दृष्टि एवं आलोचनात्मक वर्णन की दृष्टि से इनके लेखन का विशेष महत्त्व है परन्तु फिर भी चीनी इतिहास लेखन में विकास की अभी अत्यधिक आवश्यकता है। उसमें कई पहलू अभी तक अछूते हैं।

संक्षेप में चीनी इतिहास ग्रन्थों में कई विशेषताएँ पायी गयी हैं। इतिहास लेखन का महत्त्व इसमें निहित है कि इस प्रथा का निरन्तर निर्वाह किया गया। इस विधा की एक अन्य विशेषता यह है कि इनमें से प्रत्येक किसी एक व्यक्ति की रचना न होकर विभाग के सम्मिलित कार्य का परिणाम है। इन ग्रन्थों की तीसरी विशेषता यह है कि एक संघटनात्मक कथानक जीवनी शैली में लिखे गये हैं।

17वीं से 20वीं शताब्दी के मध्य चीनी इतिहास लेखन-

17वीं शताब्दी में चीनी इतिहास लेखन में नवीन परिवर्तन दृष्टिगोचर हुए। सबसे प्रसिद्ध मन्चू वंश ने चीन लगभग 300 वर्ष (1583 से 1912 ई.) तक शासन किया। मन्चू शासकों के काल में चीन ने आधुनिक युग में प्रवेश किया और देश को अफीम-युद्धों तथा ताईपिंग विद्रोह का सामना करना पड़ा जिसने इतिहास लेखन को प्रभावित किया। इस काल में चीन के इतिहासकारों एवं लेखकों के यूरोप के विद्वानों से सम्बन्ध स्थापित हुए। परिणामत: उन्हें ज्ञात हुआ कि सांस्कृतिक सर्वोच्चता की उनकी अवधारणा पूर्णतः सत्य नहीं है।

पश्चिम की तुलना में चीनी पर्याप्त पीछे थे। अन्त में चीन को भी विवश होकर यूरोप के देशों के लिए व्यापार के द्वार खोलने पड़े। इन यूरोप के व्यापारियों के सम्पर्क के कारण चीनियों को इतिहास लेखन में पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई। इसके साथ यूरोप के विद्वानों ने इतिहास के उपागम पर भी गहरा प्रभाव डाला और इस अवधि में चीनियों ने इतिहास में धार्मिक पहलुओका भी वर्णन करना प्रारम्भ किया।

चीन में प्रेस और कागज की खोज से वहाँ के इतिहास लेखन और उसके प्रचार का मार्ग प्रशस्त हुआ। अफीम युद्ध के बाद चीन की इतिहास लेखन की पद्धति में अत्यधिक परिवर्तन हुआ जिससे चीनी इतिहासकार पूरी तरह प्रभावित हुए थे।

17वीं शताब्दी में कू-यन-तू के नेतृत्व में एक नवीन इतिहास लेखन की पद्धति का विकास हुआ। इस पद्धति के विद्वानों का प्रमुख उद्देश्य अपनी योग्यता के द्वारा राष्ट्र को सुदृढ करना था, इस स्कूल की स्थापना इस उद्देश्य से की गई थी कि इतिहास का अध्ययन केवल सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से नहीं किया जाना चाहिए और उनका विश्वास था कि इतिहास की रचना ऐतिहासिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं की जानी चाहिए। इतिहास का मुख्य उद्देश्य एकता की भावना का विकास, देशभक्ति ओर राष्ट्रवाद की भावना को लोगों के मस्तिष्क में भरने के लिए किया जाना चाहिए। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि वर्तमान और अतीत के मध्य एक सम्पर्क स्थापित रखना चाहिए ताकि लोगों में उपर्युक्त भावना को जागृत किया जा सके। इस पद्धति के मानने वालों की धारणा थी कि पुरातन साहित्य की सुरक्षा और अध्ययन इस दृष्टि से किया जाना चाहिए ताकि वर्तमान पीढ़ी में अपनी अतीत की सांस्कृतिक विरासत के प्रति गर्व की भावना का विकास हो सके।

18वीं शताब्दी में काओ प्रथमत ने वैयक्तिक घटना को ढूंढ निकालने के प्रयास किये तथा सामाजिक और संस्थात्मक इतिहास लेखन के सन्दर्भ में राष्ट्रीय एकता की भावना को विकसित किया जा सके परन्तु इसका मुख्य श्रेय चांग-हुच-च्यांग को दिया जाता है जिसने चीनी इतिहास लेखन की नवीन अवधारणा को स्थापित किया। इस पद्धति के लेखक अपनी कृतियों के लेखन से पूर्व हरसम्भव साक्ष्यों से पर्याप्त सामग्री एकत्रित करने को महत्त्व देते थे। वे उस सामग्री के विश्लेषण की अपेखा उसमें निहित अर्थ को समझने पर बल देते थे। इससे एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण की पद्धति का विकास हुआ। यहाँ यह वर्णनीय है कि इस प्रकार की विधा को उस समय मतें कोई महत्त्व प्राप्त नहीं था, परन्तु वर्तमान समय में उसकी अत्यधिक प्रशंसा की जाती है। इसीलिए उसे एक प्रसिद्ध और मौलिक चिन्तक कहा जाता है और उसकी तुलना इतिहास के महान् दार्शनिक डोमविटस्टा वाइस से की जाती है।

अफीम युद्ध के बाद चीनी इतिहास लेखन में एक भौतिक परिवर्तन आया जिसमें इतिहास लेखन में तुलनात्मक दृष्टिकोण का उदय हुआ। इसका मूल कारण चीनी विद्वानों पर पश्चिम का प्रभाव था। इसलिए विद्वानों ने पूर्वी और पश्चिमी सभ्यता की तुलना करना प्रारम्भ कर दिया था।

20वीं शताब्दी में चीनी इतिहास लेखन-

अफीम युद्ध के बाद चीन पूर्व के देशों से अपने सम्बन्ध स्थापित करने के लिए विवश हो गया और इसी कारण से उसने एकाकीपन की नीति को त्याग दिया था। अब पश्चिम के विद्वानों एवं इतिहासकारों ने चीन के अतीत के इतिहास को पुनः खोजना और विश्लेषण करना प्रारम्भ कर दिया था। उन्होंने उनकी जीवन शैली, संस्कृति, इतिहास एवं कला के सन्दर्भ में लिखा पर्याप्त सामग्री को खोजकर उसका अध्ययन किया गया। चीन के नवीन इतिहासकारों ने चीन के अतीत को पुर्नव्याख्या करना प्रारम्भ कर दी और परम्परागत दृष्टिकोण को नकार दिया था।

चीनी विद्वानों पर साम्यवाद, प्रजातन्त्र और उदारवाद का अत्यधिक प्रभाव पड़ा और इतिहासकारों ने उसके सन्दर्भ में लिखना प्रारम्भ कर दिया जिसके कारण चीन के लोगों को तन्द्रा भंग हुई और उसमें जागृति का संचार हुआ और इस मान्यता का अन्त हो गया कि चीन केवल अफीम खाने वालों की भूमि है। परिणामस्वरूप स्रोतों को खोजा गया और उनके आधार पर विद्यमान ऐतिहासिक तथ्यों को नवीन व्याख्या की गयी।

साम्राज्य के पतन के बाद समस्त पुराने दस्तावेज और अभिलेख विद्वानों को उपलब्ध कराये गये। इन साक्ष्यों का इतिहासकारों की दृष्टि में अत्यधिक महत्त्व था और इनके अध्ययन के पश्चात् उनकी समझ में यह भली प्रकार आ गया कि अब तक उनके अध्ययन की दशा ठीक नहीं। शाही संग्रहालय के सभी वर्णन वर्गीकृत और निश्चित पद्धति पर आधारित थे। साथ ही इन सामान्य रुचि के दस्तावेजों को एक श्रृंखला के रूप में प्रकाशित भी किया जाने लगा। इसके परिणामस्वरूप इतिहास लेखन में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन यह आया कि अब प्रान्तीय इतिहास लेखन के विद्वानों ने राष्ट्रीय इतिहास लेखन की ओर ध्यान दिया। इसके कारण इतिहास लेखन के क्षेत्र में विकास हुआ।

अब इतिहास लेखन का कार्य केवल प्राचीन काल का वर्णन करना नहीं रहा अपितु आधुनिक काल के इतिहास लेखन को भी महत्त्व दिया जाने लगा। इसके अतिरिक्त इतिहासकारों ने नये विषयों; जैसे-राजनीतिक विचारधारा, कला, साहित्य, सभ्यता और पश्चिम के विचारों के सन्दर्भ में भी लिखना प्रारम्भ कर दिया। इस समय तक आते-आते इतिहास का विभाजन तीन भागों-प्राचीन, मतध्यकालीन और आधुनिक में हो गया और प्रत्येक भाग का विद्वानों ने पृथक्-पृथक् अध्ययन करना प्रारम्भ कर दिया।

इतिहास-लेखन की वर्तमान स्थिति-

जापान से संघर्ष के दौरान और साम्यवाद के उदय के कारण चीनी इतिहास लेखन को एक बड़ा धक्का लगा। इस समय में कोई महत्त्वपूर्ण ऐतहासिक सामग्री उपलब्ध नहीं हुई। द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारम्भ हो जाने के कारण भी इतिहास लेखन पर कुछ प्रतिबन्ध लग गये थे किन्तु साम्यवादी युग में इतिहास लेखन की ओर पुनः ध्यान आकर्षित हुआ जिसके फलस्वरूप वर्तमान में चीनी इतिहास लेखन में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं-

1. चीन के इतिहास एवं विद्वान पर्याप्त ऐतिहासिक सामग्री को प्रकाशित करे, उसके आधार पर पुरातन व्यवस्था का अपने दृष्टिकोण से खण्डन कर रहे हैं, क्योंकि वह शोषण पर आधारित थी।

2. वर्तमान में इतिहासकार आधुनिक इतिहास लेखन की ओर विशेष रूप से आकर्षित हो रहे हैं क्योंकि इसमें साम्यवाद को विशिष्ट महत्त्व दिया जा रहा है।

3. वे राष्ट्रीय दृष्टिकोण पर विशेष बल दे रहे हैं। अत: वर्तमान लेखन में प्रान्तीयता को कोई महत्त्व प्राप्त नहीं हो रहा है।

4. राजसी युग को पूरी तरह से नकारा जा रहा है।

5. अब इतिहासकार इतिहास लेखन का कार्य सांस्कृतिक क्रान्ति की भावना से कर रहे हैं। अब इतिहासकार पश्चिम की सांस्कृतिक सर्वोच्चता के सिद्धान्त को भी समाप्त करने के प्रयास कर रहे हैं। उनकी मान्यता यह होने लगी है कि पश्चिमी संस्कृति किसी भी प्रकार से पूर्वी संस्कृति से श्रेष्ठ नहीं है।

अन्त में हम डॉ. गोबिन्द चन्द्र पाण्डेय द्वारा सम्पादित पुस्तक के आधार पर यह कह सकते हैं, "किसी भी पूर्व देश और अधिकांश पश्चिमी देशों को अपेक्षा चीन के इतिहास पर सर्वाधिक मूल स्रोत उपलब्ध हैं। चीनी इतिहास लेखन परम्परा विश्व को श्रेष्ठ परम्पराओं में से है। इससे चीन में घटी प्राचीन घटनाओं का न केवल वर्ष,माह अपितु दिन.तक जान सकना सम्भव है।" उन्होंने यह भी लिखा है, "चीनी परम्परा का यह विश्वास महत्त्वपूर्ण है कि राज्य नष्ट हो सकता है परन्तु इतिहास नष्ट नहीं होता। चीन में सत्य लेखन का सिद्धान्त अत्यन्त प्राचीन किन्तु इतिहासकार के स्वातन्त्र्य का अतिक्रमण सर्वथा असामान्य बात नहीं थी।"

आशा हैं कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।

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