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साम्राज्यवादी लेखन की अवधारणा

साम्राज्यवादी लेखन की अवधारणा का आलोचनात्मक परीक्षण

राज्य व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिये ऐतिहासिक परम्पराओं के अनुसार साम्राज्यवाद विकसित हुआ जिसका उद्देश्य निरकुंश शासन में अपने सीमित साम्राज्य को अपनी नीति व अनीति के आधार पर विस्तार करना था। इसी भावना से बड़े-बड़े साम्राज्यवादी राजाओं ने अपने साम्राज्य का विकास किया। यूरोपीय देशों ने व्यापार विस्तार के माध्यम से उपनिवेशवाद को बढ़ावा दिया यह भी साम्राज्यवाद का ही रूप है।

साम्राज्यवादी शक्तियों ने अपने राज्य में प्रजा को पीड़ित किया। जनता ने कुछ समय तक शोषण की त्रासदी भोगी और अपनी चेतना को जागृत करते हुए साम्राज्यवाद के खिलाफ आवाज उठायी। साम्राज्यवाद के खिलाफ उससे मुक्ति के लिये किया गया सक्रिय प्रयास राष्ट्रवादी भावना है। राष्ट्रवादी भावना के द्वारा ही साम्राज्यवादी शक्तियों के विरुद्ध विद्रोह और आन्दोलन हुए जिसके फलस्वरूप नये-नये राष्ट्रों का उदय हुआ। यहाँ हम साम्राज्यवाद व राष्ट्रवादी विचारधारा के पक्ष व विपक्ष में वर्णन करेंगे।

साम्राज्यवाद का अर्थ

साम्राज्यवाद उन आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक नीतियों का नाम है, जिन पर चलकर कोई साम्राज्यवादी शक्ति दूसरे क्षेत्रों तथा लोगों पर अपना नियन्त्रण स्थापित करती है। आधुनिक साम्राज्यवाद की जन्मभूमि यूरोप है। इसलिये कहा जाता है कि "यह गैर-यूरोपीय जातियों पर यूरोपियन राष्ट्रों का शासन है।'

यह राज्यों की शक्ति का उसकी सीमाओं के बाहर विस्तार है। चार्ल्स हाजेस के अनुसार- "एक राष्ट्र की राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक शक्ति का किसी दूसरे राष्ट्र के आन्तरिक जीवन में प्रत्यक्ष रूप से बाहर की ओर विस्तार को साम्राज्यवाद का नाम दिया जा सकता है।"

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साम्राज्यवादी लेखन की अवधारणा

पार्कर मून के शब्दों में- "साम्राज्यवाद हमारे युग की सबसे अधिक चित्ताकर्षक सिद्धि तथा सबसे महान् समस्या साम्राज्यवाद के मुख्यत: तीन रूप होते हैं-

(1) राजनीतिक या सैनिक साम्राज्यवाद।

(2) आर्थिक साम्राज्यवाद- उपनिवेशवाद।

(3) सांस्कृतिक व वैचारिक साम्राज्यवाद।

साम्राज्यवाद के बारे में कहा जाता है कि यह एक अमंगलकारी प्रभाव है तथा आधुनिक युग के सभी युद्ध इसी के कारण हुए हैं। इसने अनेक जातियों को स्वतन्त्रता नष्ट करके उनका शोषण और दमन किया है। किन्तु साथ में यह भी कहा गया है कि असभ्य जातियों को सभ्य बनाने में साम्राज्यवाद द्वारा विशाल प्रयत्न किया गया है। साम्राज्यवाद से राष्ट्रीय एकता के विकास में सहायता मिली है। सी. डी. बर्न्स के अनुसार- "साम्राज्यवाद ने संकीर्ण स्थानीय राजनीति का अन्त करके अन्तर्राष्ट्रीयता तथा बन्धुत्व के भावों का प्रसार किया है।"

साम्राज्यवाद के समर्थन में तर्क

साम्राज्यवाद के समर्थन में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये हैं-

1. प्रजातन्त्र की शिक्षा-

साम्राज्यवाद का एक महत्वपूर्ण योगदान विजित प्रदेशों में प्रजातन्त्र शासन प्रणाली को शिक्षा प्रदान करता था। एशिया तथा अफ्रीका प्रजातन्त्र प्रणाली से अनभिज्ञ थे। किन्तु यूरोप को लोकतान्त्रिक जातियों के सम्पर्क में आने से उन्होंने स्वशासन तथा लोकतन्त्र को शिक्षा प्राप्त कर ली और इस योग्य बन गयी कि वे प्रजातन्त्र को अपना सकें। वर्तमान में भारत का प्रजातन्त्र अंग्रेजों की ही देन है।

2. आर्थिक विकास-

यूरोपीय जातियों ने एशिया तथा अफ्रीका के पिछड़े हुए राष्ट्रों के आर्थिक विकास में महान् योगदान दिया है। उन्होंने विजित देशों में रेल, डाक, तार, सड़कें आदि बनाई तथा कल-कारखाने स्थापित किये। इन देशों में खनिज पदार्थों तथा प्राकृतिक साधनों का विकास किया गया। यूरोपीय जातियों की सहायता लिए बिना एशिया तथा अफ्रीका न तो प्राकृतिक साधनों का उपयोग कर सकते थे, न उद्योग स्थापित कर सकते थे और न वैज्ञानिक तथा तकनीक के युग में प्रवेश कर सकते थे।

3. राजनीतिक एकता-

यूरोपवासियों के आगमन से पहले एशिया तथा अफ्रीका के सभी देशों में राजनीतिक एकता का अभाव था। लोगों में स्थानीय भक्ति अधिक थी तथा वे स्थानीय स्वार्थों के लिये परस्पर लड़ते-झगड़ते थे। यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने जिस देश को भी जीत लिया, उसको राजनीतिक एकता के सूत्र में बाँधा, उसमें एकता की भावना तथा राष्ट्रीय चेतना जाग्रत की और अराजकता की स्थिति से मुक्त करके शान्ति एवं सुव्यवस्था प्रदान की।

4. सभ्यता का विकास-

साम्राज्यवादियों का सबसे महत्त्वपूर्ण तर्क यह है कि ईश्वर ने हमें संसार की बर्बर और असभ्य जातियों को सभ्य बनाने का काम सौंपा है। उसी काम को पूरा करने के लिये हमने साम्राज्यों का निर्माण किया है। इसमें हमारे कोई निजी स्वार्थ नहीं है। पहले गैर-यूरोपियन जातियाँ अज्ञानता और बर्बरता के अंधकार में पड़ी हुई थीं। हमने इन्हें यूरोपीय भाषायें, साहित्य, दर्शन और विज्ञान तथा ज्ञान प्रदान करके अंधकार से निकाला और मनुष्यता के स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया।

सन् 1893 ई. में 'डिजरेली' ने घोषणा की थी कि यह हमारा कर्तव्य है कि हम अफ्रीका को सभ्य बनाने के लिये कार्य में हाथ बंटायें। साम्राज्यवादी देशों के अधिकांश विचारक 'काले लोगों को सभ्यता सिखाने के गोरे लोगों के उत्तरदायित्व के रूप में साम्राज्यवाद को उचित ठहराते हैं।

5. सत्ता की रक्षा-

साम्राज्यवाद के कारण साम्राज्यवादी देशों को अपनी सत्ता बनाये रखने में सहायता मिलती है।

6. अधीनस्थ देशों पर अधिकार-

साम्राज्यवाद के कारण साम्राज्यवादियों को अपनी आबादी को अधीनस्थ देशों में बसाने का सरलता से अवसर प्राप्त हो जाता है।

7. प्रकृति का नियम-

जीवन संघर्ष तथा शक्तिशाली की विजय एक प्राकृतिक नियम है तथा साम्राज्यवाद इसी नियम का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रकटीकरण है। लैंगर के अनुसार-इसके विस्तार के लिये दैवीय अनुमोदन प्राप्त हुआ है।

मुसोलिनी कहा करता था कि "राष्ट्र भी सावयव की भाँति होता है। सावयव के जीवित रहने के लिये जरूरी होता है कि उसकी निरन्तर वृद्धि होती रहे। जब वृद्धि रुक जाती है तो विनाश शुरू हो जाता है। इसी प्रकार जो राष्ट्र विस्तार नहीं करते वे नष्ट हो जाते हैं।" हिटलर का कथन था कि- "कुछ नस्लें श्रेष्ठ होती हैं जिन्हें ईश्वर ने अन्य पर शासन करने के लिये बनाया है।"

8. अन्तर्राष्ट्रीयता को प्रोत्साहन-

साम्राज्यवाद ने अन्तर्राष्ट्रीय तथा विश्व एकता के आदर्श को प्रोत्साहन दिया है तथा उसकी सफलता के लिये आवश्यक परिस्थितियों का निर्माण किया है। एक साम्राज्य के विभिन्न भाषाओं, धर्मों, नस्लों के अनेक राष्ट्र होते हैं। इससे उनमें एकता को भावना आती है तथा स्थानीय भक्ति का अन्त होकर विश्व एकता का विचार उत्पन होता है। सी. डी. बर्न्स के शब्दों में- 'साम्राज्यवाद ग्रामीण राजनीति की संकीर्णता को नष्ट करता है तथा अन्तर्राष्ट्रीयता और विश्व-बन्धुत्व का मार्ग प्रशस्त करता है।"

साम्राज्यवाद के दोष

साम्राज्यवाद के निम्नलिखित दोष हैं-

1. आर्थिक शोषण-

साम्राज्यवाद आर्थिक शोषण का पर्यायवाची है। आधुनिक साम्राज्यवाद का मुख्य ध्येय आर्थिक शोषण करना ही होता है। पहले तो साम्राज्यवादियों ने विजित देशों की प्रत्यक्ष लूट को, उनका सोना, चाँदी, खनिज बटोर ले गये और फिर व्यापार नष्ट कर दिया। अपने कारखाना में बना सस्ता माल इन देशों पर थोपा गया, कच्चा माल सस्ते दामों में लूटा गया। अधीन देशों की खेती बाड़ी, दस्तकारियाँ, उद्योग-धन्धे नष्ट कर दिये गये। बेकारी भुखमरी और बीमारी सब ओर फैल गयी तथा ये पराश्रित राष्ट्र अपने अधिपति राज्यों पर ही निर्भर हो गये।

2. अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध तथा प्रतिद्वन्द्विता को प्रोत्साहन-

साम्राज्यवाद ने अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध तथा प्रतिद्वन्द्विता को जन्म दिया है। प्रथम महायुद्ध साम्राज्यवादी प्रवृति का ही परिणाम था। इसी प्रकार द्वितीय विश्व युद्ध का कारण जर्मनी, इटली और जापान का साम्राज्यवाद नये उपनिवेशवाद, प्रभाव क्षेत्र तथा व्यापारिक केन्द्रों के लिये राष्ट्रों में प्रतिद्वन्द्विता की भावना का उत्पन्न होना था। समृद्धिशाली राष्ट्रों के संघर्ष का शिकार अविकसित राष्ट्र होते हैं।

3. साम्राज्यवाद जातीय भेद-भाव बढ़ाता है-

साम्राज्यवाद जातीय भेदभाव बढ़ाता है। एशिया व अफ्रीका में जातीय भेदभाव तथा साम्प्रदायिकता साम्राज्यवाद के ही परिणाम हैं। साम्राज्यवादी देश के व्यक्ति अन्य अधीनस्थ जाति के सदस्यों को अपने से निम्न श्रेणी का समझते हैं। अफ्रीका में जातिभेद की नीति श्वेत रंग वालों ने चला रखी है। सी. एफ. एण्डूज के शब्दों में- "तुम उस आदमी के किस प्रकार मित्र बन सकते हो, जो तुम्हें सदा दीन-हीन अवस्था में रखने पर बल देता है।"

एक बार वारसेस्टर के डीन ने कहा था कि- "हमने भारतवर्ष की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिये बहुत कुछ किया है, किन्तु हम वहाँ के व्यक्तियों का स्नेह न प्राप्त कर सके, क्योंकि हमने उनकी आत्मा को कष्ट दिया है। संयुक्त राज्य अमेरिका के एक ख्याति लब्ध समाजवादी नेता नर्मन थामस ने उपाहासात्मक रूप में कहा था कि- "बहुत से व्यक्ति जिनके पास छह फीट जमीन तक भी नहीं है, जिसमें कि वे दफनाये जा सकें, किन्तु वे घमण्ड के मारे चूर रहते हैं, क्योंकि उनके देश के पास एक साम्राज्य है।"

4. साम्राज्यवाद अधीनस्थ देशों का नैतिक, सांस्कृतिक विनाश करता है-

साम्राज्यवाद अधीनस्थ देशों की संस्कृति तथा नैतिकता के लिये हानिकारक है। साम्राज्यवादी देश उनके विचारों में परिवर्तन करने के लिये तथा उनकी संस्कृति को नष्ट करने के लिये अपनी भाषा को शिक्षण का माध्यम बनाते हैं।

प्रो. होकिंग का मत है कि- "पश्चिमी साम्राज्यवाद के पास देखने के लिये आँखें नहीं हैं कि जीवन के सौन्दर्य, विचार और भाषा को सौम्यता, शिष्टाचार, अतिथि सत्कार, सम्भाषण, भावुक कविता और आत्मवाद में पूर्व, पाश्चात्य से बहुत आगे बढ़ गया है।"

5. साम्राज्यवाद राजनीतिक दासता का प्रतीक-

यद्यपि साम्राज्यवाद में अधीनस्थ देशों को कुछ आर्थिक लाभ होता है। किन्तु राजनीतिक दासता के रूप में उसका मूल्य चुकाना पड़ता है, वहाँ के देशवासियों को। राजनीतिक स्वतन्त्रता, आत्मसम्मान तथा आत्मप्रतिष्ठा आदि जैसी भावनाओं का अपनी आत्माओं को कुचलकर बलिदान करना पड़ता है। साम्राज्यवादी देश का प्रत्येक व्यक्ति अपनी संस्कृति, साहित्य तथा राजनीतिक संस्थाओं को सर्वोपरि समझता है।

शूमाँ के शब्दों में- "जब तक विदेशी शासन का विरोध करने वाले, विदेशी विजेताओं से निबल रहते हैं तब तक विरोध का परिणाम अधिकाधिक दमन, विरोध और तानाशाही होता है।"

जिस समय भी साम्राज्यवादी देशों से राष्ट्रीय आत्म निर्णय की मांग की जाती है, उसी समय उस मांग को साम्राज्यवादी शासक अनुपयुक्त, अयोग्य तथा अराजक कहकर बहुत समय तक टालते रहते हैं।

6. साम्राज्यवाद, साम्राज्यवादी देशों के हित में भी नहीं-

साम्राज्यवादी देशों में यदि आर्थिक लाभ होता है तो केवल उन व्यक्तियों को जो पूँजीपति हैं और विदेशी में पूँजी लगाये रहते हैं, श्रमिकों की हालत वहाँ भी सन्तोषजनक नहीं होती है। इसका कारण यह है कि जितना पैसा अविकसित राज्यों के सुधारने में लगाया जाता है, यदि वह उन मजदूरों की दशा सुधारने में लगाया  जाये तो उससे बहुत कुछ लाभ हो सकता है।

साम्राज्यवाद का यह सिद्धान्त है कि साम्राज्यवादी देश अपने अधीनस्थ राज्यों के मध्य उसी समय तक शक्तिशाली हैं जब तक कि वे घर पर शक्तिशाली हैं। विभिन्न उपनिवेशों तथा अधीनस्थ राज्यों तथा स्वयं की सुरक्षा के लिये बड़ी-बड़ी सेनाएँ रखनी पड़ती हैं वरन् वह साम्राज्यवादी देश के जनसाधारण के स्तर को भी प्रभावित करता है। साम्राज्यवाद शासक और शासित दोनों को ही अमानुषिक बनाता है।

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