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टायनबी का इतिहास दर्शन

इतिहास दर्शन में टॉयनबी का योगदान

आरनोल्ड जोसेफ टॉयनबी का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एवं यूनानी इतिहास के विषय में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। इसमें इन विषयों पर अनेक पुस्तकों की रचना की, जिनमें से प्रमुख थी ए स्टडी ऑफ हिस्ट्री। इसकी यह पुस्तक प्राय: दस भागों में प्रकाशित हुई। संयुक्त राज्य अमेरिका में टॉयनबी के लेखन का भारी स्वागत हुआ। टॉयनबी के द्वारा इतिहास में स्वतन्त्रता और क्रिया पर विशेष जोर दिया गया था। और उसके द्वारा धर्म में अनन्त प्राकृतिक व आध्यात्मिक प्रगति का उल्लेख किया गया था।

टॉयनबी ने प्रथम महायुद्ध के पश्चात् अपनी रचना प्रारम्भ की। उस समय प्रायः प्रगति के सिद्धान्त के स्थान पर निराशावादी प्रवृत्ति का प्रभाव अधिक था। टॉयनबी प्रायः स्पेंगलर के विचारों से काफी प्रभावित था। जब टॉयनबी ने प्रथम बार स्पेंगलर को पढ़ा तब उस पर प्रतिक्रिया हुई- "मुझे आश्चर्य हुआ कि कहीं स्पॉलर ने मेरे दिमाग में शोध सम्बन्धी समस्याओं व समाधानों के एक स्वरूप ग्रहण करने के पूर्व ही मेरे समस्त शोध को ठुकरा तो नहीं दिया।" उसने प्रारम्भ में जो अपनी रचनाएँ लिखीं उनमें तो प्राय: स्पेंगलर का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है। वह ऐतिहासिक अध्ययन की इकाई के रूप में सभ्यताओं को मानता था। परन्तु टॉयनबी पर द्वितीय विश्व युद्ध का विपरीत प्रभाव पड़ा। इसके पश्चात् उसका निराशावादी दृष्टिकोण नहीं रहा। वह पुनः प्रगति सम्बन्धी विचारों की स्थापना में लग गया। उसकी यह पुनर्स्थापना धर्म के क्षेत्र में हुई। वहाँ उसने स्पेंगलर द्वारा प्रस्तुत प्रागनुभव पद्धति की आलोचना करते हुए स्वयं ने अनुभववादी पद्धति को अपनाया।

टॉयनबी द्वारा प्रमुख विचारों, पद्धतियों एवं दृष्टिकोणों का निम्नलिखित बिन्दुओं में विवेचन किया जा सकता है-

1. अध्ययन की समस्याएँ-

टॉयनबी ने अपने चिन्तन का प्रारम्भ इन विचारों से किया कि इतिहास का उचित अध्ययन क्षेत्र, काल तथा स्थान में घटने वाली एकाकी घटनाओं का अध्ययन नहीं है और न ही यह राज्यों, राजनीतिक संस्थाओं अथवा मानवता को इकाई मानकर उसके इतिहास का अध्ययन करना है। इतिहास के अध्ययन के सही क्षेत्र के चुनाव की टॉयनबी के सामने सबसे बड़ी समस्या थी। अन्त में उसने विचार किया कि इतिहास के अध्ययन का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र समाज होना चाहिए। जो समाज एवं काल की दृष्टि से राष्ट्रीय राज्य, नगर राज्य अथवा किसी राजनीतिक संस्था की अपेक्षा अधिक विस्तृत है।

इस दृष्टिकोण से टॉयनबी के सामने कुछ अन्य समस्याएँ उपस्थित हुई जिन पर उसने विचार किया। इन समस्याओं में पहली समस्या यह थी कि समाज अनेक आदिवासी समूहों की भाँति अपने अस्तित्व के प्रारम्भिक काल में स्थिर क्यों होते हैं? और उनका सभ्यताओं के रूप में विकास क्यों नहीं होता है। जबकि अन्य समाज सभ्यता के उच्चतर स्तर पर पहुँचने में सफल हो जाते हैं । इस समस्या का हल स्पष्ट करते हुए टॉयनबी ने बताया कि सभ्यता का जन्म न तो जातिगत तत्त्व के कारण हुआ है और न ही भौगोलिक परिवेश के कारण हुआ है बल्कि इसका जन्म प्राय: परिस्थितियों के संयोग से सम्भव हुआ है। सभ्यता के जन्म के समय से ही चुनौती और उत्तर के बीच निरन्तर अन्त:क्रिया चलती रहती है। परिवेश के द्वारा समाज को निरन्तर चुनौती मिलती रहती है और समाज उस चुनौती का सफल उत्तर अपनी रचनात्मक प्रतिक्रिया के माध्यम से देता रहता है। एक के बाद एक नई चुनौती आती रहती है और फिर उसका उत्तर दिया जाता है। इस प्रकार यह प्रक्रिया निरन्तर रूप से चलती रहती है। समाज इसमें सदैव सक्रिय बना रहता है और एक समय वह सभ्यता के उच्चतम शिखर पर पहुंच जाता है।

टॉयनबी के सामने दूसरी समस्या सभ्यता के अधूरी होने की थी। टॉयनबी को यह प्रतीत हुआ कि किसी भी सभ्यता का विकास उसके भौगोलिक प्रसार या तकनीकी प्रगति या भौतिक वातावरण पर समाज के स्वामित्व आदि से नहीं होता वरन् उस समाज की रचनात्मक प्रतिक्रिया का उसके बहुमत द्वारा स्वतन्त्रतापूर्वक मकल और अनुगमन करने से होता है।

टॉयनबी के सामने इस प्रश्न के रूप में उपस्थित थी कि सभ्यताएँ क्यों और कैसे टूटती हैं, वह विघटित होकर विलीन क्यों हो जाती हैं? जब किसी सभ्यता द्वारा उसके सामने आने वाली चुनौतियों का उत्तर नहीं दिया जाता है या वे उत्तर देने में अपने आपको असमर्थ समझने लगती हैं तो उनका विघटन प्रारम्भ हो जाता है और धीरे-धीरे वे विलीन होती चली जाती हैं। उनका मानना है कि सभ्यताओं की हत्या नहीं की जाती हैं बल्कि उनका अन्त तो आत्महत्या के द्वारा होता है।

सभ्यताओं के टूटने के टॉयनबी ने तीन कारण बताये हैं-

(i) अल्प संख्या में रचनात्मक शक्ति की अनुपस्थिति एवं असफलता,

(ii) बहुमत द्वारा उसका अनुसरण करने से मना करना,

(iii) इसके फलस्वरूप समस्त समाज में एकता का अभाव अर्थात् समाज का विघटन।

2. टायनबी का लेखन कार्य-

टॉयनबी की प्रमुख रचना थी 'इतिहास का एक अध्ययन' इसके अतिरिक्त भी टॉयनबी ने प्रथम विश्व युद्ध के भीषण नरसंहार और राष्ट्रवाद पर अनेक पुस्तकें लिखीं। इसने यूनान, चीन और टर्की के विषय में भी गहन अध्ययन किया। उसके द्वारा प्रथम विश्वयुद्ध के विषय में अन्तर्राष्ट्रीय मामलों के व्यापक सर्वेक्षण के ऊपर भी अनेक लेखों एवं निबन्धों की रचना की गई। सन् 1948 में उसके निबन्धों का संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसका नाम Civilization on Trial था। उसके अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ, इतिहास का एक अध्ययन में सभ्यताओं के विकास और पतन के कारण मिथ का सहारा लेकर ढूँढ़ने का प्रयास किया। एक अन्य पुस्तक ईश्वर और शैतान के नाटक से उसे 'चुनौती और उत्तर' का विचार प्राप्त हुआ।

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टायनबी का इतिहास दर्शन

टॉयनबी के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'इतिहास का एक अध्ययन' में उसके द्वारा महत्त्वपूर्ण सभ्यताओं के अतीत और वर्तमान का व्यापक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। उसका यह ग्रन्थ 13 खण्डों में विभाजित है। यह 13 खण्डों में परिचय, सभ्यताओं का जन्म, सभ्यताओं का विकास, सभ्यताओं का टूटना, सभ्यताओं का विघटन, सार्वभौम राज्य, सार्वभौम चर्च, वीर युग, दिगन्तर सभ्यताओं के बीच समागम, कालान्तर में सभ्यताओं के बीच संम्पर्क, इतिहास में कानून और स्वतन्त्रता, पाश्चात्य सभ्यता की सम्भावनाएं और निष्कर्ष आदि शामिल हैं।

टॉयनबी ने अपने अध्ययन की इकाई समाज और सभ्यताओं को माना है; राष्ट्र, राज्यों को नहीं। टॉयनबी की मान्यता थी कि किसी भी देश को समझने के लिए उसे एक सम्पूर्ण अंश के रूप में पढ़ा जाना आवश्यक है। उसके द्वारा सभ्यताओं के अध्ययन के समय सामान्य प्रक्रिया को उलट दिया गया। उसने अपना अध्ययन वर्तमान विश्व की स्थिति से प्रारम्भ किया। उसके द्वारा वर्तमान समाज को पाँच उप-भागों में बाँटा गया है-

(i) आधुनिक पाश्चात्य समाज,

(ii) कट्टरपंथी ईसाई समाज जिसमें दक्षिणी-पूर्वी यूरोप के साथ-साथ रूस भी शामिल है,

(iii) इस्लामी समाज,

(iv) हिन्दू समाज और

(v) सुदूर-पूर्वी समाज, जिसके अन्तर्गत जापान, कोरिया और चीन शामिल हैं।

उसके ऐतिहासिक अतीत के 6,000 वर्षों के सर्वेक्षण के परिणामस्वरूप उसे ऐसी 21 (और बाद में 26) सभ्यताओं का पता चला। इनमें से उसने कुछ सभ्यताओं को माता-पिता और बालक के रूप में सम्बद्ध कौं। टॉयनबी ने यह महसूस किया कि सभ्यताओं में नियमितता, एकरूपता अथवा पैटर्न होता है। वे सभ्यताएँ समान रूप से जन्म, विकास, टूटन और विघटन चक्र की प्रक्रिया से निकलती रही हैं। टॉयनबी के द्वारा बताई गई सभ्यताओं में से 16 सभ्यताओं का अन्त हो चुका है और 6 टूट चुकी हैं। वर्तमान में उनमें से केवल एक ही सभ्यता अस्तित्व में रह गई है और वह पाश्चात्य सभ्यता

3. अध्ययन की इकाई-

1. सभ्यता-

टॉयनबी ने अपना चिन्तन इस विचार से प्रारम्भ किया है कि ऐतिहासिक अध्ययन का उचित क्षेत्र न तो स्थान एवं समय में घटने वाली घटनाओं का वर्णन है और न ही राज्यों तथा राजनीतिक संस्थाओं या इकाई के रूप में मानवता का इतिहास है। उसके स्वयं के शब्दों में ऐतिहासिक अध्ययन का बोधगम्य क्षेत्र समाज है, जिनका समय एवं स्थान राष्ट्र-राज्यों एवं नगर-राज्यों या अन्य राजनीतिक समुदाय को अपेक्षा अधिक विस्तृत है। इतिहास के विद्यार्थियों का सम्बन्ध समाज से होता है न कि राज्यों से।

टॉयनबी की मान्यता है कि सभ्यता प्रायः समाज को एक जाति है। उसके अनुसार सभ्यता में धार्मिक तथा प्रादेशिक एवं कुछ अंश तक राजनीतिक विशेषताएं शामिल होती हैं। इसी आधार पर उसने माना है कि ऐतिहासिक अध्ययन का उचित विषय ही सभ्यता है। इस सम्बन्ध में पोटर गिल के विचार हैं कि उसके कार्य का उद्देश्य इतिहास के सम्बन्ध में सामान्य अवधारणा के लिए आधार के रूप में सभ्यताओं का तुलनात्मक अध्ययन करना है। इसके लिए सभ्यताएँ ही वास्तविक इकाइयाँ हैं न कि राष्ट्र एवं राज्य।

टॉयनबी ने अपने अध्ययन के अन्तर्गत पहले 21 सभ्यताओं को शामिल किया और बाद में 26 सभ्यताओं को। इनमें से प्रमुख सभ्यताएँ ये हैं- दो कट्टर पंथी ईसाई, पश्चिमी, हिन्दू, ईरानी, दो सुदूर-पूर्वी, अरबी, डिन्डिक, सीरियाई, यूनानी, मिनोअन, सुमेरियाई, सिनिक, हिट्टी, अण्डियन, बेबीलोनिया, मैक्सिको, यूकेटक, मिस्र माया तथा पाँच अन्य हैं जिनमें पोलीनीसियन, नोमेडिक, एस्किमो, स्पार्टन तथा ओटोमन।

टॉयनबी इतिहास के अध्ययन का केन्द्र-बिन्दु सभ्यताओं को मानते थे। इनका यह विचार प्राय: क्रान्तिकारी भी कहा जा सकता है क्योंकि उस समय इतिहासकारों का सम्बन्ध पूर्ण रूप से यूरोपीय दुनिया के राज्यों से था और इन सभी राज्यों की सभ्यताओं से सम्बन्धित सभी परम्पराएँ एक समान थी। उस समय पूर्वी दुनिया के राज्यों के इतिहास को औपनिवेशिक इतिहास से सम्बद्ध माना जाता था। परन्तु आज यह मान्यता उचित नहीं है और ऐसा सम्भव भी नहीं है। वर्तमान में इतिहास के अन्तर्गत यूरोपीय राज्यों के मध्य संघर्ष से अधिक सभ्यताओं के मध्य संघर्ष एवं सम्बन्धों का अधिक ध्यान रखा जाता है जो आवश्यक भी है। वर्तमान में प्रत्येक व्यक्ति इन महान् समाजों के सम्बन्ध में पूरी जानकारी चाहता है परन्तु उन्हें इसके सम्बन्ध में इतिहास की पुस्तकों में इतनी जानकारी नहीं मिल पाती है।

इस सम्बन्ध में डॉसन का मत है कि "हम उसके निष्कर्षों से सहमत हों अथवा असहमत हों, परन्तु हमें यह तो मानना ही पड़ेगा कि इतिहास के अध्ययन में सभ्यताओं का अध्ययन तो शामिल करना ही चाहिए। प्रायः राज्यों और पश्चिमी यूरोप तथा अमेरिका के लोगों तक सीमित इतिहास का अध्ययन निश्चित ही पक्षपातपूर्ण एवं अधूरा कहा जा सकता है।" जो इतिहासकार सभ्यताओं के अध्ययन को इतिहास के अध्ययन में शामिल करने के पक्ष में नहीं हैं उनके सम्बन्ध में निश्चित ही यह कहा जा सकता है कि अभी तक वे इतिहास का सम्बन्ध राष्ट्रों और साम्राज्यों व राज्यों तथा उनकी संस्थाओं से ही समझते आये हैं तथा सभ्यताओं का अध्ययन दार्शनिकों एवं समाजशास्त्रियों के विषय क्षेत्र के अन्तर्गत मानते हैं।

2. सभी सभ्यताएँ समसामयिक हैं-

टॉयनबी सभ्यताओं में कुछ ऐसे तत्त्व बताता है जिनके आधार पर वह सभ्यताओं को समसामयिक मानता है। टॉयनबी ने अपने अध्ययन के अन्तर्गत पूर्व एवं पश्चिम की सभ्यताओं का भी अध्ययन किया। जिससे उसने उन सभ्यताओं के उदय एवं पतन को निर्धारित करने वाले नियम खोजने के साथ-साथ उनकी भविष्य की आशाओं पर भी विचार किया। इस प्रकार का प्रयास 30 वर्ष पूर्व स्पेंगलर के द्वारा भी किया गया था।

टॉयनबी का प्रयास भी प्रायः इसी के समकक्ष माना जाता है। इनमें केवल इतना ही अन्तर है कि टॉयनबी ने 26 सभ्यताओं को एक ही जाति की इकाइयों के अन्तर्गत माना जो दार्शनिक दृष्टिकोण से एक समान हैं, जबकि स्पेंगलर ने इनको जीवनशास्त्रीय अर्थ में सावयवी माना है, 'अत: उसके अनुसार संस्कृति का इतिहास पूर्ण रूप से एक व्यक्ति या एक पशु या एक पेड़ अथवा एक फूल के इतिहास के समान होता है। टॉयनबी सभी सभ्यताओं में एक सामान्य तत्त्व को स्वीकार करता है उसका विज्ञान और कला व्यक्तिगत सभ्यता की सीमाओं को पार कर जाते हैं। फिर भी यह समझ पाना बड़ा कठिन है कि 26 सभ्यताएँ अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों और नैतिक विकास के समान स्तर न रखते हुए भा एक स्तर पर कैसे मानी जा सकती है?

सभ्यताओं की समसामयिकता का अनुभव टायनबी को 1914 ई. में जब वह अपने विद्यार्थियों को थ्यूसिडाइडिस पढ़ा रहे थे तब हुआ। थ्यूसिडाइडिस ने जब ईसा पूर्व 'हिस्ट्री ऑफ पेलोमोनीशियन वाट' नामक पुस्तक लिखी थी। इससे टॉयनबी ने यह अनुभव किया कि जो अनुभूतियों आधुनिक विश्व (1914) में प्रारम्भ प्रथम महायुद्ध के रूप में हो रही हैं, कालक्रम चाहे कुछ भी हो परन्तु चिन्तन के आधार पर टॉयनबी ने यह निष्कर्ष निकाला कि जब यूनानी, रोमन और पश्चिमी सभ्यता के बीच इस प्रकार का सामयिक सम्बन्ध स्थापित हो सकता है तो अन्य सभ्यताओं के मध्य भी इस प्रकार का सम्बन्ध स्थापित होना सम्भव है। यद्यपि सभ्यताओं का उदय आज से 6000 वर्ष पूर्व हुआ। परन्तु खगोलीय कालक्रम की दृष्टि से सभी सभ्यताओं समसामयिकता है।

3. सभ्यताओं का जन्म-

टॉयनबी ने यह जानना चाहा कि कुछ समाज अन्य प्रारम्भिक समूहों की भाँति अपने अस्तित्व के प्रारम्भिक स्तर पर ही स्थिर क्यों हो जाते हैं और वे सभ्यताओं के मूल रूप में क्यों नहीं उभर पाते हैं, जबकि इसके विपरीत अन्य समाज सभ्यता के उच्च स्तर पर पहुंचने में सफल क्यों हो जाते हैं? इस सम्बन्ध में टॉयनबी ने स्पष्ट किया कि किसी भी सभ्यता का जन्म न तो प्रजातीय कारक और न भौगोलिक परिवेश के आधार पर होता है, बल्कि इनका जन्म तो दो परिस्थितियों के विशेष समायोजन के फलस्वरूप होता है। ये हैं- एक प्रदत्त समाज में रचनात्मक अल्प संख्या को उपस्थिति और एक ऐसा परिस्थितिवश जो न तो अत्यधिक अनुकूल है और न प्रतिकूल है। जो समूह ऐसी परिस्थितियां रखते हैं वे प्रायः सभ्यताओं के रूप में उदित हो न ये सफल हो जाते हैं और इसके अतिरिक्त अन्य समूह सभ्यताओं के अर्द्ध स्तर पर ही स्थिर हो जाते हैं।

उसने सभ्यताओं की उत्पत्ति के और भी अनेक कारण बताए हैं। उसके अनुसार सभ्यता अपने आप में एक सम्बन्ध है अस्तित्व नहीं। सृष्टि की रचना प्राय: दो अलौकिक व्यक्तियों के परस्पर मिलन के परिणामस्वरूप होती है। टॉयनबी ने ईश्वर, शैतान, आदम, ईव, फाउस्ट, मेकिस्टो आदि मिथकों का प्रयोग करते हुए यह स्पष्ट किया है। निष्कर्ष रूप में उसने सभ्यता के जन्म का कारण एक अन्त:क्रिया को माना है। उसके अनुसार सभ्यताएँ चुनौती और उत्तर के बीच अन्त:क्रिया के परिणामस्वरूप जन्म लेती हैं। यह चुनौती प्राय: एक विशेष प्रकार के परिवेश के द्वारा प्राप्त होती है। उदाहरणस्वरूप मिस्र की सभ्यता के जन्म के लिए अफ्रीकी, एशियाई मरुस्थल को शुष्कता की चुनौती मिली। समाज द्वारा अपनी रचनात्मक अल्पसंख्या के माध्यम से इस चुनौती के प्रति सफलतापूर्वक उत्तर दिया जाता है और अपने स्तर पर अपनी समस्या का समाधान कर पाने में सफल हो जाता है।

इसके अतिरिक्त उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि कभी-कभी अधिक भयंकर कठिनाइयाँ एवं चुनौतियाँ समाज के सामने उपस्थित हो जाती हैं। कोई व्यक्ति या समाज के इन कठिनाइयों एवं चुनौतियों का सफलतापूर्वक उत्तर देने में असफल हो जाने पर यह समस्याएँ या चुनौतियाँ व्यक्ति या सभ्यता को महान् बनाने के स्थान पर समाप्त या नष्ट भी कर सकती हैं। इस सम्बन्ध में टॉयनबी का विचार है कि कठिनाइयों का एक अनुपात निर्धारित होता है, जिसके अन्तर्गत प्रेरणा चरम बिन्दु पर होती है। यह स्थिति चुनौती और विरोध की सर्वाधिक इष्टतम अनुपात को स्थिति है। टॉयनबी द्वारा इन विरोधी परिस्थितियों पर कई शीर्षकों के आधार पर गहन विचार किया है।

4. सभ्यता का विकास-

टॉयनबी ने अपनी 26 सभ्यताओं के विकास के सम्बन्ध में विचार किया कि इनमें से चार सभ्यताएँ अकाल प्रसूत क्यों और कैसे हो गई। पाँच सभ्यताएँ अपने विकास के प्रारम्भिक काल में ही क्यों और कैसे रुक गई और शेष सभ्यताएँ जीवन शक्ति के माध्यम से चुनौती और उत्तर की प्रक्रिया को सम्पन्न करते हुए आगे कैसे और क्यों बढ़ीं? इस प्रश्न पर टॉयनबी ने गहन विचार करते हुए इनके विकास की प्रक्रिया पर भी गहन चिन्तन किया और यह स्पष्ट किया कि सभ्यताएँ एक बार जन्म लेने के पश्चात् स्वयं ही विकसित नहीं होती है। बल्कि इन्हें विकसित होने के लिए इनके सामने आने वाली चुनौतियों का उत्तर देना आवश्यक होता है। यदि इन चुनौतियों की प्रकृति गम्भीर है तो समाज इनका उत्तर देने में असफल हो सकता है या इसके उत्तर देने में ही अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा देता है। परिणामस्वरूप वह पतन की ओर जाने लगता है। इसके उदाहरण के रूप में एस्किमो, नोमेड्स तथा स्पार्ट्स आदि सभ्यताओं को लिया जा सकता है।

सभ्यता का विकास चुनौती का सफल उत्तर दिए जाने से सम्भव है। साथ ही उत्तर भी इस प्रकार का दिया जाना चाहिए जिससे कि आगे उससे भी अधिक कठिन चुनौती को उत्पन्न करे और उस चुनौती का भी समाज द्वारा सफलतापूर्वक उत्तर दिया जा सके। यदि यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रही तो सभ्यता अपने विकास के चरम बिन्दु पर पहुँच जावेगी। सभ्यता के विकास के लिए रचनात्मक अल्पसंख्या के द्वारा दो प्रकार के कार्य किए जाते हैं- (i) प्रेरणा या अनुसंधान और (ii) नए जीवन के तरीके के अनुसार समाज को बदलना।

5. सभ्यता का पतन, विघटन और अवसान-

टॉयनबी के अनुसार सभ्यता का पतन तो ब्रह्माण्ड की आवश्यकता है, न यह भौगोलिक कारणों से और न इसका पतन प्रजातीय खण्डन के कारण और न शत्रुओं के बाहरी आक्रमण के कारण होता है। बाहरी आक्रमणों के फलस्वरूप तो अनेक बार उन्नतिशील सभ्यताओं को आगे बढ़ने का अवसर मिलता है। इनका पतन तकनीक अथवा तकनीकी के पतन का परिणाम भी नहीं है। क्योंकि तकनीकी का पतन तो स्वयं सभ्यताओं के पतन के परिणामस्वरूप होता है। इसने सभ्यता के विकास एवं विघटन की प्रक्रिया के मध्य प्रमुख अन्तर यह बताया है कि विकास के समय सभ्यता नई चुनौतियों का सफल उत्तर देती है और विघटन के समय वह ऐसा उत्तर देने में असफल हो जाती है। यद्यपि सभ्यताओं के द्वारा बार-बार उस चुनौती का उत्तर देने का प्रयास किया जाता है। परन्तु फिर भी वह उत्तर दे पाने में सफल नहीं हो पाती है। इसके विकास की प्रक्रिया के अन्तर्गत प्रत्येक बार चुनौतियाँ अलग-अलग प्रकृति की होती हैं। उत्तर भी अलग-अलग प्रकार के होते हैं परन्तु जब इनके विघटन का समय आता है तो यह सभ्यताएँ उसका उत्तर देने में असमर्थ हो जाती हैं। फलत: इस समय की चुनौतियाँ प्राय: यथावत् ही बनी रहती हैं।

टॉयनबी ने सभ्यताओं के पतन के सम्बन्ध में अपना यह मत व्यक्त किया कि सभ्यताएँ प्राय: आत्महत्या के द्वारा ही नष्ट होती हैं उनकी किसी के द्वारा हत्या नहीं की जाती। टॉयनबी के अनुसार सभ्यताओं के टूटने की प्रकृति तीन बिन्दुओं में समाहित की जा सकती है- अल्प संख्यकों में रचनात्मक शक्ति की असफलता, बहुसंख्यकों की ओर से अनुकरण न करना और इसके परिणामस्वरूप सम्पूर्ण समाज में सामाजिक एकता को धक्का लगता है।"

टॉयनबी के इस मत को और अधिक स्पष्ट रूप में प्रस्तुत करने के लिए यह कहा जा सकता है कि किसी समाज के इतिहास में एक रचनात्मक अल्पसंख्यक के प्रभावी अल्पसंख्यक में बदल जाने पर जबकि योग्यता की दृष्टि से वह उस स्थान को खो चुका है, उसे शक्ति के आधार पर प्राप्त करने की चेष्टा करता है तो प्रशासक तत्व की प्रकृति में इस दुर्भाग्यपूर्ण परिवर्तन के कारण सर्वहारा बहुमत इससे सम्बन्ध विच्छेद के लिए प्रोत्साहित होता है। इस वर्ग के द्वारा न तो प्रशासकों की प्रशंसा की जाती है और न ही स्वेच्छा से उनका अनुकरण ही किया जाता है। जब यह अनिच्छा गुलामी के स्तर तक पहुँच जाती है तो उसके विरुद्ध सर्वहारा द्वारा क्रान्ति कर दी जाती है। सर्वहारा द्वारा अपने आपको प्रभावी प्रदर्शित करने पर यह दो भागों में विभाजित हो जाता है- आन्तरिक सर्वहारा तथा बाहरी सर्वहारा। आन्तरिक सर्वहारा के अन्तर्गत बहुसंख्यक सदस्य होते हैं और बाहरी सर्वहारा के अन्तर्गत बाहर के सदस्य होते हैं। इन दोनों में हिंसात्मक रूप से देश के साथ मिलने का विरोध किया जाता है। इस प्रकार समाज के सामाजिक शरीर के अन्तर्गत सभ्यता का टूटन वर्ग युद्ध को जन्म देता है।

उपर्युक्त वर्णित सभ्यता के पतन की अवस्था की अन्य तीन उप-अवस्थाएं होती हैं- सभ्यता की टूटन, इसका विघटन और इसका अवसान। उनका यह मानना है कि टूटन और विघटन के मध्य सैकड़ों, हजारों वर्षों का अन्तर होता है।

ऐसा समाज प्रायः सूखे हुए पेड़ के तने के समान जीवन मृत्यु की स्थिति में शताब्दियों या हजारों वर्ष तक रह सकता है। अधिकांश सभ्यताएँ प्रायः समाप्त अवश्य होती हैं। चाहे उन्हें समाप्त होने में समय कितना भी लगे। क्योंकि सभ्यताओं की यह सामान्य प्रकृति है कि वे जन्म लेती हैं तो उनका पतन निश्चित ही है। सभ्यताओं के पतन को रोक पाना सम्भव नहीं है।

टॉयनबी ने इस सम्बन्ध में स्पष्ट किया है कि इसके पतन की अवस्था जहाँ से प्रारम्भ होती है वहाँ वह राज्य प्रायः युद्धों में संलग्न हो जाता है राज्य प्राय: बीमार संस्थाओं का दास बन जाता है और वह जो भी कार्य करता है वे उसके और सभ्यताओं के विनाश के लिए उत्तरदायी होते हैं। इस स्थिति में आन्तरिक सर्वहारा वर्ग अल्पसंख्या से अलग हो जाता है और असन्तुष्ट होकर वह विद्रोही बर बैठता है और वह सर्वव्यापी चर्च (धर्म) की रचना करता है। प्रभावी अल्पसंख्यक का सर्वव्यापी राज्य विनष्ट हो जाने पर आन्तरिक सर्वहारा का सर्वव्यापी चर्च नई सभ्यता के लिए एक पुल तथा नींव के रूप में कार्य करता है। दूसरी ओर बाहरी सर्वहारा संगठित हो जाता है और पतनशील सभ्यता पर आक्रमण कर देता है। अतः समाज के तीन भागों द्वारा विघटन के समय बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया जाता है।

आन्तरिक सर्वहारा को बाहर से प्रेरणा मिलती है। जिसके आधार पर उसके द्वारा विश्वव्यापी धर्म की रचना की जाती है। इधर सत्ताधारी अल्पसंख्यक वर्ग विघटन की गति को रोकने का प्रयास करता है। इसके लिए वह विश्व साम्राज्य का निर्माण करता है। ऐसी स्थिति में बाहरी सर्वहारा वर्ग द्वारा विघटन को पूरा करने के लिए सभ्यता पर अन्तिम रूप से प्रहार किया जाता है। जिसके फलस्वरूप सभ्यता के शरीर और आत्मा में फूट पैदा हो जाती है जिससे संकटों का प्रभाव बढ़ जाता है और चारों ओर युद्ध की सी स्थिति पैदा हो जाती है। जिससे विनाश के बादल मंडराने लगते हैं। विघटित समाज के सदस्यों की मानसिकता और व्यवहार में भारी परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगता है। ऐसी परिस्थितियाँ देखकर बहुसंख्यक वर्ग में से कुछ रचनात्मक व्यक्तियों में नव चेतना का संचार होता है। जिसके परिणामस्वरूप वे व्यक्ति इस समाज को बचाने के लिए तत्पर हो जाते हैं। जिन्हें कि समाज को बचाने वाला या समाज के रक्षक के नाम से जाना जाता है।

समाज रक्षक प्राय: चार श्रेणी में विभाजित किए जा सकते हैं- समय यत्र से युक्त रक्षक, आदर्श अतीत की ओर लौटाकर या आदर्श भविष्य की ओर बढ़ाकर समाज की रक्षा करने वाला, राज्य द्वारा सामान्य दार्शनिक और मनुष्यों में ईश्वर का अवतार। प्रथम प्रकार के रक्षकों के द्वारा तलवार या अन्य शक्ति का सहारा लिया जाता है। दूसरे प्रकार के रक्षकों द्वारा अतीत एवं भविष्य के प्रति अपील करके समाज के बचाने का प्रयास किया जाता है। तीसरे प्रकार के रक्षक प्राय: शासक अल्प संख्यकों के लिए कार्य करते हैं। चौथे प्रकार के रक्षकों द्वारा धार्मिक विचारों के प्रचार के द्वारा बचाने का प्रयास किया जाता है।

इन रक्षकों द्वारा हर सम्भव प्रयास किए जाते हैं परन्तु ये इन सबके बावजूद भी इस विघटन को रोक पाने में सफल नहीं हो सकते। हाँ इन प्रयासों के परिणामस्वरूप सभ्यता का जीवाश्मीकरण अवश्य हो जाता है जिसके आधार पर इसकी जीवन मृत्यु हजारों वर्षों तक रुकी रहती है। परन्तु अन्त में इसका विघटन निश्चित है।

4. धार्मिक विचार-

टॉयनबी धार्मिक प्रवृत्ति का व्यक्ति था। अत: उसका चिन्तन का तरीका भी धार्मिक प्रवृत्ति का ही रहा। उसके चिन्तन पर धर्म का महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। इस सम्बन्ध में उसने बताया कि हम ईसाई नियमों के आधार पर चल कर ही अपने आप को बचाने में सफल हो सकते हैं। अत: यदि हमें सभ्यता के पतन को रोकना है तो ईसाई धर्म का अनुशीलन करना आवश्यक होगा। उनका मानना था कि पृथ्वी पर स्वर्गीय सुख की प्राप्ति असम्भव है। यह केवल ईश्वर की दुनिया में ही सम्भव है। यदि हम ईसाई सिद्धान्तों को पूर्ण रूप से अपनाने का प्रयास करें और अपना भी लें तो भी हम पृथ्वी पर पूर्ण सभ्यता लाने में समर्थ नहीं हो सकते हैं। क्योंकि हमारे अन्दर पहले से ही पाप विद्यमान हैं।

टॉयनबी के धर्म सम्बन्धी विचार उसके चिन्तन की मूल विशेषता है। उसकी रचनाओं में उसका सर्वव्यापी चर्चों सम्बन्धी ग्रन्थ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। उसमें इतिहास की धार्मिक व्याख्या है इसके साथ ही उसमें आध्यात्मिक अर्थ एवं उद्देश्यों का भी उल्लेख किया गया है। उनका मत है कि धर्म सभ्यता को प्रोत्साहित करने के लिए ही कायम है। टॉयनबी उन्नति का मापदण्ड बड़ापन या तकनीकी कार्य-कुशलता को न मानकर आध्यात्मिकता को मानता है। उनके विचार भी ईसाइयत से जुड़े हुए हैं। कुछ स्थानों पर यह कैथोलिक दृष्टिकोण का समर्थक भी है। वह ईसाई चर्च को कैथोलिक चर्च के रूप में मानता है। यह प्राय: दो महान् संस्थाओं द्वारा एकीकृत है- बहुजन का त्याग और पद सोपान।

कैथोलिक चर्च का आध्यात्मिक नेता पोप है। उन्होंने धर्म सुधार एवं पुन:जागृति को सांस्कृतिक व्याधि के रूप में स्वीकार किया है एवं सन्तों को वह धार्मिक आचरण के आदर्श के रूप में स्वीकार करता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि टॉयनबी का धर्म का सिद्धान्त प्रकृतिवादी और विकासवादी है। जिस पर आधुनिकीकरण का प्रभाव स्पष्ट झलकता है।

टॉयनबी धार्मिक उन्नति के विकास का वर्णन हीगल की भाँति विरोधियों के संघर्ष के रूप में करता है। उनका मानना है कि मनुष्य स्वभाव से ही धार्मिक होता है। उसके भौतिक उन्नति कर लेने से वह उसकी सेवा करने वाली वस्तुओं का प्रशंसक बन जाता है। जैसे नेता, प्रकृति की शक्तियाँ, सर्वाधिकारवादी राज्य आदि। इनमें से प्रत्येक आध्यात्मिक उन्नति का विरोध पैदा करती है। सभी धार्मिक विश्वासों के मूल में प्रतिवाद रहता है। इसके कारण पुराने धर्मों में नये विकास पैदा होते हैं और कभी-कभी पूर्णतः नये धर्म पनप जाते हैं। धार्मिक विरोध और संघर्ष गलत और भ्रमपूर्ण आधारों पर उत्पन्न होते हैं।

टॉयनबी द्वारा धर्म के चार उच्चतर और सर्वव्यापी प्रकार बताए गए हैं, ये हैं- ईसाई धर्म, इस्लाम धर्म, हिन्दू धर्म और महायान बौद्ध धर्म। इन धर्मों में से प्रत्येक धर्म प्रतिवाद के किसी न किसी एक किनारे पर जोर देता है। इनमें से प्रत्येक की उत्पत्ति प्रायः मनुष्य की मनोवैज्ञानिक विशेषता के द्वारा होती है। टॉयनबी ने इस्लाम और ईसाइयत को बाहरी धर्म स्वीकार करते हुए कहा है कि ये धर्म ईश्वर को बाहर तलाश करते हैं जबकि हिन्दू और बौद्ध धर्म को उसने आन्तरिक धर्म स्वीकार किया है क्योंकि ये धर्म ईश्वर को अन्दर ही तलाश करते हैं।

टॉयनबी ने जुंग के विचारों की भांति ही मस्तिष्क के चार कार्यों के अनुरूप चारों धर्मों का वर्णन करते हुए स्पष्ट किया है कि ईसाई धर्म प्रेम को ईश्वर मानते हुए भावना पर जोर देता है। जबकि हिन्दू धर्म के अन्तर्गत ईश्वर को सर्वव्यापी मानते हुए चिन्तन पर जोर दिया जाता है। इस्लाम धर्म धर्म को एक तथ्य और अल्लाह शक्ति के रूप में स्वीकार करता है। जबकि बौद्ध धर्म में अस्तित्व की कामना को ही बुराई का कारण माना गया है। इससे मुक्ति ही इस बुराई से बचने का उपाय है।

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