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हम्मीर देव चौहान का इतिहास

हम्मीर के शासनकाल की जानकारी के ऐतिहासिक साधन

हम्मीर रणथम्भौर का अन्तिम शक्तिशाली और महत्त्वाकांक्षी नरेश था जिसके सम्बन्ध में ऐतिहासिक जानकारी के साधनों की कमी नहीं है। बलबन और गाध शिलालेख तथा नयचन्द्र सूरी का हम्मीर महाकाव्य हम्मीर की विजयों और उपलब्धियों पर प्रकाश डालते हैं। मुस्लिम लेखकों में अमीर खुसरो और जियाउद्दीन बरनी मुख्य हैं। इनकी रचनाओं में हम हम्मीरअलाउद्दीन के संघर्ष का विवरण भी पाते हैं। इसके अलावा हिन्दी ग्रन्थों में जोधराज का 'हम्मीर रासो' एवं चन्द्रशेखर का हम्मीर हठ' मुख्य हैं। इन ग्रन्थों में हम्मीर के साहस, शौर्य और विजयों का विस्तृत विवरण मिलता है।

हम्मीर का संक्षिप्त परिचय

हम्मीर जयसिम्हा का तीसरा पुत्र था। उसकी माता का नाम हीरादेवी था। हम्मीर 1282 ई. में रणथम्भौर का शासक बना। डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार "सभी पुत्रों में सम्भवतः योग्यतम होने के कारण उसके पिता ने उसका राज्यारोहण उत्सव 1282 ई. में अपने जीवनकाल में ही सम्पन्न कर दिया था।"

हम्मीर की दिग्विजय की नीति

'हम्मीर महाकाव्य' के अनुसार रणथम्भौर के सिंहासन पर बैठते ही हम्मीर ने दिग्विजय की नीति का पालन करते हुए आसपास के क्षेत्रों को जीतने का निश्चय किया। सर्वप्रथम उसने भीमरस के राजा अर्जुन को परास्त किया और इसके बाद माण्डलकृता या माण्डलगढ़ से भेंट प्राप्त की। इसके बाद हम्मीर ने चित्तौड़, आबू, वर्धनपुर, चंगा, पुष्कर, खण्डीला, चम्पा और कंकरीला पर अपना अधिकार स्थापित किया। इस प्रकार प्रारम्भिक विजयों में हम्मीर ने सफलता प्राप्त की।

हम्मीर देव चौहान की प्रमुख उपलब्धियों का वर्णन कीजिए, hammir dev chauhan vs alauddin khilji
हम्मीर देव चौहान का इतिहास

इस दिग्विजय के पश्चात् हम्मीर ने कोटि-यज्ञों का आयोजन किया जिससे उसकी शक्ति तथा प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। डॉ. गोपीनाथ शर्मा का कथन है कि "हम्मीर ने थोड़े ही समय में रणथम्भौर को विस्तारित राज्य में परिणत कर दिया जिसमें शिवपुर जिला (ग्वालियर), बलयर (कोटा), शाकम्भरी आदि शामिल थे।" उसने अपने जीवन में 16 युद्धों में विजय प्राप्त की।

हम्मीर चौहान की खिलजी शासकों के प्रति नीति

हम्मीर चौहान एक पराक्रमी एवं महत्वाकांक्षी शासक था। यह एक स्वतन्त्रता-प्रेमी तथा स्वाभिमानी व्यक्ति था। वह अपनी मातृभूमि की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए कटिबद्ध था। उसने खिलजी शासकों को कर देर अथवा उनकी अधीनता मानने से इनकार कर दिया था। दूसरी ओर खिलजी सुल्तान राजपूताना के स्वतन्त्र राज्यों को जीतकर खिलजी-साम्राज्य का विस्तार करना चाहते थे। इस कारण दोनों पक्षों में संघर्ष होना स्वाभाविक था। हम्मीर ने अपने सीमित साधनों के बावजूद रणथम्भौर की स्वतन्त्रता को अक्षुण्ण रखने के लिए अपना तन-मन-धन न्यौछावर कर दिया।

हम्मीर व जलालुद्दीन खिलजी-

1290 ई. में जलालुद्दीन खिलजी दिल्ली की गद्दी पर बैटा। सुल्तान बनते ही उसने रणथम्भौर पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया। 1291 ई. में जलालुद्दीन खिलजी ने झाइन के दुर्ग पर अधिकार कर लिया और रणथम्भौर के किले का घेरा डाल दिया। मुस्लिम सेना ने दुर्ग पर अधिकार करने का भरसक प्रयास किया, परन्तु उसे किसी प्रकार की सफलता नहीं मिली। अत: ठसने वापस दिल्ली लौटने का निश्चय कर लिया। उसने अपने सेनापतियों से कहा "ऐसे 10 किलों को भी मैं मुसलमान के एक बाल के बरावर नहीं समझता।" इस प्रकार जलालुद्दीन खिलजी 2 जून, 1291 को घेरा हटाकर वापिस दिल्ली पहुंच गया। 1292 ई. में जलालुद्दीन ने पुन: रणथम्भौर को जीतने का प्रयास किया, परन्तु इस बार भी ठसे असफलता का मुंह देखना पड़ा।

हम्मीर और अलाउद्दीन खिलजी-

1296 ई. में अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली की गद्दी पर बैठा। सुल्तान बनते ही उसने साम्राज्यवादी नीति अपनाई। अत: उसने रणथम्भौर सहित सम्पूर्ण राजपूताने पर अधिकार करने का निश्चय कर लिया।

अलाउद्दीन खिलजी द्वारा रणथम्भौर पर आक्रमण के कारण-

अलाउद्दीन खिलजी के रणथम्भौर पर आक्रमण के निम्नलिखित कारण थे-

(1) रणथम्भौर का सामरिक महत्त्व- यह किला सैनिक दृष्टि से बड़ा ही महत्त्वपूर्ण था। अत: अलाउद्दीन खिलजी रणथम्भौर जैसे सुदृढ़ तथा अभेद्य दुर्ग पर अधिकार करके राजस्थान के राजपूत नरेशों पर अपनी सैन्य शक्ति की धाक जमाना चाहता था।

(2) जलालुद्दीन खिलजी की पराजय का बदला लेना- जलालुद्दीन खिलजी इस किले पर अधिकार करने में असफल रहा था। अत: अलाउद्दीन खिलजी अपने चाचा की पराजय का बदला लेना चाहता था।

(3) दिल्ली सल्तनत के लिए खतरा- रणथम्भौर का किला बहुत ही सुदृढ़ और अभेद्य था। यह दुर्ग दिल्ली के निकट था। अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली के निकट चौहानों की शक्ति को बढ़ते हुए नहीं देख सकता था। अत: इसका राजपूतों के हाथ में बना रहना खिलजी साम्राज्य के लिए सिरदर्द था।

(4) हम्मीर द्वारा अलाउद्दीन के विरोधियों को शरण देना- हम्मीर ने बहुत से खिलजी विद्रोहियों को शरण दे रखी थी। सुल्तान के अनुरोध करने पर भी हम्मीर ने विद्रोहियों के नेता मुहम्मदशाह और कैहबू को लौटाने से इनकार कर दिया था। अत: इससे भी अलाउद्दीन खिलजी बहुत नाराज था और वह रणथम्भौर को अपने अधिकार में करना चाहता था।

(5) हम्मीरका स्वातन्त्र्य-प्रेम- हम्मीर एक स्वतंत्रता-प्रेमी तथा स्वाभिमानी व्यक्ति था। उसने दिल्ली के सुल्तानों को कर देने से इनकार कर दिया। अत: अलाउद्दीन ने हम्मीर को दण्डित करने का निश्चय कर लिया।

(6) अलाउद्दीन खिलजी की विस्तारवादी नीति- रणथम्भौर पर अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण का प्रमुख कारण उसकी साम्राज्यवादी नीति थी। वह सम्पूर्ण भारत पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहता था। इसी अभिप्राय से उसने रणथम्भौर पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया।

तुर्को का रणथम्भौर पर आक्रमण और झाइन का पतन-

उपर्युक्त सभी कारणों से 1299 ई. के अन्त में अलाउद्दीन ने बयाना के गवर्नर उलुग खां के नेतृत्व में रणथम्भौर पर आक्रमण का आदेश दिया। साथ ही उसने नुसरतखां को भी सैनिक दस्तों के साथ उलुगखां की सहायता के लिए रणथम्भौर जाने को कहा। दोनों की संयुक्त सेनाओं ने झाइन पर आक्रमण किया और बिना किसी प्रतिरोध के इस नगर पर अधिकार कर लिया और इसे जी भरकर लूटा।

'हम्मीर महाकाव्य' के अनुसार हम्मीर इस समय 'मुनिव्रत' में व्यस्त था। अत: उसने अपने दो सेनानायकों भीमसिंह और धर्मसिंह को तुर्को की सेना के विरुद्ध भेजा। राजपूतों ने शत्रु-सेना पर आक्रमण करके बनास नदी के तट पर उलुग खाँ को पराजित कर दिया। धर्मसिंह के नेतृत्व में राजपूतों को सैनिक टुकड़ी लूट का माल लेकर रणथम्भौर लौट आई। परन्तु उलुगखाँ ने चालाकी से काम लेते हुए भीमसिंह की सेना पर आक्रमण कर दिया जिसमें राजपूतों की पराजय हुई और भीमसिंह लड़ता हुआ मारा गया।

भोजदेव की सेनापति के स्थान पर नियुक्ति-

भीमसिंह की मृत्यु का समाचार सुनकर हम्मीर बड़ा नाराज हुआ और उसने धर्मसिंह को दोषी ठहराते हुए उसे अन्धा करवा दिया और उसके स्थान पर उसके भाई भोजदेव को नियुक्त किया गया। इस समय राजकोष की स्थिति बहुत ही दयनीय थी और यह स्पष्ट था कि मुसलमानों से युद्ध करने के लिए विशाल सेना की आवश्यकता थी। परन्तु भोजदेव राज्य की बिगड़ी हुई स्थिति को नहीं सम्भाल सका। अतः हम्मीर ने भोजदेव को मन्त्री के पद से हटा दिया।

हरविलास शारदा के अनुसार दरबार के एक प्रभावशाली दरबारी राधादेव की सहायता से धर्मसिंह भोजदेव को हटाकर पुन: मंत्री बन गया, जिससे भोजदेव की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुंचा।

भोजदेव द्वारा खिलजी को रणथम्भौर आक्रमण के लिए निमन्त्रण देना-

भोज को मंत्री पद से हटाने पर वह बहुत अधिक नाराज हुआ। अत: उसने अलाउद्दीन खिलजी को रणथम्भौर पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। अत: अलाउद्दीन खिलजी ने उलुग खाँ के नेतृत्व में एक विशाल सेना रणथम्भौर पर आक्रमण करने के लिए भेजी। हिन्दूवाट दर्रे के निकट पहुंचने पर हम्मीर की सेना व तुर्क सेना के मध्य संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में खिलजी सेना को पराजय का मुंह देखना पड़ा। भोज के परिवार के प्रत्येक सदस्य को बन्दी बना लिया गया। जब सुल्तान को इस घटना की जानकारी मिली तो अलाउद्दीन खिलजी बहुत अधिक नाराज हुआ।

तुर्को द्वारा रणथम्भौर पर पुनः आक्रमण और तुर्कों की पराजय-

1300 ई. में रणथम्भौर पर आक्रमण करने के लिए उलुगखां एवं नुसरतखां जैसे प्रसिद्ध सेनापतियों को भेज गया। खिलजी सेनापतियों ने झाइन पर अधिकार कर लिया और हम्मीर के पास सूचना भिजवाई गई कि अगर वह शरणागतों को लौटा देगा या उनका वध कर देगा, और वह अपनी पुत्री का विवाह अलाउद्दीन खिलजी के साथ कर देगा, तो मुस्लिम सेना वापस लौट जायेगी। परन्तु हम्मीर ने इन शर्तों को मानने से इनकार कर दिया।

अमृत कैलाशकृत हम्मीर प्रबन्ध' से पता चलता है कि विभिन्न साहूकारों और महाजनों ने राणा को आत्मसमर्पण करने की सलाह देते हुए कहा कि अत्यधिक शक्ति-सम्पन्न सुल्तान से टकराने का नतीजा अच्छा नहीं निकलेगा और साथ ही जनता में असन्तोष उत्पन्न होगा, परन्तु हम्मीर ने इस परामर्श को घृणापूर्वक ठुकरा दिया। इस पर तुर्को ने रणथम्भौर पर आक्रमण कर ने दिया। जब खिलजी सेनापति नुसरत खाँ दुर्ग की प्राचीरों को तोड़ने का प्रयास कर रहा था, तो एक पत्थर के गोले के वार से वह घायल हो गया और इस दुनिया से चल बसा। राजपूतों ने दुर्ग से निकलकर तुर्को पर धावा बोल दिया और तुर्क सेनापति उलुगखों को झाइन के दुर्ग तक पीछे हटा दिया।

अलाउद्दीन खिलजी के द्वारा सेना का नेतृत्व करना तथा दुर्ग का घेरा डालना-

नुसरत खाँ की मृत्यु तथा तुर्क सेना की पराजय का समाचार सुनकर अलाउद्दीन खिलजी ने एक विशाल सेना लेकर रणथम्भौर की ओर प्रस्थान किया और रणथम्भौर पहुंच कर दुर्ग का घेरा डाल दिया। राजपूत सैनिकों ने मुस्लिम सेना का डटकर मुकाबला किया। घेरे के दौरान मुस्लिम सैनिकों को बहुत अधिक कष्टों का सामना करना पड़ा। अत: बहुत से सैनिक शिविर से खिसकने लगे। ऐसी स्थिति में सुल्तान ने यह आदेश दिया कि शिविर छोड़कर जाने वाले शाही सैनिक को सजा तथा जुर्माने के रूप में तीन वर्ष का वेतन देना होगा। इस आदेश के परिणामस्वरूप पलायन रुक गया।

अलाउद्दीन खिलजी के नेतृत्व में एक वर्ष तक दुर्ग का घेरा बना रहा, परन्तु फिर भी सफलता की कोई आशा नजर नहीं आई। आखिर सुल्तान ने छल-कपट का सहारा लेने का निश्चय किया।

खिलजी की छल-कपट की कूटनीति-

अलाउद्दीन खिलजी ने छल-कपट से काम लेते हुए हम्मीर के सेनापति रतिपाल तथा रणमल को प्रलोभन देकर अपनी ओर मिला लिया। रणमल और रतिपाल की सहायता से खिलजी सेना दुर्ग में प्रविष्ट हो गई। इस समय दुर्ग में खाद्य-सामग्री की कमी हो गई थी। जो खाद्य-सामग्री शेष बची थी, उसे अलाउद्दीन ने हड्डियों का चूरा मिलवा कर अपवित्र करवा दिया था।

राजपूत स्त्रियों का जौहर तथा राजपूतों का बलिदान-

शत्रु पर अन्तिम आक्रमण को जाने से पूर्व राजपूत स्त्रियों ने जौहर किया और राजपूत सैनिकों ने केसरिया वस्त्र धारण किये और दुर्ग का फाटक खोलकर शत्रु से अन्तिम मोर्चा लेने निकल पड़े। दोनों पक्षों में आमने-सामने जमकर युद्ध हुआ, परन्तु अल्पसंख्यक राजपूत अधिक समय तक न टिक पाये। हम्मीर वीरतापूर्वक लड़ा, परन्तु युद्ध क्षेत्र में ही वीरगति को प्राप्त हुआ। इसामी के अनुसार, "इस युद्ध में राणा हम्मीर के परिवार का कोई भी सदस्य जीवित बन्दी नहीं बनाया जा सका।"

रणथम्भौर का पतन ( 11 जुलाई, 1301)-

इस प्रकार हम्मीर की मृत्यु के साथ ही 11 जुलाई, 1301 ई. को रणथम्भौर पर अलाउद्दीन खिलजी का अधिकार स्थापित हो गया। रणथम्भौर के पतन के पश्चात् रतिपालरणमल को सुल्तान की आज्ञा से मौत के घाट उतार दिया गया। इस विजय के बाद अनेक मन्दिरों तथा मूर्तियों को नष्ट कर दिया गया तथा भीषण लूटमार को गई। उलुग खाँ को रणथम्भौर और झाइन का शासक नियुक्त किया गया।

हम्मीर की पराजय के कारण

अलाउद्दीन खिलजी के विरुद्ध हम्मीर की पराजय के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

(1) हम्मीर में दूरदर्शिता का अभाव-

हम्मीर में दूरदर्शिता का अभाव था। उसने आवेश में आकर अपने योग्य मंत्री धर्मसिंह को अन्धा करवा दिया तथा उसके स्थान पर भोज को नियुक्त कर दिया। परन्तु बाद में धर्मसिंह के बहकावे में आकर उसने भोज को अपदस्थ कर दिया तथा धर्मसिंह को पुनः मंत्री के पद पर नियुक्त कर दिया। इससे भोज नाराज होकर अलाउद्दीन के दरबार में चला गया और उसने दुर्ग की समस्त दुर्बलताएँ सुल्तान को बता दीं।

(2) जनता पर भारी कर लगाना-

हम्मीर ने अपने शासन के अन्तिम वर्षों में अपनी प्रजा पर भारी कर लगाये जिनके फलस्वरूप वह अपनी प्रजा में अलोकप्रिय हो गया था। डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार हम्मीर प्रजा पर कर लगाने में अमानवीय हो गया था। अत: जनता में हम्मीर के विरुद्ध असन्तोष व्याप्त था।

(3) साधनों का अभाव-

हम्मीर के पास साधनों का अभाव था। अलाउद्दीन खिलजी के पास एक अत्यन्त शक्तिशाली एवं विशाल सेना थी। उसके पास विपुल धन भी था। उसके पास किलों को भेदने के लिए मंजनीक, अर्शदा, गरगच आदि यन्त्र उपलव्य थे। दूसरी ओर हम्मीर के पास शक्तिशाली सेना, प्रचुर धन और अन्य साधनों का अभाव था।

(4) दुर्ग में खाद्य-सामग्री का अभाव-

अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर के दुर्ग के चारों ओर घेरा डाल दिया था और यह घेरा एक वर्ष तक चलता रहा। इस अवधि में सुल्तान ने किले में बाहर से खाद्य-सामग्री नहीं पहुँचने दी। परिणामस्वरूप दुर्ग में खाद्य सामग्री का भयंकर अभाव हो गया। ऐसी स्थिति में हम्मीर को दुर्ग का द्वार खोलने को बाध्य होना पड़ा और पराजय का सामना करना पड़ा।

(5) हम्मीर के सेनापतियों का विश्वासघात-

रणथम्भौर अभियान के समय हम्मीर के सेनापति तथा मंत्री रतिपाल और रणमल ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए हम्मीर के साथ विश्वासात किया और वे सुल्तान से जा मिले। इन विश्वासघातियों ने किले के सारे भेद सुल्तान को बता दिये जिसके फलस्वरूप मुस्लिम सेना को दुर्ग में प्रविष्ट होने का अवसर मिल गया।

(6) हम्मीर की दिग्विजय की नीति-

हम्मीर ने दिग्विजय की नीति अपनाते हुए, अपने पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण किया तथा उनके धन को लूटकर उन्हें अपना शत्रु बना लिया। परिणामस्वरूप रणथम्भौर-अभियान के समय ये पराजित शासक हम्मीर की सहायता के लिए नहीं आये और उनके सहयोग के अभाव में उसे पराजय का मुँह देखना पड़ा।

(7) दुर्ग की सुरक्षा का पर्याप्त प्रबन्ध न करना-

जब मुस्लिम सेनापति नुसरत खाँ और उलुग खाँ ने रणथम्भौर पर आक्रमण किया, तो हम्मीर उस समय मुनिव्रत' में व्यस्त रहा और तुकों का मुकाबला करने के लिए धर्मसिंह तथा भीमसिंह को भेज दिया। इसी प्रकार हम्मीर ने धन के अभाव में दुर्ग में पर्याप्त सामरिक एवं खाद्य सामग्री की भी व्यवस्था नहीं की। इनके अभाव में उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा।

हम्मीर का मूल्यांकन

हम्मीर का मूल्यांकन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-

1. महान् योद्धा के रूप में-

हम्मीर एक महान् योद्धा था। विषम परिस्थितियों में हम्मीर अपने सीमित साधनों के द्वारा अपने साम्राज्य की रक्षा का जो प्रयत्न किया वह अत्यधिक प्रशंसनीय है। उसने खिलजियों के कई आक्रमणों को विफल किया, परन्तु अपने सेनापतियों के विश्वासघात के कारण उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। उसमें अपने सैनिकों का नेतृत्व करने की अद्भुत क्षमता थी। हम्मीर ने अपने जीवन काल में 17 युद्ध किये थे, जिनमें से वह 16 युद्धों में विजयी रहा।

2. शासक के रूप में-

हम्मीर में दूरदर्शिता का अभाव था। उसने अपनी प्रजा पर भागे कर लगाये जिससे प्रजा में घोर असन्तोष व्याप्त था। डॉ. दशरथ शर्मा ने लिखा है कि हम्मीर ने अपने शासन के अन्तिम वर्षों में अपनी प्रजा पर असहनीय कर लगाये जिनके फलस्वरूप वह एक अमानवीय शासक हो गया था। उसने अपने पड़ोसी राज्यों से युद्ध छेड़कर अपने शत्रुओं को संख्या बढ़ा ली। उसमें मानव गुणों को परखने की योग्यता का भी अभाव था। उसके द्वारा नियुक्त अधिकारियों ने उसके साथ विश्वासघात किया।

3. साहित्यकारों के संरक्षक के रूप में-

हम्मीर ने अनेक साहित्यकारों को अपने दरवार में संरक्षण दिया। हम्मीर ब्राह्मणों, विद्वानों एवं कलाकारों का आश्रयदाता था। वह भारतीय दर्शन, साहित्य एवं कला का संरक्षक था। बलवन शिलालेख' और 'हम्मीर महाकाव्य' से पता चलता है कि उसने बीजादित्य नामक कवि को संरक्षण प्रदान किया था।

4. दृढ़ निश्चयी-

हम्मीर वचन का पक्का एवं दृढ़ निश्चय वाला सम्राट था। उसने राजपूती परम्परा को निभाने के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिये। इसलिए हम्मीर के बारे में कहा जाता है कि-

सिंह-सवन सत्पुरुप वचन कदलन फलत इक बार।

तिरिया-तेल हम्मीर हठ, चढ़े न दूजी बार।।

5. शरणागतों का रक्षक-

हम्मीर शरणागतों का रक्षक था। उसने मंगोल नेता मुहम्मद शाह एवं उसके साथियों को अपने राज्य में शरण दी। उसने शरणागतों की रक्षा में अपना और अपने परिवार का बलिदान कर दिया और अपने क्षत्रिय धर्म का पालन किया। डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार, "हम्मीर ने अपने सर्वतोमुखी नाश के मुकाबले अपने शरणागतों की रक्षा को सबसे अधिक मूल्यवान समझा।"

6. हिन्दू धर्म का रक्षक-

हम्मीर हिन्दू धर्म का प्रवल पोषक था। वह हिन्दू धर्म एवं संस्कृति को रक्षा के लिए अपना तन-मन-धन वलिदान कर देने के लिए तैयार था। वह धर्म सहिष्णु व्यक्ति था तथा सभी धर्मों का सम्मान करता था। वह शैव धर्म, वैष्णव धर्म तथा जैन धर्म के प्रति आस्था रखता था।

हम्मीर का चरित्र-चित्रण करते हुए डॉ. किशोरी शरण लाल ने 'खिल्जियों का इतिहास' में हम्मीर की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि "कुछ लेखकों ने हम्मीर को मृत्यु का कारण उसकी हठवादिता को माना है, किन्तु यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हम्मीर राजपूताना के उन साहसी सपूतों में से था जो अपनी मातृभूमि को स्वतन्त्रता को मुस्लिम आक्रमणकारियों से बचाने में मर-मिट जाने में अपना कर्तव्य समझते थे।"

डॉ. दशरथ शर्मा का कथन है कि, "यदि हम्मीर में कोई दोष भी थे तो वे उसके वीरोचित युद्ध, वंश की प्रतिष्ठा की रक्षा तथा मंगोल शरणागती की रक्षा के सामने नगण्य हो जाते हैं।" डॉ. गोपीनाथ शमां लिखते हैं कि "हम्मीर की मृत्यु के बाद चौहानों की रणथम्भौर की शाखा समाप्त हो गई। राजस्थान के इतिहास में हम्मीर का सम्मान एक थोर योद्धा के रूप में ही नहीं है, वरन् एक उदार शासक के रूप में है। वह शिव, विष्णु और महावीर स्वामी के प्रति समान भाव से श्रद्धा रखता था। उसने कोटियज्ञ के सम्पादन के द्वारा अपनी धर्म-निष्ठा का परिचय दिया जिससे उसे एक स्थायी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।"

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