Heade ads

राजस्थान के इतिहास के प्रमुख स्रोत

राजस्थान के इतिहास के प्रमुख स्रोत

किसी भी देश अथवा प्रदेश विशेष का गौरव उसके इतिहास से जाना जाता है और इतिहास के निर्माण के लिए उस देश अधया प्रदेश से सम्बन्धित ऐतिहासिक स्रोतों का सहारा लेना पड़ता है। इन स्रोतों में शिलालेख, प्राचीन खण्डहर, स्थापत्य एवं चित्रकला के नमूने, काव्य, कथा, ख्यात, वंशावलियाँ, शासकों द्वारा जारी किये गये परवाने, दान-पत्र, पट्टे, दस्तावेज, सिक्के और राजकीय प्रशासन से सम्बन्धित खाते, बहियाँ तथा विदेशी यात्रियों के वृतान्त आदि को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। परन्तु इनमें से कुछ स्रोतों से मिलने पाली जानकारी अत्यधिक अतिशयोक्तिपूर्ण एक पक्षीय एवं अविश्वसनीय है। अत: विशुद्ध इतिहास की रचना करते समय सभी उपलब्ध स्रोतों के गहन अध्ययन एवं विश्लेषण की आवश्यकता है।

राजस्थान के इतिहास की जानकारी के विभिन्न स्रोतों का उल्लेख निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-

1. साहित्यिक स्रोत-

राजस्थान के इतिहास की जानकारी के साहित्यिक स्रोतों का उल्लेख निम्न प्रकार से किया जा सकता है-

(1) संस्कृत साहित्य-

संस्कृत भाषा में रचित ग्रन्थों से महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध होती है। जयानक द्वारा रचित 'पृथ्वीराज विजय' से चौहान शासकों के अन्तर्गत अजमेर के साम्राज्य विस्तार की जानकारी मिलती है, साथ ही पृथ्वीराज चौहान की विजयों की जानकारी भी मिलती है।

कुम्भा के प्रमुख शिल्पी मण्डन द्वारा रचित 'रानवल्लभ' नामक ग्रन्थ से नगर निर्माण कला की विभिन्न शैलियों का पता चलता है। बीकानेर के मंत्री करमचन्द द्वारा रचित वंशत्कीर्तनकाव्यम् में बीकानेर राज्य के विस्तार, बीकानेर राज्य का वर्णन, दान-पुण्य सम्बन्धी संरचनाओं एवं दशहरे आदि के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

राजनीतिक इतिहास के 'अमरसार' के अध्ययन से हमें राजनीतिक इतिहास के अलावा उस युग में प्रचलित विभिन्न मिठाइयाँ, दास प्रथा, सैनिकों की वेशभूषा, मल्ल-युद्धों, जानवरों की लड़ाइयाँ आदि के बारे में जानकारी मिलती है। रघुनाथ द्वारा रचित 'जगतसिंह काव्य', रणछोड़ भट्ट द्वारा रचित अमरकाव्य वंशावली, अजितोदय, हम्मीरकाव्य आदि संस्कृत में रचित ग्रन्थ हैं जिनके माध्यम से इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है।

(2) राजस्थानी साहित्य-

राजस्थानी भाषा का साहित्य प्राचीन एवं समृद्ध है। नवीं शताब्दी से ही राजस्थानी भाषा की रचनाएँ उपलब्ध होती हैं जिसमें रासो' सर्वाधिक लोकप्रिय रहा है। 16वीं शताब्दी के पूर्व में लिखे गये 'रासो साहित्य' के अन्तर्गत बीसलदेव रासो' पृथ्वीराज रासो और 'क्याम खाँ रासो' ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। रासो साहित्य से हमें तत्कालीन राजपूत राज्यों की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्थिति के बारे में उपयोगी जानकारी उपलब्ध होती है। राजस्थानी साहित्य में ख्यात साहित्य का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है।

ख्यात साहित्य-

मध्यकालीन एवं आधुनिक राजस्थान के विशुद्ध इतिहास के निर्माण में ख्यात साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि ख्यातों के अधिकांश लेखकों का लक्ष्य अपने शासकों की यशोगाथा का वर्णन करना था। फिर भी जो जानकारी फारसी में लिखित ग्रन्थों से नहीं मिलती है, वह ख्यात साहित्य में उपलब्ध हो जाती है। मुण्डीयार की ख्यात, नैणसी की ख्यात, बाँकीदास की ख्यात, दयालदास की ख्यात, जोधपुर राज्य की ख्यात आदि प्रमुख हैं। इन ख्यातों से तत्कालीन राजनीतिक जीवन, सामाजिक जीवन, धार्मिक जीवन एवं आर्थिक जीवन की जानकारी प्राप्त होती है।

(1) नैणसी की ख्यात- मुंहणोत नैणसी को महाराजा जसवन्त सिंह ने वीरता और राजनीति आदि योग्यताओं से प्रसन्न होकर अपने दीवान के पद पर नियुक्त किया। लगभग दस वर्षों तक नैणसी ने इस पद पर रहते हुए राज्य को अमूल्य सेवा की। नैणसी की ख्यात से मध्यकालीन राजस्थान के सभी राज्यों और प्रदेशों के अतिरिक्त सिन्धु, गुजरात, मध्य भारत, महाराष्ट्र, हरियाणा इत्यादि देशों और उनके शासकों एवं क्षत्रियों की छत्तीस शाखाओं की उत्पत्ति का विवेचन किया गया है जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। राज्यों में परस्पर और मुगलों के साथ हुए युद्धों का वर्णन और उनके संवत् मिति आदि का वर्णन ख्यात की अपनी अपूर्व विशेषता है।

(2) मुण्डीयार की ख्यात- वर्तमान में मुण्डीयार नागौर से 10 मील दूर स्थित है। मारवाड़ के राठौड़ शासकों के बारे में इस ख्यात में बहुत कुछ लिखा हुआ है। इसमें मारवाड़ के राठौड़ शासकों का राव सिंहा से लेकर महाराजा जसवन्त सिंह की मृत्यु तक का विवरण दिया गया है। इस ख्यात से पता चलता है कि मोटा राजा उदयसिंह ने अकबर के पुत्र सलीम का विवाह अपनी सगी बहिन से न करके अपनी दत्तक बहिन के साथ किया था।

(3) बाँकीदास की ख्यात- बाँकीदास की ख्यात ऐतिहासिक घटनाओं तथा सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति की जानकारी का अपूर्व खजाना है। इसमें जोधपुर और जयपुर की स्थापना का विस्तृत विवरण है जो अन्य साधनों से भी पुष्ट होता है। इस ख्यात में विविध वेशभूषा तथा युग में प्रचलित साधनों से भी पुष्ट होता है। इस ख्यात में विविध वेशभूषा तथा युग में प्रचलित वस्त्रों तथा तथा फूमरी, रूमाल, गुलबन्द आदि के नामों का उल्लेख मिलता है।

rajasthan-ka-itihas/pramukh-strot, राजस्थान के इतिहास के अध्ययन के मुख्य पुरातत्विक एवं सहित्यक साधनों पर पर प्रकाश डालिए
राजस्थान के इतिहास के प्रमुख स्रोत

इसी प्रकार इस युग में प्रचलित आभूषणों जैसे कि चूड़ी, तिमणियों, जूगावली आदि का विवरण भी प्राप्त होता है। बाँकीदास ने राजस्थान के प्रमुख पर्व-त्यौहारों का भी वर्णन किया है।

(4) जोधपुर राज्य की ख्यात- यह ख्यात भी दो खण्डों में है। इसमें राठौड़ों की उत्पत्ति से लेकर महाराजा मानसिंह के राज्यकाल तक का विवरण है। इससे स्पष्ट है कि यह ख्यात महाराजा मानसिंह के शासनकाल में लिखी गई थी। इस ख्यात में वर्णित प्रारम्भिक इतिहास काफी काल्पनिक एवं पक्षपातपूर्ण प्रतीत होता है। राव जोधा के समय के बाद का भाग प्रामाणिक माना जा सकता है।

(5) दयालदास की ख्यात- दयालदास की ख्यात दो खण्डों में है। प्रथम खण्ड में बीकानेर के राठौड़ों का प्रारम्भ से लेकर जोधपुर के रावजोधा तक का विस्तृत विवरण है। दूसरे खण्ड में राव बीका से लेकर बीकानेर के महाराजा सरदारसिंह के राज्याभिषेक तक का वर्णन है। विद्वानों का मानना है कि दयालदास ने अपने समय की जिन घटनाओं का उल्लेख किया है वे काफी प्रामाणिक मानी जा सकती है।

राजस्थानी भाषा में अन्य ऐतिहासिक साधन-

राजस्थानी भाषा में हजारों की संख्या में ऐतिहासिक वार्ताएँ एवं वचनिकाएँ आदि लिखी गई हैं। वार्ताओं एवं वचनिकाओं में राजस्थानी संस्कृति का बड़ा ही अनूठा चित्रण किया गया है। ऐतिहासिक प्रसंगों के अलावा इसमें राजस्थानी जनता की दिनचर्या, हाट, उपवन, घर-प्रांगण, उत्सव क्रीड़ा आदि का विस्तृत और सजीव वर्णन मिलता है।

(3) फारसी साहित्य-

दिल्ली सुल्तानों और मुगल सम्राटों के इतिहास की जानकारी के लिए राजकीय अधिकारियों तथा स्वतन्त्र इतिहासकारों द्वारा फारसी भाषा में लिखित साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। प्रमुख फारसी ग्रन्थों में अलबेरुनी के वर्णन में राजस्थानी समाज तथा आर्थिक व्यवस्था का विवरण मिलता है।

मिनहाजस-सिराज को 'तबकात-ए-नासिरी' में मेवातियों का वर्णन तथा नागौर और जालौर में पठानों की सत्ता संस्थापना का ब्यौरा मिलता है। बाबर के बाबरनामा' में खानवा का युद्ध तथा उत्तरी-पूर्वी राजस्थान की जलवायु, वर्षा, रेगिस्तान, सिंचाई के साधन आदि का विस्तृत वर्णन है।

अबुल फजल का 'अकबरनामा' मुगल राजपूत सम्बन्धों की अच्छी जानकारी देता है। राजस्थान के लेखकों ने भी फारसी-उर्दू में राजस्थान का इतिहास लिखा है। इस प्रकार के ग्रन्थों में मुंशी ज्वाला सहाय द्वारा लिखित 'वाकया-ए-राजपूताना', कालीराम कायस्थ का तारीख-ए-राजस्थान अधिक प्रसिद्ध हैं।

2. पुरातात्विक स्रोत-

राजस्थान के इतिहास के निर्माण में पुरातात्विक सामग्री का विशेष स्थान है। पुरातात्विक सामग्री को निम्नलिखित भागों में बाँटा गया है-

(1) शिलालेख-

राजस्थान के इतिहास के स्रोतों में शिलालेख महत्त्वपूर्ण हैं। ये शिलालेख शिलाओं, प्रस्तरों, गुफाओं को दीवारों, मन्दिरों के भागों, स्तूपों, स्तम्भों, मठों, तालाबों तथा खेतों के बीच गड़ी हुई शिलाओं पर पाये गये हैं। इन शिलालेखों से राजाओं की उपलब्धियों, उनके राजवंशों के विवरण, वीर पुरुषों के योगदान इत्यादि की जानकारी मिलती है। राजस्थान के इतिहास की जानकारी देने वाले महत्त्वपूर्ण शिलालेख निम्नलिखित हैं-

(1) देलवाड़ा शिलालेख- यह 1934 ई. में निर्मित शिलालेख है। इस शिलालेख से 15वीं शताब्दी के राजस्थान की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है।

(2) रणकपुर प्रशस्ति- यह लेख 1439 ई. का है। यह रणकपुर के जैन चौमुख मन्दिर में लगा हुआ है। इस लेख में मेवाड़ के शासक बप्पा से लेकर कुम्भा तक के शासकों का वर्णन है। इसमें कुम्भा की विजयों का वर्णन भी है।

(3) कुम्भलगढ़ शिलालेख- यह लेख 1460 ई. का है। यह मेवाड़ के महाराणाओं की वंशावली को जानने के लिए बड़ा उपयोगी है। इस लेख से मेवाड़ के महाराणाओं की उपलब्धियों तथा तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक स्थिति का पता चलता है।

(4) कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति- यह लेख भी 1460 ई. का है। इसमें मेवाड़ के महाराणाओं बप्पा, हम्मीर और कुम्भा का वर्णन बड़े विस्तार से मिलता है। इसमें कुम्भा के व्यक्तिगत गुणों का वर्णन मिलता है और उसे दानगुरु, शैलगुरु, राजगुरु आदि विरुदों से सम्बोधित किया गया है। इसमें कुम्भा द्वारा रचित ग्रन्थों चण्डीशतक, गीत गोविन्द की टीका, संगीत राज आदि का भी उल्लेख मिलता है।

(5) राजप्रशस्ति- यह प्रशस्ति 1676 ई. की है। यह राजनगर में राजसमन्द के नौचीकी नामक बाँध पर सीढ़ियों के पास वाली ताकों में 25 बड़ी-बड़ी शिलाओं पर उत्कीर्ण है। इसमें मेवाड़ के महाराणा राजसिंह, महाराणा कुम्भा, सांगा तथा प्रताप आदि की उपलब्धियों का वर्णन है।

(6) रायसिंह प्रशस्ति- यह प्रशस्ति 1593 ई. की है। यह बीकानेर दुर्ग के द्वार के एक पार्श्व में लगी हुई है। इसमें बीकानेर के शासकों- बीका से रायसिंह तक की उपलब्धियों का वर्णन है। इसमें बीकानेर के महाराजा रायसिंह द्वारा कावुलियों, सिन्धियों पर विजय का वर्णन है।

(7) हिम्मत राय के मन्दिर का लेख- यह लेख सन् 1834 ई. का है। यह लेख जैसलमेर के एक मन्दिर में लगा हुआ है। इससे तत्कालीन राजस्थान को धार्मिक और सामाजिक स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

(8) आमेर शिलालेख- यह शिलालेख 1612 ई. का है। इसमें आमेर के शासकों भारमल, भगवन्तदास और मानसिंह प्रथम का उल्लेख है। इसमें आमेर के कछवाहा राजवंश के इतिहास के निर्माण की जानकारी मिलती है।

(9) जगन्नाथराय का शिलालेख- यह शिलालेख 1652 ई. का है। यह मेवाड़ के इतिहास के लिए बड़ा उपयोगी है। इसमें मेवाड़ के शासकों वप्पा से लेकर जगतसिंह तक की उपलब्धियों का वर्णन है। इसमें हल्दीघाटी के युद्ध का भी वर्णन मिलता है।

(10) फारसी शिलालेख- राजस्थान के इतिहास की जानकारी में फारसी शिलालेखों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। पुष्कर के जहाँगीर महल के लेख (1615 ई.) से राजा अमरसिंह पर जहाँगीर की विजय की जानकारी मिलती है। कोटा जिले के शाहबाद लेख (1679 ई.) से औरंगजेब के समय में वसूल किये जाने वाले करों की जानकारी मिलती है।

(2) सिक्के-

 राजस्थान के इतिहास निर्माण में सिक्कों का भी पर्याप्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन सिक्कों से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक तथा आर्थिक स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है। सिक्कों के माध्यम से वंश क्रम, सीमा इत्यादि की भी जानकारी मिलती है।

महाराणा कुम्भा के चाँदी और ताँबे के सिक्के मिले हैं। जोधपुर, बीकानेर, कोटा, प्रतापगढ़ आदि में भी मुगल शासकों के सिक्के प्रचलित थे। जोधपुर के शासक विजयसिंह (1781-1858) ने शाह-आलम के नाम से सिक्के चलाये थे। ये सिक्के 'विजयशाही' कहलाते थे। ब्रिटिश सत्ता की स्थापना के पश्चात् 'कलदार' रुपयों का प्रचलन हुआ और धीरे-धीरे राजपूत राज्यों में ढलने वाले सिक्कों का प्रचलन समाप्त हो गया।

(3) ताम्रपात्र (दान-पत्र)-

राजस्थान के ऐतिहासिक स्रोत के रूप में दान-पत्रों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये दान-पत्र ताम्र पत्र कहलाते हैं, क्योंकि इनके लिए ताम्बे की चद्दरों को काम में लिया जाता था। ये ताम्र-पत्र संस्कृत एवं स्थानीय भाषा में होते थे। इन दानपत्रों द्वारा कई राजनीतिक घटनाओं, आर्थिक व्यवस्था तथा व्यक्ति विशेषों की जानकारी प्राप्त होती है। ताम्रपत्रों से भूमि सम्बन्धी सूचनाएँ मिलती हैं, क्योंकि विशेष रूप से अनुदानों में भूमिदान का ही अधिक महत्त्व रहा है।

(4) अन्य पुरालेखीय स्रोत-

फारसी भाषा में लिखित फरमान, मन्सूर, रुक्का, निशान, हुक्म, ईशा, रुक्केयात तथा वकील रिपोर्ट महत्त्वपूर्ण पुरालेख सामग्री हैं। इनमें से फरमान, मन्सूर तथा रुक्के स्वयं मुगल सम्राट द्वारा जारी किये जाते थे। राजस्थान के कुछ शासकों ने इस प्रकार के फरमानों, मन्सूरों तथा रुक्कों को सुरक्षित रखा जो इस समय बीकानेर के राज्य अभिलेखागार में मौजूद हैं। इनसे राजपूत शासकों और मुगल शासकों के आपसी सम्बन्धों तथा मुगल साम्राज्य तथा मुगल साम्राज्य की सुरक्षा में राजपूत शासकों के योगदान की महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

राजपूत राज्यों में बहिया लिखने की परम्परा थी जिनसे तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक जीवन तथा शासक वर्ग के दैनिकचर्या का बोध होता है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि राजस्थान के इतिहास की जानकारी में पुरातात्विक साधनों का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

3.  समसामयिक इतिहासकारों के लेख या ग्रन्थ-

राजस्थान के इतिहास की जानकारी में पुरातात्विक स्रोत, पुरालेखीय स्रोत एवं साहित्यिक स्रोतों का महत्त्वपूर्ण स्थान है परन्तु इन स्रोतों से प्राचीन कालीन राजस्थान के इतिहास का बोध होता है। मध्यकालीन एवं आधुनिक राजस्थान के इतिहास की जानकारी समसामयिक इतिहासकारों के लेखों या ग्रन्थों से होती है जिनमें कर्नल टॉड का एनल्स, कविराजा श्यामल दास का वीर विनोद, डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का सिरोही का इतिहास, बीकानेर का इतिहास आदि प्रमुख ग्रन्थ हैं। उपर्युक्त इतिहासकारों के अलावा सूर्यमल्ल मित्रण, डॉ. दशरथ शर्मा एवं गोपीनाथ शर्मा ने भी राजस्थान के इतिहास लेखन में अपना अपूर्व योगदान दिया।

आशा है कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।

Post a Comment

0 Comments