राजपूतों की
उत्पत्ति
राजपूतों का युग भारतीय इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है। भारत पर निरन्तर होने वाले मुस्लिम आक्रमणों का पाँच सदी तक मुकाबला इन वीर एवं त्यागी राजपूतों ने ही किया। उन्होंने धर्म व देश की रक्षा हेतु अपना सर्वस्य न्यौछावर कर दिया। यद्यपि वे मुसलमानों से युद्ध करके भी देश की रक्षा नहीं कर सके फिर भी भारतीय इतिहास आज भी उनकी वीरता एवं साहस की गाथाओं से चिर स्मरणीय बना हुआ है।
राजपूत रण-बाँकुरे तो होते ही थे
लेकिन वे वचन के भी पक्के होते थे। विश्वासघात करना व निःशस्त्र शत्रु पर प्रहार
करना वे धर्म-विरुद्ध समझते थे। शरणागत की रक्षा करना वे अपना परम धर्म
समझते थे और शरणागत की रक्षार्थ मर जाना वे अपना पुनीत कर्त्तव्य समझते थे। रणक्षेत्र
ही उनकी कर्मभूमि थी और युद्ध भूमि में मर जाना ही वे स्वर्ग जाने का
माध्यम समझते थे। कर्नल टॉड ने लिखा है-"यह स्वीकार करना पड़ता है कि उच्च
साहस, देश-भक्ति,
स्वामी-भक्ति, आत्म-सम्मान, अतिथि-सत्कार
तथा सरलता के गुण राजपूतों में विद्यमान थे।"
राजपूतों की
उत्पत्ति के सिद्धान्त व मत
1. वैदिक क्षत्रियों
की सन्तान-
प्रत्येक शासक के दरबारी लोग उसे देव तुल्य ईश्वर द्वारा
भेजा गया अथवा देवताओं की सन्तान बताते हैं। यही परम्परा राजपूतों पर भी
लागू होती है। मनुस्मृति में क्षत्रियों की उत्पत्ति ब्रह्मा से बताई गई है। ऋग्वेद
के अनुसार क्षत्रिय ब्रह्मा की बाँहों से उत्पन्न हुए थे। इन दोनों ग्रन्थों के
आधार पर क्षत्रिय का काम निर्बल लोगों की रक्षा करना बताया गया है। सातवीं
शताब्दी के बाद क्षत्रियों ने अपना महत्त्व खो दिया और वे अन्य तीनों
वर्गों की रक्षा नहीं कर सके, किन्तु उनके ब्रह्मा की सन्तान होने की
कहानी को महत्त्व प्राप्त होने लगा।
राजपूतों की उत्पत्ति के विभिन्न मत |
चारणों और भाटों ने उनको खोई हुई महिमा को पुनः दोहराने के
लिए उन्हें ब्रह्मा की सन्तान बताकर उनको उत्पत्ति का दैविक शक्ति सिद्धान्त
दोहराया। नद्धरहरण में प्राप्त एक शिलालेख में रघुवंश कीर्ति शब्द का प्रयोग
किया गया है। इस शब्द का प्रयोग राजपूतों का महाकाव्य काल के राम और कृष्ण
से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए किया गया है। इसी प्रकार एक शिलालेख और दसवीं
शताब्दी के साहित्य द्वारा राजपूतों की दैवकुल या दैविक शक्ति द्वारा उत्पत्ति
बताई है। इन विवरणों से स्पष्ट है कि राजपूत यदि रामायण और महाभारत
काल के राम व कृष्ण के वंशज हैं तो भारतीय हैं और वैदिक आर्यों
की सन्तान हैं।
2. ब्राह्मणों से
उत्पत्ति-
डॉ. भण्डारकर ने राजपूतों की
उत्पत्ति किसी विदेशी ब्राह्मण से बताई है। तदनन्तर तो अनेक विद्वानों ने राजपूतों
की उत्पत्ति ब्राह्मणों से बता दी। मन्डोर (जोधपुर) के प्रतिहार ब्राह्मण
वंश के थे। इनके पूर्वज ब्राह्मण हरिश्चन्द्र तथा उनकी पत्नी मादरा
की सन्तान थी। इसी प्रकार आबू के प्रतिहार वशिष्ठ ऋषि की सन्तान थे।
कुछ विद्वानों का मत है कि कभी-कभी ऐसा भी होता था कि
राजपूत अपने पुरोहित का गौत्र अपना लेते थे। इस सिद्धान्त का प्रादुर्भाव इसीलिए
भी हुआ कि ब्राह्मण पहले राजा भी हुआ करते थे। रावण ब्राह्मण था तथा लंका
में राज्य करता था। कहीं-कहीं तो ब्राह्मण राजा से भी श्रेष्ठ होते थे। मिथिला
का राजा जनक तथा अयोध्या का राजा दशरथ ब्राह्मण ऋषि विश्वामित्र
से हाथ जोड़कर बात करते थे। कुछ प्राचीन साहित्यिक कृतियों में भी, विशेषकर
'पिंगलसूत्र कृति' ने भी राजपूतों को ब्राह्मण की सन्तान बताया है।
3. अग्नि-कुण्ड से
उत्पत्ति-
एक अनुश्रुति प्रचलित है कि राजपूतों की उत्पत्ति
अग्नि-कुण्ड से हुई है। इस अनुश्रुति के अनुसार जब परशुराम ने प्राचीन क्षत्रियों
का विनाश कर दिया तब राजा न होने के कारण साधारण लोग अपने कर्तव्यों से गिरने लगे।
ऐसी दशा में देवता लोग दुःखी हुए। उस हालात में आबू पर्वत पर मुनि वशिष्ठ ने एक
यज्ञ किया। उसी अग्नि-कुण्ड से देवताओं ने प्रतिहार, परमार, चालुक्य
तथा चाहमान को उत्पन्न किया। इसीलिए ये अग्निवंशी कहलाये। इसी तथ्य को स्पष्ट करने
के लिए चन्द्र बरदाई के "पृथ्वीराज रासो' को
ले सकते हैं। राजपूत इन्हीं चारों की सन्तान माने जाते हैं। परन्तु अधिकांश
विद्वान् इस अनुश्रुति को कपोल कल्पित मानते हैं और इसे चारणों द्वारा प्रतिपादित
अनुश्रुति मानते हैं।
राजस्थानी चारण और भाट राजपूतों का
जन्म अग्नि-कुण्ड से मानते हैं। पृथ्वीराज रासो के अनुसार, "विश्वामित्र,
गौतम और अगस्त ऋषियों ने आबू के पर्वत पर एक महायज्ञ किया।
दैत्य इन यज्ञों का सदैव विरोध किया करते थे। अतः उन्होंने माँस, मदिरा, मल-मूत्र
आदि द्वारा यज्ञ को अपवित्र कर उसमें बाधा उत्पन्न करने का प्रयत्न किया। वशिष्ठ
ने ऋषियों की सहायता के लिए यज्ञ-कुण्ड से प्रतिहार को उत्पन्न किया और उसे
द्वार-रक्षक का काम दिया। प्रतिहार के उपरान्त चालुक्य और परमार प्रकट हुए।
परन्तु जब ये तीनों योद्धा भी यज्ञ की रक्षा नहीं कर सके तो अग्नि-कुण्ड से रक्त
वर्ण के मुंह वाला प्रचण्ड सेनापति के रूप में चाहमान चौहान प्रकट हुआ।" उस
वीर धनुर्धर चाहमान ने यज्ञ की रक्षा की और उसी वंश में प्रतापी पृथ्वीराज
का जन्म हुआ। इस प्रकार राजपूतों की उत्पत्ति अग्नि-कुण्ड से मानी जाती है।
4. राजपूत सूर्य व
चन्द्रवंशी-
दसवीं शताब्दी के उपरान्त चारणों
द्वारा ऐतिहासिक ग्रन्थ रचे गये, उनमें उन्होंने राजपूतों को सूर्यवंशी
तथा चन्द्रवंशी बताया है। ऐसा चारणों ने अपने संरक्षकों को ऊँचा दिखाने के
लिए किया। अनुश्रुतियों ने भी राजपूतों को उन सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी क्षत्रियों
के वंशज बताया है,
जिनकी यशोगाथा रामायण और महाभारत में वर्णित
है। प्रतिहार राजपूत अपने को सूर्यवंशी क्षत्रिय मानते हैं। उदाहरण
के लिए हम ग्यालियर अभिलेख ले सकते हैं- उसमें उन्हें राम के भाई लक्ष्मण
की सन्तान बताया गया है। चन्देल अपने को चन्द्रमा की सन्तान मानते
हैं।
हमीर महाकाव्य में चाहमान
(चौहानों) को सूर्य पुत्र कहा गया है। चाहमानों की चर्चा तो अनेक संस्कृत साहित्य
ग्रन्थों और अभिलेखों में मिलती है। डॉ. दशरथ शर्मा का कहना है कि
शाकम्भरी चाहमानों का सूर्यवंशी होने का दावा मात्र ज्ञात होता है, जिसे
प्रमाणित करन का एक भी प्रवल तकं प्रस्तुत नहीं है। वे चन्द्रवंशी राजपूत
थे। इसका प्रमाण पृथ्वी राज के हाँसी अभिलेख तथा चन्द्रावती के चाहमान शासक
लुण्टिगदेव के वि.स. के आबू अभिलेख ले सकते हैं। इसके अलावा चाहमान स्वयं
भी गोत्रोच्चार में अपने को चन्द्रवंशी कहते हैं। डॉ. दशरथ शर्मा ने
लिखा है कि "अग्नि-कुण्ड का सिद्धान्त राजपूत चारण व भाटों की मानसिक कल्पना
थी जिसका एकमात्र आधार अपने संरक्षकों के लिए उच्च कुल की तलाश करना था। राजपूत सूर्य
व चन्द्रवंशी थे।"
निःसन्देह सूर्यवंशी होने के पक्ष के सबल तर्क
विद्यमान हैं। राजस्थान के विख्यात इतिहास तथा अनेक शिलालेख इस धारणा की पुष्टि
करते हैं तथापि आज वे वैज्ञानिक युग में सन्देह व्यक्त करने की गुंजाइश रह ही जाती
है।
5. विदेशियों की
सन्तान-
भारत की अधिकांश जातियाँ विदेशों से यहाँ आई थी फिर यहीं पर
अपना स्थायी निवास बनाकर भारतीय धर्म और संस्कृति को अपना लिया। इसी
आधार पर कुछ भारतीय और कुछ विदेशी विद्वानों ने राजपूतों को भी विदेशी मान लिया
है।
राजस्थान इतिहास के लेखक जैम्स
टॉड ने लिखा है कि "राजपूत शक अथवा सिथियन जाति के वंशज थे।" टॉड
अपने कथन की पुष्टि में तर्क देते हैं कि विश्व के सभी प्रमुख धर्म चाहे बेबीलोनियन
हो या यूनान का,
या भारत का या मुसा का, इस सभी का विकास मध्य एशिया
से हुआ था और प्रथम पुरुष को किसी ने 'सुमेरु' कहा।
किसी ने 'वेकस' और किसी
ने 'मनु' ने
कहा है। इन्हीं बातों के आधार पर जैम्स टॉड ने कहा कि "इन बातों से
सिद्ध होता है कि विश्व के सभी मनुष्यों का मूल स्थान एक ही था और वहीं से ये लोग
पूर्व की तरफ आये।" टॉड ने आगे लिखा है कि यूनानी, शक, हूण, चूची
(कुषाण) सभी विदेशी जातियाँ मध्य एशिया से आई थीं इसलिए राजपूत भी मध्य एशिया से
आई हुई विदेशी जाति है।
टॉड ने अग्नि-कुण्ड की
कहानी को स्वीकार कर लिया है तथा इसी आधार पर राजपूतों को विदेशी प्रमाणित करने का
प्रयास किया है। उनका मत है कि यह विदेशी जाति छठी शताब्दी के लगभग भारत में
प्रविष्ट हुई थी। इन्हीं विदेशी विजेताओं को जब वे शासक बन बैठे तो उन्हें अग्नि
संस्कार द्वारा पवित्र कर जाति व्यवस्था की श्रेणी में रखा गया और वे राजपूत
कहलाये।
टॉड महोदय ने राजपूतों को शक व
सीथियन प्रमाणित करने के लिए तकं दिया है कि राजपूतों के रीति-रिवाज शक सिथियन
और हूणों से मिलते हैं, जैसे अश्व पूजा, अश्वमेध, अस्त्रपूजा, अस्व-शिक्षा, उत्तेजक
सुरा के प्रति अनुराग,
अन्धविश्वास, भाटों को प्रथा-समाज में
स्त्रियों का स्थान आदि रीति-रिवाज शक-सीथियन लोगों में भी पाये जाते थे, अत:
दोनों जातियाँ एक ही है। इन्हीं सभी बातों के आधार पर स्मिथ महोदय ने
निष्कर्ष निकाला है कि,
"हूण जाति ही विशेषकर राजपूताने और पंजाब में स्थायी रूप से
आवाद हुई, जिसमें अधिकांश गुर्जर थे और वे गुर्जर कहलाये। प्रसिद्ध विद्वान् विलियम
क्रुक का कथन है कि राजपूतों के कई वंशजों
का उद्भव शक या कुषाण आक्रमणों के समय हुआ था। गुर्जरों ने, जो
कुषाण जाति से सम्बन्धित थे, बाद में जब इन विदेशियों ने ब्राह्मण धर्म
स्वीकार कर लिया तो स्वभावत: उन्हें वीरों की वंश परम्परा से सम्बन्धित करने का
प्रयास किया गया।
डॉ. भण्डारकर ने भी चारों
अग्निकुलों को गुर्जर सिद्ध करने का प्रयास किया है। उन्होंने अपने मत के
समर्थन में कहा है कि राजौर में पाये गये एक अभिलेख में आधुनिक जयपुर के
दक्षिण-पूर्व में शासन करने याले प्रतिहारों की एक गौण शाखा ने अपने
को गुर्जर कहा है। कन्नौज के प्रतिहारों को राष्ट्रकूटों ने अपने अभिलेखों में तथा
अरबों ने अपने यात्रा विवरणों में गुर्जर बताया है। चालुक्यों ने जय गुजरात
को अधिकृत किया,
उसी समय से उसका नाम गुजरात पड़ा, इससे
पूर्व वह लाट कहलाता था।
डॉ. भण्डारकर ने राजपूतों को
गुर्जर सिद्ध करने के लिए अनेक तर्क भी दिये तथा कहा है कि ये गुर्जर
पांचवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हूणों के साथ भारत में प्रविष्ट हुए थे। राजपूत
गुर्जर थे और गुर्जर विदेशी थे, अत: राजपूत भी विदेशी जाति के वंशज
थे।
राजपूत वंशों की उत्पत्ति के सन्दर्भ में वृत्तान्त
राजपूत वंशों की उत्पत्ति के सन्दर्भ में
निम्नलिखित वृत्तान्त मिलते हैं-
(1) भोज प्रथम के ग्वालियर अभिलेख से गुर्जर प्रतिहार
लक्ष्मण के वंशज सिद्ध होते हैं जो मेघनाथ के साथ युद्ध में राम के प्रतिहार
(द्वार रक्षक) स्वरूप रहे।
(2) परमार नरेशों के सन्दर्भ में दसवीं सदी के एक लेख से
ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूटों के व धार के परमार राजाओं के दान पत्रों पर गरुड़
अंकित मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि परमार राजपूत दक्षिण से आकर मध्य प्रदेश
में बस गये थे।
(3) बिजौलिया से प्राप्त लेख में चौहान कुल के प्रथम
व्यक्ति 'सामन्त' को
वत्स गौत्र का बताया है। इससे कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि चौहान
ब्राह्मण थे। परन्तु जयानक कृत' पृथ्वीराज विजय तथा
अजमेर के सरस्वती देवालय में प्राप्त शिलालेख से चौहान स्पष्ट रूप से सूर्यवंशी
सिद्ध होते हैं।
(4) जोधपुर व बीकानेर के राठौड़ों के सन्दर्भ में यह
परम्परा है कि वे कन्नौज के गहड़वालों की शाखा के हैं, लेकिन
राठौड़ अपने को गहड़वाल नहीं कहते, हालांकि ये गहड़वालों के साथ
वैवाहिक सम्बन्ध अवश्य कर लेते हैं। आमेर व जयपुर के कछवाहा अपने को भगवान राम
के पुत्र कुश के वंशज मानते हैं।
(5) नेजा भुक्ति की चन्देलों से उत्पत्ति इस वंश के
अभिलेखों के आधार पर चन्द्रमा से बताई गई है। परन्तु चन्देलों की
उत्पत्ति के विषय में स्पष्ट उल्लेख व प्रमाण न मिलने के कारण कुछ विदेशी विद्वान्
इन्हें मध्य-भारत की गोंड जाति से सम्बन्धित मानते हैं। कन्नौज के गहड़वाल
के अभिलेखों में उन्हें क्षत्रिय कहा जाता है।
(6) महाराणा कुम्भा के समय रचित 'एक लिंग महातम्य'
में बप्पा रावल को ब्राह्मण बताया गया है। अबुल फजल
य नैणसी ने भी गहलोत राजपूतों के ब्राह्मण होने की परम्परा का उल्लेख किया
है। लेकिन 10वों शताब्दी में ऐसे भी अभिलेख मिलते हैं। जिनमें गहलोत अपने आपको सूर्यवंशी
क्षत्रिय कहते हैं।
निष्कर्ष-
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि राजपूतों की उत्पत्ति
का विषय आज भी विवादास्पद बना हुआ है। इस सन्दर्भ में गत वर्षों से काफी खोजबीन हो
रही है परन्तु अभी तक इस विषय सम्बन्धी जो सामग्री मिली है-उसके आधार पर किसी
निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है। लेकिन इतना निश्चित रूप से कहा जा
सकता है कि राजपूत विदेशी नहीं थे। वे मूलरूप से भारतीय ही थे। जो भी
ग्रन्थ व अभिलेख मिलते हैं-उनसे तो यही सिद्ध होता है कि राजपूत क्षत्रिय वंशज
ही थे।
सातवीं शताब्दी से क्षत्रिय के स्थान पर राजपूत शब्द का
प्रयोग होने लगा था। डॉ. गोपीनाथ शर्मा व डॉ. दशरथ शर्मा ने
राजपूतों को मूलतः भारतीय स्वीकार किया है। विभिन्न ऐतिहासिक साक्ष्यों से स्पष्ट
होता है कि राजूपत वैदिक क्षत्रियों की सन्तान हैं।
आशा है कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी।
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