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शिक्षा के साधन व शिक्षा के कार्य

शिक्षा के साधन

साधन अंग्रेजी शब्द ‘‘एजेन्सी’’ का हिन्दी रूपान्तरण है- एजेन्सी का अर्थ है एजेन्ट का कार्य। एजेन्ट से हमारा अभिप्राय उस व्यक्ति या वस्तु से होता है, जो कोई कार्य करता है या प्रभाव डालता है। अत: शिक्षा के साधन- वे तत्व कारण स्थान या संस्थायें है जो बालक पर शैक्षिक प्रभाव डालते हैं। समाज ने शिक्षा के कार्यों को करने के लिये अनेक विशिष्ट संस्थाओं का विकास किया है। इन्हीं संस्थाओं को शिक्षा के साधन कहा जाता है।

इनको इस प्रकार वर्गीकृत किया गया है।

1. औपचारिक और अनौपचारिक 2. निष्क्रिय एवं सक्रिय साधन

1. औपचारिक और अनौपचारिक

जॉन डी0 वी0 ने शिक्षा के औपचारिक और अनौपचारिक साधनों को शिक्षा की साभिप्राय और आकस्मिक विधियां बताया है। हैण्डरसन ने लिखा है- जब बालक व्यक्तियों के कार्यों को देखता है उसका अनुकरण करता है और उनमें भाग लेता है तब वह अनौपचारिक रूप से शिक्षित होता है। जब उसको सचेत करके जान बूझकर पढ़ाया जाता है, तब वह औपचारिक रूप शिक्षा प्राप्त करता है।’’

औपचारिक साधन- शिक्षा के ये साधन योजनाबद्ध होते है। इनके नियम व योजना निश्चित हेाते हैं। इनमें प्रशिक्षित व्यक्ति देखभाल करते हैं। यह शिक्षा किताबी व विद्यालयीय शिक्षा भी कहलाती है। इनके अन्तर्गत स्कूल पुस्तकालय, चित्र भवन एवं पुस्तक आते हैं।

अनौपचारिक साधन- शिक्षा के अनौपचारिक साधनों का विकास स्वाभाविक रूप से होता है। इसकी न तो योजना न ही नियम होते है। ये बालकों के आचरण का रूपान्तरण करते हैं पर यह प्रक्रिया अज्ञात अप्रत्यक्ष और अनौपचारिक होती है। इसके अन्तर्गत परिवार, धर्म, समाज, राज्य रेडियो, समाचार-पत्र आदि आते हैं।

औपचारिक शिक्षा बड़ी सरलता से तुच्छ निर्जीव अस्पष्ट और किताबी बन जाती है। औपचारिक शिक्षा जीवन के अनुभव से कोई सम्बंध न रखकर केवल विद्यालयों की विषय सामग्री बन जाती है। वही दूसरी ओर बालक अनौपचारिक ढंग से दूसरों के साथ रहकर शिक्षा प्राप्त करता है और साथ रहने की प्रक्रिया ही शिक्षा देने का कार्य करती है। यह प्रक्रिया अनुभव को विस्तृत करती है।

2. सक्रिय व निष्क्रिय साधन-

सक्रिय साधन- सक्रिय साधन सामाजिक प्रक्रिया पर नियत्रंण रखने और उसको एक निश्चित दिशा देने का प्रयत्न करते हैं। इनमें शिक्षा देने वाले और शिक्षा प्राप्त करने वाले में प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया होती है, दोनों एक दूसरे पर क्रिया प्रतिक्रिया करते हैं। सक्रिय साधन के उदाहरण हैं- परिवार, समाज, राज्य, स्कूल, आदि।

निष्क्रिय साधन- निष्क्रिय साधन वे हैं जिनका प्रभाव एक तरफा होता है। इनकी प्रक्रिया एक ओर से होती है, क्योंकि ये एक ही को प्रभावित करते हैं। इस प्रक्रिया में एक पक्ष सक्रिय होता है और दूसरा निष्क्रिय। ये साधन दूसरों को तो प्रभावित करते हैं पर स्वयं दूसरों से प्रभावित नहीं होते हैं। निष्क्रिय साधनों के उदाहरण हैं- सिनेमा, टेलीविजन, रेडियो, प्रेस इत्यादि।

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शिक्षा के साधन व शिक्षा के कार्य


शिक्षा के कार्य

शिक्षा गतिशील है। डेनियल बेक्स्टर के अनुसार- ‘‘शिक्षा का कार्य भावनाओं को अनुणासित, संवेगों को नियंत्रित, प्रेरणाओं को उत्तेजित, धार्मिक भावना को विकसित और नैतिकता को अभिवृद्धित करना है।’’

इसी प्रकार जॉन डी0वी0 के अनुसार- ‘‘शिक्षा का कार्य असहाय प्राणी के विकास में सहायता पहॅुचाना है ताकि वह सुखी, नैतिक और कुशल मानव बन सके।’’ शिक्षा का कार्य देश और काल के अनुरूप बदलता रहता है,

मानव जीवन में शिक्षा के कार्य

उत्तम नागरिक उत्तम राज्य का आधार स्तम्भ होता है। और उत्तम नागरिक वह है जो कि अपने एवं राष्ट्र दोनों के लिये उपयोगी हो अर्थात् मानव जीवन में बदलाव लाने का कार्य शिक्षा का ही है। मानव जीवन में शिक्षा यह कार्य करती है-

1. मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का विकास मार्गान्तीकरण और उदात्तीकरण-

मनुष्य कुछ मूलभूत शक्तियों को लेकर पैदा होता है शिक्षा का कार्य इन शक्तियों का विकास करना है। मानव के शक्तियों का विकास व्यक्ति और समाज दोनेां के हितों को ध्यान में रखकर किया जाता है। वह मूलभूत प्रवश्त्यात्मक व्यवहार से सामाजिक व्यवहार की ओर उन्मुख होता है।

2. संतुलित व्यक्तित्व का विकास-

शिक्षा का प्रमुख कार्य सतुंलित व्यक्तित्व का विकास करना भी है। व्यक्तित्व के अन्तर्गत शारीरिक, मानसिक, नैतिक, आध्यात्मिक एवं संवेगात्मक पक्ष आते हैं। शिक्षा इन सभी पहलुओं का संतुलित विकास करती है।

3. चरित्र निर्माण एवं नैतिक विकास-

शिक्षा का अति महत्वपूर्ण कार्य चरित्र का निर्माण एवं उसका नैतिक विकास करना है। शिक्षा के इस कार्य पर डॉ0 राधाकृष्णन ने बल देते हुये लिखा है- ‘‘चरित्र भाग्य है। चरित्र वह वस्तु है जिस पर राष्ट्र के भाग्य का निर्माण होता है। तुच्छ चरित्र वाले मनुष्य श्रेण्ठ राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते हैं।’’

4. सामाजिक भावना का समावेश-

व्यक्ति समाज का अभिन्न अगं है। समाज से दूर रहकर जीना असम्भव है, अत: यह आवश्यक है कि उसमें सामाजिक गुणों का विकास किया जाये। सामाजिक गुणों के विकास का कार्य भी शिक्षा का ही है। एच0 गार्डन के अनुसार- ‘‘शिक्षक को यह जानना आवश्यक है कि उसे सामाजिक प्रक्रिया में उन व्यक्तियों को समझना चाहिये जो इसे समझने में असमर्थ हैं।’’

5. आवश्यकताओं की पूर्ति-

समाज में शिक्षा का प्रमुख कार्य आवश्यकताओ की पूर्ति है, जीवधारी होने के कारण उसकी कुछ मूलभूत आवश्यकतायें है। रोटी, कपड़ा और मकान प्रमुख है इन सभी को प्राप्त करने योग्य बानाने का कार्य शिक्षा का है। स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा के इस कार्य की ओर इंगित करते हुये स्पष्ट लिखा है कि - ‘‘शिक्षा का कार्य यह पता लगाना है कि जीवन की समस्याओं को किस प्रकार से कम किया जाये और आधुनिक सभ्य समाज का ध्यान इस ओर लगा हुआ है।’’

6. आत्मनिर्भरता की प्राप्ति-

मानव जीवन में शिक्षा का एक प्रमुख कार्य व्यक्ति को आत्म निर्भर बनाना है। ऐसा व्यक्ति समाज के लिये भी सहायक होता है, जो अपना भार स्वयं उठा लेता है। भारत जैसे विकासशील समाज में व्यक्ति को आत्म निर्भर बनाने का कार्य शिक्षा का है। स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा के इस कार्य को इंगित करते हुये लिखा था- ‘‘केवल पुस्तकीय ज्ञान से काम नहीं चलेगा। हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है जिससे कि व्यक्ति अपने स्वयं के पैरों पर खड़ा हो सकता है।’’

7. व्यावसायिक कुशलता की प्राप्ति-

हमारा देश बडी़ तेजी से विकास की ओर बढ़ रहा है। वैश्वीकरण के दौर में हमें ऐसे मानव संसाधन की आवश्यकता है जो कुशल हो और अर्थ व्यवस्था के विभिन्न पक्षों में अपना उत्तरदायित्व निभा सकें। ऐसे मानव संसाधन तैयार करने का कार्य शिक्षा का है। डॉ0 राधाकृष्णन के अनुसार- ‘‘प्रयोगात्मक विषयों में प्रशिक्षित व्यक्ति कृषि और उद्योग के उत्पादन को बढ़ाने में सहायता देते है। ये विषय सरल एवं रोजगार पाने में सहायक होते है। शिक्षा का कार्य है- अर्थकारिका विद्या।’’

8. जीवन के लिये तैयारी-

विलमॉट ने स्पष्ट कहा है कि- ‘‘शिक्षा जीवन की तैयारी है।’’ इससे स्पष्ट है कि शिक्षा का प्रमुख कार्य बच्चों को जीवन के लिये तैयार करना है। शिक्षा के इस कार्य पर विचार करते हुये स्वामी विवेकानन्द ने स्पष्ट लिखा है कि- ‘‘क्या वह शिक्षा कहलाने के योग्य है जो सामान्य जन समूह को जीवन के संघर्ष के लियें अपने आपको तैयार करने में सहायता नही देती है और उनमें शेर सा साहस न उत्पन्न कर पाये।’’

9. आध्यात्मिक विकास-

भारतीय संस्कृति का सम्बन्ध चिरकाल से आध्यात्मिकता रही है। शिक्षा का एक प्रमुख कार्य मानव को उस पूर्ण एवं वास्तविक शक्ति का आभास कराना है। श्री अरविन्द ने लिखा है- ‘‘शिक्षा का उद्देश्य विकसित होने वाली आत्मा को सर्वोत्तम प्रकार से विकास करने में सहायता देना और श्रेण्ठ कार्य के लिये उसे पूर्ण बनाना है।’’

10. वातावरण से अनुकूलन-

वातावरण मनुष्य को स्वयं शिक्षित करता है और मनुष्य को प्रभावित करता है। वातावरण से अनुकूलन न कर सकने के कारण व्यक्ति का जीवन दुरूह हो जाता है। इस सम्बंध में टॉमसन ने लिखा है- ‘‘वातावरण शिक्षक है, और शिक्षा का कार्य-छात्र को उस वातावरण के अनुकूल बनाना, जिससे कि वह जीवित रह सके और अपनी मूल-प्रवण्त्तियों को सन्तुष्ट करने के लिये अधिक से अधिक सम्भव अवसर प्राप्त कर सके।’’

11. वातावरण का रूप परिवर्तन-

शिक्षा का एक प्रमुख कार्य व्यक्ति को वातावरण का रूप परिवर्तन करने या उसमें सुधार करने के योग्य बनाना है, यदि शिक्षा द्वारा व्यक्ति में अच्छी आदतों का निर्माण कर दिया जाये तो वह वातावरण में परिवर्तन कर सकता है। जॉन ड्यूवी ने लिखा है- ‘‘वातावरण से पूर्ण अनुकूलन करने का अर्थ है मृत्यु। आवश्यकता इस बात की है कि वातावरण पर नियंत्रण रखा जाये।’’

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