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आमेर के राजा मानसिंह की उपलब्धियाँ

आमेर के राजा मानसिंह की उपलब्धियाँ

इतिहासकार जेम्स टॉड के अनुसार, "भारतवर्ष के इतिहास में कछवाहा लोगों को शूरवीर नहीं माना जाता था। परन्तु राजा भगवानदासमानसिंह के समय कछवाहा लोगों ने अपने बल, पराक्रम व वैभव की प्रतिष्ठा की थी। मानसिंह बादशाह की अधीनता में था लेकिन उसके साथ काम करने वाली सेना, बादशाह की सेना से अधिक शक्तिशाली समझी जाती थी।"

सम्राट अकबर ने भारत में एकजातीयता स्थापित करने के लिए महान् प्रयत्न किए तथा मुसलमानों व कट्टर मुसलमानों की कुछ भी परवाह नहीं की। इस काम में हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करने का सबसे अधिक बोझ जिसके कन्धे पर था, वह मानसिंह थे, मानसिंह अपनी फूफी व बहिन को अकबर और जहाँगीर से ब्याह कर हिन्दुओं की ओर से पतित माने जाते थे। पतित कहना तब भी आसान था, पर मानसिंह को राजपूत बिरादरी पतित नहीं कर सकी। प्रताप ने मेवाड़ के लिए जो कुर्बानियाँ की, वह सदैव स्मरणीय रहेंगी, पर भारत में जो संस्कृतियाँ सदा के लिए एकत्रित हुई थी, जिसके कारण राष्ट्र दो विरोधी दलों में विभक्त हो गया था, उसका समन्वय करना जरूरी था। अकबर ने उसी को करने का भारी प्रयल किया, जिसके लिए उसे काफिर तक कहा गया। उसके इस कार्य में सहकारी थे, मानसिंह

मानसिंह का प्रारम्भिक जीवन-

कछवाहा राजा भारमल की मृत्यु पर उसका ज्येष्ठ-पुत्र राजा भगवन्तदास सन् 1573 ई. में आमेर की राजगद्दी पर बैठा। भगवन्तदास भी अपने पिता की भाँति अच्छा शासक और योग्य सेनानायक था। वह सात वर्ष तक (1852-89 ई.) पंजाब का सूबेदार भी रहा। अकबर के द्वारा वह पाँच हजारी मनसब से सम्मानित किया गया था। लाहौर में उसकी मृत्यु (1589 ई.) पर उसका लड़का मानसिंह आमेर का शासक बना। उसका जन्म सन् 1550 ई. में ग्राम मोजमाबाद में हुआ था।

कुँवर मानसिंह की मुगल सेवाएँ

प्रारम्भिक सेवाएँ-

कुँवर मानसिंह अपनी बारह वर्ष की अवस्था से ही अर्थात् 13 फरवरी, 1562 से मुगल सम्राटको सेवा में जीवन-पर्यन्त रहा अपने पिता भगवन्तदास के साथ सम्राट अकबर के हमराह में वह मुगल राजधानी आगरा पहुंचा तब से लगाकर सन् 1574 ई. तक वर अपने दादा राजा भारमल के शासनकाल में अकबर के दरबार में मुगल सेना में रहा। उसके बाद वह अपने पिता के शासनकाल में 1574-89 ई. तक कुँवर मानसिंह के रूप में सम्राट अकबर की जो सेवाएं की वह आज भी उल्लेखनीय एवं सराहनीय हैं।

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आमेर के राजा मानसिंह की उपलब्धियाँ

मानसिंह ने अकबर के साथ रहकर अपना सैनिक शिक्षण परिपक्व बना लिया। रणथम्भौर के सन् 1569 ई. के आक्रमण के समय मानसिंह और उसका पिता भगवन्तदास अकबर के साथ थे। वहाँ के शासक सुर्जन हाड़ा से सन्धि वार्ता में अकबर को जो सफलता मिली थी उसमें इन दोनों पिता-पुत्र का बहुत योगदान था। सन् 1572 ई. में गुजरात में होने वाली ईडर के विद्रोह का दमन मानसिंह ने सफलतापूर्वक किया था।

गुजरात अभियान के समय उसने कई मोचों पर अगली पंक्तियों में रहकर लड़ाई में वीरता का अच्छा परिचय दिया था। अकबरनामा के अनुसार सरनाल के युद्ध में वीरतापूर्वक लड़कर मानसिंह ने विशेष ख्याति अर्जित थी। गुजरात से लौटते समय अकबर के आदेशानुसार डूंगरपुर के शासक आसकरण को पराजित किया। यहाँ से मानसिंह उदयपुर गया और राणा प्रताप से भेंट की। राणा ने उसका समुचित आदर किया किन्तु मुगल खिलअत को स्वीकार करने में आनाकानी की।

बिहार में दाउदखाँ ने जब विद्रोह किया तो उसके दमन के लिए सम्राट अकबर के साथ मानसिंह भी गया था। इस तरह मानसिंह ने 24 वर्ष की अवस्था से पहले ही उपर्युक्त अभियानों में सक्रिय भाग लेकर योग्य सेनानायक का कार्य प्रस्तुत किया था। मानसिंह की योग्यता व वीरता से प्रभावित होकर अकबर ने लगभग सभी महत्त्वपूर्ण अभियानों में उसे अपने साथ ही रखा।

मेवाड़ अभियान और मानसिंह-

प्रथम बार मानसिंह को मुगल सेनापति बनाकर राणा प्रताप को परास्त करने भेजा था जो किसी भी तरह मुगलों की अधीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं था। गुजरात से लौटने पर सन् 1576 ई. में उसे 5000 घुड़सवार सेना सहित मेवाड़ विजय के लिए अकबर ने भेजा था। हल्दीघाटी के युद्ध में उसने राणा प्रताप जैसे वीर योद्धा को पराजित कर पहाड़ों की शरण लेने पर बाध्य कर दिया।

प्रताप के मुकाबले के लिए जो सेना भेजी गई थी, उसका मुख्य सेनापति नाम के लिए शहजादा सलीम था, नहीं तो वह कुँअर मानसिंह के अधीन था। राणा प्रताप के मुकाबले के लिए अपने 3000 घुड़सवारों के साथ हल्दीघाटी में तैयार थे, जहाँ से गोगुन्दा के दुर्ग का रास्ता जाता था। खमनेर घाटी के पास इस गाँव में जून, 1576 ई. को जो महान् संघर्ष हुआ, वह हमेशा स्मरण किया जायेगा।

मानसिंह उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर-

प्रताप पर विजय पा लेने के बाद अकबर यह समझ गया था कि मानसिंह एक उपयोगी सेनापति है अतः जब काबुल में मिर्जा हाकिम ने विद्रोह किया तो उन्हें दबाने के लिए अकबर ने मानसिंह और शहजादा मुराद को भेजा। मुराद और मानसिंह ने मिर्जा हाकिम को उत्तरी अफगानिस्तान तक पीछे धकेल दिया। सम्राट् ने मानसिंह को सेवाओं से प्रसन्न होकर उसे सिन्ध का प्रमुख अधिकारी बना दिया। 30 जुलाई, 1585 ई. में मिर्जा हाकिम की मृत्यु हो गई और उसके पुत्रों के नाबालिग होने से स्थानीय सरदारों ने काबुल पर अधिकार कर लिया तो इस स्थिति का लाभ उठाने के लिए मानसिंह को सेना सहित काबुल पर पढ़ाई करने का सम्राट् का आदेश मिला। आपसी फूट का लाभ उठाकर 15 दिसम्बर, 1585 ई. को उसने काबुल पर विजय प्राप्त कर ली और उसे मुगल साम्राज्य का अंग बना लिया। मानसिंह सन् 1581-87 तक सीमा प्रदेश में सूबेदार रहा।

अकबरनामा के अनुसार इस पद पर रहते हुए उसने काबुल की व्यवस्था अच्छे ढंग से की और समय-समय पर युसुफी अफगानों को सफलतापूर्वक दबाया भी। जब काबुल में मुगल सत्ता सफलतापूर्वक स्थायी रूप से स्थापित हो गई तो सम्राट अकबर ने कुँअर मानसिंह का मार्च, 1597 ई. में स्थानान्तरण बिहार सूबे में कर दिया।

बिहार का सूबेदार मानसिंह (1587-94 ई.)-

बिहार के जमींदार उपद्रव कर रहेह्य थे और मुगल सत्ता की अवहेलना कर रहे थे। मानसिंह को विद्रोहियों का दमन करने का अनुभव था। अत: अकबर ने सन् 1587 ई. में काबुल से मानसिंह का स्थानान्तरण बिहार कर दिया। उसने बिहार के जमींदारों का पूरी कठोरता से दमन कनरे की योजना बनाई। परन्तु उसे बिहार में आए 2 वर्ष भी पूरे नहीं हुए थे कि सन् 1589 ई. में उसके पिता राजा भगवन्तदास का देहान्त हो गया। वह आमेर पहुँचा और वहाँ औपचारिक रूप से उसका राज्याभिषेक हुआ। अकबर ने भी उसके लिए टीका भेजा और 5 हजारी पक्की कर उसे सम्मानित किया। आमेर से बिहार लौटते ही उसने विद्रोही राजाओं और जमींदारों, सरदारों और अफगानों का कठोरतापूर्वक दमन किया। उसने विधोर के राजा पूर्णमल को परास्त कर मुगल अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। इसी वर्ष मानसिंह ने खड़गपुर के राजा संग्रामसिंह को भी हराया।

उड़ीसा की विजय-

1550-83 ई. के मध्य अफगान लोग विद्रोह करने लगे थे और कतलूखाँ ने उड़ीसा पर अपना अधिकार जमा लिया था। सम्राट् के आदेशानुसार बिहार का सूबेदार रहते हुए मानसिंह ने कतलूखाँ और आगे चलकर उसके पुत्र नासिर खाँ पर आक्रमण कर दिया। जिसमें उसे पूर्ण सफलता मिली। सन् 1592 ई. में अफगानों ने आत्मसमर्पण कर दिया और उड़ीसा पर मुगल आधिपत्य हो गया। नासिरखाँ ने मुगल अधिकार स्वीकार कर 150 हाथी तथा अनेक मूल्यवान वस्तुएँ उपहारस्वरूप प्रस्तुत की थीं। राजा मानसिंह का शासनकाल बिहार के लिए बड़ा ही सुख और समृद्धि का समय रहा। उन्होंने वहाँ कितने ही गढ़ और दूसरी इमारतें बनवाई, अनेकानेक मन्दिरों को उसने भूमि दान दिया। इस सम्बन्ध में कुछ दान-पत्र भी मिलते है।

बंगाल का राज्यपाल राजा मानसिंह-

मानसिंह की उड़ीसा विजय से प्रसन्न होकर अकबर ने उसे सन् 1594 ई. में बंगाल का सूबेदार बना दिया। पूर्वी बंगाल में कुछ विद्रोही थे जो अकबर की अधीनता मानने को तैयार नहीं थे। उसने विद्रोही सरदारों, ईसाखाँ, सुलेमान और केदारराय का दमन किया। इसी तरह सन् 1596 ई. में उसने कूच बिहार के राजा लक्ष्मीनारायण के राज्य को मुगल सत्ता के प्रभाव क्षेत्र में शामिल कर लिया।

इस पर भी बंगाल के उपद्रव पूर्ण रूप से शान्त नहीं हुए। यहीं रहते हुए उसके दो पुत्र दुर्जनसिंह और हिम्मत सिंह युद्ध में मर चुके थे, जिससे उसका बंगाल से मन उचट गया। वह स्वयं भी सन् 1596 ई. में वहाँ बीमार हो गया। अतः सन् 1597 ई. में सम्राट अकबर ने उसे वापस राजस्थान बुला लिया और अजमेर सूबे का सूबेदार बनाकर सलीम के साथ अजमेर भेज दिया।

अन्तिम वर्ष-

अकबर जानता था कि मेरे शाही तख्त पर योग्य व्यक्ति बैठेगा तभी वह मेरी सफलताओं को आगे बढ़ा सकता है। शहजादा सलीम ने अपने को बिल्कुल अयोग्य साबित किया, इसी कारण अकबर की कभी-कभी इच्छा होती थी, कि बेटे की जगह पोते खुसरो को उत्तराधिकारी बनाए। खुसरो राजा मानसिंह का भानजा और राज्य के एक बहुत बड़े अमीर खाने आजम अजीज कोका का दामाद था। ये दोनों यदि खसरो को भारत का बादशाह देखना चाहते थे, तो कोई आश्चर्य नहीं।

सन् 1604 ई. में सम्राट् अकबर ने खसरो को दस हजारी और मानसिंह को साढे सात हजारी का मनसब देकर सम्मानित किया। अब तक पाँच हजारी से ऊपर का मनसब किसी अमीर सरदार को नहीं मिला था। मानसिंह पहले थे जो सात हजारी बने।

डॉ. आर. एन. प्रसाद के शब्दों में "मानसिंह अपनी शक्ति और यश की चरम सीमा पर पहुंच चुका था। सात हजारी का मनसब प्राप्त करके यह मुगल दरवार का अत्यन्त प्रभावशाली सरदार गया था। यह मुगल साम्राज्य का श्रेष्ठ सेनानायक था।" उन्हें बंगाल में उत्पन्न विद्रोह का दमन करने के लिए जाने का हुक्म हुआ। खुसरों को साथ ले मानसिंह बंगाल के लिए रवाना हुए। उनको अनुपस्थिति में 26 अक्टूबर, 1605 ई. को आगरा में अकबर का देहान्त हो गया। अकबर ने स्वयं मृत्यु-शय्या पर पड़े-पड़े सलीम को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया।

शाहजादा सलीम जहाँगीर के नाम से मुगल सिंहासन पर बैठा। उसके अपने ममेरे भाई ने राजा मानसिंह से शिकायत थी, लेकिन उसने उसका ख्याल नहीं किया और उन्हें अपनी तरफ से बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया। कुछ महीने बाद खुसरो बागी हो गया। लेकिन उसके कारण जहाँगीर ने मानसिंह पर गुस्सा उतारना उचित नहीं समझा। राजा मानसिंह भविष्यवक्ता के सामने सिर झुका चुके थे और जहाँगीर के शासन को उन्होंने दिल से मान लिया था तो भी खुसरो के सम्बन्ध के कारण जहाँगीर के मन से सन्देह दूर नहीं हुआ था।

मानसिंह साबित करना चाहते थे कि मैं अकबर की तरह ही उसके बेटे सलीम का भी वफादार हूँ। इसलिए बंगाल से लौटकर उन्होंने दक्षिण की मुहिम पर जाने के लिए आज्ञा ली। सन् 1612-13 में वह अपनी सेना लेकर दक्षिण में पहुँचे लेकिन सन् 1614 ई. में इलियाचपुर में उसका अचानक देहान्त हो गया। जहाँगीर ने मानसिंह के पुत्र भाऊसिंह को मिर्जा राजा की पदवी के साथ चार हजारी का मनसब प्रदान कर उसे आमेर की गद्दी पर बैठाया।

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