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अरब राष्ट्रवाद अथवा अरब लीग

बीसवीं सदी का विश्व

अरब राष्ट्रवाद अथवा अरब लीग (Arab league)

प्रथम विश्व युद्ध के उपरान्त से ही अरब में राष्ट्रीय भावना का विकास हो रहा था। तुर्की साम्राज्य के पतन के पश्चात् राष्ट्रीय नेताओं ने अरब राष्ट्र की स्थापना की। परन्तु महायुद्ध के पश्चात् उनकी आशाओं पर पानी फिर गया। उन्होंने मित्र राष्ट्रों का आश्वासन प्राप्त करने के पश्चात् ही तुर्क साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह किया, परन्तु प्रथम महायुद्ध के पश्चात् मित्र राष्ट्रों ने उनके साथ विश्वासघात किया तथा अपनी स्वार्थपूर्ति के लिये मैन्डेट प्रणाली के अधीन राष्ट्र संघ की सहमति से विभिन्न क्षेत्रों में अपने प्रभाव क्षेत्र स्थापित किये। दोनों महायुद्धों के मध्य मित्र राष्ट्रों ने अरब राष्ट्रीय आन्दोलन का दमन अपने निजी स्वार्थ के लिये किया; परन्तु फिर भी एक वृहत्तर अरब राज्य की स्थापना की भावना अरबों में निरन्तर बढ़ती गई।

सन् 1922-26 ई. में इब्न-सऊद ने विशाल राष्ट्र "सऊदी अरब" का निर्माण किया। इब्न-सऊद अरब एकता का कट्टर समर्थक था। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिये उसने मक्का में सन् 1926 में एक पाक-इस्लामी कांफ्रेन्स भी बुलाई थी। यह कान्फ्रेंस कोई महत्त्वपूर्ण निर्णय तो नहीं ले सकी, परन्तु इसका प्रभाव अवश्य अच्छा पड़ा तथा अरब में राष्ट्रीय जागरण हुआ। इब्न-सऊद अपने नेतृत्व में संगठित अरब राष्ट्रों के एक संघ की निर्माण करने की भी सोच रहा था। यही कारण था कि उसने अपने निकटवर्ती राष्ट्रों से मित्रतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित किये। सन् 1930 में उसने सुल्तान फैजल के साथ मित्रतापूर्ण सन्धि की तथा सन् 1932 में ट्रान्स जोर्डन के शासक अमीर अब्दुल के साथ सन्धि की। तत्पश्चात् उसने सन् 1934 में यमन के शासक इमाम याहिया के साथ सन्धि की। इन सन्धियों का मुख्य उद्देश्य यह था कि यदि किसी भी अरब राज्य पर विदेशी आक्रमण हो तो समस्त अरब राष्ट्र संगठित रूप से उसका मुकाबला करें। इस प्रकार से इब्न-सऊद ने अरब संघ का निर्माण किया। परन्तु वह अपने उद्देश्य में अधिक सफलता प्राप्त नहीं कर सका। उसकी असफलता का मुख्य कारण यह था कि सभी अरब राज्य अपनी स्वतन्त्रता को किसी भी प्रकार की जोखिम में नहीं डालना चाहते थे। अन्य व्यक्तियों ने भी अरब एकता के लिये योजनाएँ बनाई, परन्तु वे भी इब्न-सऊदी की योजना के समान सफल नहीं हो सकी।

अरब लीग की स्थापना-

मित्र राष्ट्रों को द्वितीय महायुद्ध 1939-45 के समय पुन: अरब राष्ट्रों की सद्भावना की आवश्यकता प्रतीत हुई। दूसरी ओर जर्मनी भी इस समय अरब राष्ट्रों की सहायता प्राप्त करने का प्रयास कर रहा था। अत: सन् 1941 ई. में ब्रिटिश विदेश मन्त्री एन्थोनी इडन ने घोषित किया कि, "अरब राष्ट्रों ने पिछले महायुद्ध की समाप्ति के पश्चात् पर्याप्त उन्नति की है। अनेक राष्ट्रीय विचारकों ने अरब एकता की आकांक्षा प्रकट की है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये ब्रिटिश समर्थन के इच्छुक हैं। हम अपने मित्रों की प्रार्थना का स्वागत करते हैं। विभिन्न अरब राष्ट्रों के मध्य सुदृढ़ आर्थिक एवं सांस्कृतिक सम्बन्ध होना स्वाभाविक तथा न्यायोचित ही है। ब्रिटिश सरकार ऐसे क्रियात्मक सुझाव का समर्थन करेगी, जो समस्त अरब राष्ट्रों को स्वीकार्य हो।"

समस्त अरब राष्ट्रों ने इस घोषणा का स्वागत किया। ईराक के प्रधानमन्त्री नूरी-अल-सईद ने तुरन्त सीरिया, लेबनान, ट्रांस जोर्डन तथा प्रदेशों को स्वायत्त शासक के अधिकार प्रदान किये। इस दोहरी शासन प्रणाली के समान तटकर, विदेशी सम्बन्ध मुद्रा तथा सुरक्षा हो। परन्तु द्वितीय विश्व युद्ध के कारण इस योजना को क्रियान्वित नहीं किया जा सका। परन्तु अरब संगठन का कार्य तेजी से होने लगा। सन् 1942 ई. में मिस्र के प्रधानमन्त्री नहस पाशा ने कहा,"अरब राष्ट्र उत्सुकता से लोकतान्त्रिक सिद्धान्त के विजय होने की प्रतीक्षा करते हैं। उस दिन मिस्र के नेतृत्व में अरव जगत के राष्ट्र तथा पूर्वी देशों की जनता एक संगठन का निर्माण करेंगे। इससे उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय जगत में सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त होगा। ईरान के प्रधानमन्त्री नूरी-अल-सईद ने घोषित किया कि, "अरब एकता हमारी प्रथम आकांक्षा है। मुझे ज्ञात नहीं कि यह कब और किस दिन पूरी होगी। परन्तु मुझे यह दृढ़ विश्वास है कि हम इसके लिये अपनी सम्पूर्ण शक्ति का प्रयोग करेंगे।

सन् 1943 ई. से जर्मन शक्ति कमजोर पड़ने लगी। 30 मार्च, 1943 को नहरा पाशा ने घोषणा की कि, "अरब एकता के प्रश्न पर विचार करने के उद्देश्य से शीघ्र ही मिस्र में अरब राष्ट्रों का एक सम्मेलन बुलायेंगे। अरब जगत में इस घोषणा पर मिश्रित प्रतिक्रिया हुई।" ट्रांस जोर्डन के शासक अमीर अब्दुल्ला ने घोषित किया कि, "अरब एकता की दिशा में प्रथम चरण पूरा करने के लिए अमीर अब्दुल्ला के अधीन वृहत्तर सीरिया का निर्माण आवश्यक है।" अमीर फैजल ने घोषित किया कि अरब एकता कुरान के सिद्धान्तों के पालन से हो सकती है। फैजल को इस घोषणा से अरब एकता के नेता दुविधा में पड़ गए। उनको भय हुआ कि यदि इस्लाम के सिद्धान्तों की बात कही जावेगी तो उनको लेबनान में ईसाई तथा पैलेस्टाइन में यहूदियों का समर्थन नहीं मिलेगा। फिर इस प्रकार के वातावरण में भी सम्मेलन की रूपरेखा तैयार की जाती रही। 24 मार्च, 1944 ई. को नहश पाशा की अध्यक्षता में सऊदी अरब तथा यमन सम्मिलित नहीं हुए। परन्तु बाद में काहिरा में होने वाले सम्मेलन में दोनों राष्ट्र भी पहुँच गये। यहूदी राष्ट्रवाद के उग्ररूप धारण करने के कारण अरबों में राष्ट्रीय भावना की वृद्धि हो रही थी। काहिरा सम्मेलन सफल हुआ तथा 7 अक्टूबर, 1944 ई. को सीरिया, लेबनान, ट्रांस जोर्डन, ईरान तथा मिस ने एक प्रपत्र पर हस्ताक्षर किये, जिसमें लीग की स्थापना का विचार स्पष्ट किया गया।

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अरब राष्ट्रवाद


अरब लीग के कार्यक्रम-

सन् 1944 ई. के प्रपत्र के अनुसार वे सब राष्ट्र जो इसके इच्छुक थे, अरब लीग में सम्मिलित हो सकते थे। इस प्रपत्र में अरब लीग का कार्यक्रम इस प्रकार निर्धारित किया गया।

(1) लीग के भावी निर्णयों को स्वीकार करना राष्ट्राध्यक्षों की इच्छा पर निर्भर होने पर कोई भी सदस्य राष्ट्र इस प्रकार की विदेशी नीति का अनुकरण नहीं करेगा, जो लोग के निर्णयों के विरुद्ध हो।

(2) लीग सदस्य राष्ट्रों के बीच पारस्परिक संघर्ष को शान्ति पूर्ण उपायों द्वारा सुलझाने का प्रयास करेगी।

(3) लीग पारस्परिक सहयोग, सद्भावना तथा शान्ति के वातावरण की स्थापना को प्रमुखता प्रदान करेगी।

(4) अरब राष्ट्रों की आर्थिक उन्नति, यातायात, परिपत्र, सांस्कृतिक सम्बन्ध, जन स्वास्थ्य आदि के विषय में बातें करेगी तथा इस सम्बन्ध में समितियों की स्थापना करेगी।

(5) लेबनान की स्वाधीनता का सभी राष्ट्र सम्मान करेंगे।

(6) लीग की कार्यकारिणी का कार्य क्षेत्र निम्न प्रकार होगा-

(अ) विभिन्न समयों पर लीग की बैठकों का आयोजन करना।

(ब) राष्ट्रों के मध्य संदिग्ध दायित्वों की देखभाल करना।

(स) पारस्परिक विवादों को सुलझाने के लिये शान्तिपूर्ण उपायों को सोचना।

(द) विभिन्न राष्ट्रों की राजनीतिक नीतियों में एकरूपता लाने का प्रयास करना।

(7) पैलेस्टाइन के सम्बन्ध में लीग की नीति, अरब पैलेस्टाइन का समर्थन करना।

ईराक, मिस्र, लेबनान, सीरिया, सऊदी अरब तथा ट्रांस जोर्डन के शासकों ने लीग की इस नियमावली पर विचार करके मार्च, 1944 ई. में इस नियमावली पर हस्ताक्षर करके अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। इसके साथ ही लीग की स्थापना की विधिवत घोषणा की गई। दमन के इमाम के पास भी इस प्रकार विचार करने के उद्देश्य से इसकी एक प्रतिलिपि भेजी गई। इसमें उसे लीग में सम्मिलित होने की प्रार्थना की गई थी।

अरबलीग के उद्देश्य (Objectives of Arab league)-

स्वतन्त्र अरब लीग के नियमों के अनुसार इसके सदस्य हो सकते हैं। लीग के उद्देश्य निम्नलिखित थे-

(i) विभिन्न अरब राष्ट्रों के मध्य पारस्परिक सद्भावना व मैत्री भाव उत्पन्न करना।

(ii) राजनीतिक सम्बन्धों में एकरूपता लाने का प्रयास करना।

(iii) स्वाधीन राष्ट्रों की स्वतन्त्रता का आदर करना तथा उनकी सुरक्षा की रक्षा करना।

(iv) अरब राष्ट्रों के हितों की रक्षा करना।

इसके अतिरिक्त लीग के सदस्य राष्ट्रों के कुछ दायित्व भी निर्धारित किये गये। वे इस प्रकार थे-

(1) पारस्परिक विवादों को सुलझाने के लिये सदस्य राष्ट्र शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे।

(2) किसी राष्ट्र के आक्रामक सिद्ध होने की दशा में लीग संयुक्त रूप से उसके विरुद्ध कार्यवाही करेगी।

(3) स्वाधीनता, सार्वभौम सत्ता तथा भूमिगत अखण्डता के अतिरिक्त सदस्य राष्ट्रों के मध्य किसी प्रकार का विवाद लीग के निर्णय के लिये प्रस्तुत किया जावेगा।

(4) समस्त राष्ट्र लीग के सर्वसम्मत निर्णय को अवश्य स्वीकार करेंगे।

(5) लीग के सदस्य राष्ट्रों से सन्धि करने के लिये स्वतन्त्र रहेंगे।

(6) प्रत्येक राष्ट्र अपने पड़ौसी राष्ट्र के संविधान का सम्मान करेंगे।

सैनिक समझौतों की शर्ते (Conditions for military pacts)

(1) अरब लीग का कोई भी सदस्य राष्ट्र यहूदी पैलेस्टाइन के साथ किसी भी प्रकार का आर्थिक अथवा राजनीतिक समझौता नहीं करेगा। किसी राष्ट्र द्वारा उसका उल्लंघन करने की दिशा में उसे लीग की सदस्यता से वंचित कर दिया जावेगा तथा इस राष्ट्र के विरुद्ध जो भी कार्यवाही की जावेगी, उसे लीग के सदस्य सर्वसम्मति से निर्धारित करेंगे।

(2) अरब राष्ट्रों के समुद्र तट पर इजराइल से आने तथा जाने वाले किसी भी जहाज को किसी भी प्रकार की सुविधा प्रदान नहीं की जावेगी।

(3) किसी भी सदस्य राष्ट्र पर आक्रमण की अवस्था में उसे समस्त अरब राष्ट्रों पर आक्रमण समझा जायेगा। सभी राष्ट्र संगठित तथा संयुक्त रूप से इसका सामना करेंगे तथा अपनी सामर्थ्य के अनुसार सहयोग करेंगे।

(4) अरब राष्ट्र के विदेश तथा सुरक्षा मन्त्रियों की एक स्थायी सुरक्षा नीति का पालन करेगी तथा राष्ट्रों को इसके बहुमत के निर्णय को मानना पड़ेगा।

(5) एक स्थायी समिति का गठन किया जावेगा, जिसके सदस्य, सदस्य राष्ट्रों के सेनाध्यक्ष होंगे तथा यह समिति सुरक्षा के लिये रक्षा योजनाएँ बनायेंगी।

(6) एक अर्थ समिति की स्थापना की व्यवस्था की जावेगी तथा इसके सदस्य विभित्र राष्ट्रों के वित्तमन्त्री होंगे तथा यह आर्थिक दायित्वों पर विचार करेगी।

(7) आर्थिक सहयोग स्थापित करने के उद्देश्य से अरब केन्द्रीय बैंक की स्थापना की जावेगी। यह बैंक अरब प्रायद्वीप के खनिज पदार्थों में आर्थिक सहायता प्रदान करेगी।

काहिरा सम्मेलन की सफलता के परिणामस्वरूप अरब लीग की स्थापना हुई। इजरायल की स्थापना के पश्चात् उसमें एक सैनिक संगठन भी स्थापित हुआ। अरब राज्यों के मध्य तीव्र मतभेद उत्पत्र हो जाने के कारण लीग तथा सैनिक संगठन अधिक समय तक नहीं चल सके तथा संयुक्त अरब राज्य की कल्पना ही रह गई।

अरब-इजरायल संघर्ष : प्रमुख कारण और मुद्दे

मध्यपूर्व में यहूदियों एवं अरबों के संघर्ष को स्थायी बनाये रखने के कई कारण और विवादास्पद मुद्दे हैं:

1. सीमा-विवाद-

अरब-इजरायल संघर्ष का कारण सीमा-विवाद है। इजरायल उत्तर में लेबनान, पूरब में सीरिया और जोर्डन तथा दक्षिण-पश्चिम में मिस्र के अरब राज्यों से घिरा हुआ है। अरब राज्य इजरायल के प्रबल विरोधी हैं और इनके साथ उसके सीमा-विवादों के कारण प्राय: अशान्ति बनी रहती है। यद्यपि वे राज्य अब यह समझने लगे हैं कि इजरायल का समूलोन्मूलन नहीं हो सकता, फिर भी वे उसके पास 1947 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्वीकृत विभाजन में निर्धारित प्रदेश को ही रहने देना चाहते हैं, किन्तु इजरायल के पास इस समय उससे अधिक प्रदेश है, अरब देश इसे वापस लेना चाहते हैं। इस कारण पड़ोसी अरब राज्यों से इजरायल के प्रायः झगड़े होते रहते हैं।

2. शरणार्थियों की समस्या-

इस समय पेलेस्टाइन से निकाले गये दस लाख से अधिक अरब शरणार्थी के रूप में पड़ोसी राज्यों में अत्यन्त दयनीय असह्य कष्ट भोग रहे हैं और इजरायल तथा अरब राज्यों में तनातनी का कारण बने हुए हैं। इन्हें न तो इजरायल वापस लेना चाहता है और न ही अरब राज्य इन्हें अपने राज्यों में बसाने के इच्छुक हैं।

जिस तर्क से यहूदियों के लिए पृथक्रराज्य की आवश्यकता थी, आज वही तर्क फिलिस्तीनियों के पक्ष में है। फिलिस्तीनियों को भी एक सम्प्रभुतासम्पन्न राज्य की आवश्यकता है। पिछले 49 वर्षों में सोवियत संघ, अमरीका, इजरायल व अरब देशों ने जितना खर्च युद्ध पर किया, उसका दसवाँ हिस्सा भी यदि इन शरणार्थी फिलिस्तीनियों को कहीं स्थायी रूप से बसाने में खर्च होता तो यह समस्या न के समान हो जाती और मानवता का बड़ा उपकार होता।

3. जोर्डन नदी के पानी का विवाद-

जोर्डन नदी केवल 150 मील लम्बी है फिर भी इजरायल तथा अरब राष्ट्रों के बीच में तीव्र कलह का कारण बनी हुई है, क्योंकि यह सीरिया, लेबनान, इजरायल तथा जोर्डन के चार राज्यों में से होकर गुजरती है। इसके पानी के उपयोग के बारे में झगड़ा बढ़ जाने पर एरिक जानस्टन की योजना के अनुसार यह तय किया गया कि इसके जल का 67 प्रतिशत भाग अरब राष्ट्र तथा 33 प्रतिशत भाग इजरायल अपने उपयोग करने में लायें। इजरायल ने जल का उपयोग करने के लिए योजना आरम्भ कर दी। इसमें अरब राष्ट्रों को यह भय हुआ कि इजरायल नगेव के मरुस्थल को हरा-भरा बनाकर अपने को समृद्ध बना लेगा। इजरायल जोर्डन नदी के अधिकांश जल को अपनी ओर ले जाने को प्रयत्नशील है, फलस्वरूप यह एक प्रधान समस्या हो गयी।

4. इजरायल की मान्यता का सवाल-

अरब राज्य फिलिस्तीन में यहूदी राज्य की स्थापना को स्वीकार नहीं करते। वे इजरायल राज्य को मान्यता नहीं देते। इजरायल के जन्मकाल से ही अरब राष्ट्र उसके अस्तित्व को मिटाने का प्रयास कर रहे हैं। जब तक इजरायल को मान्यता एवं सुरक्षा न मिल जाता तब तक इस समस् का कोई समाधान नहीं निकल सकता।

5. अधिकृत अरब क्षेत्रों को खाली करना-

इजरायल ने विभिन्न युद्धों में कई अरब क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था जैसे पश्चिम में गाजापट्टी एवं सिनाय, पूरब में पश्चिम किनारा (जोर्डन नदी का तट), उत्तर में गोलन पहाड़ियाँ, येरूशलम का अरब हिस्सा, लेबनान का दक्षिणी क्षेत्र, आदि। मिस्र तथा अन्य सभी अरब राष्ट्र इजरायल द्वारा अधिकृत किये गये सभी को वापस लेना चाहते हैं। दूसरी तरफ इजरायल इन क्षेत्रों को हड़पने की इच्छा रखता है। येरूशलम को उसने अपनी राजधानी बना लिया तथा गोलन पहाड़ी क्षेत्र को उसने अभी हाल ही में अपने देश में शामिल कर लिया। इजरायल की धारणा है कि इन पहाड़ियों से अरब सेनाएँ गोलीबारी करती हैं, अत: इनकी वापसी का प्रश्न ही नहीं उठता।

6. फिलिस्तीनियों को आत्म-निर्णय का मुद्दा-

फिलिस्तीनी शरणार्थी लम्बे समय से आत्म-निर्णय के अधिकार की माँग कर रहे हैं। मिस्र तथा अन्य अरब राज्य इजरायल के अस्तित्व को मान्यता देने के लिए तैयार हैं, परन्तु वे जोर्डन नदी के तट (पश्चिम किनारा) और गाजापट्टी को मिलाकर स्वाधीन फिलिस्तीन राज्य का निर्माण करना चाहते हैं, परन्तु इजरायल न तो स्वाधीन फिलिस्तीन राज्य के निर्माण का इच्छुक है और न ही वह फिलिस्तीनियों को आत्म-निर्णय के अधिकार देने के पक्ष में है। इजरायल गाजापट्टी तथा जोर्डन नदी के तट पर अपनी प्रभुता बनाये रखना चाहता है।

7. इजरायली बस्तियों को हटाने की समस्या-

इजरायल द्वारा अधिकृत अरब क्षेत्रों में इस समय अनेक यहूदी बस्तियाँ हैं। ये बस्तियाँ गाजापट्टी में रफिया नामक क्षेत्र में, शर्म-अल- शेख के मार्ग पर, जोर्डन नदी की घाटी में, इज्जियोन खण्ड में येरूशलम के पास तथा गोलन पहाड़ियों पर स्थित हैं। ये बस्तियाँ अन्तर्राष्ट्रीय कानून के प्रतिकूल हैं। यहूदी बस्तियों को बसाकर इजरायल वास्तविकता' के तर्क को जन्म देना चाहता है। इन अधिकृत क्षेत्रों में अरबों की स्थिति दयनीय है, अपनी ही धरती पर वे परदेशी की तरह जीवन बिता रहे हैं।

अरब-इजरायल विवाद का विश्व राजनीति पर प्रभाव

अरब इजरायल विवाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा प्रभाव डाले हुए हैं :

(1) अरब-इजरायल तनाव के कारण ही मध्यपूर्व के भूमध्यसागरीय क्षेत्र में महाशक्तियाँ अपनी नौसैनिक शक्ति के विस्तार के लिए प्रतिस्पर्धा करती रही हैं।

(2) अरब-इजरायल तनाव से विश्व के अन्य देशों की विदेश नीतियाँ भी प्रभावित हैं; उदाहरणार्थ, भारत चाहते हुए भी इजरायल को लम्बे समय तक राजनयिक मान्यता नहीं दे पाया।

(3) मध्यपूर्व के संकट से शीत-युद्ध में उग्रता आती रही।

(4) तेल-कूटनीति ने समूचे विश्व को प्रभावित किया और विश्व आर्थिक संकट का प्रमुख कारण यही है।

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