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भारतीय राष्ट्रवाद

बीसवीं सदी का विश्व

भारत में राष्ट्रीयता की जागृति

राष्ट्रीयता की जागृति से तात्पर्य, नागरिकों में राष्ट्र-प्रेम की भावना तथा राष्ट्र की सार्वभौमिक स्वतन्त्रता तथा उन्नति के पथ पर विकास के लिये त्याग, प्रेम व समर्पण की भावना के विकास से है। जब देश के नागरिकों में अपने राष्ट्र के प्रति चेतना अथवा प्रेम उत्पन्न हो जाता है तथा जब वे राष्ट्र की राजनीतिक एकता और स्वतन्त्रता के विषय में चैतन्य हो जाते हैं, तब हम उन्हें राष्ट्रीय जागरण की स्थिति में पाते हैं। राष्ट्रीय जागरण में मूल शब्द 'राष्ट्र' है। राष्ट्र से तात्पर्य भावनात्मक एकता से आबद्ध एक समूह है। इस भावनात्मक एकता का आधार धर्म, जाति, भौगोलिक परिस्थितियाँ, भाषा तथा सामान्य आपदायें हो सकती हैं। भारतीयों में जब राष्ट्र के नाम पर एकता का संचार हुआ तो राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न हुई।

गार्नर के शब्दों में, "एक राष्ट्र सांस्कृतिक समानता का एक सामाजिक समूह है, जो अपने मानसिक जीवन और अभिव्यक्ति की एकता के विषय में पूर्ण एवं दृढ़ निश्चयी हो।" प्रो.ई.एच. कार ने राष्ट्रीयता की निम्नलिखित विशेषताओं की चर्चा की है-

(1) समान सरकार की भावना चाहे वह वर्तमान में स्थित हो अथवा भविष्य के प्रति आकांक्षा रखते हों।

(2) सभी सदस्यों में घनिष्ठ सम्बन्ध व सामीप्य हो।

(3) न्यूनाधिक रूप से निश्चित भू-भाग हो।

(4) उसमें भाषा की एकता हो।

(5) सभी सदस्यों के सामान्य हित एक हों।

राष्ट्रीयता की भावना का जन्म (Birth of Nationalism)

जब जाति, भाषा, धर्म, भूगोल, इतिहास, सरकार या आकांक्षाओं के बन्धन में संगठित जनता भावनात्मक एकता अनुभव करती है, उस समय राष्ट्रीय भावना का जन्म होता है। जब राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर जनता राजनीतिक एकता व स्वतन्त्रता के लिये संघर्ष करती है, तब राष्ट्रीय जागृति की उत्पत्ति होती है। भारत में 19वीं शताब्दी राष्ट्रीय जागृति का युग कहलाता है जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय जागृति का सूत्रपात हुआ, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य की दासता से भारत को मुक्त कराना था।

प्रो. विपिन चन्द्र के शब्दों में, "ब्रिटिश प्रशासन व उसके प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष परिणामों ने, भारत को भौतिक, नैतिक एवं बौद्धिक दशाएँ प्रदान की, जिन्होंने भारत में राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रीय आन्दोलन को जन्म दिया।"

भारत में राष्ट्रीय जागृति की पृष्ठभूमि

औद्योगिक एवं राजनीतिक क्रान्तियों के कारण, यूरोप में जिस आधुनिक युग का सूत्रपात हुआ, भारत भी उसके प्रभाव से अछूता नहीं रह सका। ब्रिटिश शासन की स्थापना से, राजनीतिक एकता, व्यावसायिक तथा राष्ट्रीयता उन्नति, अंग्रेजी भाषा के प्रभाव से आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का प्रभाव, राजनीतिक विचार तथा सम्पर्क भाषा और विदेशी शासन के विरुद्ध पूरे राष्ट्र में एकता की लहर दौड़ गई थी।

महत्त्वपूर्ण राजनीतिक आन्दोलन- 1857 का प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम' एक महान् राष्ट्रीय घटना थी। असफलता के उपरान्त, इससे तेजी से राष्ट्रीयता की भावना में वृद्धि हुई। डॉ. रघुवंश के अनुसार, "यह एक पुनरुत्थानवादी आन्दोलन था, जिसने भारत की प्राचीन संस्कृति के पुनरुत्थान में महत्त्वपूर्ण योग दिया। इसी राष्ट्रीय जागरण के परिणामस्वरूप ही 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई, जिसने आगे चलकर राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व किया।"

धार्मिक आन्दोलन- भारतीय राष्ट्रीय जागरण का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व भारत में धार्मिक आन्दोलन भी है। डॉ. जकारिया का कथन है, "भारत की पुनर्जागृति मुख्यतया आध्यात्मिक थी। एक राष्ट्रीय आन्दोलन का रूप धारण करने से पूर्व इसने अनेक धार्मिक तथा सामाजिक सुधारों का सूत्रपात किया।" इसी के कारण राष्ट्रीय जागरण का प्रादुर्भाव हुआ।

राष्ट्रीय जागृति के कारण (Factors of National Awakening)

भारत में राष्ट्रीय जागृति के कई कारण थे। लम्बे समय से कुछ ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई थीं जिन्होंने राष्ट्रीय जागृति का सूत्रपात किया। इस जागृति के महत्त्वपूर्ण कारण निम्नलिखित हैं-

1. 1857 का स्वतन्त्रता संग्राम-

1857 का विद्रोह एक जन-विद्रोह था तथा साथ ही यह भारतीय स्वतन्त्रता का प्रथम संग्राम था। ब्रिटिश सरकार ने इसे गदर की संज्ञा प्रदान का, परन्तु वास्तव में यह भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम था। इस संग्राम में हिन्दू तथा मुसलमानों ने कम से कन्धा मिलाकर सहयोग दिया। 1857 का विद्रोह सैनिक क्रान्ति से भी कहीं अधिक था। भारत में इतनी तीव्र गति से फैला कि इसने जन-विद्रोह तथा भारतीय स्वतन्त्रता के युद्ध का रूप धारण कर लिया। यह कथन बिल्कुल सत्य है। यह विद्रोह कुछ कारणों से असफल रहा। ब्रिटिश शासन के विद्रोह को दबाने के लिये अमानुषीय तरीके अपनाए, जिससे विद्रोह और अधिक तेज हो गया। चारों तरफ असन्तोष फैल गया तथा नागरिकों के मन में अंग्रेजों के प्रति विद्वेष को भावना अधिक बढ़ी।

थामसन के शब्दों में, "विद्रोह के बाद भारतीयों में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की भावना बहुत गहरी हो गई थी, परन्तु यह कथन सत्य है कि इस विद्रोह के बाद भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना प्रज्वलित हो गई।"

2. धार्मिक तथा सामाजिक पुनर्जागरण-

प्रायः विश्व के अधिकांश देशों में राष्ट्रीय जागरण के पीछे धार्मिक कारणों का हाथ रहा है। भारत में भी 19वीं शताब्दी में धार्मिक और सामाजिक सुधार की लहर दौड़ गई थी। इन धार्मिक व सामाजिक सुधारों के फलस्वरूप ही भारत में पुनर्जागृति हुई। डॉ. जकारिया के शब्दों में, "भारत की पुनर्जागृति मुख्यत: आध्यात्मिक ची तथा एक राष्ट्रीय आन्दोलन का रूप धारण करने से पूर्व इसने अनेक सामाजिक तथा धार्मिक आन्दोलनों का रूप धारण किया।" ब्रह्म समाज, आर्य समाज, थियोसोफीकल सोसाइटी, रामकृष्ण मिशन आदि अनेक धार्मिक सुधार आन्दोलनों ने प्राचीन भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता का वास्तविक ज्ञान कराया तथा अनेक धार्मिक तथा सामाजिक कुप्रथाओं के विरुद्ध संघर्ष शुरू कर दिया था।

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भारतीय राष्ट्रवाद


भारत में सुधारवादी आन्दोलन तो 14वीं शताब्दी से ही प्रारम्भ हो गया था, परन्तु इसे विशेष सफलता नहीं मिली थी। देश की राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियाँ बिगड़ रही थीं। 18वीं शताब्दी के आते-आते समाज में धार्मिक ज्ञान नहीं के बराबर रह गया। ईसाई धर्म तथा मुस्लिम धर्म की चक्की में पिसते-पिसते, हिन्दू धर्म का ह्रास भी चरम सीमा पर पहुँच गया था। इसलिये भारतीय इतिहास में इस युग को 'अन्धकार का काल' हा जाता है। इस अन्धकार युग को प्रकाशमान बनाने के लिए, भारत में नई चेतना का स्फुरण करने के लिए, 19 शताब्दी आई, जो जागरण (Renaissance) का काल कहलाती है। राजा राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन, स्वामी दयानन्द सरस्वती, महादेव गोविन्द रानाडे, स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस, श्रीमती एनी बीसेन्ट आदि महान् विभूतियों ने अपने विचारों तथा कार्यों से, भारत में राष्ट्रीय चेतना का मन्त्र फूंका। श्रीमती एनी बीसेन्ट ने कहा था कि, "स्वामी दयानन्द प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने कहा था भारत भारतीयों के लिये ही है। स्वामी दयानन्द सरस्वती महान् देश-भक्त थे। विदेशी शासन से उन्हें द्वेष था। इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा था कि, "विदेशी राज्य चाहे वह कितना ही अच्छा क्यों न हो, स्वदेशी राज्य से चाहे उसमें कितनी ही बुराइयाँ क्यों न हो, विदेशी राज्य से सदा ही अच्छा होता है।" उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज ने देश-भक्ति की भावना विकसित करने में महान् योगदान दिया है।"

डॉ. वी.पी. वर्मा के अनुसार, "आर्य समाज यद्यपि राजनैतिक संगठन नहीं था, परन्तु इसने देश-भक्ति के अगणित अंकुर पैदा किये।" उपर्युक्त आन्दोलनों का रूप धार्मिक था, परन्तु इन्होंने राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की तथा भारतीयों को एकता के सूत्र में आबद्ध किया। इन धार्मिक सुधार आन्दोलनों ने, भारतीयों को यह ज्ञान कराया कि उनको सभ्यता व संस्कृति, अन्य धर्मों की सभ्यता व संस्कृति से श्रेष्ठ है। भारतीयों के मन में हीनता की भावना दूर कर उनमें आत्मविश्वास की भावना को जागृत किया। इन धार्मिक सुधार आन्दोलनों ने स्वतन्त्रता संग्राम के लिये भूमिका तैयार की। मुसलमानों में जन-जागृति उत्पन्न करने का कार्य बहावी आन्दोलन ने किया। इस आन्दोलन ने मुसलमानों में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए लोगों का ध्यान आकर्षित किया।

3. राजनीतिक एकता-

ब्रिटिश शासन की स्थापना से दो हजार वर्ष पूर्व भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था। तने लम्बे काल में सम्पूर्ण देश एक राजनीतिक सूत्र में कभी नहीं बँधा । केवल महान् मुगल सम्राटों के अधीन, इसका अधिकांश भू-भाग एक शासन के अन्तर्गत आ सका। मुगल साम्राज्य के पतन के बाद देश अनेक छोटे-छोटे देशी राज्यों में विभक्त हो गया। इसी बीच भारतीय क्षितिज पर अंग्रेजों का उदय हो गया। 1757 में प्लासी के युद्ध के फलस्वरूप, बंगाल जैसे बड़े प्रदेश पर अंग्रेजों का राज्य हो गया। क्लाइव द्वारा की गई साम्राज्यवादी नीतियों का अनुकरण लार्ड डलहौजी ने किया। इसके परिणामस्वरूप एक कोने से दूसरे कोने तक अंग्रेजी पताका फहराने लगी। भारत के विभिन्न भाषा-भाषी क्षेत्र तथा धर्मावलम्बी पहली बार अंग्रेजी शासन के अधीन एकता के सूत्र में बँधे । सम्पूर्ण ब्रिटिश शासन में एक रूप प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना हुई। इस प्रकार सम्पूर्ण देश एक राजनीतिक व प्रशासनिक सूत्र में बँध गया। भारतीय लेखक पूनिया के शब्दों में, "हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण भारत एक सरकार के अधीन आ गया। इससे भारत में राजनीतिक एकता की भावना का जन्म हुआ। ब्रिटिश शासन के कारण, समस्त देश में एक ही प्रकार की शासन व्यवस्था कायम हुई।"

राजनीतिक एकता की भावना भविष्य में राष्ट्रीय आन्दोलन की नींव बन गई। यद्यपि ब्रिटिश शासक भारत में राजनीतिक एकता नहीं चाहते थे तथापि देश में राजनीतिक एकता की भावना बनती जा रही थी। राजनीतिक एकता की भावना के साथ देश में नागरिकों के मन में देश-भक्ति की भावना जागृत होने लगी। इस सम्बन्ध में पण्डित जवाहरलाल नेहरू का मत है कि, "ब्रिटिश शासन द्वारा स्थापित राजनीतिक एकता, सामान्य अधीनता की एकता थी, परन्तु उसने सामान्य राष्ट्रीयता की एकता को जन्म दिया।"

4. पाश्चात्य शिक्षा एवं विचारों का प्रभाव-

सन् 1835 में मैकाले के स्मृति-पत्र द्वारा, भारत में पाश्चात्य शिक्षा व अंग्रेजी माध्यम को अपना लिया गया था। भले ही मैकाले का उद्देश्य, इससे सस्ती दरों पर, ब्रिटिश भाषा व प्रणाली में प्रशिक्षित क्लर्क प्राप्त करना रहा हो, परन्तु नव- शिक्षित युवा वर्ग ने पाश्चात्य उदारवादी विचारधारा, राजनीतिक सिद्धान्त, ज्ञान-विज्ञान, स्वतन्त्रता, स्वशासन आदि तत्त्वों का गहन अध्ययन कर, ब्रिटिश साम्राज्यवादी मनोवृत्ति, भारतीयों की हीन दास स्थिति की तुलना कर गहरे असन्तोष का अनुभव करने लगा। इस सम्बन्ध में ट्रेवेलियन का कथन सत्य था कि "ब्रिटिश शासन अधिक दिनों तक टिक नहीं सकता, यह उन्हीं के हाथों समाप्त होगा, जो अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। पश्चिम के हथियारों से ही पश्चिम का मुकाबला होगा।"

जॉन मिल्टन, जे.एस. मिल, मेजिनी, स्पेन्सर, रूसो आदि की रचनाएँ पढ़कर तथा अमेरिका के स्वतन्त्रता युद्ध का अध्ययन कर भारतीय युवा पीढ़ी ने भी एक स्वतन्त्र तथा एकीकृत भारत के स्वप्न देखना प्रारम्भ कर दिया।

अंग्रेजी भाषा देश के शिक्षित वर्ग की भाषा बन गई। भारत के विभिन्न भागों के लिए यह एक सम्पर्क सूत्र साबित हुई। एक भाषा के अभाव में देश के तमाम लोगों को एक मंच पर इकट्ठा करना, आन्दोलन को भारतीय स्वरूप प्रदान करना, बहुत ही कठिन व असम्भव-सा प्रतीत हो रहा था। यह काम अंग्रेजी भाषा ने किया। तिलक के पत्र केसरी ने लिखा था, "अभी हम देश-भक्ति की भावना से अनुप्राणित हो रहे हैं। हमारे बीच देश-भक्ति का जन्म ब्रिटिश शासन तथा अंग्रेजी शिक्षा से हुआ।"

दादा भाई नौरोजी का कथन है कि, "हम इस नवीन विचार से परिचित हुए हैं कि राज्य जनता के लिए होते हैं, न कि जनता राज्य के लिए।"

इस सम्बन्ध में चाहे कुछ भी कहा जाए, किन्तु लार्ड मैकाले के शब्द साकार हो गये कि "अंग्रेजी इतिहास में वह गर्व का दिन होगा, जब पाश्चात्य ज्ञान से शिक्षित होकर भारतीय पाश्चात्य संस्थाओं की माँग करेंगे।" भारतीयों पर पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव के सम्बन्ध में ए. आर. देसाई का कथन है कि, “शिक्षित भारतीयों ने अमेरिका, इटली तथा आयरलैण्ड के स्वतन्त्रता संग्रामों के सम्बन्ध में पढ़ा। उन्होंने ऐसे लेखकों की रचनाओं का अनुशीलन किया, जिन्होंने व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीयता के सिद्धान्तों का प्रचार किया है। ये शिक्षित भारतीय, भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के राजनीतिक तथा बौद्धिक नेता हो गये।" राजा राममोहन राय, दादाभाई नौरोजी, उमेशचन्द्र बनर्जी, गोपालकृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता जैसे महान् व्यक्ति स्वतन्त्रता संग्राम के नायक बने। यह सब अंग्रेजी शिक्षा की ही देन है।

5. देशी भाषाओं का विकास-

उन्नीसवीं शताब्दी में देशी भाषाओं का भी विस्तार व विकास हुआ। साधनों की सुलभता तथा प्रेस के विकास से देशी भाषाएँ विकसित हुईं। हिन्दी, बंगला, उर्दू, दक्षिण भारतीय भाषाएँ सभी का साहित्य रचा गया। यह साहित्य अपने समाज की मनोवृत्ति को अच्छी तरह दर्शाता था। प्रत्येक भाषा के साहित्य में राष्ट्रीय भावना होती थी। आनन्द मठ', 'नील दर्पण', 'भारत भारती', 'भारत दुर्दशा' आदि ऐसी ही रचनाएँ थीं जिनमें राष्ट्रीयता की भावनाएँ भरी हुई थीं। दीनबन्धु मित्र, नवीनचन्द्र सेन, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बंकिम चन्द्र चटर्जी आदि सिद्धहस्त लेखक रहे, जिनकी रचनाओं में ब्रिटिश शासन के शोषण तथा राष्ट्रीयता की प्रेरणास्पद भावनाओं का वर्णन था।

6. समाचार-पत्रों का प्रभाव-

कई प्रकार के बन्धनों के बावजूद भारत में प्रेसों का विकास हुआ, जिससे अंग्रेजी तथा देशी भाषाओं के समाचार-पत्रों की तेजी से प्रगति हुई तथा राष्ट्रवादी साहित्य भी प्रकाशित किया गया। समाचार-पत्रों ने स्व-शासन तथा आत्मनिर्भरता के प्रति लगाव पैदा कर दिया। समाचार-पत्रों का उपयोग सरकार की आलोचना करने तथा जनमानस को शिक्षित करने में किया जाता था।

राजा राममोहन राय द्वारा प्रारम्भ 'सम्वाद कौमुदी' को भारतीय भाषायी प्रेस का प्रारम्भ माना जा सकता है। दा इण्डियन मिरर', 'दा हिन्दू पेट्रियट', 'अमृत बाजार पत्रिका', 'द बंगाली', 'सोमप्रकाशन', 'सुलभ-समाचार', 'संजीवनी' आदि भारतीय समाचार-पत्र थे।

महाराष्ट्र में तिलक द्वारा प्रकाशित 'केसरी' 'मराठा' प्रमुख समाचार-पत्र थे। इसी प्रकार लाहौर के 'ट्रिब्यून', बिहार के 'हेराल्ड' और लखनऊ के 'एडवोकेट' ने भी जनमानस को शिक्षित तथा उद्वेलित करने की भावना विकसित करने में बड़ा योगदान दिया। सन् 1857 में भारत में 478 समाचार-पत्र प्रचलित थे।

7. भारत में मध्यम वर्ग का उदय-

अंग्रेजी शासन के प्रचार से प्राचीन राजे-रजवाड़े व शासन प्रणालियाँ नष्ट हो गयी थीं। अब बड़े-बड़े शहरों में एक नया वर्ग उत्पन्न हो रहा था, जो बुद्धिजीवी था। उनमें बहुत से ऐसे भी थे जो इंग्लैण्ड से उच्च शिक्षा ग्रहण करके आए थे। कनिष्ठ प्रशासक, अध्यापक, वकील व डॉक्टर एवं प्रशासनिक सेवाओं में ब्रिटिश प्रशासन से जुड़ा हुआ था। इंग्लैण्ड की राजनीतिक संस्थाओं की तुलना में भारतीय साम्राज्य को अच्छी तरह पहचानता था। इन मध्यमवर्गीय लोगों को कोई भी मौलिक अधिकार नहीं थे। ये पग-पग पर विदेशियों द्वारा अपमानित होते रहते थे। इसी वर्ग ने ही विशेषकर स्वतन्त्रता आन्दोलन का नेतृत्व किया।

8. शिक्षित भारतीयों का उच्चतर प्रशासनिक सेवाओं से बहिष्कार-

भारत में 1857 की क्रान्ति के समय एक शिक्षित भारतीय युवावर्ग विकसित हो चुका था। लार्ड मैकाले की शिक्षा योजना के अन्तर्गत पिछले 20 वर्षों से शिक्षित होती आ रही थी। आंग्ल भारतीय समाज में, आंग्ल भाषा से शिक्षित-दीक्षित नये वर्ग को ब्रिटिश सरकार ने कोई मान्यता नहीं दी, न ही उसकी शिक्षा व प्रतिभा का उचित उपयोग किया। यह वर्ग अपनी समस्या का समाधान चाहता था। ये शिक्षित व्यक्ति भारतीय ईस्ट इण्डिया कम्पनी में शुरू हुई व्यावहारिक नीति के प्रत्युत्तर में बैंटिक, मैकाले, ट्रेवेलियन, एडम मिल एवं ग्राण्ट जैसे महानुभावों द्वारा चलाई गई, अंग्रेजियत में डूबी उच्चतर शैक्षणिक योजनाओं की उपज थे। अधिकांश शिक्षित भारतीयों को बेरोजगारी का सामना करना पड़ रहा था। देश के प्रशासन के हर ऊँचे पद पर यूरोपियन बिठाया जा रहा था। आई.सी.एस. परीक्षाओं के द्वार भारतीयों के लिए प्रायः बन्द हो गये थे।

इसी प्रकार सरकारी सेवाओं में उच्च शिक्षित वर्ग को स्थान न मिलने के कारण महादेव गोविन्द रानाडे ने अपनी समस्त शक्ति 'इन्दुप्रकाश' के सम्पादन व प्रकाशन में लगा दी। अंग्रेजों के उद्दण्ड, असभ्य व्यवहार, सेवाओं से बहिष्कार तथा पक्षपातपूर्ण नीतियों से चिढ़कर इन जैसे लोगों ने घूम-घूमकर, भाषण देकर तथा समाचार पत्रों द्वारा अंग्रेजी प्रशासन विरोधी हवा तैयार की।

9. राष्ट्रीय संस्थाएँ-

राजा राममोहन राय ने सर्वप्रथम अपनी संस्था बनाई। 1836 में बंग भाषा सभा बनी। 1838 में 'जमींदारी एसोसिएशन' बना। 1843 में 'बंगाल में ब्रिटिश इण्डिया सोसाइटी' बनी। 1875 में 'इण्डियन लीग' बनी। 1852 में 'बम्बई एसोसिएशन' बनी। इसी प्रकार अन्य संस्थाएँ बनीं, जो सरकार की नीति व शोषण का विरोध करती थीं। इन सभी संस्थाओं के सामूहिक विकास के लिए एक राष्ट्रीय स्तर की संस्था आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। लार्ड रिपन के चले जाने के बाद प्रशासन विरोधी सभाएँ करके राष्ट्रीयता की प्रेरणा दी गई।

10. ब्रिटिश प्रशासन व नीतियों के प्रति असन्तोष-

ब्रिटिश प्रशासन के अन्तर्गत ही समस्त भारत को एक सार्वभौम प्रशासन के अन्तर्गत लाया गया। अंग्रेजी प्रशासन ने भारत के प्रशासनिक, न्यायिक, विधायी, आर्थिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में आमूल-चूल परिवर्तन किये। यहाँ तक कि अंग्रेज मिशनरी स्कूलों के माध्यम से ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे थे। भारत के अनेक हिन्दुओं को ईसाई भी बना लिया गया था। ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का प्रशासन भ्रष्टाचारपूर्ण था। ब्रिटिश पार्लियामेण्ट भारत के छोटे-छोटे व बड़े से बड़े कार्यों में हस्तक्षेप करती थी 1857 के बाद ब्रिटिश सरकार और अधिक निरंकुश व सख्त हो गई। भारत की जनता भुखमरी, दरिद्रता, अकाल, महामारी की शिकार होती थी। भारतीय कुटीर उद्योग नष्ट हो गये। भारतीय कृषकों का भी शोषण हो रहा था। स्थायी बन्दोबस्त, महालवाड़ी व रैयतवाड़ी प्रथा ने नये वर्ग जमींदारी प्रथा चालू कर दी, जिससे कृषकों का अधिक शोषण हुआ। बेगार प्रथा भी जमींदारों ने प्रारम्भ की। उधर लार्ड लिटन की नीतियाँ भी दमनकारी थीं। समाचार-पत्र अधिनियम बनाने से जनता और अधिक विरोध में आ गई थी।

11. ब्रिटिश शासन की आर्थिक नीतियाँ-

भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने जो आर्थिक नीति चलाई थी, ब्रिटिश सरकार बाद में उसी पर चलती रही। ब्रिटिश की आर्थिक तथा कर सम्बन्धी नीति ने भारत में आर्थिक राष्ट्रवाद को जन्म दिया। हस्तशिल्पों का पतन, विदेशी नागरिक व सैनिक प्रशासन पर भारी व्यय, भारत से इंग्लैण्ड को होने वाले धन का निष्कासन भारतीयों के लिए असन्तोष पैदा कर रहा था। 1860 में ही भारतीय उद्योगपतियों ने एक संगठन बनाना शुरू किया तो ब्रिटिश उद्योगपतियों ने संरक्षण की माँग शुरू कर दी। ब्रिटिश सरकार ने उनके सामने झुककर भारत की आयात-निर्यात नीति सब उनके लाभ के लिए बना दी। इससे भारतीय औद्योगिक वर्ग में व्यापक असन्तोष फैला। अंग्रेजों के विशाल साम्राज्य में रखी गई सेना का व्यय भी भारत ही उठाता था। अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन की भावना को बढ़ावा दिया।

12. लार्ड रिपन तथा इलबर्ट बिल विवाद-

1881 में लार्ड रिपन भारत आया। वह उदारवादी था। वह भारत में शान्ति तथा विकास का कार्यक्रम लेकर आया था। लार्ड रिपन ने स्वायत्त शासन व्यवस्था को बढ़ावा दिया। सी.पी. इलबर्ट जो लार्ड रिपन की कौंसिल का सदस्य था उसने एक बिल प्रस्तुत किया, जिसका उद्देश्य न्यायिक सेवाओं में प्रशासनिक दोषों को दूर करना था। इलबर्ट बिल के द्वारा भारतीय मजिस्ट्रेट को अंग्रेजी मजिस्ट्रेट के समकक्ष बना दिया। इससे अंग्रेज लोग नाराज हो गये। अंग्रेजों की भेदभाव की नीति स्पष्ट हो गई। इस प्रकार 1883 तक कई कारणों से भारतीय अंग्रेजों की नीति व आर्थिक शोषण से काफी तंग आ गए थे। वे सामूहिक रूप से अंग्रेजों का विरोध करने के लिए राष्ट्रीय स्तर की संस्था बनाने का विचार कर रहे थे। अतः सभी विद्वान नेताओं द्वारा 1885 में राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। इसी के माध्यम से राष्ट्रीय आन्दोलन चलाया गया।

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