Heade ads

मिस्र का स्वतन्त्रता संग्राम (मिस्र में राष्ट्रवाद)

बीसवीं सदी का विश्व

मिस्र की अन्तर्राष्ट्रीय जगत में स्थिति

मिस्र आज विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसका मूल कारण इसकी स्वेज-नहर (Suez Canal) है। यह देश अफ्रीका महाद्वीप के उत्तरी-पूर्वी कोने पर स्थित है। इसके उत्तर में भूमध्य सागर तथा पूर्व में लाल सागर (Red Sea) विस्तृत हैं। 1869 ई. में जब स्वेज नहर का निर्माण हो गया तो इससे भूमध्य-सागर व लाल-सागर परस्पर संयुक्त हो गये। इस जल-मार्ग के बन जाने से यूरोप व अमेरिका के जहाजों को एशिया जाने के लिए समस्त अफ्रीका का चक्कर काट कर जाने की आवश्यकता नहीं रही। इस कारण स्वेज नहर अन्तर्राष्ट्रीय जल-मार्ग बन गया और इस नहर के निर्माण से ही मिस्र की दुनिया में आज वह पूछ है जो कि उसकी नील नदी के कारण प्राचीन व मध्य-काल में समस्त यूरोप व पश्चिमी एशिया में थी। अतः स्पष्ट है कि मिस्र की गणना विश्व के महत्त्वपूर्ण देशों में इसकी नदी व नहर के कारण ही हुई थी और आज भी है। इस स्वेज-नहर ने ही मिस्र का आधुनिक इतिहास बनाया है। परन्तु इस स्वेज-नहर तक पहुँचने के लिए भी इसे कई राजनीतिक उतार चढ़ाव से गुजरना पड़ा है।

उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में मिस्र की राजनीतिक अवस्था

650 ई. के उपरान्त मिस्र चिरकाल तक अरब के खलीफाओं के अधीन रहा। 1517 ई. में यह ऑटोमन तुर्क साम्राज्य का प्रदेश बन गया। यह प्रदेश भारत की सुरक्षा के लिए ब्रिटेन को कितना महत्त्वपूर्ण है-इसका आभास सर्वप्रथम नेपोलियन बोनापार्ट (Napoleon) को ही हुआ था। इसी कारण उसने 1799 ई. में मिस्र पर आक्रमण किया था। नेपोलियन के आक्रमण के समय भी मिस्र तुर्क-साम्राज्य का ही एक अंग था। उस समय इंग्लैण्ड टर्की की सहायता के लिए कटिबद्ध सा हो गया था। अत: नेपोलियन के आधिपत्यं को समाप्त करने मिस्र में टर्की व इंग्लैंड दोनों देशों की सेनाएँ पहुँची। इंग्लैण्ड की सेनाएँ मिस्र में अधिक दिन नहीं टिक सकी क्योंकि फ्रांस लौटकर नेपोलियन ने इंग्लैण्ड की सुरक्षा को संकट उत्पन्न कर दिया था। नेपोलियन के समय मिस्र में तुर्की-सुल्तान का सेनापति मेहमत अली (Mahmet Ali) था। वह अल्बानिया निवासी था। वह एक महत्त्वाकांक्षी सेनापति था। अत: मिस्र से इंग्लैण्ड की सेनाओं के हटते ही उसने वहां का शासन-सूत्र अपने हाथ में लिया। 1805 ई. में वह टर्की के सुल्तान द्वारा मिस्र का सूबेदार (Khedive) मान लिया गया। वह मिस्र का सूबेदार 1849 ई. तक बना रहा।

मिस्र पर अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित होना

उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में मिस्र एक शक्तिशाली राज्य बन गया था। उधर टर्की का महत्त्व घट रहा था और उसे "यूरोप का मरीज" (Sick Man of Europe) की संज्ञा दी जाने लगी थी। इधर मिस्र का महत्त्व दिनोंदिन बढ़ रहा था। महमूद द्वितीय की मृत्यु के उपरान्त उसके उत्तराधिकारी अपने को अधिक योग्य सिद्ध नहीं कर सके। 1863 ई. में मिस्र के पाशा सईद की मृत्यु हो गई। खदीव इस्माइल (Khedive Ismail) उसका उत्तराधिकारी बना। वह बड़ा फिजूल खर्ची था। उसने 1869 ई. में स्वेज नहर का निर्माण आरम्भ करवाया। इस नहर का निर्माण फ्रांस के इन्जीनियर द-लैस्सप के नेतृत्व में हुआ था। स्वेज-नहर का संचालन एक कम्पनी द्वारा होता था और उस कम्पनी के भागीदार फ्रांसीसी तथा खदीव स्वयं था। परन्तु मिस्र की आर्थिक अवस्था दिन पर दिन शोचनीय होती गई। अन्त में 1875 ई. में खदीव ने स्वेज-नहर के शेयर बेचे। उस समय इंग्लैण्ड का प्रधान-मंत्री डिजरैली (Ben-gamin Disraeli) था। वह पक्का साम्राज्यवादी था। समय को पहिचान कर उसने चालीस लाख पौंड के शेयर खरीद लिए। इससे मिस्र पर इंग्लैण्ड के आर्थिक प्रभुत्व की शुरुआत हो गई।

इंग्लैण्ड की आर्थिक सहायता से भी मिस्र का दिवाला दूर नहीं हुआ। इसीलिए 1876 ई. में उसने विदेशियों का कर्ज न चुकाने की घोषणा की। उसकी इस घोषणा से इंग्लैण्ड व फ्रांस घबरा गये। उन दोनों ने मिलकर मिस्र पर अपना द्वैध आर्थिक नियन्त्रण स्थापित किया। 1879 ई. में उन्होंने खदीव इस्माईल को पदच्युत कर दिया और उसके स्थान पर उसके पुत्र तोफीक को खदीव बनाया। परन्तु पाश्चात्य देशों के इस हस्तक्षेप से मिस्रवासी नाराज हो गये और उन्होंने अरबी पाशा (Arabi Pasha) के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। 1882 ई. में यह विद्रोह दबा दिया गया और नेता अरबी पाशा को लंका भेज दिया गया। खदीव पद पर तोफीक ही बना रहा पर मिस्र की वास्तविक सत्ता अब इंग्लैण्ड के हाथ में आ गई थी।

1884 ई. में लार्ड क्रोमर (Lord Cromer) को मिस्र में ब्रिटिश एजेण्ट एवं राजदूत नियुक्त किया गया। लार्ड क्रोमर ने ऐसा श्रेष्ठ शासन-प्रबन्ध किया जैसा कि उस शताब्दी में शायद कहीं देखा गया हो। यह मिस्र में इस पद पर 1907 ई. तक कार्य करता रहा और अपने योग्य प्रशासन में मिस्र पर उसने ब्रिटिश-प्रभुत्व को पूर्णरूपेण स्थापित कर दिया। उसने 1899-1900 ई. में जनरल किचनर (General Kitchner) को सूडान (Sudan) भेज कर मेहदी (Mehdi) को परास्त करा दिया और सूडान को भी ब्रिटिश प्रभुत्व में ले लिया। सूडान को प्रभुत्व में करते समय फशोदा (Fashoda) काण्ड भी घटा था। परन्तु यह काण्ड भी इंग्लैण्ड के पक्ष में ही गया और फ्रांस ने मिस्र व सूडान पर ब्रिटिश प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया।

प्रथम विश्व-युद्ध और मिस्त्र

प्रथम विश्व युद्ध में टर्की ने जर्मनी का साथ दिया था अत: इंग्लैण्ड नहीं चाहता था कि मिस्र अब नाम मात्र को भी तुर्की का अंग रहे। इसीलिए दिसम्बर, 1914 ई. में इंग्लैण्ड ने टर्की के समर्थक खदीव अब्बास हिल्मी (Abbas Hilmi) को पदच्युत कर दिया था और उसके स्थान पर अपने समर्थक हुसैन (Hussain) को मिस्र का सुल्तान बनाया। 18 दिसम्बर, 1914 ई. को ही इंगलैण्ड द्वारा यह घोषणा कर दी गई कि मिस्र तुर्की के प्रभाव से मुक्त किया जाता है। युद्ध में उसकी सुरक्षा का भार इंग्लैण्ड पर रहेगा। इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध के समय मिस्र इंगलैण्ड का एक संरक्षित राज्य बन गया।

1917 में हुसैन की मृत्यु हो गई और उसका भ्राता फौद (Fuad) मिस्र का शासक बना। उसने भी अपने भ्राता हुसैन की भांति ब्रिटिश प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। परन्तु प्रथम विश्व युद्ध के समाप्त होते ही मिस्रवासी ब्रिटिश प्रभुता के विरोधी हो गये। वे ब्रिटेन की शासन-सत्ता के विरुद्ध संगठित होने लगे। 1919 में जब पेरिस में शान्ति सम्मेलन हो रहा था तो मिस्र के जागलुल पाशा (Jaghlul Pasha) ने वहां जाने का प्रयास किया। जागलुल पाशा पेरिस सम्मेलन में जाकर मिस्र की स्वाधीनता की मांग रखना चाहता था। अमेरिका का राष्ट्रपति विलसन भी राज्यों की स्वायत्तता का समर्थक था। उधर रूस की 1977 की क्रान्ति तथा रूस में मुसलमानों के साथ किये जा रहे व्यवहार से भी जागलुल पाशा सम्मेलन में जाने को आतुर था। इसलिए प्रथम वह मिस्र में स्थित ब्रिटिश हाई कमिश्नर से मिला, परन्तु उसे पेरिस जाने की अनुमति नहीं दी गई। इस पर उसने अपने सहयोगियों के साथ पेरिस जाने का निश्चय किया। परन्तु ब्रिटिश सरकार ने उसे बन्दी बना कर माल्टा (Malta) द्वीप भेज दिया। उसके अन्य साथी बन्दी बना लिए गये। परन्तु ब्रिटिश सरकार की यह कार्यवाही मिस्रवासियों के राष्ट्रवाद के प्रवाह को अवरुद्ध नहीं कर सकी।

misr ka swatantrata sangram, misr me rashtravad kya hai
मिस्र का स्वतन्त्रता संग्राम (मिस्र में राष्ट्रवाद)


मिस्त्र में राष्ट्रवाद के विकास के कारण

1. नेपोलियन का मिस्त्र पर आक्रमण-

नेपोलियन की विजय के उपरान्त मिस्र में नवीन विचारों का प्रादुर्भाव हुआ। मिस्र को पाश्चात्य देशों के सम्पर्क में लाने का नेपोलियन द्वारा यह प्रथम प्रयास था। नेपोलियन अपने साथ मिस्र में छापाखाना लाया था जिसकी सहायता से पश्चिमी साहित्य मिस्रवासियों को उपलब्य होने लगा। मिस्रवासी फ्रांस की शासन-प्रणाली से अवगत होने लगे। इसके अलावा नेपोलियन अपने साथ मिस्र में एक साहित्य एकेडमी भी साथ लाया। उसमें पुस्तकों का अच्छा संग्रह था। इससे भी मिस्र में पाश्चात्य विचारों का सूत्रपात हुआ। नेपोलियन के फ्रांस लौट जाने के उपरान्त भी फ्रांस की राज्य-क्रांति की विचारधारा मिस्रवासियों को प्रभावित करती रही। इन सबका परिणाम यह हुआ कि मिस्रवासी भी अपने देश को विकसित कर अंग्रेजों के शिकंजे से मुक्त कराने का प्रयास करने लगे।

2. मेहमत अली का उदार शासन-

मेहमत अली (Mehmet Ali) ने मिस्र पर लगभग अर्द्ध शताब्दी (1805-1849) तक शासन किया। वह एक योग्य प्रशासक था। हालांकि वह स्वयं अशिक्षित था तथापि वह शिक्षा का महत्त्व समझता था। उसने शिक्षा विभाग की स्थापना की। मिस्र के नव-युवकों को शिक्षा देने के लिए स्कूल खोले। शिक्षणालयों में फ्रांस के अध्यापक नियुक्त किये गये। मिस्रवासियों को वैज्ञानिक व टेकनीकल शिक्षा का भी प्रबन्ध किया गया। शिक्षा के प्रसार से मिस्रवासियों की संकीर्णता का निवारण हुआ। उनके विचार केवल इस्लाम धर्म तक ही सीमित नहीं रहे। पाश्चात्य सभ्यता के सम्पर्क में आने से मित्रवासियों के विचारों में उदारता का समावेश हुआ तथा उनका सोचने का दृष्टिकोण भी वैज्ञानिक होने लगा।

3. मिस्त्र के विद्यार्थियों द्वारा पश्चिमी विचार अपने देश में फैलाना-

वास्तव में देखा जाये तो नेपोलियन के मिस्र-आगमन ने मिस्रवासियों के लिए यूरोप के द्वार खोल दिये। भारी संख्या में मिस्र के नवयुवक फ्रांस, इटली व इंगलैंड जाकर शिक्षा ग्रहण करने लगे। वहाँ वे इन्जीनियरिंग व विज्ञान की शिक्षा पाने लगे। सैनिक-शिक्षा में भी मिस्रवासी यूरोपीय देशों से प्रभावित होने लगे। मेहमत अली ने काफी धन नवयुवकों की शिक्षा पर व्यय किया तथा उनको यूरोप जाने के लिये प्रोत्साहित किया। इसका परिणाम यह हुआ कि फ्रांस व इटली में मिस्र के विद्यार्थियों के होस्टल ही अलग होने लगे। यूरोपीय देशों में शिक्षा प्राप्त करते हुए उन्होंने वहाँ की उदार एवं लोकतन्त्रीय शासन-प्रणाली का भी अध्ययन किया। वे उससे प्रभावित भी हुए और स्वदेश लौटकर अपने यहाँ भी वैसी ही शासन-प्रणाली प्रचलित करने को लालायित हो उठे। अत: वे ब्रिटेन की निरंकुश शासन-प्रणाली के विरुद्ध आवाज उठाने लगे।

4. अंग्रेजों द्वारा मित्रवासियों का शोषण-

स्वेज-नहर बन जाने के उपरान्त ही मित्र की आर्थिक अवस्था दिवालिया हो गई। मिस्र के शासक इस अवस्था में नहीं रहे कि विदेशियों का ऋण चुका सके। इसी कारण इंगलैण्ड व फ्रांस की सरकारें अपना धन वसूल करने की नियत से मिस्रवासियों पर भारी कर लगाने लगीं तथा उनका भारी आर्थिक शोषण करने लगीं। परन्तु इससे भी मिस की आर्थिक अवस्था उनका ऋण चुकाने में सफल नहीं रही। उच्च पदों पर ऊँचे वेतन पर भी अंग्रेज ही आसीन होने लगे। प्रथम विश्व-युद्ध के समय मिस्रवासियों का शोषण और भी बढ़ गया। युद्ध संचालन हेतु अंग्रेज मिस्त्र के हर साधन का दुरुपयोग करने लगे। अतः इस आर्थिक शोषण से भी मिस्रवासी अंग्रेजों से नाराज हो गए और उनसे मुक्ति पाने का प्रयास करने लगे।

5. मिस्र के विभिन्न व्यक्तियों द्वारा राष्ट्रवाद का प्रसार-

मिस्र के राष्ट्रवाद में प्रथम सहयोग अरबी पाशा (Arb Pasha) से मिला। 1775 ई. के उपरान्त इंगलैंड का आर्थिक प्रभुत्व मिस पर स्थापित हो गया। धीरे-धीरे अंग्रेज व फ्रांसीसी मिस्र की सत्ता को हथियाने का प्रयास करने लगे। इस पर अरबी पाशा ने उनकी नीति की कटु आलोचना की और नारा लगाया कि "मिस्र मित्रवासियों के लिए" (Egypt for Egyptians) है। मिस्रवासियों ने उसका साथ दिया और उसके नेतृत्व में पाश्चात्य शक्तियों के विरुद्ध विद्रोह किया। परन्तु विद्रोह दबा दिया गया। फशोदा-काण्ड के उपरान्त मिस्र पूर्णतः केवल ब्रिटेन के प्रभाव में चला गया। इंगलैंड की सरकार ने अपनी प्रभुता दृढ़ता से जमाने हेतु वहां मिस्रवासियों के साथ और कठोरता बरती। इसके प्रतिकार में अबदुल्ला अन्नदीम ने अपने नाटक 'अलवतन' के माध्यम से, मुस्तफा कामिल ने 'अल-शम्स अल-मशरिका' के माध्यम से मिस्र में राष्ट्रवाद को प्रबल बनाया। जागलुल पाशा अपने ओजस्वी भाषणों के द्वारा 1927 ई. तक मिस्रवासियों को एकता व स्वतन्त्रता के लिए तैयार करता रहा। इन नेताओं के प्रयत्नों से भी मिस्र में राष्ट्रवाद दिन पर दिन जोर पकड़ता गया।

6. मिस्र में विभिन्न राजनीतिक दलों की स्थापना-

ब्रिटेन के कठोर शासन का परिणाम यह निकला कि मिस्रवासियों ने अपनी मुक्ति के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों की स्थापना करना आरंभ किया। 1879 ई. में अल-हिज्ब-अल-वतनी का संगठन कायम हुआ। 1907 ई. में अल-हिज्ब-अल-वतनी के संगठन को नवीन रूप दिया गया। जागलुल पाशा ने 'वफ्द पार्टी' का गठन किया। यह पार्टी हिंसा में विश्वास करती थी। अत: इसके सदस्यों ने ब्रिटिश अधिकारियों को मौत के घाट उतारना आरम्भ कर दिया। इससे 1919 ई. में मिस्र का वातावरण बहुत ही भयानक हो गया था।

7. अंग्रेजों द्वारा मिस्रवासियों के साथ असमानता का व्यवहार करना-

ब्रिटिश लोगों में उच्चता की भावना तो पहले से ही विद्यमान थी। बीसवीं सदी के प्रारम्भ होते ही जब ब्रिटेन मिस्र का एक छत्र स्वामी बन गया तो अंग्रेजों में यह भावना और भी प्रबल हो गई। वे मिस्रवासियों के साथ हीनता का व्यवहार करने लगे। उन्हें सरकारी पदों पर भी उच्च पद देते हुए वे हिचकते थे। प्रथम विश्व युद्ध के समय मिस्रवासियों के साथ अंग्रेजों का व्यवहार और भी रूखा बन गया। उनको नाना प्रकार के कानून बना कर दृढ़ता से दासता में जकड़ा जाने लगा। इससे मिस्रवासी ब्रिटेन के विरुद्ध हो गये। वे अंग्रेजों से घृणा करने लगे और अंग्रेजों के विरुद्ध उत्पन्न इस घृणा की भावना ने मिस्रवासियों को संगठित कर दिया। विद्यार्थी कॉलेजों के बाहर आ गये। क्रान्तिकारियों ने काहिरा को देश के अन्य भागों से विच्छिन्न कर दिया। हालांकि यह क्रान्ति भी निर्दयता के साथ दबा दी गई। परन्तु इसने अंग्रेजों को सुलह की नीति अपनाने को बाध्य कर दिया।

8. इंगलैण्ड में विभिन्न दलों की सरकार का गठित होना-

इंगलैण्ड एक प्रजातन्त्र देश है। वहां विभिन्न समय में निर्वाचन के आधार पर विभिन्न दलों की सरकार गठित होती रहती है। 1906 ई. में वहां उदार-दल (Liberal Party) की सरकार थी। यह दल उपनिवेशवाद का अधिक समर्थन नहीं करता था। इस कारण इस दल ने मिस्रवासियों के प्रति उदारता की नीति अपनाई और मिस्रवासियों को शासन के प्रति उत्तरदायी बनाने का प्रयास किया। उदार-दल की सरकार से तो उन्हें राहत मिली। परन्तु बाद में अनुदार दल की सरकार स्थायित्व में आ गई। इंगलैण्ड में अधिकांश समय सरकार अनुदार (Conservative Party) दल की ही रहती है। इस दल की सरकार सदा साम्राज्यवाद की समर्थक रही है। अत: अनुदार दल की सरकार ने मिस्रवासियों के साथ और भी जुल्म किये। उन जुल्मों से भी मिस्रवासी ब्रिटेन विरोधी हो गये।

मिस्र की स्वतन्त्रता के विभिन्न चरण

1875 ई. से 1914 ई. तक-

1875 ई. में ब्रिटेन का मिस्र पर आर्थिक प्रभुत्व स्थापित हुआ। परन्तु उनकी आर्थिक नीति से असन्तुष्ट हो मिस्रवासियों ने अरबी पाशा के नेतृत्व में विद्रोह किया। वह विद्रोह दबा दिया और इससे 1882 ई. में इंगलैंड की प्रभुता दृढ़ता से मिस्र पर कायम हो गई। फशोदा-काण्ड के उपरान्त सूडान भी इंगलैंड के अधिकार में आ गया था। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में मिस्र में राष्ट्रवाद उग्र होता रहा और देशवासी अपने देश को ब्रिटेन के प्रभाव से मुक्त कराने का प्रयास करते रहे। इसी समय 1914 ई. में प्रथम विश्व युद्ध प्रारम्भ हो गया। इसके परिणामस्वरूप मिस्र के राष्ट्रीय आन्दोलन कुछ समय के लिए शिथिल पड़ गये।

1914 से 1936 तक-

प्रथम विश्व युद्ध में टर्की जर्मनी का सहयोगी था और उस समय तक मिस्र टर्की साम्राज्य का ही एक अंग माना जाता था। युद्ध को जीतने तथा एशिया स्थित (विशेषत: भारत) अपने उपनिवेशों की सुरक्षा की दृष्टि से इंगलैंड को मिस्र पर अधिकार बनाये रखना अति आवश्यक था। उस समय मिस्र इंगलैंड की गर्दन के लिए एक फन्दा (noose) स्वरूप बन गया था। यदि इंगलैंड मिस्र पर अधिकार सुदृढ़ नहीं करता तो दूसरी कोई महान् शक्ति उस फन्दे को इंगलैंड की गर्दन पर कस सकती थी। अत: इंगलैंड ने पहला कार्य तो यह किया कि टर्की के समर्थक खदीव अब्बास हिल्मी को पदच्युत कर अपने समर्थक को खदीव बनाया। दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य ब्रिटेन ने यह किया कि मिस्र को टर्की साम्राज्य से पूर्ण रूपेण स्वतन्त्र बना दिया।

युद्ध के समय मिस्र की सुरक्षा का भार इंगलैंड ने अपने हाथ लिया। परन्तु युद्ध के समय जिस नीति से उन्होंने धन एकत्रित किया और मिस्रवासियों को युद्ध में सहयोग देने को बाध्य किया, उससे मिस्रवासी नाराज हो गये और 1919 ई. में उन्होंने भयंकर क्रान्ति कर दी। मिस्रवासियों ने हिंसा का सहारा लिया। उस रक्त-पात से ब्रिटश सरकार इस परिणाम पर पहुंची कि मिस्र में शान्ति बनाये रखने के लिए हमें मिस्र के नेताओं से बातचीत करनी चाहिए। इस परिवर्तन का एक कारण यह भी था कि इस समय वहां मजदूर सरकार (Labour Government) थी। इसका परिणाम यह हुआ कि 1922 ई. में इंगलैंड व मिस्र के बीच एक समझौता हुआ। उसकी शर्ते निम्नलिखित थीं-

(1) ब्रिटेन द्वारा मिस्र को एक स्वतन्त्र राज्य मान लिया गया।

(2) स्वेज-नहर की सुरक्षा हेतु वहां ब्रिटिश सेना रखने की बात मिस्र द्वारा स्वीकार कर ली गई।

(3) मिस्र की विदेशी आक्रमण से सुरक्षा का उत्तरदायित्व ब्रिटेन द्वारा लिया गया।

(4) सूडान ब्रिटेन के साम्राज्यवाद का अंग बना रहेगा।

(5) मिस्र पर टर्की का संरक्षण नहीं रहेगा।

परन्तु समझौते की इन सब शर्तों से भी मिस्रवासी सन्तुष्ट नहीं हुए। इसका प्रमुख कारण वफद-पार्टी का शक्ति में आना था। इसका नेता इस समय जागलुल पाशा था। वह बड़ा ही प्रभावशाली था। इसी के प्रयत्नों से मिस्र में 1923 ई. में संसदीय सरकार की स्थापना हुई। पर जागलुल पाशा इससे भी सन्तुष्ट नहीं हुआ। इस समय टर्की मुस्तफा कमाल पाशा (Mustafa Kamal Pasha) के नेतृत्व में एक प्रजातन्त्र राज्य बन चुका था। अत: वह मिस्र को भी ब्रिटिश प्रभुत्व से पूर्णरूपेण स्वतन्त्र करा कर एक लोकतन्त्र बनाना चाहता था। इंगलैंड की सरकार ने उसकी बात नहीं मानी। इसका परिणाम यह हुआ कि 1924 ई. में मिस्र में पुन: हिंसक क्रान्ति भड़क उठी। ब्रिटिश सेनापति सर ली स्टैक की हत्या कर दी गई। मिस्र में पुनः संवैधानिक संघर्ष आरम्भ हो गया।

मिस्र का शासक फौद स्वभाव से निरंकुश शासक था। वह भी जागलुल पाशा का विरोधी था। अत: उसने संसद को भंग करके अपनी निरंकुश सरकार की स्थापना कर दी। परन्तु चुनाव जब ही होते वफद पार्टी ही बहुमत से विजयी होती थी। जब 1927 ई. में जागलुल पाशा की मृत्यु हो गई तो उसका स्थान नहस पाशा ने ले लिया। उसने संसद में यह बिल पेश किया कि शासक कभी भी बिना संसद के शासन न चलाये। मिस्र के शासक ने उस बिल को पारित नहीं होने दिया। 1929 ई. में जब मजदूर-दल पुनः सत्ता में आया तो नहस पाशा 1930 में पुनः इंगलैंड गया पर सूडान के मामले पर दोनों पक्षों में समझौता नहीं हो सका।

1934 ई. में निर्दलीय मुहम्मद तौफीक नसीम पाशा मिस्र का प्रधान-मंत्री बना। 1935 ई. में इटली ने अबीसीनिया पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। इस घटना ने विश्व को तो प्रभावित किया ही पर इससे इंगलैंड की मिस्र के प्रति कठोर नीति में भी परिवर्तन आ गया और इस परिवर्तन के फलस्वरूप ही अगस्त, 1936 ई. में दोनों देशों (इंगलैंड व मिस्र) के बीच एक सन्धि सम्पन्न हुई। उस सन्धि की शर्ते निम्नलिखित हैं-

1. मिस्र की स्थिति अब पूर्णरूप से एक सम्पूर्ण प्रभुत्व गणराज्य की होगी।

2. इंगलैंड अब मिस्र में कमिश्नर नियुक्त नहीं करेगा। इसके स्थान पर दोनों देश एक दूसरे के यहां अपने-अपने राजदूत नियुक्त करेंगे।

3. मिस्र ने स्वेज-नहर के क्षेत्र में सुरक्षा की दृष्टि से ब्रिटेन की सेना रखना स्वीकार कर लिया। इस क्षेत्र के अलावा ब्रिटेन की सेना मिस्र में कहीं भी नहीं रहेगी।

4. सैनिक दृष्टि से दोनों देश एक दूसरे की सहायता करेंगे। मिस्र की सुरक्षा का उत्तरदायित्व इंगलैण्ड ने अपने ऊपर रखा।

5. मिस्र को यह भी स्वीकार करना पड़ा कि वह विदेशियों को सुरक्षा प्रदान करे तथा उनके साथ अनुचित व्यवहार न करे।

6. सूडान का प्रशासन इंगलैंड व मिस्र दोनों के संयुक्त नियन्त्रण में रहेगा।

यह सन्धि वास्तव में मिस्र के इतिहास में महत्त्वपूर्ण थी। इससे मिस्र रिपब्लिक राज्य बन गया था। यह सन्धि बीस वर्ष के लिए की गई थी और इसमें दस वर्ष उपरान्त संशोधन होना था। परन्तु इस सन्धि की भी कुछ शर्ते मिस्रवासियों को पसन्द नहीं आईं। उनमें प्रमुख थी स्वेज नहर के क्षेत्र में अंग्रेजी सेनाओं का बना रहना। परन्तु 1937 ई. में जब मिस्र राष्ट्र संघ (League of nations) का सदस्य बन गया तो मिस्रवासियों ने कुछ चैन की सांस ली। उधर आन्तरिक रूप से भी मिस्र में शान्ति स्थापित हो गई थी क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने सम्राट फौद से देश में 1923 का संविधान लागू करवा लिया था। इस सन्धि से मिस्रवासियों को केवल इतना ही असन्तोष था कि स्वेज-नहर के क्षेत्र से ब्रिटिश सेनाएँ नहीं हटी थीं। सेना हटाने की अवधि 20 वर्ष रखी गई थी और इस सन्धि के होने के तीन साल बाद ही द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया। युद्ध के कारण मिस्त्र पर अंग्रेजों का प्रभुत्व पुनः सुदृढ़ हो गया। सन्धि सम्पन्न होने के कुछ समय उपरान्त ही सम्राट फौद का तो देहान्त हो गया और उसके स्थान पर फारूक (Farouk) मिस्र का सम्राट बना था। युद्ध के समय तथा युद्धोपरान्त वह भी ब्रिटिश सरकार का समर्थक बना रहा और जब 1940-41 में जर्मनी व इटली की संयुक्त सेनाओं ने मिस्र पर आक्रमण कर दिया तो मिस्र पूर्णतः ब्रिटिश संरक्षण में चला गया। इस प्रकार 1936 की सन्धि द्वारा मिस्र की जो समस्या सुलझाई गई थी वह युद्धोपरान्त पुन: जटिल हो गई और मिस्रवासियों ने ब्रिटेन से मुक्ति के लिए अपना संघर्ष पुनः आरंभ कर दिया।

1937 से 1954 तक-

1937 में मिस्र राष्ट्र संघ का सदस्य बन गया। 1939 में द्वितीय महायुद्ध आरंभ हो गया। उस समय तक यह विरोध कुछ समय तक के लिये शान्त हो गया। मित्र के शासक फारूक ने 1941 में वफद पार्टी की सरकार को बर्खास्त कर दिया व निरंकुश शासन स्थापित कर दिया। युद्ध में उसने मिस्र को तटस्थ बनाए रखा।

1945 ई. से 1956 ई. तक स्वेज नहर पर ब्रिटेन की उपस्थिति व सूडान पर संयुक्त नियन्त्रण के कारण मिस्रवासी ब्रिटेन के विरोधी थे। 1945 ई. में सादिस्ट दल सत्ता में आया व अहमद महर मिस्र के प्रधानमंत्री बने । अहमद महर 1936 ई. की सन्धि में परिवर्तन करना चाहता था, किन्तु इंगलैण्ड ने 1936 ई. की सन्धि में संशोधन से इन्कार कर दिया। 1947 ई. में मिस्र ने इस समस्या को संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मुख प्रस्तुत किया। संयुक्त राष्ट्र संघ समस्या का समाधान नहीं कर सका, परन्तु इंगलैण्ड व मिस्र के सम्बन्ध तनावपूर्ण हो गये। मिस्र में वफद पार्टी व मुस्लिम ब्रदरहुंड पार्टी उग्र राष्ट्रवाद को प्रोत्साहित कर रही थी। 1950 के चुनाव में वफद पार्टी को बहुमत प्राप्त हुआ। 1950 के अक्टूबर माह में संसद ने एक विधेयक पारित कर दिया, जिससे मिस्र पर 1936 ई. को सन्धि की बाध्यता समाप्त हो गई। इसके परिणामस्वरूप मिस्र में अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलन तीव्र हो गया। इस तनावपूर्ण वातावरण में 23 जुलाई, 1952 ई. को एक सैनिक अधिकारी नजीब के नेतृत्व में सैनिक क्रान्ति हो गई। नजीब ने विद्रोही सैनिकों के साथ काहिरा पर अधिकार कर लिया। फारूख को उसके पद से हटा दिया गया। तथा उसके अल्प वयस्क पुत्र को मिस्र का शासक बना दिया। नजीब उसका प्रधानमंत्री बन गया। नजीब प्रधानमंत्री बनते ही सूडान को स्वतंत्र राष्ट्र मान लिया। फरवरी 1953 ई. को इंगलैण्ड ने भी सूडान को स्वतन्त्र कर दिया।

स्वेज नहर की समस्या का हल- सूडान के प्रश्न को हल करने के बाद नजीब ने स्वेज नहर की समस्या के बारे में इंग्लैण्ड से बातचीत प्रारंभ की, किन्तु यह वार्ता सफल नहीं रही। 1954 ई. में प्रजातन्त्र के शासन की स्थापना के लेकर नजीबकर्नल गमाल नासिर में मतभेद हो गए। 29 मार्च, 1954 ई. को गमाल नासिर ने मिस्र की समस्त सत्ता अपने हाथ में ले ली।

1954 का समझौता- स्वेज नहर क्षेत्र से ब्रिटिश सेना को हटाने के मामले में 1954 ई. में मिस्र ने इंग्लैण्ड से बातचीत प्रारंभ की। 27 जुलाई, 1954 को दोनों पक्षों में इस प्रकार सहमति हुई-

(i) ब्रिटिश सेना 20 माह में स्वेज नहर क्षेत्र खाली कर देगी।

(ii) मिस्र पर विदेशी आक्रमण होने पर मिस्र की अनुमति से ब्रिटिश सेना स्वेज क्षेत्र में आ सकेंगी।

इस समझौते के बाद मिस्र पर से इंगलैण्ड का नियन्त्रण पूर्णतया समाप्त हो गया।

आशा हैं कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।

Post a Comment

0 Comments