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प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम

 बीसवीं सदी का विश्व

प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम

प्रथम विश्व युद्ध में 36 राज्यों ने भाग लिया। युद्ध में भाग लेने वालों में यूरोप के अतिरिक्त अमेरिका व एशिया के देश भी सम्मिलित थे। इस महा समय की अग्नि 80 लाख मनुष्यों के प्राणान्त से शान्त हुई। इस युद्ध के दारुण दुःखों से दुखी मानव युद्ध के नरसंहार को भुलाने का दुस्साहस कर ही रहा था कि महामारी और इन्फलुएन्जा के प्रकोप से मानव विनाश का भयंकर चित्र मानव-समाज के सम्मुख पुनः प्रस्तुत हो गया। जन-हानि के साथ धन-हानि भी काफी हुई। प्रथम विश्व युद्ध में 186 अरब डालर खर्च हुआ था। इससे जन समाज पर आर्थिक प्रभाव भी बुरा पड़ा। इस धन और जन के विनाश का परिणाम यह हुआ कि वस्तुओं की कीमतें बढ़ने लगी और मजदूर मिलना कठिन हो गया। मुद्रा की कीमत बुरी तरह नीचे गिरने लगी और व्यापार का क्रम अस्त-व्यस्त हो गया। युद्ध के आरम्भ में युद्ध का औसतन दैनिक खर्चा 40 करोड़ रुपया था और 1918 ई. के बाद इस खर्च का औसत साढ़े तीन करोड़ रुपये प्रति घण्टा हो गया था।

अमेरिका के फेडरल रिसर्च बोर्ड ने अनुमान लगाया कि सब लड़ने वालों का संयुक्तखर्च 31 मार्च, 1918 ई. तक 35000 मिलियन पौण्ड हो चुका था, जिसके कारण इस युद्ध के निम्नलिखित प्रभाव पड़े-

1. आर्थिक अव्यवस्था एवं नये समीकरण-

महायुद्ध के कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार तथा निजी पूंजी के संचरण की व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गयी थी। ब्रिटेन जैसे आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न राष्ट्र को प्रथम विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप आर्थिक हानि उठानी पड़ी। पाउण्ड-स्टर्लिंग को अन्तर्राष्ट्रीय स्वर्णमान पर स्थिर रखना सम्भव नहीं था। स्वर्णमान से असम्बद्ध हो जाने के बाद पौण्ड और अमरीकी डालर का अनुपात 1 पौण्ड = 3.40 डालर हो गया। फलस्वरूप ब्रिटिश माल का निर्यात मूल्य इन देशों की तुलना में काफी सस्ता हो गया। इससे ब्रिटेन को कुछ लाभ हुआ। विश्व के अधिकांश राष्ट्रों के सामने यह कठिनाई थी कि कैसे वे अपने राष्ट्रों को आर्थिक हानि से उबारें।

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प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम


केवल संयुक्त राज्य अमेरिका ऐसा राष्ट्र था जो युद्ध से पूर्व एक कर्जदार राष्ट्र था, जिसके उद्योग-धन्धे विदेशी, मुख्यत: अंग्रेजी बैंकरों से लिये गये ऋणों से लगाये गये थे। युद्ध के दौरान बड़े भारी पैमाने पर अमेरिका से खाद्य पदार्थ व अन्य सामग्री मित्र राष्ट्रों ने खरीदी, किन्तु युद्धरत यूरोपीय देश इस आयात के बदले कोई निर्यात नहीं दे सके। अत: व्यापार सन्तुलन तेजी से अमरीका के पक्ष में जाना शुरू हो गया। इस प्रकार चार वर्ष के युद्ध ने अमेरिका को कर्जदार देशों की श्रेणी से निकाल कर विश्व का प्रमुख साहूकार राष्ट्र बना दिया। इस तरह से ब्रिटेन का स्थान अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में अब अमेरिका ने ले लिया। प्रथम महायुद्ध में युद्धरत राष्ट्रों द्वारा 186 बिलियन डालर खर्च कर दिये गये। यदि इस धन राशि को विकास कार्य में लगाया जाता तो मानव जाति के लिये कितना लाभप्रद होता।

2.  अन्तर्राष्ट्रीय ऋण और क्षतिपूर्ति-

प्रथम विश्व युद्ध के बाद यूरोप के सभी बड़े राष्ट्र कर्जदार राष्ट्रों की श्रेणी में आ गये थे। इन राष्ट्रों ने विदेशों में पूंजी निवेश कर रखी थी, विवश होकर उन्हें अपने निवेश बेचने पड़े थे। फिर से स्वाभाविक स्थिति में आने के लिये इन राष्ट्रों को ऋण लेने की आवश्यकता थी, क्योंकि इनके उद्योग, जंगल, प्राकृतिक संसाधन तथा कृषि भूमि पर भी युद्ध का विपरीत तथा घातक प्रभाव पड़ा था। इसके साथ ही सबसे ज्वलंत राजनीतिक समस्या क्षतिपूर्ति की थी। इस समस्या ने दीर्घकालीन आर्थिक असामंजस्यता की स्थिति उत्पन्न कर दी थी और एक बहुत बड़ी बाधा के रूप में इस समस्या ने यूरोप को आर्थिक रोग से ग्रस्त रखा।

3.  युद्धजनित अर्थतन्त्र-

इस महायुद्ध के दौरान जर्मनी घोर आर्थिक आपदा के दौर से गुजर रहा था। 1916 में ब्रिटेन द्वारा लगाये गये आर्थिक और व्यापारिक प्रतिबन्ध के फलस्वरूप जर्मन जनता को कष्ट उठाना पड़ रहा था। ऐसे में वाल्टर सेनाओं ने इस स्थिति से मुकाबला करने के लिए ऐसी युद्ध कम्पनियों का गठन किया, जिनके नेतृत्व में अनुपयोगी व्यापारिक प्रतियोगिता समाप्त कर राष्ट्र के लिए हितकारी प्रयोगों को प्रोत्साहन दिया जा सके। इसके लिये मूल्यों पर नियन्त्रण तथा आवश्यक वस्तुओं की राशनिंग पद्धति को अपनाया गया। वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित किया गया ताकि वे इन वस्तुओं या रसायनों का विकल्प ढूँढ निकालें, जिनका जर्मनी में प्रवेश निषिद्ध था। सेनाओं ने बिस्मार्क की ही तरह सभी सेवाओं को राज्य के अधीन कर दिया और एक अद्भुत प्रणाली को जन्म दिया। इस प्रणाली को लेनिन ने रूस में अपनाया था। इसे युद्धजनित समाजवाद भी कहा जा सकता है।

4.  नवीन वादों का सूत्रपात-

प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर समाजवाद विकसित हुआ। 1917 की क्रान्ति से रूस में साम्यवाद ने अपने पाँव जमा ही लिये थे। इटली और जर्मनी में युद्ध के उपरान्त भी व्यवस्था इस ढंग की रही कि वहाँ शान्ति स्थापित नहीं हुई। इसके परिणामस्वरूप जर्मनी में नाजीवाद और इटली में फासीस्टवाद ने जन्म लिया। नाजीवादफासीस्टवाद के दबाव में आ जाने से यूरोप में सैनिकवाद पुनः आरम्भ हो गया। रूस में जो साम्यवाद प्रसारित हुआ वह भी प्रथम विश्व युद्ध का ही परिणाम था। जब रूस में साम्यवाद सुदृढ़ता से जम गया तो वहाँ कल-कारखानों का राष्ट्रीयकरण किया गया। उसमें सरकार का हस्तक्षेप बढ़ गया। इस प्रकार युद्ध के पश्चात् अनेक वादों का आविर्भाव हुआ जिनके कारण विश्व की राजनीति में अनेक परिवर्तन हुए।

5. स्त्रियों की वृहत्तर भूमिका-

प्रथम विश्व युद्ध के चार वर्षों के दौरान ज्यादा से ज्यादा पुरुषों की आवश्यकता युद्ध क्षेत्र में होती थी। युद्धजनित परिस्थितियों में स्त्रियों की परम्परागत भूमिका के अलावा समाज में यह अपेक्षा की जाने लगी कि उनके द्वारा दिया गया योगदान पर्याप्त नहीं है। स्त्रियों ने फैक्ट्रियों, दुकानों तथा कार्यशालाओं में कार्य करना शुरू किया और वे अब उन कार्यों को भी कर रही थीं, जिन्हें अब तक पुरुष वर्ग करता था। इसके बाद हर राष्ट्र में स्त्रियों को ज्यादा प्रतिनिधित्व तथा अधिकार दिये जाने की बात उठने लगी।

6. एकतन्त्र शासन का स्थान प्रजातन्त्र ने लिया-

प्रथम विश्व युद्ध ने कई महान् परिवर्तन दिखाये। फ्रांस की राज्य क्रान्ति लोकतन्त्रीय सरकार की स्थापना के उद्देश्य से हुई थी। किन्तु उसके प्रभाव से यूरोप में एकतन्त्र शासन समाप्त नहीं हुआ था। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में तो एकतन्त्र शासन पर्याप्त विकसित हुआ था। किन्तु इस विश्व युद्ध के प्रभाव से जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी, रूस, टर्की में एकतन्त्र शासन समाप्त हो गया और उसके स्थान पर वहाँ जनतन्त्र सरकारें स्थापित हो गयीं। इनके अतिरिक्त चेकोस्लोविया, लिथूनिया, लैटेविया और फीनलैण्ड देशों में भी राजतन्त्र सरकार स्थापित की गयी।

7. अन्तर्राष्ट्रीय विश्व संस्थाएँ-

प्रथम विश्व युद्ध के उपरान्त विश्व के राजनयिकों ने ऐसी संस्था के निर्माण की आवश्यकता को महसूस किया, जिसके माध्यम से विश्व में उत्पन्न विभिन्न समस्याओं का शान्तिपूर्वक हल, विभिन्न अवसरों पर बैठकों या सम्मेलनों द्वारा किया जा सके। विश्व में व्याप्त अनेक सामाजिक समस्याओं का हल भी ढूँढ़ने का प्रयास किया गया। इस उद्देश्य से राष्ट्र संघ का गठन किया गया।

8. वैज्ञानिक प्रयोग-

प्रथम विश्व युद्ध के अन्तराल में केवल उन प्रयोगों को प्रोत्साहन अधिक मिला, जिनसे ऐसे अस्त्र-शस्त्र निर्मित हों कि शत्रु को अधिकाधिक नुकसान पहुँचाया जा सके, लेकिन इस प्रक्रिया में अप्रत्यक्ष रूप से अनेक आविष्कार भी हुए जिनसे मानव जाति को लाभ मिला।

9. मजदूर आन्दोलन-

युद्ध की अग्नि ने लाखों नवयुवकों को भस्मीभूत बना दिया। मजदूरों का अभाव उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा था। इस कारण मिल मालिकों को मजदूर मिलना कठिन हो गया। इसके साथ ही मजदूर वर्ग दिन पर दिन संगठित होता जा रहा था। इस कारण अब मजदूर कारखानों के मालिकों के अत्याचार सहन करने के लिये उद्यत नहीं थे। उन्होंने पूंजीपतियों के शोषण के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ किया। इस प्रकार से प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात् मजदूर वर्ग अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो गया और अपने अधिकार प्राप्ति के लिये वह आन्दोलन करने लगा।

10. बेरोजगारी-

युद्ध से लौटने पर और शान्ति काल के समय सैनिकों के लिये कोई कार्य नहीं था, बिगड़ी हुई आर्थिक दशा भी इसके लिये उत्तरदायी थी। भारी संख्या में सैनिक असन्तुष्ट हुए और उन्होंने ऐसे नेताओं को अपना समर्थन देना प्रारम्भ किया जो उन्हें समाज में उचित स्थान दिलवायें तथा उचित रोजगार की व्यवस्था करने का दावा करते हों। इटली और जर्मनी में सैनिकों में व्याप्त इस असन्तोष का राजनीतिज्ञों ने लाभ उठाया।

प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम बड़े दूरगामी सिद्ध हुए। इस महाविनाश की कल्पना संसार में किसी ने नहीं की होगी। लेकिन 20 वर्ष के अन्तराल में दूसरा युद्ध छिड़ जायेगा, यह भी कल्पना नहीं की जा सकती थी। प्रथम विश्व युद्ध से ऐसा प्रतीत होता था कि मानव जाति ने कोई सबक नहीं सीखा था। जीत के उल्लास और उन्माद तथा पराभव की निराशा और बदले की भावना में विश्व समाज क्षमा और आन्तरिक विकास के उच्चतर मूल्यों को स्थापित नहीं कर पाया।

युद्ध का उत्तरदायित्व

युद्ध में भाग लेने वाले प्रत्येक शक्तिशाली देश ने समाचार-पत्रों व अपने मन्त्रियों के भाषणों से यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि वह युद्ध में आक्रान्ता के रूप में भाग नहीं ले रहा है, वरन् वह युद्ध उस पर थोपा जा रहा है। इसके अलावा उन्होंने अपने तत्कालीन राजकीय रिकार्ड से भी यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि इनमें से कोई भी राष्ट्र युद्ध के लिये उत्तरदायी नहीं है। युद्ध को प्रोत्साहन देने वाली समस्त परिस्थितियों का अध्ययन करने के पश्चात् हम किसी भी एक देश विशेष को इसका अपराधी नहीं ठहरा सकते।

सर्बिया (Serbia)-

युद्ध का तात्कालिक कारण था- आस्ट्रिया के राजकुमार का वध। वह वध साराजेवो में सर्बिया के किसी आतंकवादी नवयुवक ने किया था। कहा जाता है कि आस्ट्रिया को इस बात की पूर्व में खबर मिल चुकी थी। उसने सर्बिया की सरकार को सूचित किया था कि इस प्रकार की कार्यवाही के प्रति सावधानी बरते; किन्तु सर्बिया की सरकार ने इस विषय में कुछ कदम नहीं उठाया। उसी देश में राजकुमार की हत्या के दो प्रयास किये गये और वह दूसरे प्रयास में मारा गया।

इसके अलावा सर्बिया पर यह दोष भी लगाया गया कि उसने अपराधी को भगाने में सहयोग दिया। कुछ इतिहासकार यह भी लिखते हैं कि सर्बिया की सरकार ने आस्ट्रिया सरकार के अल्टीमेटम का उत्तर देने से पूर्व ही सीमा पर अपनी सेनाएँ भेज दी थीं। इससे स्पष्ट है कि सर्बिया युद्ध करने के लिये उतारू था और उसे रूस युद्ध की प्रेरणा दे रहा था, क्योंकि वह आस्ट्रिया का कट्टर शत्रु था। सर्बिया के विरुद्ध यह भी चार्ज लगाया जाता है कि वह महान् सर्बिया' के नाम पर अपने नवयुवकों में उग्र राष्ट्रवाद की भावना उभार रहा था और अपने इस उद्देश्य की पूर्ति में वह आस्ट्रिया को ही प्रधान बाधक बता रहा था। यह सब बातें सत्य मानते हुए भी हम युद्ध का सारा अपराध सर्बिया पर नहीं थोप सकते।

आस्ट्रिया (Austria)-

यदि सर्बिया युद्ध के लिये उतारू था तो वह उन अपमानजनक शर्तों को कभी स्वीकार नहीं करता। अल्टीमेटम की शर्ते व उसे स्वीकार करने के समय की अवधि देखते हम कह सकते हैं कि आस्ट्रिया युद्ध पर आमादा था। बाल्कन राज्य पर अपना प्रभुत्व जमाने का लक्ष्य तो आस्ट्रिया का बहुत पहले से था। इसलिये वह वहाँ रूस का प्रभाव नहीं देख सकता था और जर्मनी का मित्र भी वह केवल इसलिये बना था, किन्तु दूसरे बाल्कन युद्ध की समाप्ति पर आस्ट्रिया को अपना प्रमुख शत्रु सर्बिया दृष्टिगत होने लगा क्योंकि उस युद्ध में सर्बिया एक विजेता के रूप में उभरा था। राज्य भी उसका पर्याप्त विस्तीर्ण हो गया था।

सर्बिया में स्लाव जाति के लोग अधिक संख्या में थे और आस्ट्रिया की अधिक जनसंख्या भी स्लाव लोगों की थी। अत: आस्ट्रिया को आशंका हो गयी थी कि सर्बिया महान् संघ बनाकर आस्ट्रिया के अस्तित्व को संकट उत्पन्न करेगा। अत: दूसरे बाल्कन युद्ध के उपरान्त तो आस्ट्रिया सर्बिया को ही अपना शत्रु समझने लगा था और वह उसे शीघ्र समाप्त करना चाहता था। अत: राजकुमार की हत्या तो उसे केवल एक बहाना मात्र थी। इसके अलावा आस्ट्रिया ने अपने अल्टीमेटम में जो शर्ते भेजी थीं वे इस प्रकार की थी कि उन्हें कोई भी स्वाभिमानी व स्वतन्त्र देश कभी स्वीकार नहीं कर सकता था और उसके द्वारा निर्धारित अवधि 48 घण्टे तो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि आस्ट्रिया तो सर्बिया से येन-केन-प्रकारेण युद्ध चाहता था। युद्ध करने का साहस वह इसलिये कर रहा था कि जर्मनी उसकी पीठ पर था। आस्ट्रिया का कहना था कि युद्ध की घोषणा केवल रक्षात्मक थी, पर यह न्यायोचित प्रतीत नहीं होता।

जर्मनी (Germany)-

जर्मनी ने इस युद्ध में सर्वाधिक भाग लिया। उसे ही इस युद्ध के सर्वाधिक कटु फल चखने पड़े। यद्यपि विलियम केसर ने जर्मनी की गद्दी सम्भालते ही सामरिक तैयारियाँ बड़े पैमाने पर करना आरम्भ कर दिया था। उसने अपनी सैन्य शक्ति में भारी वृद्धि की तथा नौसेना को बढ़ाया और उसे विश्व में शक्तिशाली बनाया। उसकी सामरिक तैयारियों से ऐसा लगता था कि वह गद्दी पर बैठा ही युद्ध करने के उद्देश्य से था। उसने अपने देश को एक महान् शक्ति बनाने के उद्देश्य से ही ब्रिटेन की मित्रता का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया था और इसी उद्देश्य से वह आस्ट्रिया को युद्ध करने के लिए प्रोत्साहन दे रहा था।

इतना सब होते हुए भी जर्मनी यह कभी नहीं सोचता था कि यह विश्व युद्ध बन जायेगा। वह स्थानीय युद्ध के लिये पूर्णरूप से तैयार था, पर विश्व युद्ध के लिये तैयार नहीं था। मोरक्को प्रश्न पर दो बार युद्ध की परिस्थितियाँ बनीं जहाँ उसने यूरोप की अन्य महान् शक्तियों को इसमें उलझते देखा तो वह झुक गया। इससे स्पष्ट हैं कि वह फ्रांस से युद्ध करने को उद्यत था, पर फ्रांस के अन्य सहयोगियों से एक साथ युद्ध करने को तैयार नहीं था। यहाँ उसकी यही धारणा थी कि युद्ध स्थानीय रहेगा। जर्मनी ने इसी आशा से आस्ट्रिया को सर्बिया पर आक्रमण करने को प्रोत्साहन किया। इसका एक कारण यह भी था कि विलियम द्वितीय भी टर्की से मित्रता कर बाल्कन राज्यों में अपना प्रभाव स्थापित करना चाहता था। दूसरे बाल्कन युद्ध की समाप्ति पर सर्विया भी उसके मार्ग का कंटक बन गया था। अत: वह भी उसे शीघ्रातिशीघ्र समाप्त करना चाहता था और यह अवसर उसे मिल रहा था, आस्ट्रिया के माध्यम से। विलियम द्वितीय ने भी इस युद्ध के विश्व युद्ध में परिणित हो जाने की कल्पना भी नहीं की थी। अत: यह धारणा कि प्रथम विश्व युद्ध का प्रणेता जर्मनी था, यह न्यायोचित नहीं है।

इग्लैण्ड (England)-

इंग्लैण्ड इस युद्ध में तनिक भी रुचि नहीं रखता था। वह पूर्वी समस्या पर कभी युद्ध नहीं करना चाहता था। युद्ध से उत्पन्न वातावरण से जब यूरोप की अन्तर्राष्ट्रीय दशा बिगड़ती देखी तो उसने जर्मनी व इटली के सामने मध्यस्थता का प्रस्ताव रखा, परन्तु आस्ट्रिया ने उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इसके उपरान्त उसने राजदूतों के सम्मेलन का भी प्रस्ताव रखा, वह भी नहीं माना गया। उसने युद्ध की घोषणा भी तत्काल नहीं की।

इससे स्पष्ट है. कि इंग्लैण्ड की युद्ध करने की मंशा नहीं थी। किन्तु जर्मनी ने जब बेल्जियम पर आक्रमण कर उसे परास्त कर दिया तब इंग्लैण्ड ने युद्ध की घोषणा की। उसकी युद्ध घोषणा का कारण यह था कि इंग्लैण्ड बेल्जियम को उसकी अखण्डता तथा स्वतन्त्रता की गारण्टी दे चुका था। इसके अतिरिक्त युद्ध के और भी कारण थे। फ्रांस द्वारा युद्ध की घोषणा करना तथा रूस द्वारा आस्ट्रिया के विरुद्ध सेना भेजना। ये दोनों देश ही इंग्लैण्ड के मित्र थे।

फ्रांस (France)-

फ्रांस ने भी इंग्लैण्ड के साथ बेल्जियम को उसकी अखण्डता की गारण्टी दी थी। फ्रांस युद्ध में इसलिये भी अभिरुचि रखता था कि वह इस युद्ध के माध्यम से जर्मनी से 1870 की पराजय का बदला ले सकेगा। इंग्लैण्ड उसके कन्धों पर था ही अत: जिस प्रकार रूस ने आस्ट्रिया को समाप्त करने के उद्देश्य से सर्बिया को युद्ध के लिये प्रोत्साहित किया उसी प्रकार फ्रांस ने जर्मनी ने अपनी हार का बदला लेने की नियत से इंग्लैण्ड को युद्ध के लिये प्रेरित किया।

इसके अलावा जर्मनी की बढ़ती हुई सैन्य शक्ति से और विशेषत: उसकी नौसेना से फ्रांस भी चिन्तित था। वह जानता था कि जर्मनी का प्रथम शिकार वही बनेगा। निःसन्देह वह प्रथम विश्व युद्ध में आक्रामक नहीं था, किन्तु वह भी इस युद्ध में जर्मनी से बदला लेने की नियत से अभिरुचि रखता था। युद्ध का वातावरण उसने तैयार भी किया था, क्योंकि 21 जुलाई को फ्रांस का राष्ट्रपति पाश्नकेर अपनी यात्रा के समय रूस को यह आश्वासन दे आया था कि सर्बिया को बचाने हेतु वह आस्ट्रिया के विरुद्ध जो कार्यवाही करेगा उसमें फ्रांस भी सहायता देने को तैयार रहेगा। फ्रान्स के इसी आश्वासन पर रूस ने सर्बिया को आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध करने को भड़काया था।

उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि प्रथम विश्व युद्ध के लिये कोई भी राष्ट्र उद्यत नहीं था और युद्ध का सारा दोष किसी एक देश पर नहीं थोपा जा सकता हैं । इतिहासकार जेम्स का कहना है कि- "राष्ट्रीयता, सत्तावादिता, सैनिकता तथा सन्धियों की गुत्थिथयों ने तनाव को बढ़ाने में योग दिया और राजकुमार की आकस्मिक घटना ने इस युद्ध को अवश्यम्भावी बना दिया और उस समय जब विश्व के राष्ट्र एक अन्तर्राष्ट्रीय अव्यवस्था की स्थिति में थे।"

वास्तव में यह युद्ध किसी ने किसी पर थोपा नहीं था। तैयारी प्रत्येक देश ने कर रखी थी, पर वह तैयारी सुरक्षात्मक थी। अतः इतिहासकार स्लोसन का इस सम्बन्ध में कथन उपयुक्त लगता है और हम उससे सहमत हैं। उसका कहना है कि यह युद्ध संकल्प का नहीं विक्षोभ का था। वास्तव में कोई भी देश युद्ध नहीं चाहता था। पारस्परिक अविश्वास के कारण उनमें तनाव इतना बढ़ गया था कि प्रत्येक को शान्ति से अधिक अपनी राष्ट्रीय प्रतिष्ठा की चिन्ता थी और उस प्रतिष्ठा के अस्तित्व के लिये उन्होंने यह महान् युद्ध लड़ा। जैसाकि मित्र राष्ट्रों ने प्रथम विश्व युद्ध का सारा उत्तरदायित्व जर्मनी पर ही थोपने का प्रयास किया है-यह न्यायसंगत नहीं है। इसलिये इतिहासकार फे (Fay) लिखता है- "केवल जर्मनी व उसके मित्रों को युद्ध के लिये उत्तरदायी ठहराना ऐतिहासिक दृष्टि से युक्तिसंगत नहीं है। उनका विचार है कि सभी कुछ अंशों में उसके लिये उत्तरदायी हैं।"

युद्ध के अन्त में लेन्सिंग के नेतृत्व में युद्ध का उत्तरदायित्व मालूम करने हेतु एक आयोग भी गठित किया गया था। उसमें जर्मनी का कोई प्रतिनिधि नहीं लिया गया। अन्त में इस आयोग ने भी वर्साय सन्धि की धारा 231 के अन्तर्गत जर्मनी को ही युद्ध का उत्तरदायी घोषित किया।

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