बीसवीं सदी का विश्व
पूर्व सोवियत संघ का विघटन
लेनिन के नेतृत्व में 7 नवम्बर, 1917 को सोवियत संघ
की स्थापना हुई। लेनिन के पश्चात् स्टालिन, खुश्चेव तथा लियोनाद ब्रेझनेव
ने अपनी नीतियों एवं कार्यप्रणाली के द्वारा सोवियत संघ को सम्पूर्ण विश्व
में एक महान् शक्ति का रूप प्रदान किया। वस्तुत: पूर्व सोवियत संघ के गणराज्य
पूर्ण रूप से केन्द्रीय नेतृत्व के अधीन थे। उन्हें अपनी कोई स्वतन्त्रता प्राप्त
नहीं थीं. दूसरे शब्दों में, पूर्व सोवियत संघ
में पूर्ण सर्वसत्तावादी शासन व्यवस्था स्थापित थी और जहाँ तक पूर्वी यूरोप के
साम्यवादी देशों का प्रश्न है, वैसे भी सोवियत
शासन के दमन चक्र में बंधे रहे। हंगरी, पोलैण्ड एवं चेकोस्लोवाकिया को सोवियत दमन का विशेष रूप से
शिकार बनना पड़ा। वस्तुतः ब्रेझनेव युवा तक सोवियत संघ का एक महाशक्ति के रूप में
वर्चस्व स्थापित रहा।
लियोनोद ब्रेझनेव के पश्चात् सोवियत संघ में वैसे तो लिखोनोव, यूरी, ओन्द्रोपोव एवं चेरेंनेको भी सत्तारूढ़ हुए, किन्तु कार्यकाल अत्यन्त अल्प होने के कारण वे विदेश नीति में कोई गुणात्मक परिवर्तन न ला सके। चेरेंनेको के पश्चात् 11 मार्च, 1985 को मिखाइल गोर्बाच्योव पूर्व सोवियत संघ के शासनाध्यक्ष बने। उन्होंने 'ग्लासनोस्त' (खुलेपन) तथा पेरेस्त्रोइका (पुनर्निर्माण) की दो नीतियाँ प्रस्तुत की। इन नीतियों के प्रचलन से पूर्व सोवियत संघ का तानाशाही ढाँचा चरमरा गया। उनके कार्यकाल में पूर्वी यूरोप के 'साम्यवादी देश' भी अपनी आजादी का बिगुल बजाने लगे। गोर्बाच्योव ने 25 दिसम्बर, 1991 को पूर्व सोवियत संघ के राष्ट्रपति पद से त्यागपत्र दे दिया तथा 26 दिसम्बर को ही उनके द्वारा पूर्व सोवियत संघ के विघटन की घोषणा की गई। इस प्रकार 75 वर्ष से सुस्थापित पूर्व सोवियत संघ का पतन हो गया। यह वस्तुत: 20वीं शताब्दी की सबसे महानतम घटना थी। इस घटना ने विश्व के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को ही बदल दिया। जहाँ एक ओर सोवियत नागरिकों ने सर्वसत्तावादी तानाशाही से मुक्ति की साँस ली, वहाँ दूसरी ओर पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों में साम्यवादी शासन का पूर्ण पतन हो गया। वहाँ बहुदलीय लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था की व्यवस्था हुई। पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों से सेनाओं को वापस बुलाया गया। चूंकि सोवियत संघ का विघटन हो गया था। इसलिये 'नाटो' का भी मात्र औपचारिक महत्त्व रह गया। पूर्व सोवियत संघ के पतन के फलस्वरूप विश्व राजनीति में बहुत प्रभाव पड़े।
सोवियत संघ के पतन का विश्व राजनीति पर प्रभाव
1. स्वतन्त्र व
सम्प्रभु राष्ट्रों का उदय-
सोवियत संघ से पृथक् हुए गणराज्य
स्वतन्त्र एवं सम्प्रभु राष्ट्रों के रूप में उभरे। इससे विश्व में सम्प्रभु एवं
स्वतन्त्र राष्ट्रों की संख्या में वृद्धि हुई। आज इन सभी राष्ट्रों के तृतीय
विश्व के सम्बन्ध में स्थापित हो रहे हैं।
2. स्वतन्त्र
राष्ट्रों का राष्ट्रकुल-
सोवियत संघ से पृथक् हुए गणराज्यों
में से 11 ने स्वतन्त्र राष्ट्रों के राष्ट्रकुल का एक साधारण-सा संगठन स्थापित कर
लिया है। राष्ट्रकुल के इन सदस्य राष्ट्रों के साथ तृतीय विश्व के देश बहुपक्षीय
सहयोग करने की नीति अपना रहे हैं।
3. रूस सोवियत संघ
का उत्तराधिकारी-
बोरिस येल्तसिन के नेतृत्व में रूस को
ही वस्तुतः सोवियत संघ का उत्तराधिकारी माना गया। पूर्व सोवियत संघ द्वारा तृतीय
विश्व के साथ किये गये समझौतों एवं सन्धियों के निर्वाह का दायित्व भी रूस पर आ
गया। रूस को ही संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य
बनाया गया। तृतीय विश्व के देशों में सोवियत संघ से पृथक हुए गणराज्यों की तुलना
में रूस का राजनीतिक प्रभाव अधिक हो गया।
पूर्व सोवियत संघ का विघटन |
4. संयुक्त राज्य
अमेरिका एक महाशक्ति-
सोवियत संघ व अमेरिका महाशक्ति
के रूप में जाने जाते थे, परन्तु सोवियत
संघ के विघटन के पश्चात् अब मात्र अमेरिका ही महाशक्ति के रूप में जाना जाने लगा।
तृतीय विश्व के देशों पर उसका पूर्ण प्रभुत्व स्थापित हो गया।
5. रूस के जर्जर
आर्थिक व्यवस्था-
रूस की वर्तमान आर्थिक
स्थिति अत्यन्त जर्जर है। आर्थिक स्थिति का समाधान करने के लिये वह संयुक्त राज्य
अमेरिका सहित ग्रुप-7 के देशों पर निर्भर है। अत: तृतीय विश्व के देशों में उसकी
पहले जैसी छाप समाप्त हो गई।
6. ग्रुप-7 का विश्व
पर प्रभुत्व-
सोवियत संघ के पतन के पश्चात्
संयुक्त राज्य अमेरिका सहित ग्रुप-7 राज्यों का विश्व राजनीति पर प्रभुत्व स्थापित
हो गया। पूर्व सोवियत संघ से तृतीय विश्व के देशों को तकनीकी, सैनिक व आर्थिक सहायता
प्रचुरता से प्राप्त होती थी, किन्तु विघटन के
बाद अब रूस या अन्य गणराज्य में इतनी क्षमता नहीं है कि वे तृतीय विश्व के देशों
की सहायता कर सकें।
7. तृतीय विश्व व
रूस के सम्बन्ध-
अपने आर्थिक विकास
हेतु अब तृतीय विश्व के देशों को संयुक्त राज्य अमेरिका तथा अन्य पाश्चात्य देशों
का मुंह ताकना पड़ता है। वस्तुत: ये देश तृतीय विश्व के देशों को सहायता तो देते
हैं, किन्तु उन पर बहुतसे
बन्धन भी थोप देते हैं जिससे विश्व में नव उपनिवेशवाद का संकट उत्पन्न हो
गया।
8. इस्लामिक कट्टरवाद को बढ़ावा-
सोवियत संघ से पृथक हुए
गणराज्यों में से अनेक ऐसे हैं, जहाँ इस्लाम धर्म
के अनुयायी बहुमत में हैं। अतः इन पृथक हुए इस्लामिक राष्ट्रों से इस्लामिक
कट्टरवाद के बढ़ने की पूरी आशा है। सोवियत संघ के पतन के परिणामस्वरूप मध्यपूर्व
के तेल भण्डारों पर अब संयुक्त राज्य अमेरिका का प्रभुत्व हो गया है।
9. जापान की शक्ति में बढ़ोतरी-
सोवियत संघ के पतन से जापान की
शक्ति में निरन्तर 'बढ़ोतरी हुई है।
10. लैटिन अमेरिका व अफ्रीकी देशों में साम्यवाद की अवनति-
सोवियत संघ के पतन से लैटिन
अमरीकी देशों में साम्यवादी आन्दोलन को भारी आघात पहुँचा है। वस्तुत: अब इन देशों
में संयुक्त राज्य अमेरिका का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। सोवियत संघ के पतन से
अफ्रीकी राष्ट्रों में भी साम्यवादी आन्दोलन को जबरदस्त धक्का लगा है।
11. गुटनिरपेक्षता अप्रांसगिक हो गई-
सोवियत संघ के पतन के फलस्वरूप
अब विश्व में अनेक राजनीतिज्ञ असंलग्नता की प्रासंगिकता को विवादास्पद मानने लगे
हैं।
12. भारत व सोवियत संघ-
सोवियत संघ के पतन से भारत को
भी गहरा धक्का लगा है। इसके पूर्व सोवियत संघ व भारत की मैत्री विश्वप्रसिद्ध थी।
सोवियत संघ ने विकास के क्षेत्र में भारत की काफी सहायता की थी। लेकिन अब यूक्रेन
तथा रूस द्वारा पूर्व समझौतों एवं दायित्वों को पूरा करना कठिन होता जा रहा है।
उधर अमेरिका व पश्चिम राष्ट्र रूस पर दबाव डाल रहे हैं कि वह भारत के साथ किये गये
पूर्व समझौतों व करारों को रद्द कर दें।
वस्तुत: पूर्व
सोवियत संघ के विघटन के पश्चात् बोरिस येल्तसिन के नेतृत्व में रूस
सबसे बड़े गणराज्य के रूप में वास्तविक उत्तराधिकारी के रूप में उभरा है। बोरिस येल्तसिन
ने उस समय से प्रसिद्धि पाना प्रारम्भ किया, जब उन्होंने गोर्बाच्योव को राष्ट्रपति के पद से
हटाकर स्वयं को राष्ट्रपति घोषित कर दिया था। लेकिन येल्तसिन ने इस विद्रोह के
विरुद्ध जन आन्दोलन का नेतृत्व किया।
13. साम्यवादी
आन्दोलन की धाक-
पहले साम्यवादी
आन्दोलन के नेतृत्व के प्रश्न पर सोवियत संघ व चीन का विवाद काफी मुखर
था, किन्तु सोवियत संघ के
विघटन के पश्चात् अब इस प्रश्न का कोई महत्त्व नहीं रह गया। सोवियत संघ के विघटन
से विश्व में साम्यवादी आन्दोलन को गहरा धक्का लगा है। अब विश्व में चीन, वियतनाम, उत्तरीकोरिया एवं क्यूबा
ही साम्यवादी देश रह गये हैं। क्यूबा के वर्तमान राष्ट्रपति फिदल कास्ट्रो संयुक्त
राज्य अमेरिका की कूटनीति का कहाँ तक सामना कर पाते हैं, यह भविष्य का घटनाक्रम ही
बतलायेगा। सोवियत संघ के पतन से एशिया में वियतनाम व कम्बोडिया की सरकारों को काफी
मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है। पहले इन देशों को सोवियत सरकार का पूर्ण समर्थन
प्राप्त था और इसके फलस्वरूप यानायेव को पदत्याग करने पर विवश होना पड़ा। इससे
गोर्बाच्योव पुन:सोवियत संघ के राष्ट्रपति बने। लेकिन इसके बाद येल्तसिन के आगे
गोर्बाच्योव का महत्त्व घटता गया।
इधर संयुक्त
राज्य अमेरिका और अन्य पश्चिमी राष्ट्रों ने भी उन्हें अत्यधिक महत्त्व देना
प्रारम्भ किया। सोवियत संघ में भी उनकी धाक निरन्तर बढ़ती गई। इन सबके
फलस्वरूप गोर्बाच्योव को राष्ट्रपति पद छोड़ना पड़ा। बोरिस येल्तसिन रूस
के नये एवं प्रथम राष्ट्रपति बने। चूँकि उन्होंने ही नई रूसी विदेश नीति की
प्राथमिकता एवं सिद्धान्तों का निरूपण किया है। अत: उन्हें नई रूसी विदेश नीति का
निर्माता कहा जाता है।
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