सूफीमत का अर्थ
इस्लामी रहस्यवाद को ही सूफी धर्म
के नाम से जाना जाता है। सूफी धर्म इस्लामी रहस्यवाद का ही एक रूप है। 'सूफी' शब्द की उत्पत्ति के विषय
में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। कुछ विद्वान इसे ग्रीक शब्द 'सोफिया' (ज्ञान) का रूपान्तर मानते हैं।
कुछ विद्वानों ने
'सफा' से सूफी की उत्पत्ति मानी
है। इन विद्वानों का मानना है कि जो व्यक्ति पवित्र थे, वे 'सूफी' कहलाये।
कुछ विद्वानों के अनुसार मदीना में मुहम्मद साहब द्वारा बनवाई गई मस्जिद के बाहर सफ्फ अर्थात् चबूतरे पर जिन गृहहीन व्यक्तियों ने शरण ली थी तथा जो पवित्र जीवन बिताते हुए ईश्वर की आराधना में लगे रहते थे, वे 'सूफी' कहलाये।
कुछ विद्वानों ने
इसका उद्गम 'संफ' (पंक्ति) से माना है। उनके अनुसार
वे लोग सूफी कहलाये जो निर्णय
के दिन पवित्र एवं ईश्वरभक्त होने के कारण अन्य व्यक्तियों से पृथक् पंक्ति में खड़े किये
जायेंगे।
अयूनसर अल सिराज का कथन है कि, 'सूफी' शब्द अरबी भाषा के 'सूफ' शब्द से निकला है जिसका
अर्थ है ऊन। मुहम्मद साहब के पश्चात् अरब देश में जो सन्त ऊनी कम्बल ओढ़कर घूमते थे तथा अपने मत का
प्रचार करते थे,
वे सूफी कहलाये। पाश्चात्य
विद्वान् ब्राउन ने इस मत को स्वीकार करते हुए लिखा है कि ईरान में इन रहस्यवादी
साधनों को ऊन पहनने वाला कहा जाता था। ईरान में ये सन्त ऊनी वस्त्र को जीवन की सादगी
तथा विलासिता से दूर रहने का प्रतीक मानकर एकान्त जीवन व्यतीत करने पर बल देते
थे।
![]() |
सूफी मत का विकास और सिद्धान्त |
अधिकांश
विद्वानों का कहना है कि इस धर्म का नाम 'सूफी' इसलिए पड़ा
क्योंकि इस धर्म के अनुयायी बहुत निर्धनता की दशा में रहते थे। सूफी सन्त मोटा वस्त्र धारण करते थे, जमीन पर शयन करते थे।
पैगम्बर की बनवाई गई मस्जिद में रहते थे तथा वाद-विवाद करते थे।
डॉ. अवध बिहारी
पाण्डेय के अनुसार, "सूफी उन मुसलमान सन्तों को कहते
हैं जो दीनता का जीवन बिताने के उद्देश्य से ऊन के मामूली कपड़े पहनते हैं तथा जो
कुरान के शाब्दिक बाप्लार्थ को प्रधानता न देकर उसमें निहित रहस्य को विशेष महत्त्व
देते हैं।"
गजाली के अनुसार, "सूफी होने का तात्पर्य यह
है कि
निरन्तर शान्ति
से रहता हुआ मनुष्य ईश्वर की उपासना में लीन रहे।"
अतः स्पष्ट है कि सूफी सम्प्रदाय
के सन्तों का जीवन बड़ा सरल, सादा तथा स्नेह
से भरा हुआ था। ये सन्त सांसारिक
भोग-विलास से दूर रहकर पवित्र तथा संयमी जीवन व्यतीत करते थे। ये सन्त पवित्र आचरण तथा उच्च
आदर्शों के कारण बहुत लोकप्रिय थे।
सूफी मत का
आविर्भाव- सूफी मत के आविर्भाव के संबंध में विद्वानों में बहुत मतभेद है। डॉ. यूसुफ हुसैन
के अनुसार सूफीवाद की उत्पत्ति इस्लाम धर्म से हुई है। परम सत्ता की उपलब्धि से संबंधित रहस्यवाद
को सूफी सन्तों ने इस्लाम धर्म से ग्रहण किया है। रोजा, पाँच बार नमाज पढ़ना, हज आदि धार्मिक कार्य तथा
आचार का इस्लाम धर्म में बड़ा महत्त्व है।
इस्लाम में आध्यात्मवाद और रहस्यवाद की भी प्रवृत्तियाँ हैं।
प्रो. निजामी ने सूफी मत के
आविर्भाव पर अन्य धर्मों के प्रभावों को अस्वीकार करते हुए स्पष्ट कहा है कि सूफी मत का मूल स्रोत
कुरान तथा पैगम्बर की जीवनी है। परन्तु यह पूर्ण रूप से स्वीकार करना तर्कसंगत
नहीं है कि सूफी मत का स्रोत केवल इस्लाम है। इस मत पर अन्य धर्म तथा दर्शनों का
प्रभाव पड़ा है।
एडलबर्ट मार्क्स के अनुसार सूफी मत का
आविर्भाव
यूनानी दर्शन से हुआ है। ब्राउन
के अनुसार इस प्रभाव के कारण इस्लाम के संन्यासी जीवन में रहस्यवादी
प्रवृत्तियों का प्रवेश हुआ।
निकोल्सन के अनुसार सूफी मत के
आविर्भाव में यूनानी प्रभाव का
प्रमुख स्थान है।
कुछ विद्वानों के
अनुसार सूफी मत का उदय आर्य जाति के धार्मिक विकास के परिणामस्वरूप हुआ। ब्राउन ने
सूफी मत पर बौद्ध तथा जैन धर्म के प्रभाव को भी स्वीकार किया है। सूफी मत संबंधी शांति तथा
अहिंसा पूर्ण रूप से जैन तथा बौद्ध धर्म से संबंधित
है। अनेक बौद्ध भिक्षु धर्म के प्रचार के लिये पश्चिम एशिया के देशों में गये अत: सूफि साधकों के ऊपर
प्रभाव पड़ना स्वभाविक था। सूफी मत पर ईसाई धर्म का भी प्रभाव पड़ा।
ईसाई विचारधारा
से प्रभावित होकर सूफी साधक को व्यक्तिगत स्वार्थ में
कोई रुचि नहीं थी। उनके हृदय में मानव सेवा का भाव ईसाई धर्म के प्रभाव की ही देन है। ईश्वर पर पूर्ण रूप से आश्रित, भौतिक पदार्थों के प्रति अरुचि भी ईसाई धर्म के प्रभाव के कारण ही है।
अबू अब्दुल्ला अल
मुहासिबी नामक सूफी सन्त
ने अपने संदेश में बाइबिल के
कुछ विषयों का उल्लेख किया है। सूफियों की यौगिक क्रियाओं में हिन्दू संन्यासियों के क्रियाकलापों को ढूँढा जा सकता है।
राईट्स का मत है कि सूफियों में
भावाविष्टावस्था को उत्पन्न करने वाली कुछ क्रियायें तथा प्राणायाम जैसी विधियाँ
हिन्दू धर्म की ही देन हैं। अधिकांश विद्वान यह स्वीकार करते हैं कि सूफी मत के
विकास में भारतीय विचारधारा का प्रभाव पड़ा है।
डॉ. ए.एल.
श्रीवास्तव के अनुसार, "सूफी साधकों का
चिल्ला-ए-माकुस अर्थात् शरीर को यातना देना, खानका के प्रधान के समक्ष नतमस्तक होना, नवागन्तुकों को जल देना, सिर मुंडाना, संकीर्तन का आयोजन आदि
बातें पूर्ण रूप से हिन्दू प्रमाणों को स्पष्ट करती हैं।"
डॉ. चौबे तथा श्रीवास्तव
के कथनानुसार,
"इस प्रकार सूफी
धर्म विश्व के प्राचीन धर्मों की श्रेणी में ही नहीं है, बल्कि अनेक धर्मों के
प्रभावों की उपज है।"
डॉ. ताराचन्द के अनुसार सूफी मत स्रोत
है जिसमें अनेक देश की नदियों का समावेश है। कुरान तथा पैगम्बर मुहम्मद का जीवन
इसके मुख्य स्रोत हैं। ईसाई धर्म तथा नव अफलातून दर्शन के प्रभाव से इसका विकास
हुआ। हिन्दू तथा बौद्ध सिद्धान्तों तथा नास्तिकों ने इसे अधिक प्रभावित किया। अत:
हम निःसन्देह कह सकते हैं कि सूफी मत के आविर्भाव में इस्लाम, ईसाई, बौद्ध, जैन, नास्तिक मत, वेदान्त तथा हिन्दू आदि
धर्मों का योगदान है। परन्तु यह प्रभाव नकल के रूप में नहीं रहा। बल्कि सूफी
साधकों एवं चिन्तकों ने उन बाहरी विचारधाराओं को अपने ढंग से अपनाया तथा सूफी मत
का विकास इस्लाम धर्म के अनुसार ही हुआ है।
सूफीवाद की परिभाषा
प्रो.निजामी के अनुसार सूफीवाद उच्च
स्तर के स्वतंत्र विचारों का स्वरूप है।
मारूफ अल करवी के अनुसार परमात्मा
संबंधी सत्य को जानना तथा मानवीय वस्तुओं का त्याग ही सूफी धर्म है।
अबुल हुसैन अनसूरी का कथन है कि
"संसार से घृणा तथा परमात्मा से प्रेम ही सूफीवाद है।" अबुल हुसैन अनसूरी
के अनुसार सभी सुखों के परित्याग को ही सूफी धर्म कहते हैं।
कुजविनी के अनुसार सुन्दर
व्यवहार ही सूफीवाद है।
विशर अलहाफी के अनुसार, "परमात्मा के सहारे अपने
हृदय को पवित्र रखना ही सूफी धर्म है।"
अबू सईद फजुलल्ला के अनुसार एकाग्रचित्त
से परमात्मा में ध्यान लगाना ही सूफी मत है।
जूननून मिस्त्री की दृष्टि में वचन और
कर्म में सामंजस्य रखना तथा सामाजिक बंधनों से अलग रहना ही सूफीवाद है। सूफी साधक
के लिये बाहरी तथा आन्तरिक शुद्धि और पवित्रता बनाये रखना जरूरी है। उसके लिये यह
आवश्यक है कि वह अपनी समस्त इच्छाओं, वासनाओं को मिटाकर परमात्मा की इच्छा पर अपने आपको छोड़ दे।
डॉ. ताराचन्द के
अनुसार
"सूफीवाद प्रगाढ़
भक्ति का धर्म है,
इसका भाव प्रेम
है, कविता, संगीत तथा नृत्य इसकी
आराधना के साधन हैं तथा इसका आदर्श परमात्मा में विलीन हो जाना है।"
डॉ. ए.एल.
श्रीवास्तव के अनुसार, "सूफी साधकों का मूल
लक्ष्य न केवल ईश्वर के साथ बौद्धिक तथा भावुक तथा बौद्धिक संबंधों की स्थापना
बल्कि मानवता की सेवा करना है।''
सूफी मत का विकास
प्रो. निजामी के अनुसार इस्लाम धर्म
और समाज को परिवर्तित, परिस्थितियों के
अनुकूल बनाने के लिए सूफी आन्दोलन का प्रारम्भ हुआ। उनका कहना है कि मंगोल नेता
हलाकू द्वारा बगदाद पर आक्रमण के परिणामस्वरूप मुस्लिम सामाजिक जीवन का विनाश तथा
नैतिकता का पतन होने लगा। ऐसी परिस्थितियों में सूफी धर्म का विकास मानव संस्कृति, मुस्लिम समाज, नैतिकता तथा आध्यात्मिक
सिद्धान्तों की रक्षा करने के लिये हुआ। उस समय मुसलमानों की राजनैतिक शक्ति कमजोर
हो चुकी थी, चारों ओर अव्यवस्था, अराजकता तथा आतंक का
वातावरण था, ऐसी परिस्थिति में
मुस्लिम समाज में नवजीवन का उदय करने के लिए सूफी सन्तों ने संगठित होकर प्रयास
करने का निश्चय किया। सूफी सन्तों के विचार से उनका मत उतना ही प्राचीन है जितना
इस्लाम धर्म। सूफी सन्तों के मतानुसार हजरत मुहम्मद ने ईश्वर से जो अलौकिक ज्ञान
प्राप्त किया था,
उसे दो रूपों में
प्रकट किया। प्रथम रूप में तो उसे कुरान में संगृहीत किया तथा कुछ ऐसा ज्ञान जो
जनसाधारण के लिये आवश्यक नहीं था तथा केवल ईश्वर के चुने हुए प्रतिनिधियों के ही
योग्य समझा, उसे गुप्त रखा गया तथा
उसे एक रहस्यमय ढंग से मुहम्मद साहब ने अपने चुनिन्दा शिष्यों को ही प्रदान किया।
सूफी मत के विकास को निम्नलिखित चार अवस्थाओं में वर्गीकृत किया गया है-
1. प्रथम चरण- प्रथमावस्था में फकीर के
रूप में जीवन व्यतीत करने की प्रवृत्ति मुख्य थी। सूफी साधक सांसारिक भोग-विलास की
वस्तुओं से अलग रहकर गरीबी में अपना जीवन व्यतीत करते थे। इस काल में सूफी मत का
आधार व्यक्तिगत था। सूफी सन्त एकान्त में प्रायश्चित करते थे। उनमें प्रेम साधना
की भावना का अभाव था।
इस काल के प्रमुख
साधकों में इमाम हसन बसरी, इब्राहीम बिन आघम, अबू हाशिम तथा रबिया बसरी
के नाम प्रमुख हैं।
इस काल में रिजा
तथा संतोष को प्रधानता देकर एकान्त जीवन व्यतीत करने पर विशेष बल दिया जाता था।
आठवीं सदी के अन्तिम वर्षों में सूफी साधकों का मानसिक बल प्रबल हो गया तथा सभी
सूफी साधकों ने परम सत्ता की सर्वव्यापकता तथा प्रकृति की प्रत्येक वस्तु में परम
सत्ता के दर्शन करने के सिद्धान्त को अधिक अपनाया। शेख अबू हाशिम 77 ई. के एक
प्रमुख सन्त थे। उन्होंने आठवीं शताब्दी में मैसोपोटामिया में एक मठ की स्थापना की
थी। इससे शीघ्र ही हजारों लोग शेख अबू हाशिम के अनुयायी बन गये। अत: आठवीं शताब्दी
के अन्त तक के सूफी सन्तों ने एकान्तप्रियता, ईश्वरीय चिन्तन तथा ध्यानमग्न रहकर आनन्द उठाने पर बल दिया।
2. द्वितीय चरण- द्वितीय अवस्था में
रहस्यवादी प्रवृत्तियों के उदय तथा उत्तरोत्तर विकास में सैद्धान्तिक तथा दार्शनिक
चिन्तन की प्रधानता रही है। हसन बसरी के अनुसार संसार अपने आप में एक नीरस
वस्तु तथा नकारात्मक है परन्तु जब इसमें आध्यात्मिक भावनाएँ क्रियाशील हो जाती हैं
तब इसका स्वरूप परिवर्तित हो जाता है। सभी कष्ट आनन्द में बदल जाते हैं। हृदय तथा
मस्तिष्क का उस समय सुन्दर संयोग दृष्टिगोचर होता है। इस अवस्था में सूफी साधकों
ने परम सत्ता को प्रियतम के रूप में मानना प्रारम्भ किया। उसके प्रेम को प्राप्त
करना ही सूफी साधकों के लिये अभीष्ट था। उसके सम्पूर्ण धार्मिक कार्यों का
उद्देश्य प्रियतम को प्राप्त करना था। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सूफी साधकों को
विश्वास था कि इस अवस्था में भगवान की कृपा से सब कुछ प्राप्त करना संभव है। पहले
जो परमात्मा मानव की पहुंच से बाहर था, अब वह 'अल हक्क' से प्रकट होने लगा। इस
काल के साधक प्रकृति की प्रत्येक वस्तु में परम सत्ता को देखने लगे। अपने अहं को
खोकर बेखुदी की हालत में अपने परम सत्ता से साक्षात्कार करने लगे।
3. तृतीय चरण- सूफीवाद के विकास का उदय
12वीं तथा 13वीं शताब्दी की देन है। उस समय मुस्लिम समाज अराजकता, अव्यवस्था तथा नैतिक पतन
का सामना करने लगा तब उसमें नवीन जीवन प्रदान करने के लिये सूफी सन्तों ने संगठित
होने का निश्चय किया। सूफी साधकों की प्रसिद्धि से आकर्षित होकर लोग उनके शिष्य
बनकर संगठित होने लगे। इस प्रकार साधकों तथा सन्तों ने अपनी-अपनी शिष्य परम्परा
आरम्भ की। प्रारम्भिक काल में प्रमुखतः दो सम्प्रदाय थे- (i) इलहामिया, (ii) इत्तिहादिया।
इस काल में
निम्नलिखित 6 बातों पर विशेष जोर दिया जाता था-
(i) कुरान में पूर्ण आस्था
रखना।
(ii) हजरत मुहम्मद के जीवन को
आदर्श बनाना।
(iii) धर्मसम्मत भोजन ग्रहण
करना।
(iv) हराम की वस्तुओं का त्याग
करना।
(v) दूसरों द्वारा कष्ट
पहुँचाने पर कष्ट का अनुभव न करना।
(vi) नियम का निष्ठापूर्वक
पालन करना।
खानकाह की
स्थापना भी कुरान के आधार पर हुई थी। इसके नियम निम्नलिखित है-
(i) खानकाह से अच्छे संबंध की स्थापना करना।
(ii) प्रार्थना तथा ध्यान के माध्यम से ईश्वर का चिन्तन करना।
(iii) जीविकोपार्जन के साधनों का त्याग करके परमात्मा में लीन होना।
(iv) आन्तरिक शुद्धता पर जोर
देना।
(v) बुराइयों से उत्पन्न
वस्तुओं का त्याग करना।
(vi) समय की उपयोगिता का
महत्त्व प्राप्त करना।
(vii) आलस्य का त्याग करना।
गजाली सूफी मत का प्रकाण्ड
विद्वान् था। उसने इस्लाम धर्म का गहन अध्ययन कर अनेक ग्रन्थों की रचना की तथा
इस्लाम के सिद्धान्तों का विवेचन कर सूफी मत के सिद्धान्तों से उनका सुन्दर
सामंजस्य स्थापित किया। इसके अतिरिक्त उमर खय्याम, तनाई, निजामी, फरीदुद्दीन अत्तार, जलालुद्दीन रूमी, शेख सादी आदि कवियों ने
सूफी मत के प्रचार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस समय सूफी साहित्य में प्रेम
और विरह की प्रधानता हो गई।
4. चतुर्थ चरण- इस युग में सूफी सन्तों
का पतन होने लगा। इस अवस्था में सूफी सन्त अपने आदर्शों को भूल गये। सूफियों का सम्मान
नवाबों तथा बादशाहों के दरबार में बढ़ गया। इन सब बातों के होते हुए भी काल क्रम
से सूफी मत की शक्ति क्षीण होती गई। सूफी अनुयायियों में अनैतिकता की वृद्धि होने
लगी जो कि उनके पतन का कारण बनी।
सूफी मत के सिद्धान्त
सूफी मत के प्रमुख
सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
(1) ईश्वर- सूफी साधकों के अनुसार
वह अद्वितीय पदार्थ जो निरपेक्ष है, अगोचर है, अपरिमित है और
नानात्व से परे है, वही परम सत्य है।
परम सत्य के अतिरिक्त वह परम कल्याण भी है, परम कल्याण के रूप में वह परम सुन्दर है। इस प्रकार सूफी
सन्तों. का सिद्धान्त सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् पर आधारित था। बुजूदिया
सम्प्रदाय के अनुसार वास्तव में ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु नहीं है।
ईश्वर ही एकमात्र सत्ता है तथा विश्व की सभी वस्तुएँ उसी का रूप हैं। ईश्वर संबंधी
सूफियों का यही प्रमुख तथा मान्य मत है। सूफी सन्त अन्य किसी सत्ता को नहीं
स्वीकारते हैं।
(2) आत्मा- आत्मा को सूफी साधकों ने
ईश्वर का अंश स्वीकार किया है। वह सत्य प्रकाश का अभिन्न अंग है, परन्तु आत्मा मनुष्य के
शरीर में अपने अस्तित्व को खो बैठती है। आत्मा के पाँच बाह्य तथा पाँच आन्तरिक
तत्त्व हैं, जिनका संबंध शाश्वत
ज्योति से है। मनुष्य के अन्दर जो ईश्वरीय अंश है, वह विशुद्ध सत्ता की एक चिनगारी की शान्ति है, उसका सतत् प्रयास अपने
उद्गम स्थल में मिल जाता है। आत्मा की सत्ता जो पूर्व में इस शरीर में थी, वह शरीर में कैद है। अतः
सूफी साधक मृत्यु का स्वागत करते हैं। सूफी साधकों का विश्वास है कि मृत्यु के
द्वारा वे फिर परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु सूफी साधक यह भी मानते हैं कि परमात्मा की कृपा के
बिना परमात्मा से मिलना संभव नहीं है। एक सूफी साधक का मुख्य कर्त्तव्य है कि वह
दानिया (परमात्मा की एकता का ध्यान), जिक्र (परमात्मा का स्मरण), तरीका (सूफी मार्ग) में लगा रहे, तभी परमात्मा में लीन
होना संभव है।
डॉ. ताराचन्द के अनुसार आत्मा में तीन
प्रधान तत्त्व हैं—गत्व, रजस तथा तमस्। इन
तीनों तत्त्वों का समन्वय श्रेष्ठ अवस्था मानी जाती है। सूफी साधकों के अनुसार
आत्मा में दो गुण प्रधान होते हैं-नफस तथा रुह। नफस सभी अवगुणों, गर्व, अज्ञानता, काम, क्रोध तथा मद का स्रोत
है। ईश्वर का निवास स्थान रूह है। इन दोनों में सदैव संघर्ष होता रहता है। रूह
अथवा नफस की शक्ति के कारण मनुष्य अच्छे तथा बुरे कर्मों की ओर अग्रसर होता है।
(3) ईश्वर और जगत
का संबंध- ईश्वर और जगत के
संबंध में सूफी सन्तों का मत एक नहीं है। अधिकांश सूफियों का मानना है कि ईश्वर
जगत से परे रहकर भी उसमें लीन है। कुछ सूफियों का मानना है कि ईश्वर और जगत
भिन्न-भिन्न नहीं हैं तथा ईश्वर ही जगत का रूप है। हूजवीरी के अनुसार ईश्वर
और जगत दोनों भिन्न-भिन्न हैं तथा ईश्वर जगत से.बाहर है। बहुत से सूफियों का मत है
कि ईश्वर न तो जगत में लीन है और न ही उसके बाहर है। वह जगत के बाहर भी है और
अन्दर भी। वास्तव में ईश्वर का रूप अकल्पनीय तथा अचिन्तनीय है।
सूफियों के
मतानुसार उस ईश्वर की प्रकृति में वनस्पति, पशु, पक्षी, जीव आदि में अंग-प्रत्यंग
की छाया है। सूफी सन्त उसी सौन्दर्य पर मुग्ध होकर मूल सौन्दर्य का दर्शन करना
चाहते हैं तथा उसी में लीन रहना अपना उद्देश्य समझते हैं।
(4) जगत- सूफियों के अनुसार ईश्वर
ने अपने गूढ़ रहस्य को अभिव्यक्त करने के लिए ही जगत की रचना की। हल्लाज के
अनुसार ईश्वर अपने स्वरूप का निरीक्षण कर अपने आप भी मंत्र-मुग्ध हो गया तथा उसके
उस आत्मप्रेम का ही जगत रूप में आविर्भाव हुआ। ईश्वर के अनुपम आनन्द का मूर्त
विकास मात्र विश्व की सृष्टि है। उसका उद्देश्य किसी साधारण अभाव या वासना की
पूर्ति नहीं है। सूफी साधकों का विश्वास है कि परमात्मा ने हकीकतुल मुहम्मदिया पर
अपनी निगाह डाली तब वह गलकर सूर्य, चन्द्र, बुद्ध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति, शनि तथा नक्षत्रगण के रूप
में उत्पन्न हुई। नूरुल मुहम्मदिया पर निगाह डालने से अग्नि, हवा, जल तथा पृथ्वी का निर्माण
हुआ तथा विश्व में वृक्ष, पशु, पक्षी, जीव-जन्तु तथा मनुष्य का
निर्माण हुआ।
डॉ. रामनाथ शर्मा का कथन है कि सूफियों के
अनुसार सृष्टि की रचना 'रूह' के कारण हुई है। यही वह
शक्ति है जो व्यक्ति को ईश्वर की झलक दिखाती है क्योंकि जीव, अल्लाह का प्रतिबिम्ब है
अतः प्रकृति के साथ उसका गहरा संबंध है। प्रकृति द्वारा ईश्वर अपने आत्म-दर्शन की
कामना पूरी कर लेता है परन्तु मानव जब प्रकृति में स्वयं को देखता है तब वह भ्रम
में पड़ जाता है। परन्तु जब वह प्रकृति के सौन्दर्य को ईश्वर का सौन्दर्य समझता है
तभी उसका मोह टूट जाता है और ईश्वर के साथ एकाकार हो जाता है। इस प्रकार प्रकृति
के सौन्दर्य में एकात्मक भाव की कल्पना करने पर साधक ईश्वर की अनुभूति 'अन-अल-हक' को प्राप्त हो जाता है।
(5) सृष्टि में
मानव सर्वोपरि- सूफियों के अनुसार सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानव है तथा मानव में ईश्वर
के रूप की पूर्ण अभिव्यक्ति हुई है। सभी प्राणी जाने-अनजाने में मानव स्तर तक
पहुँचने के लिए सचेष्ट रहते हैं क्योंकि यहीं पहुँचकर वह प्रथम ज्ञान को प्राप्त
करता है, उसी अवस्था में आत्मा उस
परम ऐश्वर्य में प्रवेश करती है।
सूफी साधकों के
अनुसार परमात्मा के सभी गुणों की अभिव्यक्ति मनुष्य द्वारा होती है। इस प्रकार
मनुष्य उन सभी गुणों को जो ब्रह्माण्ड में अभिव्यक्त हो रहे हैं, अपने में समाहित करता है
और उन गुणों समाहार को अभिव्यक्त करता है। परमात्मा के सभी गुण मनुष्य के हृदय को
जानना, परमात्मा को जानना है।
मानव शरीर में जड़ अंश भी है तथा आध्यात्मिक अंश भी। नफस अर्थात् जड़ आत्मा मनुष्य
को पाप की ओर ले जाती है और रूह आत्मा की ईश्वरीय शक्ति का दर्शन हृदय के स्वच्छ
दर्पण में कराती है। वह प्रियतम के साथ मिलन कराती है। नफस को मारना ही मानव का
प्रमुख कर्त्तव्य है। ईश्वर की एकमात्र पूर्ण अभिव्यक्ति पूर्ण मानव है। मनुष्य का
चरमोत्कर्ष पूर्ण मानव है। वह मानव जाति तथा परमात्मा के बीच कड़ी है। परमात्मा
उसी में अपने को दर्शाता है। पूर्ण मानव वह है जो परमात्मा के साथ एकता की पूर्ण
अनुभूति प्राप्त कर चुका है। उसका निर्माण परमात्मा के अनुरूप ही हुआ है। आदम से
मुहम्मद तक सभी पैगम्बर, औलिया तथा सन्त
पूर्ण मानव की कोटि में हैं।
(6) गुरु अथवा
पीर की महत्ता- सूफी मत में गुरु अथवा पीर का बहुत अधिक महत्व है। पीर अथवा गुरु साधक को
बुराइयों के शिकंजे से मुक्त कर उसे सिद्धि की ओर अग्रसर करता है। साधक को ईश्वर
तक पहुँचाने का कार्य पीर ही करता है और पीर में अन्धविश्वास का यही कारण है। साधक
अपने गुरु को ईश्वर की भाँति स्मरण करता है। डॉ. ताराचन्द के अनुसार
पैगम्बर मुहम्मद ने अल्लाह के समक्ष समर्पण की शिक्षा दी तथा सूफीवाद ने
गुरु अथवा आध्यात्मिक गुरु के समक्ष आत्म-समर्पण पर बल दिया।
(7) प्रेम- सूफी सन्तों की साधना
में 'प्रेम' का अत्यधिक महत्त्व है।
सूफियों के मतानुसार प्रेम के द्वारा ही ईश्वर की प्राप्ति की जा सकती है। अबू
तालिब का कथन है कि प्रेम से परमात्मा संबंधी रहस्यों का भेदन होता है तथा
उसका ज्ञान प्राप्त होता है। प्रेम एक उत्प्रेरक शक्ति है जो साधकों को आध्यात्मिक
मार्ग की ओर लगाती है। प्रेम एक ऐसी वासना है जो समस्त वासनाओं को हृदय से दूर
करती है। अलशिवली का कथन है कि प्रेम हृदय में अग्नि के समान है जो परमात्मा
की इच्छा के अतिरिक्त सभी वस्तुओं को जलाकर भस्म कर देती है। प्रेम से प्रियतम के
सभी गुण प्राप्त हो जाते हैं। प्रेम से अहं की भावना दूर हो जाती है और वह प्रियतम
हो जाता है। सूफी परमात्मा को प्रियतम मानता है। परमात्मा उस साधक का प्रियपात्र
एवं माशूक है,
जिसके प्रेम में
वह व्याकुल रहता है। प्रेम से वह अनन्त सौन्दर्य का रसास्वादन करता है क्योंकि
जहाँ सौन्दर्य नहीं है, प्रेम का होना
मुश्किल है। अतः परमात्मा की अनुभूति के लिये प्रेम ही एकमात्र साधन है।
(8) साधना सोपान- सूफी मत के अनुसार साधना
के सात सोपान माने गये हैं, ये सोपान
निम्नलिखित हैं-
(i) अनुताप (ईश्वरोन्मुख
होना)।
(ii) आत्म संयम (जड़ आत्मा पर
पूर्ण अधिकार कर लेने का प्रयत्न करना)।
(iii) वैराग्य (वासना का
परित्याग,
सांसारिक सुखों
के प्रति विरक्ति)।
(iv) धैर्य (दरिद्रता की दशा
में शान्त भाव से सहना)।
(v) दारिद्र्य (लोक निन्दा, अपमान आदि से विचलित न
होना)।
(vi) ईश्वर में विश्वास।
(vii) सन्तोष (आध्यात्मिक ज्ञान
प्राप्त करने की योग्यता होना)।
इन सातों सोपानों
के अतिरिक्त सूफी मत में चार उच्चतर सोपान और हैं। यथा-
(i) मारीफल- यह वह ज्ञान है जो ईश्वर
की प्रकृति, गुण और उसके
कार्यकलापों पर ध्यान लगाने से प्राप्त होता है। यहाँ मानव ईश्वर की उपलब्धि
अनुभूति के द्वारा करता है।
(ii) प्रेम- प्रेम दूसरा सोपान है। इस
दशा में पहुँच कर साधक अपने आपको भूल जाता है।
(iii) समाधि- यह सोपान प्रेम साधक को
उन्माद की स्थिति में ले जाता है जिसे समाधि कहते हैं।
(iv) बस्ल तथा मिलन- बस्ल तथा मिलन चतुर्थ
सोपान है। इसमें साधक ईश्वर को अपने सामने देखता है और उसे पूर्ण संतोष की
प्राप्ति होती है।
अलहक्क के साथ एकत्व प्राप्त
करना सूफी साधना का चरम लक्ष्य है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के अनेक साधन हैं—जिक्र (अल्लाह के नाम का हृदय
से स्मरण करना), भावाविष्टावस्था के
संबंध में सूफियों + वज्र (सभा, संकीर्तन), जौक (स्वाद), शर्ब (पीना), जजबात तथा हाल आदि
साधनों का प्रतिपादन किया है। भावाविष्टा के द्वारा सूफी साधक उस अवस्था तक पहुँच
जाता है जहाँ उसका साक्षात्कार परम सत्य से होता है। सूफी साधक परमात्मा में पूर्ण
लीन हो जाने को ही फना की अवस्था मानते हैं। कुछ सन्तों के अनुसार सूफी
साधना का यही चरम लक्ष्य है। इस अवस्था में साधक सांसारिक वासनाओं से अलग होकर
अपने अस्तित्व को कम कर देता है।
कुछ सूफी सन्तों
के अनुसार फना सूफी सन्तों की अन्तिम अवस्था नहीं है। वास्तविक अस्तित्व का
प्रारम्भ तो फना के बाद होता है। अहं को मिटाकर साधक को फना की अवस्था प्राप्त
होती है और उसके बाद बका की अवस्था आती है जिसमें वह परमात्मा के साथ एकमेक होकर
रहने लगता है। सूफीवाद का परम लक्ष्य यही है।
सूफीवाद का समाज पर प्रभाव
मध्यकालीन भारतीय
समाज पर सूफी मत का पर्याप्त प्रभाव पड़ा। सूफी सन्तों ने हिन्दू-मुस्लिम
सम्प्रदायों में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया। सूफी सन्तों ने अपने
शिष्यों को समाज-सेवा, सद्व्यवहार तथा
क्षमा आदि गुणों पर जोर देने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने जनता के चरित्र तथा
उनके दृष्टिकोण को सुधारने का प्रयास किया। बर्नी के कथनानुसार, "निजामुद्दीन औलिया के
प्रभाव के परिणामस्वरूप जनता के सामाजिक तथा नैतिक जीवन में बड़ा परिवर्तन हुआ।
उन्होंने दिल्ली के सुल्तानों के रूढ़िवादी इस्लामी विचारों का विरोध किया तथा
उदारवादी दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया। उन्होंने शक्ति, प्रलोभन तथा तलवार द्वारा
धर्म परिवर्तन की नीति का अनुमोदन नहीं किया। उन्होंने शासकों को गरीबों, दुःखियों तथा पददलितों की
सेवा करने तथा प्रजा की भलाई करने की प्रेरणा दी।"
प्रो. रशीद के अनुसार ये सन्त प्रजा
तथा शासक वर्ग मध्य कड़ी थे। सूफी सन्तों ने साधारण जीवन व्यतीत करके जनता के मध्य
रहने तथा उनकी समस्याओं को समझने की चेष्टा की। सूफी मतावलम्बियों ने आम जनता के
जीवन में समयानुकूल सुधार करने का प्रयास किया। यथा शेख हमीद नागौरी एक बीघा जमीन
में खेती करके तथा स्वयं अपना कपड़ा बुनकर अपना जीवन-यापन करते थे। शेख
कुतुबुद्दीन फटा हुआ कपड़ा पहनते थे। संभवतः उन्हें इसी में आनन्द मिलता था। वे
सामाजिक न्याय की ज्योति अपने हाथों में लेकर चलते थे। सूफी सन्तों ने एकेश्वरवाद
के सिद्धान्त का प्रतिपादन करके पारस्परिक मतभेदों को दूर करने का प्रयास किया।
उनके अनुसार ईश्वर एक है, अनेक धर्म उस
एकेश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न मार्ग हैं। अतः धर्म को लेकर वाद-विवाद अथवा
संघर्ष करने की आवश्यकता नहीं है। सूफी सन्तों ने भक्ति आन्दोलन की विचारधारा को
प्रभावित किया।
भक्ति आन्दोलन के
समाज तथा धर्म सुधारक कबीर, रामानन्द, नानक तथा चैतन्य इससे
प्रभावित हुए। भक्ति आन्दोलन के इन सन्तों ने भी एकेश्वरवाद के सिद्धान्त द्वारा
विभिन्न सम्प्रदायों के बीच समन्वय स्थापित करने तथा पारस्परिक मतभेदों को दूर
करने का प्रयास किया। सूफी लोगों में इस्लामी कट्टरता अधिक नहीं थी। हिन्दू समाज व
हिन्दू परम्परा की अनेक बातों को ये शीघ्र अपना लेते थे तथा उनके कारण यहाँ के सर्वसाधारण
में घुल- मिलकर उन्हें अपनी बातें भी सरलतापूर्वक समझा देते थे।
साहित्य के क्षेत्र में सूफी
सन्तों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। सूफी सन्तों ने खड़ी बोली अथवा
हिन्दुस्तानी भाषा के विकास में महत्त्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया था। इसके अलावा
उन्होंने पंजाबी,
गुजराती आदि
क्षेत्रीय भाषाओं के विकास में भी योगदान दिया। जायसी की रचनाओं में वेदान्त, योग तथा नाथ
सम्प्रदाय से संबंधित विचारों तथा हिन्दू देवी-देवताओं का विस्तृत वर्णन पाया जाता
है। इसमें मृगावत में पैदा हुए जय, सुदामा, भोज, भर्तृहरि आदि महापुरुषों
का वर्णन है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उनमें हिन्दू धर्म का विशद् ज्ञान था। प्रो.
रशीद के शब्दों में, "राष्ट्रीय संगठन
की भावना को जागृत करने में सूफी सन्तों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान है।"
डॉ. चौबे तथा श्रीवास्तव का
कथन है कि, "हमारे देश के इतिहास में
जिस समय सूफी मत का आविर्भाव हुआ, वह सूफी काव्य का स्वर्ण युग माना जाता है।" सूफी साधकों की
साहित्यिक विचारधारा ने एक बड़े जन समुदाय को प्रभावित किया। अरबी, फारसी तथा उर्दू साहित्य
में तो इसका व्यापक प्रभाव पड़ा है। अन्य क्षेत्रीय भाषाओं पर भी इनका प्रभाव पड़ा, जहाँ सूफी साधना
क्रियाशील रही है। इस प्रकार सूफी सन्तों ने धर्म के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण
योगदान दिया।
0 Comments