बीसवीं सदी का विश्व
वैश्वीकरण
पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आई है। प्रत्येक राष्ट्र किसी न किसी रूप में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे से निर्भर है। अब विश्व जन संचार साधनों की व्यापकता से एक हो गया है। अब द्विध्रुवीय व्यवस्था कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती है, सर्वत्र एक ध्रुवीय तारा चमकता है। आर्थिक अन्तर्निभरता से राजनीतिक सम्बन्धों पर भी प्रभाव पड़ा है। अब एक स्थान से दूसरे स्थान पर वस्तुओं और सुविधाओं को पहुँचाना पहले की अपेक्षा बहुत सुगम हो गया है। आजकल अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार कोई नई बात नहीं है, नई बात है राष्ट्रपार (Transnational) तथा बहुराष्ट्रीय (Multinational) आर्थिक सम्बन्धों का सुदृढ़ होना। इसी प्रवृत्ति को वैश्वीकरण का नाम दिया जा रहा है, जिसमें सही मायनों में क्षेत्रीयकरण की प्रवृत्ति को ही अधिक बढ़ावा दिया है । इसे चाहे वैश्वीकरण कहा जाय या क्षेत्रीयकरण या एक ध्रुवीय, इन आर्थिक प्रवृत्तियाँ का स्थानीय, राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। जहाँ विकसित देशों में वैश्वीकरण के क्षेत्रीयकरण को विकास की संज्ञा दी जा रही है, तो विकासशील देशों में इन प्रवृत्तियों के प्रति शंका भी व्यक्त की जा रही है।
वैश्वीकरण के आर्थिक
प्रभाव
विकास के पूँजीवादी प्रतिरूप
तथा मानव कल्याण में कभी भी सीधा सम्बन्ध नहीं रहा। इसमें कुछ व्यक्तियों के उन्नत
जीवन स्तर की कीमत अनेक व्यक्तियों के निम्नस्तर के रूप में चुकानी पड़ती है। कुछ
समृद्ध व ऐश्वर्यशाली व्यक्तियों के सुख की कीमत अनेक श्रमिकों व स्त्रियों के
श्रम के रूप में चुकानी पड़ती है। इस आर्थिक विकास का भार पर्यावरण पर पड़ता है।
इससे आध्यात्मिक तथा नैतिक मूल्यों का ह्रास होता है। परिणामस्वरूप संघर्ष व हिंसा
को बढ़ावा मिलता है। वैश्वीकरण इन सार्वजनिक नियामकों से कहीं अधिक होता है। यही
प्रवृत्तियाँ एक राष्ट्र के भीतर तथा विभिन्न राष्ट्रों के बीच आर्थिक विषमताओं को
बढ़ावा देती हैं तथा कुछ देशों के आर्थिक समद्धि की कीमत अधिकांश गरीब व आर्थिक
दृष्टि से पिछड़े राष्ट्रों को चुकानी पड़ती है। निजी व्यापार तथा पूँजी के कारण
कुछ समृद्ध व चतुर व्यक्ति अथवा कम्पनियाँ सामाजिक अथवा पर्यावरण सम्बन्धी
जिम्मेदारियाँ से बच निकलती हैं।
वैश्वीकरण की कोई सुनिश्चित
व्यवस्था नहीं की जा सकती। प्रायः इसे एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है, जिसमें विश्व के किसी एक
भाग में घटित घटनाओं, निर्णयों अथवा
क्रियाओं का विश्व के अन्य भागों के निवासियों अथवा समुदायों पर व्यापक प्रभाव
पड़ता है। इसमें अनेक ऐसे विषय सम्मिलित हो जाते हैं, जिसका सम्बन्ध
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति तथा आर्थिक व्यवस्था से हो। इनका सम्बन्ध बहुध्रुवीय
विश्व (Multi-polar
world) उत्तरी व दक्षिणी
देशों की आपसी सम्बन्ध विश्व स्तर पर गरीबी, बेरोजगारी अथवा आर्थिक विषमताओं से भी हो सकता है। इसका
तात्पर्य विभिन्न सरकारों के बीच आपसी सम्बन्धों, राज्य व बाजार (Market) के आपसी सम्बन्धों अथवा राज्य व नागरिक समाज के बीच
सम्बन्धों से भी हो सकता है। इसी प्रकार क्षेत्रीयकरण के भी कई अर्थ हो सकते हैं।
कानूनी दृष्टिकोण से क्षेत्रीयकरण से तात्पर्य क्षेत्रीय स्तर पर नये संगठन से
लिया जाता है। पिछले कुछ वर्षों में क्षेत्रीय स्तर पर फ्रीट्रेड (NATTA, SAPTA, APEC, SATTA)
को बढ़ावा मिला।
क्षेत्रीयकरण से तात्पर्य क्षेत्रीय स्तर पर आपसी व्यापार से भी लिया जाता है। इस
प्रकार के सहयोग का अर्थ क्षेत्रीय व्यापार को बढ़ावा देना है। इससे यातायात खर्च
में कटौती की जा सकती है तथा अपने पड़ोसी देशों में उपलब्ध सुविधाओं का बेहतर लाभ
उठाया जा सकता है। क्षेत्रीयकरण के प्रति खुले प्रयासों तथा व्यापारिक समझौतों के
प्रति विकासशील देशों में अधिक उदार दृष्टिकोण दिखाई देता है। वैश्वीकरण के हितों
पर कम ध्यान जाता है।
वैश्वीकरण के राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव |
सामान्य तौर पर वैश्वीकरण
तथा प्रान्तीयकरण के प्रति दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं।
प्रथम प्रवृत्ति के अनुसार उत्तरी विकसित देशों की तकनीक व विकासशील देशों से
सस्ती श्रम शक्ति के बीच तादात्मय स्थापित किया जा सकता है, जिससे दोनों देशों के
निवासियों को लाभ हो सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की नई नीतियों के अनुसार दो
देशों, कम्पनियों अथवा
व्यक्तियों के बीच पूर्ण प्रतियोगिता का होना जरूरी नहीं। इनमें आपसी सहयोग भी
सम्भव है। इस प्रवृत्ति के अनुसार विकासशील देश भी आर्थिक अन्तर्राष्ट्रीयकरण का
लाभ उठा सकते हैं। दूसरी प्रवृत्ति के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपर्याप्त व
अनुचित प्रतियोगिता के कारण ही विकासशील देशों में आर्थिक विकास की गति कम रही है।
वैश्वीकरण एवं क्षेत्रीयकरण
की प्रवृत्तियों के फलस्वरूप वितरण को कम महत्त्व दिया जाता है तथा उत्पादन को
अधिक महत्त्व दिया जाता है। इसमें आर्थिक कार्यकुशलता को अधिक महत्त्व दिया जाता
है, आर्थिक न्याय को कम। इन
नीतियों के फलस्वरूप क्षेत्रीय एवं आर्थिक विषमताओं को भी अनुपयुक्त बढ़ावा मिला
है। उदाहरण के लिए, दक्षिणी कोरिया
की औसत आय 10,000 प्रति वर्ष है, तो लोगों की औसत
आय मात्र 150 प्रति वर्ष है। इसे निम्न तालिका द्वारा और अधिक स्पष्ट किया जा सकता
है-
वास्तविक औसत उत्पादन (Growth of real per capital
output)
देश |
1960-70 |
1970-80 |
1980-90 |
विकसित देश |
4.0 |
2.2 |
2.2 |
विकासशील देश |
3.3 |
3.1 |
1.2 |
सबसहारा अफ्रीका |
0.6 |
0.9 |
0.9 |
पूर्वी एशिया |
3.6 |
4.6 |
6.3 |
दक्षिणी एशिया |
1.5 |
1.1 |
3.1 |
दक्षिणी अमेरिका |
2.5 |
3.1 |
-0.5 |
Source: 1&0, 1995 P.28
इस तालिका के
आधार पर यह कहा जा सकता है कि पूंजीवादी व्यवस्था के अनुरूप आर्थिक
अन्तर्राष्ट्रीय के लाभ में सभी भागीदारों को समान लाभ नहीं मिलता । आर्थिक
उदारीकरण व निजीकरण के दौर में जितनी विदेशी पूंजी निवेश चीन व पूर्वी एशिया के
देशों में हुआ,
उतना दक्षिणी
अफ्रीका में 1980-90 के दशक में औसत उत्पादन मात्र -0.9 प्रतिशत ही रहा व लैटिन
अमेरिका में -0.5 ही रहा। मानवीय विकास प्रतिवेदन (Report 1980) के अनुसार, विश्व को सर्वोच्च 20
प्रतिशत लोगों द्वारा आय का 18 गुना अधिक हासिल किया गया। इसी प्रकार यह कहा जा
सकता है कि 1980 के दशक में पूर्वी एशिया को आर्थिक अन्तर्राष्ट्रीयकरण का लाभ
पहुंचा है। उधर लैटिन अमेरिका व सब-सहारा को नुकसान हुआ। इक्कीसवीं शताब्दी में यह
तालमेल बन भी सकता है और बिगड़ भी सकता है।
वैश्वीकरण के राजनीतिक प्रभाव
अधिकांश देशों
में प्रजातन्त्र अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण, सामाजिक परिस्थितियों में सुधार तथा बाह्य जगत के साथ
एकीकरण में सहायक सिद्ध हुआ। प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में नेताओं ने जहाँ
एक ओर वैधता प्राप्त हुई वहीं, दूसरी ओर उन पर
जनता द्वारा अंकुश रख पाना भी सम्भव हो गया। किसी भी प्रजातान्त्रिक प्रणाली में
नेताओं को अधिक जिम्मेदारी से काम करना पड़ता है व जनता के प्रति उनका
उत्तरदायित्व बना रहता है। 1980 में लैटिन अमेरिका में सैनिक तन्त्र के स्थान पर
संसदीय प्रजातन्त्रात्मक शासन प्रणाली को अपनाने का चलन बढ़ा। अर्जेन्टाइना, ब्राजील व चिली में
प्रजातान्त्रिक शासन प्रणालियाँ सफलतापूर्वक कार्य कर रही हैं। अब कुछ मध्य पूर्वी
देशों में भी लोकतन्त्रात्मक प्रणाली को अपनाया जा चुका है। जैसे इजरायल, कुवैत, यमन तथा जोर्डन आदि।
दक्षिणी अफ्रीका,
जिम्बाब्बे, सीयरा लियोन, स्विट्जरलैण्ड व पालावी
में भी प्रजातन्त्र को अपनाया जा चुका है। पूर्ववर्ती सोवियत संघ में भी लोकतान्त्रिक
शासन के प्रयास जारी हैं।
ऐसा प्रतीत होता
है कि प्रजातन्त्र की अवधारणा पर अब केवल पश्चिमी देशों का ही आधिपत्य नहीं
रहा है। इस पर एशिया, लैटिन अमेरिका, अफ्रीका, अरब व मध्यपूर्वी देशों
तथा उत्तर साम्यवादी समाजों का भी समान अधिकार स्थापित हो चुका है। यद्यपि
प्रजातन्त्र की धारणा सर्वत्र व्याप्त प्रतीत होती है। लोकतान्त्रिक प्रक्रिया
अनेक देशों में अत्यधिक कठिन साबित हुई। गरीबी अल्पविकास व स्थायित्व प्रजातन्त्र
के मार्ग में बाधक सिद्ध हुए। अनेक देशों में आर्थिक विषमता को बढ़ावा मिला है, क्योंकि यहाँ सर्वाधिकारवादी
राजनीति में प्रजातन्त्र तथा केन्द्रीयकृत अर्थव्यवस्था से "मार्केट"
अव्यवस्था की ओर दोहरे परिवर्तन को एक साथ अपनाने की कोशिश की गई। कुछ देशों में
बढ़ती हुई आबादी की तेज दर के कारण भी आर्थिक व राजनैतिक विकास का भरपूर लाभ नहीं
उठाया जा सका।
कहीं-कहीं प्रजातन्त्र
के आ जाने से धार्मिक तथा पुराने जातीय झगड़ों को फिर से प्रकट होने का मौका मिल
गया। कहीं-कहीं विरोधी दलों व ताकतों का सत्ता बल पर दबाने का प्रयास भी किया गया।
1975 में भारतीय प्रजातन्त्र में भी सेना की दखलन्दाजी बनी रही। रूस को न चाहते
हुए भी येल्तसिन की मनमानी सहनी पड़ी। क्योंकि अन्य विकल्प न होने के कारण यह डर
था कि रूस में घोर अराजकता व अस्थायित्व की स्थिति आ जावेगी तथा वहाँ पुनः
साम्यवादी व्यवस्था मजबूत हो जावेगी।
कुल मिलाकर यह
कहा जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था का चलन बढ़ा
है। राजनीतिक अधिकारों व नागरिको स्वतन्त्रताओं की दृष्टि से इनकी स्थिति एक जैसी
नहीं है। श्रीलंका, कोलम्बिया, एल सेल्वाडोर तथा
ग्वाटेमाला के नागरिकों को उस हद तक नागरिक अधिकार व स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं है, जितनी कि संयुक्त राज्य
अमेरिका, ग्रेट-ब्रिटेन, फ्रांस तथा
स्केन्डीनेवियन देशों के नागरिकों को प्राप्त है। कुछ देश ऐसे भी हैं जहाँ गैर-
प्रजातान्त्रिक रवैया बराबर बना हुआ है। जैसे क्यूबा, उत्तरी कोरिया व जनवादी
चीन। 1990 में हैती में पहली बार निष्पक्ष चुनाव हुए भी, किन्तु नौ महीने बाद ही
सैनिक षड्यन्त्र द्वारा राष्ट्रपति को पद से हटा दिया गया। इसी प्रकार 1992 में
वेनेजुएला में भी प्रजातन्त्र विफल रहा।
पिछले कुछ वर्षों
में विश्व स्तर पर लोकतान्त्रिक क्रान्ति के उत्साह व सम्भावनाओं में कमी आई है।
जहाँ 1970 व 1980 के दशकों में इन नये प्रजातान्त्रिक देशों में प्रजातान्त्रिक
व्यवस्था के स्थापित होने की खबरें मिली हैं, वहीं 1990 के दशक में प्रजातान्त्रिक देशों में कई बार
समस्याओं की खबरें मिली हैं। जैसे जाम्बिया में सैनिक षड्यन्त्र, केन्द्रीय अफ्रीकी
गणराज्य में नागरिक तनाव, अलबानिया में
दोषपूर्ण चुनाव,
पाकिस्तान में
निर्वाचित सरकार की पदच्युतियों, कजाकिस्तान में
लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली का पतन, आरमीनिया के चुनावों पर कब्जा तथा कम्बोडिया में मानवीय
अधिकारों के हनन का इत्यादि। यद्यपि 1996 में सी.आई.एस. में राष्ट्रपति बोरिस
येलत्सिन पुनः निर्वाचित घोषित किये गये। रूस में अभी तक भी पूर्ण रूप से
प्रजातन्त्र स्थापित नहीं हो सका है। नवोदित वायलो रूस में पुन: अधिनायक तन्त्र
स्थापित हो चुका है। उजबेकिस्तान (Uzbekistan) तुर्कमानिस्तान तथा तजाकिस्तान में भी प्रजातन्त्र संकट की
घड़ियों से गुजर रहा है।
सब-सहारा अफ्रीका
में भी एक दलीय शासन प्रणाली के स्थान पर बहुदलीय प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली में
विखराव दिखाई देता है। किन्तु अधिकांश देशों में, पिछले दशकों में राजनीतिक स्वतन्त्रताओं में कटौती दिखाई
देती है। अनेक देशों में नागरिक संघर्षों ने उग्र रूप धारण कर लिया तथा रवांडा (Rwanda) व बून्डी में हिंसात्मक
घटनाओं में वृद्धि हुई। सैनिक षड्यन्त्रों के कारण नाइजीरिया (Nigeria), जाम्बिया (Zambia) तथा नाइजर (Niger) में आर्थिक उदारीकरण को
ठेस पहुँची। केमरून (Cameroon), गेबन (Gebon),
चाद (Chad), बुरकीना (Burkina), फासो (Faso) तथा टोगो (Togo) मे शक्तिशाली व्यक्तियों
ने चुनावों को अपने हितों के अनुरूप ढाल लिया। कुछ देशों में धोखाधड़ी, हेरा-फेरी तथा विरोधी
दलों पर रोकने चुनावों पर बुरा प्रभाव डाला। जिन देशों में चुनाव प्रजातान्त्रिक
तरीके से हो भी गए हो तो भी वहाँ नव निर्वाचित नेताओं ने सत्ता में आने पर पुराने
अधिनायकवादी तौर-तरीकों का ही परिचय दिया।
मध्यपूर्व इस्लामिक देशों की तुलना
में पूर्वी यूरोप,
लैटिन अमेरिका
तथा एशिया में प्रजातन्त्र काफी सफल रहा। पोलैण्ड, चेकरिपब्लिक तथा हंगरी में प्रजातन्त्र को सफलतापूर्वक अपना
लिया गया। रोमानिया में प्रजातन्त्र की गति धीमी रही। अल्बानिया, बल्गेरिया व स्लोवाकिया
में पहले की अपेक्षा अधिक खुलापन व बहुलवाद दिखाई देता है। किन्तु यहाँ विरोधी
दलों व सत्तारूढ़ दलों के प्रति विरोध को आसानी से सहन नहीं किया जा सकता। 1951 के
बाद से ही पूर्ववर्ती यूगोस्लाविया, सर्बिया, बोसनिया व
क्रोशिया में अधिनायकवादी प्रवृत्तियाँ ही दिखाई देती हैं। लैटिन अमेरिका में
गुवाटेमाला, वेलेज्यूला, पेरू, हैती इत्यादि देशों में
प्रजातन्त्र व सैनिक षड्यन्त्र के बीच लगातार संघर्ष बना रहा। ये देश प्रजातन्त्र
व अधिनायकवाद के बीच लटके हुए हैं।
लैटिन अमेरिका की समस्या यह
नहीं है, वहाँ लोकतान्त्रिक
प्रक्रिया स्थापित की जा सकती है, अथवा नहीं।
परन्तु लैटिन अमेरिका की समस्या यह है कि वहाँ प्रजातन्त्र को स्थापित करना कठिन
है। कुछ देशों में जहाँ लोकतान्त्रिक परम्पराएँ विद्यमान हैं, प्रजातन्त्र को मजबूत
करना सम्भव हो गया है। किन्तु अधिकांश क्षेत्रों में जहाँ सरकारी संस्थाएँ कमजोर
हैं तथा राजनीतिक जीवन में अनेक कमियाँ हैं, भ्रष्टाचार बहुत बढ़ा है। कानून के शासन का अभाव है तथा
प्रतिनिधि व सहभागिता के सिद्धान्तों व तरीकों का समुचित विकास नहीं हुआ है। वहाँ
प्रजातन्त्र को बनाना दुष्कर साबित हुआ है।
प्रजातन्त्र व लोकतन्त्रीय व्यवस्था
को लेकर आशावादियों (Optimist), निराशावादियों में मतभेद हमेशा के लिये शान्त नहीं किया जा सकता है। कुछ
विचारकों का यह मानना है कि धीरे-धीरे प्रजातन्त्र समस्त विश्व में फैल जायेगा तथा
बाजार अर्थव्यवस्था इसमें बाधक सिद्ध नहीं होगी। कुछ अन्य विचारकों का कहना है कि
प्रजातन्त्र स्थायी व मजबूत साबित होगा। यह कोई जरूरी नहीं है। कुछ क्षेत्रों व
संस्कृतियों में प्रजातन्त्र विरोधी ताकतें पुनः उजागर हो सकती हैं अथवा
प्रजातन्त्र का विकास रुक सकता है अथवा बाजार अर्थव्यवस्था व प्रजातन्त्र पर हावी
हो सकती है। प्रजातन्त्र कोई स्थायी धारणा नहीं है। समय व परिस्थितियों के अनुकूल
इसमें गतिशीलता का होना जरूरी है। यदि गतिशीलता किसी भी कारण से अवरुद्ध हो जावेगी
तो प्रजातन्त्र आर्थिक व राजनीतिक विकास में बाधक हो जावेगा।
अब प्रजातन्त्र
की सार्वभौमिकता को भी सन्देह की दृष्टि से देखा जा रहा है। प्रजातन्त्र की कोई
सुनिश्चित व्याख्या भी नहीं की जा सकती है। प्रजातन्त्र की सभी अपने-अपने ढंग से
व्याख्या करते हैं। एक सर्वाधिकारवादी तथा सैनिकतन्त्र भी अपने आपको जनता का
वास्तविक शुभचिन्तक व प्रजातन्त्रात्मक गणराज्य मान सकता है। आमतौर पर जहाँ एक
निश्चित अवधि के बाद आम चुनावों की व्यवस्था हो, उसे प्रजातान्त्रिक प्रणाली मान लिया जाता है। चाहे वे
चुनाव मात्र दिखावा ही क्यों न हों। लोकतन्त्र से तात्पर्य उस व्यवस्था से होना
चाहिए, जहाँ सभी नागरिकों को
समान दर्जा प्राप्त हो तथा राजनीतिक निर्णय बहुमत के आधार पर लिये जाते हों व अल्प
संख्यकों के अधिकार सुरक्षित हों। एक प्रजातन्त्र तभी सम्भव है जब सरकार के पास
अपने सार्वजनिक दायित्वों का निर्वाह करने के लिए पर्याप्त शक्तियाँ हों, किन्तु मनमानी करने का
अधिकार न हो।
पूर्वी तथा
पश्चिमी संस्कृतियों के अनुरूप समान प्रजातान्त्रिक संस्थाएँ होने पर भी
उनका स्वरूप भिन्न-भिन्न हो सकता है। जहाँ पश्चिमी विकसित देशों में प्रजातन्त्र
आर्थिक विकास में सहायक सिद्ध हुआ, वहीं लैटिन अमेरिका, यूरोप, वाल्टिक राज्यों
व पूर्वी एशिया के क्षेत्रों में आर्थिक विकास व प्रजातन्त्रों में कोई खास
सम्बन्ध नहीं रहा। न तो यह कहा जा सकता है कि प्रजातन्त्र के न होने के कारण
पूर्ववर्ती सोवियत संघ, सब सहारा अफ्रीका
व मध्यपूर्वी देशों में आर्थिक प्रगति नहीं की जा सकी। न ही यह दावा किया जा सकता
है कि प्रजातन्त्र के अभाव के कारण ही जनवादी चीन व पूर्वी एशिया के देशों में
इतनी तरक्की की जा सकी। यह भी देखने में आया है कि कुछ देशों में अन्तर्राष्ट्रीय
दबाव के कारण प्रजातान्त्रिक संस्थाओं को अपना तो लिया गया, किन्तु वहाँ के नेताओं के
काम करने के तौर-तरीके अधिनायक की तरह से ही रहे। प्रायः इन नेताओं द्वारा विरोधी
ताकतों को जबरन दबाने की प्रवृत्ति ही रही।
इस प्रकार के पर्यावरण
में प्रजातन्त्र के होने का आभास होता है। किन्तु यह प्रजातन्त्र वास्तविकता से
मीलों दूर है। यहाँ समय पर चुनाव तो होते हैं, किन्तु उन पर सत्तारूढ़ दल व नेताओं का अंकुश रहता है।
समाचार पत्रों द्वारा कुछ स्वतन्त्र मत जाना जा सकता है, किन्तु टेलीविजन पर राज्य
का ही एकाधिकार बना रहता है। इसी प्रकार ट्रेड यूनियन दिखाई तो देती है, किन्तु वे सरकार के साथ
जुड़ी हुई होती हैं। व्यवस्थापिका में अनेक वर्गों को प्रतिनिधितव मिला हो सकता
है। किन्तु इसकी शक्ति नाममात्र ही हो सकता है। न्यायपालिका भी स्थानीय स्तर पर
स्वतन्त्रतापूर्वक काम कर सकती है। किन्तु सर्वोच्च न्यायपालिका पर राजनीति का
प्रभाव देखा जा सकता है।
अधिकांश नवोदित
प्रजातन्त्रात्मक राज्यों में सत्ता का स्वरूप व्यक्तिवादी व अर्द्ध-
सर्वाधिकारवादी बना रहता है। यहाँ के नेताओं को अपनी सत्ता व राजनीतिक स्थायित्व
बनाये रखने के लिये बहुत हद तक सेनाओं के सहयोग पर निर्भर करना पड़ता है। नेता
विचारवाद, राष्ट्रवाद तथा जनता की
भावुकता से लाभ उठाने से नहीं चूकते। राजनीतिक स्थायित्व तथा आधुनिकीकरण के नाम पर
ये नेता अपनी मनमानी करने तथा व्यक्तिगत लाभ उठाने से नहीं चूकते। ये आर्थिक विकास
को प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली से अधिक महत्त्व देते हैं। जहाँ अपराध, भ्रष्ट्राचार तथा गरीबी
का बाहुल्य हो,
वहाँ नेता इसी
प्रकार की विचारधाराओं को अपनाते हैं। सिंगापुर व एशिया के कुछ अन्य देशों को
देखकर ऐसा लगता है कि शायद वहाँ के नागरिक अभी भी प्रजातन्त्र के पश्चिमी मॉडल के
लिये तैयार नहीं हैं।
अधिकांश विकासशील
देशों में अभी भी प्रशासन पर राजनीतिक संरक्षण को अधिक महत्त्व दिया जाता है, गुणवत्ता को कम। शिक्षा, स्वास्थ्य पर अधिक व्यय
करने की अपेक्षा यहाँ के नेता कुछ ऐसी बड़ी योजनाओं को महत्त्व देते हैं, जिससे उनकी लोकप्रियता, शक्ति व समृद्धि बढ़ सके।
राष्ट्रीय हितों व अनुशासन को अधिक महत्त्व देने की अपेक्षा ये नेता राष्ट्रवाद का
ढोंग अधिक करते हैं। अपनी निजी सत्ता को बनाए रखने के लिये ही आर्थिक विकास की
दुहाई देते हैं। अधिकांश देशों में प्रजातन्त्र को केवल इसलिए अपना लिया गया, क्योंकि अन्य देशों में
भी इसे अपनाया गया था। लोकतान्त्रिककरण से पूर्व उस देश में राजनीतिक इतिहास, संस्कृति, साक्षरता का स्तर, मध्यम वर्ग का अस्तित्व
अथवा सम्पत्ति के बँटवारे के विषय में विचार नहीं किया गया। 1970-80 के दशकों में
प्रजातन्त्र में केन्द्रीय नेताओं ने प्रजातन्त्र का प्रयोग अपनी सत्ता को मजबूत
करने के लिये तथा जनता का समर्थन प्राप्त करने के लिये ही अधिक किया है। वे सत्ता
का विकेन्द्रीकरण नहीं चाहते थे। बहुत ही कम देशों में सत्ता का विकेन्द्रीकरण हुआ
है।
प्रजातान्त्रिककरण की प्रक्रिया पर सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक कारकों
के प्रभाव को अनदेखा करना मूर्खता है। प्रजातन्त्र की पूर्व शर्तो को निर्धारित
नहीं किया जा सकता है और न ही प्रत्येक देश में एक जैसी परिस्थितियाँ सम्भव हैं। न
ही कोई देश एक-दूसरे देश का अनुसरण कर सकता है। यद्यपि किसी भी देश में
प्रजातन्त्र लाया जा सकता है, किन्तु उन देशों
में ही इसे कामयाब होने की संभावना है जहाँ परस्पर सहयोग व उदारीकरण की भावना हो।
जो देश पश्चिमी देशों से आर्थिक सहयोग प्राप्त करने के लिये प्रजातन्त्र का ढोंग
रचते हैं। वहाँ प्रजातन्त्र सफल नहीं हो सकता है।
पश्चिमी देशों को
भी यह समझना चाहिए कि पश्चिमी सभ्यता तौर तरीके व संस्थाओं को सार्वभौमिक नहीं
माना जा सकता। जो मूल्य, विचारवाद अथवा
संस्थाएँ पश्चिमी देशों में कामयाब रहीं, वे गैर-पश्चिमी देशों में भी कामयाब होंगी। यह कोई आवश्यक
नहीं है कि प्रजातन्त्र की भाँति ही गैर-पश्चिमी देशों में 1980-90 के दशकों में, पश्चिमी देशों की
देखा-देखी आर्थिक उदारीकरण, व निजीकरण की
नीति को अपनाया जा रहा है। इसके अनेक दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। बेरोजगारी, महँगाई तथा आर्थिक व
क्षेत्रीय विषमताएँ तेजी से बढ़ रही हैं। इन देशों के नेताओं को अजीबोगरीब
समस्याओं का सामना करना पड़ता है। एक ओर यहाँ प्रजातन्त्र की जड़ें मजबूत नहीं
हुईं व दूसरी ओर राजनीतिक व आर्थिक समस्याएँ विकट रूप धारण किये हुए हैं। इन समस्याओं
का सामना करना आसान नहीं है।
वैश्वीकरण व आर्थिक
अन्तर्राष्ट्रीयकरण के इस दौर में प्रजातान्त्रिक मूल्यों, संस्थाओं व प्रक्रियाओं
को मजबूत बनाए रख पाना दुष्कर साबित हो रहा है। अतः पश्चिमी देशों व
अन्तर्राष्ट्रीय सहायता संस्थाओं को चाहिए कि विकासशील देशों को आर्थिक मदद देते
समय आर्थिक उदारीकरण व निजीकरण अथवा राजनीतिक प्रजातन्त्र (Political Democracy) को आर्थिक सहायता की
पूर्व शर्त के रूप में न देखे। आर्थिक सुधारों व राजनीतिक प्रजातन्त्र को ऊपर से
नहीं लादा जा सकता। आर्थिक मदद के लालच में कुछ विकासशील देश यदि इन्हें अपना भी
लें तो भी इनकी सफलता की कोई गारण्टी नहीं है। इस प्रकार के सुधार क्रमिक व
स्वाभाविक होने चाहिए। समय, आवश्यकता व
परिस्थितियों के अनुकूल, विकासशील देशों
के नेता राजनीतिक प्रजातन्त्र अथवा आर्थिक सुधारों में से किसी एक को वरीयता दे
सकते हैं।
आशा हैं कि हमारे
द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो
इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।
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