विश्वव्यापी आर्थिक
संकट (सन् 1929-32)
प्रथम विश्व युद्ध के आर्थिक परिणामों से स्पष्ट झलकता है कि युद्ध के उपरान्त विजेता और विजित दोनों ही देशों की आर्थिक अवस्था दयनीय हो गई थी। युद्ध में दोनों पक्षों को ही अपार धन खर्च करना पड़ा था। हाँ, यह अवश्य था कि विजेता अपनी आर्थिक अवस्था में सुधार जल्दी कर सकते थे। जबकि पराजित देशों का भविष्य अन्धकारमय प्रतीत हो रहा था। विकास कार्य सभी जगह ठप्प हो गये थे। विजेता देश पराजित राष्ट्रों से क्षतिपूर्ति वसूल करके अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने का प्रयत्न कर रहे थे। परन्तु उन्हें भी आशानुकूल सफलता नहीं मिल रही थी। इसका कारण यह था कि परास्त देश जर्मनी के पास क्षतिपूर्ति देने के लिये कुछ बचा नहीं था। विजेता राष्ट्रों ने उसके प्राकृतिक साधनों पर भी अधिकार कर लिया था।
युद्ध के समय
यूरोपीय औद्योगिक विकास को बड़ा धक्का लगा। अत: विकसित देश भी कुछ निर्यात नहीं कर
पा रहे थे। अत: धीरे-धीरे यूरोप की आर्थिक अवस्था बड़ी दयनीय हो गई थी। आर्थिक
मन्दी का प्रभाव धनाढ्य देश अमेरिका पर भी पड़ा। उसने अन्य देशों को ऋण देना बन्द
कर दिया तो ऋणी देशों ने ऋण चुकाना बन्द कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि सारे
विश्व में बेकारी व भुखमरी फैलनी लगी। प्रशासन अस्त-व्यस्त होने लगा। विश्व के राजनीतिज्ञ
और अर्थशास्त्री विचलित हो उठे। इस समस्या के कारणों पर विचार करने लगे।
विश्वव्यापी आर्थिक संकट (सन् 1929-32) |
आर्थिक संकट के कारण
(Causes of Economic Depression)
इस विश्वव्यापी
आर्थिक संकट के निम्नलिखित कारण थे-
विश्व युद्ध से
उत्पन्न परिस्थितियाँ (Circumstances of the World War)-
आर्थिक मन्दी का महत्वपूर्ण कारण
विश्व युद्ध से उत्पन्न परिस्थितियाँ थीं। इससे पूर्व भी तीन बड़े युद्धों के बाद
(नेपोलियन के युद्ध, अमेरिका गृह
युद्ध, फ्रेकी प्रशियन युद्ध) भी
आर्थिक मन्दी आयी थी। युद्ध के अवसर पर सैनिक आवश्यकता में अत्यधिक वृद्धि हो जाती
है, जिसके कारण औद्योगिक
विकास होना अनिवार्य हो जाता है। साथ ही नवयुवक सैनिक सेना में चले जाते हैं, जिससे मजदूरों की कमी हो
जाती है। परिणामतः श्रम मूल्य, लाभ और काम के
अवसर बढ़ जाते हैं। यही कारण है कि युद्धोत्तर काल में कुछ समय तो तेजी बनी रहती
हैं, परन्तु उसके बाद मन्दी का
दौर प्रारम्भ हो जाता है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद भी यही हुआ। 1919 में युद्ध की
समाप्ति के 10 वर्ष बाद 1929 में संसार आर्थिक मन्दी का शिकार हुआ।
युद्धकालीन ऋण (Loan
given during war)-
आर्थिक संकट का
कारण युद्धकालीन ऋण था। युद्ध के समय युद्ध में फँसे राष्ट्रों को अपार धन खर्च
करना पड़ता है। वे अपने साधनों से भी बाहर चले जाते हैं। अत: एक राष्ट्र दूसरे
राष्ट्र से ऋण लेता रहा और सोचता रहा कि युद्ध समाप्ति के बाद चुका देगा। परन्तु
प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद भी राष्ट्रों को ऋण चुकाना कठिन हो रहा था।
यूरोप के अधिकांश देशों ने इंग्लैण्ड से कर्ज लिया था और इंग्लैण्ड ने अमेरिका से
कर्ज लिया था। इंग्लैण्ड को अपने ऋण का भुगतान प्राप्त नहीं हुआ तो वह अमेरिका को
अपने ऋण का भुगतान नहीं कर सका। इसका प्रभाव स्वर्ण मुद्रा पर पड़ा। पत्र मुद्रा
अधिक प्रचलित हो गई।
युद्धोत्तर वृद्धि (Increase
in demand of the war)-
युद्ध के
परिणामस्वरूप अधिकांश देशों की आर्थिक दशा दयनीय हो गई थी। परन्तु कुछ ऐसे भी देश
थे, जिनका उत्पादन युद्ध काल
में ठप्प नहीं हुआ। उनके लिये युद्धोत्तर काल अभिवृद्धि का था। युद्ध के बाद
शान्ति स्थापित होते ही दैनिक वस्तुओं की माँग बढ़ने लगी। परन्तु उत्पादन नहीं बढ़
रहा था। इस कारण उन वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हुई। इस अभिवृद्धि से अधिकांश देशों
के लोग परेशान थे। इसके विपरीत अमेरिका और जापान आर्थिक अभिवृद्धि की ओर अग्रसर हो
रहे थे। क्योंकि युद्धकाल में भी औद्योगिक विकास ठप्प नहीं हुआ था। वहाँ माल का
उत्पादन तो बहुत मात्रा में हुआ, परन्तु बिक्री
नहीं हो रही थी।
यन्त्रों का
वैज्ञानिकीकरण (Mechanization)-
युद्धकाल में समय
मानव शक्ति की कमी आ गई थी। इस कारण कारखानों व कृषि क्षेत्र में काम करने वाले
श्रमिकों की कमी आ गई थी। कारखानों के मालिकों ने नवीन यन्त्रों का आविष्कार किया।
अब श्रमिकों का काम मशीनें करने लगीं। इससे गुणवत्तापूर्ण उत्पादन तैयार होने लगा, परन्तु युद्ध की समाप्ति
के उपरान्त मानव शक्ति पुन: उपलब्ध हो गई, जो अब बेरोजगार हो गई थी। इससे भी यूरोप में आर्थिक संकट
मँडराने लगा।
स्वर्ण वितरण में
विषमता (Unequal distribution of Gold)-
यूरोप के देशों
को ऋण देने वालों में प्रमुख देश अमेरिका ही था। वह अपने ऋण का भुगतान स्वर्ण के
रूप में लेता था। यूरोपीय देशों का सारा स्वर्ण अमेरिका में एकत्रित होने लगा।
इसके अलावा वह अपने उत्पादन का भी निर्यात करता था। इससे वहाँ धन की मात्रा में
वृद्धि होने लगी। फ्रांस ने जर्मनी से अपना युद्ध खर्च भी स्वर्ण के रूप में लेना
स्वीकार किया। इस प्रकार अमेरिका व फ्रांस के पास स्वर्ण के भण्डार हो गये और अन्य
देश खाली हो गए। इससे यूरोपीय देशों में स्वर्ण के दाम चढ़ गए। स्वर्ण मुद्रा
प्रचलन में कमी आने लगी।
क्रय शक्ति में कमी
आना (Purchasing Power went low)-
कृषि के
वैज्ञानिकीकरण व मशीनीकरण करने से आस्ट्रेलिया व अमेरिका में अनाज भारी मात्रा में
उत्पन्न होने लगा। बहुत से कृषक व श्रमिक बेरोजगार हो गये। कारखानों में उत्पादन
तो बढ़ा परन्तु सामान्य व्यक्तियों की क्रय शक्ति कमजोर हो गई थी। अत: उत्पादन का
उचित मूल्य नहीं मिल सका।
आर्थिक राष्ट्रीयता
(Economic Nationality)-
साम्राज्य
विस्तार का एक कारण आर्थिक राष्ट्रीयता भी होती है। इस भावना से प्रेरित देश केवल
अपना हित चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि उनके माल की खपत में किसी भी प्रकार की कमी
आवे। युद्ध से पूर्व एक देश का माल दूसरे देश में स्वतन्त्रतापूर्वक जाता था।
इंग्लैण्ड जैसा साम्राज्यवादी देश भी व्यापार (Free Trade) की नीति में विश्वास करता
था। इस नीति के कारण व्यापार का स्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय बना रहता था। परन्तु युद्ध
की समाप्ति पर यूरोप के अधिकांश देशों ने मुक्त व्यापार की नीति का परित्याग कर
दिया और अपने व्यापार को उन्नत करने के लिये 'संरक्षित नीति' अपनाई। इंग्लैण्ड ने अपने
उपनिवेशों में दूसरे देश का सामान आने पर नियन्त्रण लगा दिए। इसी प्रकार अपने
उपनिवेशों को अपना कच्चा माल भी उनके यहाँ ही भेजने को विवश किया। इस नीति के
परिणामस्वरूप गुलाम देशों की आर्थिक स्थिति अति दयनीय हो गई। शक्तिशाली देशों की
आर्थिक स्थिति अच्छी होने लगी।
आर्थिक मन्दी का
तात्कालिक कारण-
1929 ई. में
न्यूयार्क के शेयर बाजार का आर्थिक संकट, आर्थिक मन्दी का तात्कालिक कारण था। इस घटना से पहले
अमेरिका के धनवान व्यापारी जर्मनी व यूरोप के देशों में पर्याप्त धन व्यय कर रहे
थे। इससे जर्मनी में जो उद्योग विकसित हो रहे थे, उससे जर्मनी अपनी क्षतिपूर्ति की राशि का भुगतान कर रहा था।
इसी प्रकार यूरोप के अन्य देश भी अमेरिका को अपने ऋण का धीरे-धीरे भुगतान कर रहे
थे। इस प्रकार अमेरिका की पूंजी यूरोप को समृद्ध बनाकर वापस अमेरिका में ही आ रही
थी, परन्तु 1929 के आर्थिक
संकट के फलस्वरूप,
अमेरिका के
पूंजीपतियों ने यूरोप के देशों में धन व्यय करना बन्द कर दिया। फलतः न केवल यूरोप
के देशों का समृद्धि का मार्ग बन्द हो गया, अपितु अमेरिका के ऋण की अदायगी का मार्ग भी बन्द हो गया।
आर्थिक मन्दी के परिणाम (The Results of Economic Depression)
आर्थिक मन्दी के
संकट से बचने के लिये विश्व अर्थ सम्मेलन आयोजित किये गये। 6 जून, 1933 को लन्दन में यह
सम्मेलन आयोजित किया गया। इसमें 66 राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया; परन्तु राष्ट्रों के आपसी
मतभेद के कारण 27 जुलाई, 1933 को यह
सम्मेलन स्थगित कर दिया गया।
1934 का वर्ष
आर्थिक संकट के लिये शुभ रहा। सभी राष्ट्रों में औद्योगिक विकास प्रारम्भ हो गया; परन्तु पुनः युद्ध की
आशंका से हथियारों की होड़ होने लगी। शस्त्र निर्माण के कारखाने खुलने लगे और
बेरोजगारों को रोजगार मिलने लगा।
आर्थिक संकट के राजनीतिक परिणाम
1. अधिनायकवाद का
उत्कर्ष (Rise of Despotism)-
इतिहास के विद्वानों का मानना
है कि आर्थिक संकट ने अधिनायकवाद को जन्म दिया। यह तो सत्य है कि इस आर्थिक
संकट का हल प्रजातान्त्रिक विधि से तो नहीं किया जा सकता था। अत: इस संकट के
समाधान हेतु प्रजातान्त्रिक सरकारों ने भी अपने अधिकारों में वृद्धि की। आर्थिक
संकट सम्बन्धी कानून संसदों में पारित कर नहीं बनाये वरन् अध्यादेशों के माध्यम से
बनाए। अत: जब प्रजातान्त्रिक परम्पराओं की अवहेलना होती है तो अधिनायकवाद के बीज
अंकुरित होते हैं।
प्रजातान्त्रिक
सरकारों में बहुदलीय सरकारों के स्थान पर मिली-जुली सरकारें बनीं । अमेरिका के
राष्ट्रपति रूजवेल्ट की न्यूडील नीति ने भी अधिनायकवाद के तत्वों को मजबूत बनाया, क्योंकि उसने भी आर्थिक
संकट का समाधान करने के लिये असाधारण अधिकार प्राप्त कर लिये थे। इटली व जर्मनी
में जब बेकारी काफी मात्रा में बढ़ गई तो बेरोजगार नवयुवक मुसोलिनी तथा हिटलर की
तरफ आकर्षित होने लगे। ये दोनों नेता तानाशाही मनोवृत्ति के थे और आगे चलकर
विख्यात तानशाह बने। इस प्रकार बेकारी व बेरोजगारी भी तानाशाही व अधिनायकवाद की
पोषक बनीं।
2. लोकतान्त्रिक
व्यवस्था का प्रभावित होना (The Democratic System was also
Affected)-
आर्थिक संकट के
समाधान हेतु प्रजातान्त्रिक सरकारों को भी विशेष अधिकार ग्रहण करने पड़े। अमेरिका
व इंग्लैण्ड जैसे लोकतन्त्रीय राष्ट्रों ने भी तानाशाही राष्ट्रों की भांति कार्य
किया। अत: लोकतान्त्रिक सरकारों का भी प्रभावित होना स्वाभाविक था। लोकतान्त्रिक
सरकारें यूरोपीय देशों में जनता का कोपभाजन बनीं । वे सभी पूँजीवाद का समर्थन कर
रही थी। असाधारण जनता का भी प्रजातान्त्रिक सरकारों में विश्वास उठ गया।
3. आर्थिक
राष्ट्रीयता का प्रबल होना (The Economic Nationality Become
Prominent)-
जब यूरोप के देश
आर्थिक संकट से ग्रस्त थे तो उसके समाधान हेतु वे केवल अपना ही आर्थिक हित विचारने
लगे। अब उसकी धारण बन गई कि वे इस आर्थिक संकट का समाधान तब ही कर सकते हैं, जबकि वे अपने उपनिवेशों
को अन्य देशों के व्यापार का केन्द्र न रहने दें। इसके लिये उन्होंने स्वतन्त्र
व्यापार की नीति का परित्याग कर संरक्षण की नीति अपनायी। यह आर्थिक राष्ट्रीयता
यूरोपीय देशों में इतनी उग्र बन गई थी कि आर्थिक मामलों में उन्होंने परस्पर सहयोग
करना बन्द कर दिया। अब सभी देश अपने अपने स्तर पर आर्थिक संकट का सामना करने का
प्रयास करने लगे। उनकी इस प्रकार की भावना से अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग व सौहार्द की
भावना पर घातक प्रभाव पड़ा।
4. राष्ट्रसंघ का
निर्बल होना (The league of Nations become weak)-
आर्थिक संकट से
भयभीत राष्ट्र केवल अपने हितों का ही चिन्तन करने लगे थे। राष्ट्रसंघ के कार्यों व
आदर्शों के प्रति वे उदासीन हो गये। 1931 में जापान ने मंचूरिया पर आक्रमण किया और
राष्ट्रसंघ कुछ भी नहीं कर सका। इटली का अधिनायक मुसोलिनी इथोपिया पर आक्रमण की
तैयारी करने लग लगा था, परन्तु
राष्ट्रसंघ उसकी साम्राज्यवादी मनोवृत्ति पर अंकुश नहीं लगा सका। इस प्रकार आर्थिक
संकट के कारण राष्ट्र संघ भी निर्बल बन गया था।
5. जापान की साम्राज्यवादी
भावना को प्रोत्साहन (Encouragement of Imperialism of Japan)-
1910 में कोरिया
की विजय के पश्चात् ही जापान साम्राज्यवादी बन गया था। प्रथम विश्व युद्ध में
विजेता बनकर वह विश्व की पाँच शक्तियों में आ गया था। इसके साथ-साथ उसने औद्योगिक
विकास में भी काफी प्रगति कर ली थी। जापान के कारखानों में उत्पादन भारी मात्रा हो
गया, परन्तु उस माल के खरीददार
कम हो गये। आर्थिक राष्ट्रीयता की भावना ने सभी राष्ट्रों को अन्तर्राष्ट्रीय
क्षेत्र में संकुचित भावना का बना दिया था। इंग्लैण्ड नहीं चाहता था कि जापान का
माल उसके उपनिवेशों में जावे।
अत: जापान ने
अपने व्यापार को बढ़ाने के लिये सैनिक विजय की नीति अपनाई। इतिहासकार टायनबी
ने लिखा है कि,
"भीषण मन्दी से
विवश होकर ही जापानी सेनानायकों की नीति का समर्थन किया।" इस मन्दी से जापानी बहुत
परेशान हो गये थे। अत: उन्होंने मंचूरिया पर आक्रमण करने में तनिक भी संकोच नहीं
किया।
जापान की सरकार
को भी इस समय “सैनिक नीति" अपनाने में संकोच नहीं
हुआ। क्योंकि उस समय यूरोप के देश तो अपनी आर्थिक समस्याओं के समाधान में व्यस्त
थे। राष्ट्र संघ मात्र कमीशन नियुक्त करके सन्तुष्ट हो गया, वह जापान की शक्ति को
नहीं रोक सका।
6. साम्यवाद की श्रेष्ठता सिद्ध होना (It Justified Communism)-
आर्थिक संकट से
पूर्व यूरोपीय देशों की पूंजीवाद में महान् श्रद्धा थी। इसके विपरीत साम्यवाद के
प्रणेता कार्ल मार्क्स (Karl Marx) का कहना था कि पूंजीवाद अब चरम सीमा पर पहुंच चुका है। अत: पूंजीवाद के बाद
साम्यवाद का आना अवश्यम्भावी है। आर्थिक संकट ने कार्ल मार्क्स की धारणा की पुष्टि
कर दी। इस संकट ने पूंजीवाद की निर्बलता को कम कर दिया। अत: यूरोप के देश भी अब
साम्यवाद में अपना विश्वास प्रकट करने लगे।
7. द्वितीय विश्व युद्ध
के लिये वातावरण उत्पन्न करना (It created
circumstances leading to II world war)-
इतिहासकारों के मतानुसार द्वितीय विश्व युद्ध के बीच तो वाय
की सन्धि ने ही बो दिये थे। परन्तु इस आर्थिक संकट ने द्वितीय विश्व युद्ध के लिये
वातावरण तैयार कर दिया था। इस संकट ने यूरोपीय देशों की पूंजीवाद में श्रद्धा कम
कर दी थी। प्रजातन्त्र को निर्बल बनाया और अधिनायकवाद का पोषण किया। पूंजीवाद में
श्रद्धा कम होने से यूरोपवासियों करा ध्यान साम्यवाद की ओर गया। साम्यवाद के बढ़ते
प्रभाव ने यूरोपवासियों को परेशानी में डाल दिया। उनका विश्वास अब सामूहिक सुरक्षा
में नहीं रहा। अत: वे अब अपनी सुरक्षा की चिन्ता व्यक्तिगत रूप से करने लगे। इससे
उन्हें अब तुष्टिकरण (Policy of Appeasement) की नीति अपनायी। जापान (मंचूरिया) में व इटली (इथोपिया) की
आक्रामक नीति के प्रति भी सहिष्णु बने रहे।
इनके बाद हिटलर
ने जब वर्साय की सन्धि का उल्लंघन किया तथा साम्राज्यवादी नीति का ही पालन
करने लगा, तब इंग्लैण्ड और फ्रांस
को रोकने के बहाने मुसोलिनी व हिटलर ने स्पेन के गृहयुद्धों में
वहाँ की सरकार के विरुद्ध जनरल फ्रेंको को खुलकर मदद की। इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा राष्ट्रसंघ
मौन बनकर देखते रहे। इन सबका परिणाम यह निकला कि 1919 में ही तानाशाह हिटलर ने
द्वितीय विश्व युद्ध का श्रीगणेश कर दिया और इसका मूल कारण आर्थिक संकट ही बनता
है। यह द्वितीय विश्व युद्ध प्रथम विश्व युद्ध से भी अधिक अनिष्टकारी सिद्ध हुआ।
विश्वव्यापी आर्थिक
मन्दी से इटली भी अपने आपको सुरक्षित नहीं रख सका। उसकी आन्तरिक दशा इतनी शोचनीय
हो गई कि उसे जनसाधारण का ध्यान आर्थिक कठिनाइयों से दूर करने के लिये युद्ध का
सहारा लेना पड़ा। इटली का अफ्रीका के एक दुर्बल राष्ट्र एबीसीनिया पर आक्रमण करना
इसी उद्देश्य की पूर्ति का एक साधन था। ग्रेट ब्रिटेन व फ्रांस ने राष्ट्रसंघ की
उपेक्षा करते हुए जर्मनी व इटली के प्रति तुष्टिकरण की नीति का पालन किया । वह
अन्ततः द्वितीय विश्व युद्ध के लिये पूरी तरह उत्तरदायी कही जा सकती है।
अतः सभी दृष्टियों से ध्यानपूर्वक अवलोकन करने पर यह ज्ञात हो जाता है कि
आर्थिक मन्दी के प्रभाव यूरोप के भविष्य के लिये अच्छे प्रमाणित नहीं हुए। आर्थिक
मंदी के कारण सन् 1929 ई. से 1931 के बीच न्यूरोप की स्थिति दयनीय बनी रही तथा
यूरोप राष्ट्र धीरे-धीरे सिकुड़ कर अपनी राष्ट्रीय सीमा तक सीमित रह गये।
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