प्रतिवादी धर्म सुधार आन्दोलन
सोलहवीं शताब्दी के धर्म सुधार आन्दोलन तथा प्रोटेस्टेन्टों की सफलता ने यह स्पष्ट कर दिया कि अपने स्थायित्व के लिए रोमन कौथोलिक चर्च में भी सुधार आवश्यक है। अतः अपनी सुरक्षा की दृष्टि से कैथोलिक मतावलम्बियों ने भी सुधार आन्दोलन का सूत्रपात किया जिसे प्रतिवादी या प्रतिवादात्मक धर्मसुधार आन्दोलन कहा गया है। विद्वान लेखक शैविल ने लिखा है "प्रतिवादी धर्मसुधार आन्दोलन वास्तव में कैथोलिक धर्म सुधार के लिए किये गये प्रयत्नों का नाम है।"
प्रोटेस्टेन्ट धर्म की बढ़ती हुई
लोकप्रियता से कैथोलिक धर्म के नेताओं को अत्यधिक चिन्ता हुई। अत: पोप और
उसके अनुयायियों ने प्रोटेस्टेन्ट धर्म की प्रगति पर अंकुश लगाने का
निश्चय कर लिया। परिणामस्वरूप प्रोटेस्टेण्ट धर्म की प्रगति को रोकने और
कैथोलिक चर्च की बुराइयों को दूर करने के लिए यह आन्दोलन चलाया गया। इसके
परिणामस्वरूप प्रोटेस्टेण्ट धर्म की प्रगति अवरुद्ध हो गई और कैथोलिक धर्म
अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने लगा।
प्रतिवादी धर्म सुधार आन्दोलन |
प्रतिवादात्मक धर्मसुधार आन्दोलन के उद्देश्य
प्रतिवादात्मक
धर्मसुधार आन्दोलन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे-
1. चर्च के संगठन
एवं कार्यविधि से सम्बद्ध सिद्धान्तों में परिवर्तन लाना।
2. कैथोलिक चर्च
के सिद्धान्तों की व्याख्या और उसमें सुधार लाना ।
3. कैथोलिक धर्म
के प्रचार का कार्य करना।
4. प्रोटेस्टेण्ट
आन्दोलन की बढ़ती हुई प्रगति पर अंकुश लाना।
प्रतिवादी धर्म
सुधार आन्दोलन के कारण
1. प्रोटेस्टेन्ट
धर्म का बढ़ता हुआ प्रभाव-
कैथोलिक धर्म में आई बुराइयों के
विरुद्ध यूरोप के अन्य देशों में विरोध आन्दोलन चलाया गया। इसे प्रोटेस्टेण्ट
धर्म कहा गया। प्रोटेस्टेण्ट धर्म का शीघ्र ही यूरोप के देशों में
प्रचार-प्रसार होने लगा कैथोलिक धर्म के प्रमुख नेता प्रोटेस्टेण्ट आन्दोलन के
बढ़ते हुए प्रभाव से अत्यधिक चिंतित थे। अत: उन्होंने प्रोटेस्टेण्ट धर्म की
प्रगति पर अंकुश लगाने का निश्चय कर लिया।
2. कैथोलिक धर्म के
अनुयायियों का अदम्य साहस-
प्रोटेस्टेण्ट आन्दोलन की सफलता से
कैथोलिक धर्म को गहरा आघात लगा था फिर भी उसके अनुयायियों की संख्या अब भी कम नहीं
थी। सुधार आन्दोलन ने कई निष्ठावान कैथोलिकों को चर्च की उन बुराइयों को दूर करने
की प्रेरणा दी जिस पर प्रोटेस्टेण्ट आपत्ति करते थे। ये अनुयायी कैथोलिक धर्म में
आये हुए दोषों और बुराइयों को दूर करने के पक्ष में भी थे कैथोलिक चर्च की एकता, संगठन और सैद्धिान्तिक
स्वरूप में परिवर्तन किये बिना ही कैथोलिक धर्म का सुधार करना चाहते थे।
3. गृह युद्ध की
आशंका-
प्रोटेस्टेन्ट धर्म के प्रचार से कैथोलिक
सम्राट भी चिन्तित थे क्योंकि प्रोटेस्टेन्ट लोग उनकी सरकार को असफल करने
का भरसक प्रयास कर रहे थे। अतः इस कारण अनेक राज्यों की गृहयुद्ध की आशंका बनी हुई
थी। परिणामस्वरूप अनेक कैथोलिक सम्राट भी प्रोटेस्टेण्ट आन्दोलन की
बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के लिए पोप को सहायता देने को तैयार थे।
4. कैथोलिक धर्म में
आस्था एवं विश्वास-
धर्मसुधार आन्दोलन के कारण यद्यपि
यूरोप के कुछ देशों में प्रोटेस्टेन्ट धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ था परन्तु अब भी
यूरोप की अधिकांश जनता कैथोलिक धर्म में आस्था और विश्वास रखती थी। उनकी कैथोलिक
चर्च, पोप एवं पादरियों में
अटूट आस्था थी। उनकी दृष्टि में प्रोटेस्टेन्ट आन्दोलन पोप विरोधी था न धर्म
विरोधी। अत: इनका विश्वास था कि कैथोलिक चर्च की बुराइयों को दूर करने से
प्रोटेस्टेन्ट धर्म की प्रगति को अवरुद्ध किया जा सकता था।
5. प्रोटेस्टेन्ट
सम्प्रदायों में एकता का अभाव-
प्रोटेस्टेन्ट सम्प्रदायों में में भी
एकता का अभाव था। धर्म अनेक शाखाओं यथा लूथरवादी, ज्विलिंगवादी, काल्विनवादी आदि सम्प्रदाय में विभाजित हो गया था। इससे
प्रोटेस्टेण्टों की शक्ति बिखर गई थी। इससे भी कैथोलिक नेताओं को प्रतिवादात्मक
धर्मसुधार आन्दोलन शुरू करने की प्रेरणा मिली।
आन्दोलन को सफल बनाने के लिए किये गये विविध उपाय
प्रतिवादात्मक
धर्मसुधार आन्दोलन को सफल बनाने के लिए विविध उपाय काम में लाये गये जो
निम्नानुसार हैं-
1. ट्रेन्ट कौन्सिल
(1545-1563 ई.)
कैथोलिक धर्म की बुराइयों
को दूर करने तथा कैथोलिक धर्म के मौलिक सिद्धान्तों का स्पष्टीकरण करने के लिए
इटली के ट्रेन्ट नामक नगर में एक कौन्सिल या धर्मसभा आयोजित
की गई। इस सभा की बैठकें 1543 ई. से 1563 ई. तक होती रहीं। ट्रेन्ट की परिषद्
में कैथोलिक धर्म के अनेक विद्वानों तथा धर्मशास्त्रियों ने
भाग लिया। चर्च में सुधार लाने के सम्बन्ध में अनेक महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये गये।
ट्रेण्ट की सभा
के महत्त्वपूर्ण निर्णय-
1. भविष्य में
चर्च का कोई पद किसी को नहीं बेचना।
2. सभी विशपों को
अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक निर्वाह करना होगा।
3. पादरियों को
प्रशिक्षित किया जाएगा।
4. जहाँ आवश्यक
हो जनभाषा में उपदेश देना।
5. पादरियों को
कठोर एवं सादा जीवन बिताना होगा।
6. कैथोलिक
चर्चों में पूजा की एक सी विधि व एक सी प्रार्थना पुस्तक रखी गई।
7. पोप कैथोलिक
चर्च का प्रधान और सभी सिद्धान्तों का अन्तिम व्याख्याता है।
8.
पापमोचन-पत्रों की बिक्री बन्द करने का निश्चय किया गया।
9. कैथोलिकों के
लिए लैटिन भाषा में एक नई बाइबिल तैयार की जाएगी जिसका नाम वल्गेट संस्करण होगा।
10. कुछ पुस्तकों
को कैथोलिकों को पढ़ने के लिए मना कर दिया गया।
सुधारों की घोषणा
के साथ ही ट्रेण्ट की परिषद् ने कैथोलिक धर्म के सिद्धान्तों की
पुष्टि व व्याख्या भी की। ट्रेण्ट कौन्सिल के कार्यों एवं निर्णयों
से चर्च में आत्मविश्वास जागा। जिन बुराईयों के कारण चर्च पर प्रहार हुआ था उनके
दूर करने की व्यवस्था होने से चर्च की पुरानी गति लौट आयी। 'ट्रेन्ट की परिषद् की
मुख्य सफलता कैथोलिक चर्च के सिद्धान्तों की स्पष्ट परिभाषा थी इसने कैथोलिक चर्च
को सुदृढ़ एवं निश्चित स्थिति प्रदान की।' यही कारण है कि ट्रेण्ट की परिषद् का कैथोलिक चर्च के
इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है।
कैथोलिक चर्च में सुधार की दशा
में यह एक महत्त्वपूर्ण कदम था। स्वयं पोप ने इसकी कई बैठकों में भाग लिया
था और उसने परिषद् के निर्णयों को लागू करने का वचन दिया। परिषद् के निर्णयानुसार
अब योग्य तथा चरित्रवान लोगों को ही पादरी पद पर नियुक्त किया जाने लगा। स्वयं पोप
ने सदाचरण की तरफ ध्यान देना शुरू कर दिया। स्कूलों में बाइबिल के अध्ययन पर जोर
दिया जाने लगा। इसका परिणाम बहुत ही अच्छा निकला और कैथोलिक धर्म में एक नई शक्ति
और स्फूर्ति आ गई जिसके परिणामस्वरूप सुधारवादी आन्दोलन की गति धीमी पड़ गई। साउथ
गेट के अनुसार इसका ध्येय मुख्यत: कैथोलिक चर्च में पवित्रता व ऊँचे
आदर्शों को स्थापित करना था। इतिहासकार हेज का कथन है कि- "ट्रेन्ट की
कौन्सिल ने कैथोलिक चर्च में महान सुधार कर मुख्य रूप से कैथोलिक धर्म के अस्तित्व
की रक्षा में बड़ा योगदान दिया।"
2. जैसुइट संघ-
कैथोलिक सम्प्रदाय को
सुधारने के लिए जिन नये संगठनों की स्थापना की गई थी उनमें महत्त्वपूर्ण था 'जैसुइट संगठन' कैथोलिक धर्म के सुधार
में जैसुइट संघ ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस संगठन की स्थापना
1521 ई. में एक स्पेनी सैनिक इग्नेशियस लायला ने की थी। उसने
सर्वप्रथम स्पेन में इस संगठन की स्थापना की थी। बाद में इस संगठन की शाखाएँ यूरोप
के अन्य देशों में कायम की गई। पीप पाल तृतीय ने 1540 ई. में इसे मान्यता प्रदान
की।
इग्नेशियस लायोला अपने
प्रारम्भिक जीवन में सम्राट चार्ल्स पंचम की सेना मे सैनिक
था, 1521 ई. में फ्रांस के
विरुद्ध संघर्ष करते हुए वह घायल हो गया और अस्पताल में भर्ती किया गया। वहाँ उसने
महात्मा ईसा तथा अन्य धार्मिक सन्तों की जीवनियाँ पढ़ीं। उनसे प्रेरित होकर उसने
कैथोलिक चर्च की सेवा करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। 1534 ई. में उसने पोप की
स्वीकृति लेकर 'जैसुइट संघ' की स्थापना की।
जैसुइट संघ के
उद्देश्य-
1. कैथोलिक धर्म
की सेवा करना
2. कैथोलिक धर्म
का प्रचार-प्रसार करना
3. प्रोटेस्टेण्ट
धर्म का दमन करना
4. कैथोलिक धर्म
में व्याप्त बुराइयों को दूर करना।
जैसुइट संघ का स्वरूप
सैनिक था। इसका प्रधान 'जनरल' कहलाता था जिसकी नियुक्ति
आजीवन होती थी। संघ के सदस्यों को अपने जनरल तथा अपने से ऊँचे अधिकारियों की आज्ञा
को मानना अनिवार्य था। पादरी बनने के लिए पूर्ण रूप से शिक्षित होना अनिवार्य था।
सदस्यों को पादरी के पद पर नियुक्त करने से से पूर्व दो वर्ष का कठोर प्रशिक्षण
दिया जाता था। संघ के सभी सदस्य पोप के प्रति स्वामिभक्ति की शपथ लेते थे तथा उसकी
आज्ञा पालन करते थे। प्रत्येक सदस्य को अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, आज्ञापालन व पोप के प्रति स्वामिभक्ति की शपथ लेनी पड़ती
थी। जैसुइट संघ ने कैथोलिक धर्म के पुरुत्थान के लिए अनेक कार्य
किये। इस संघ के द्वारा अनेक स्थानों पर स्कूल स्थापित किए गये जहाँ निःशुल्क
शिक्षा दी जाती थी। इस संघ के सदस्यों ने बड़े उत्साह के साथ कैथोलिक धर्म
का प्रचार किया। उन्होंने सेवा, दान, धर्मप्रचार, शिक्षा, चिकित्सा व सेवाकर्म
द्वारा कैथोलिक धर्म की उन्नति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस संघ ने पोप तथा
पादरियों को सदाचारपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर किया।
जैसूइट संघ के सदस्यों
ने कैथोलिक धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनके प्रयासों के
फलस्वरूप इटली,
स्पेन, पोलैण्ड, हंगरी, पुर्तगाल, दक्षिण जर्मनी आदि देशों
में कैथोलिक धर्म का पुनः प्रतिष्ठित हो गया। भारत, चीन, अफ्रीका एवं
अमेरिका आदि देशों में जैसुइट लोगों ने बड़े उत्साह के साथ कैथोलिक धर्म का प्रचार
किया। उन्होंने अनेक देशों में प्रोटेस्टेण्ट आन्दोलन की प्रगति को रोकने में
सफलता प्राप्त की।
इस प्रकार जैसुइट
संघ ने कैथोलिक धर्म को प्रबल बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान
दिया। उन्होंने अपनी नि:स्वार्थ सेवा, कर्त्तव्यपरायणता और सेवाकार्यों से कैथोलिक धर्म को पुनः
प्रबल बनाया और प्रोटोस्टेण्ट धर्म की बढ़ती प्रगति पर अंकुश लगाया।
3. धार्मिक न्यायालय
(इन्क्वीजिशन)-
प्रोटेस्टेन्ट धर्म की प्रगति
अवरुद्ध करने में जो संस्था सबसे शाक्तिशाली एवं प्रभावपूर्ण सिद्ध हुई, वह थी-इन्क्वीजिशन । यह
एक विशेष धार्मिक अदालत थी। 1542 ई. में पोप पाल तृतीय ने रोम में इस संस्था को
पुनर्जीवित किया जो सर्वोच्च अधिकारों से युक्त थी। इस धार्मिक न्यायालय के प्रमुख
उद्देश्य थे-
1. नास्तिकों का
पता लगाना और उनका कठोरतापूर्वक दमन करना।
2. कैथोलिक चर्च
के आदेशों को बलपूर्वक लागू करना।
3. धर्म
विरोधियों एवं विद्रोहियों का दमन करना।
4. दूसरे देशों
से भेजी हुई धर्म सम्बन्धी अपीलों की सुनवाई करना आदि।
धार्मिक न्यायालय ने यूरोप में इतने अधिक
लोगों को प्राणदण्ड दिये और इतने लोगों को जीवित जलाया कि यूरोप के लोग इसका नाम
सुनकर ही काँपने लगते थे। इस न्यायालय ने स्पेन, हॉलैण्ड इटली, बेल्जियम आदि देशों में प्रोटेस्टेण्टों
का कठोरतापूर्वक दमन किया। इसके आदेश से स्पेन में हजारों कैथोलिक विरोधियों को
मौत के घाट उतार दिया गया। इस प्रकार धार्मिक न्यायालय ने आतंक के द्वारा प्रोटेस्टन्ट
धर्म का दमन करने का प्रयास किया और उसे अपने उद्देश्य में पर्याप्त सफलता
मिली किन्तु कालान्तर में इस न्यायालय ने चर्च को बदनाम किया।
प्रतिवादात्मक धर्मसुधार
आन्दोलन के प्रभाव
1. सम्प्रदायों का
विभाजन-
प्रतिवादात्मक धर्मसुधार आन्दोलन के
परिणामस्वरूप ईसाई समाज अनेक सम्प्रदायों में विभाजित हो गया। कुछ देश कैथोलिक
चर्च के तथा कुछ देश प्रोटेस्टेण्ट धर्म के अनुयायी बन गये। कैथोलिक एवं
प्रोटेस्टेण्ट भी कई विविध सम्प्रदायों में विभाजित हो गये।
2. प्रोटेस्टेण्टों
की प्रगति अवरुद्ध होना-
प्रतिवादात्मक धर्मसुधार आन्दोलन के
परिणामस्वरूप प्रोटेस्टेण्टों की प्रगति अवरुद्ध हो गई। कैथोलिकों द्वारा ईसाई
धर्म में किये गये सुधारों का सकारात्मक परिणाम निकला। इसका प्रभाव चर्च के संगठन
एवं पदरियों के जीवन शैली पर भी पड़ा परिणामस्वरूप प्रोटेस्टेण्टों की लोकप्रियता
में कमी आई और उसका विकास अवरुद्ध हुआ।
3. नैतिकता का
सामावेश-
प्रतिवादात्मक धर्मसुधार आन्दोलन का एक
महत्त्वपूर्ण प्रभाव यह हुआ कि धर्माधिकारियों के जीवन में नैतिकता, सदाचार आदि तत्वों का
सामावेश हुआ। वे पूर्व के विलासी जीवन से मुक्त हुए और सदाचार एवं तपस्वी जीवन
अपनाने लगे। कैथोलिकों ने उच्च नैतिक मूल्यों को शिक्षा देने तथा उन पर अमल करने
का जोरदार प्रयत्न किया। प्रत्येक जगह ईश निन्दा, फूहड़ पुस्तकों और आचरणहीनता के समाप्त करने का जोरदार
प्रयास किया गया और तमाम धर्माधिकारियों को पवित्र एवं नैतिक जीवन व्यतीत करने को
विवश किया गया।
4. कैथोलिक धर्म का
पुरुद्धार-
प्रतिवादात्मक धर्मसुधार आन्दोलन के
परिणामस्वरूप कैथोलिक धर्म का पुनरुद्धार हुआ। कैथोलिक चर्च में विभिन्न उपायों
द्वारा आवश्यक सुधार किये गये। कैथोलिक धर्म की जिन बुराईयों के कारण धर्मसुधार
आन्दोलन और प्रोटेस्टेण्ट धर्म का उदय हुआ उन सभी बुराइयों को दूर करने का प्रयास
किया गया जिससे कैथोलिक धर्म का पुनरुद्धार सम्भव हो सका।
5. राष्ट्रीय भावना
का विकास-
प्रतिवादात्मक धर्मसुधार आन्दोलन ने
राष्ट्रीय भावना के विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। इससे यूरोप
के देशों में राष्ट्रीय भावना का विकास हुआ। पोप के प्रभुत्व से मुक्त होने के बाद
राज्यों की सार्वभौम सत्ता अथवा सम्प्रभुता पूरी हो गई क्योकि अब उनके ऊपर किसी भी
आन्तरिक या बाह्य शक्ति का प्रभुत्व नहीं रहा। राज्य की सम्प्रभुता ने राष्ट्रीयता
के विकास में योगदान दिया। इसलिए प्रायः यह कहा जा सकता है कि धर्मसुधार की एक
महत्त्वपूर्ण देन है- राष्ट्रीय भावना का विकास।
6. शिक्षा एवं
साहित्य की उन्नति-
प्रतिवादात्मक धर्मसुधार आन्दोलन का एक
परिणाम शिक्षा एवं साहित्य की उन्नति भी हुआ। कैथोलिक अनुयायियों ने शैक्षणिक
सुविधाओं को सुधारने तथा नई शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की तरफ विशेष ध्यान दिया।
पादरियों, उपदेशकों को ठीक ढंग से
प्रशिक्षित करने की दिशा में विशेष ध्यान दिया गया और इसके लिए नये स्कूल स्थापित
किये गये। इन स्कूलों में सम्बन्धित सम्प्रदाय की विशेषताओं तथा विरोधी
सम्प्रदायों की कमियों तथा दोषों की अच्छी जानकारी दी जाती थी।
7. असहिष्णुता का
विकास-
प्रतिवादात्मक धर्मसुधार आन्दोलन का एक
प्रमुख नकारात्मक परिणाम भी दृष्टिगोचर हुआ। कैथोलिक अनुयायियों में धार्मिक
कट्टरता बढ़ी। कैथोलिक और प्रोटेस्टेण्ट दोनों ने अपने-अपने सम्प्रदाय की सुरक्षा
के लिए शस्त्र धारण कर लिये थे और उनमें अत्यधिक भयानक युद्ध, कत्लेआम और हत्याओं का
सिलसिला प्रारम्भ हो गया। युद्धबन्दियों और स्त्रियों तथा मासूम बच्चों तक को बिना
किसी दयाभाव के निर्ममतापूर्वक मौत के घाट उतार जाने लगा। परिणामस्वरूप यूरोप
धर्मयुद्धों की रणभूमि बन गया। धर्म के नाम पर हजारों-लाखों लोगों को मौत के घाट
उतार दिया गया। इस प्रकार धार्मिक असहिष्णुता ने एक लम्बे समय तक यूरोप की शांति
को नष्ट कर दिया।
8. मतभेदों की
उत्पत्ति-
प्रतिवादात्मक धर्मसुधार आन्दोलन के
परिणामस्वरूप ईसाई धर्म में मतभेदों की उत्पत्ति हुई। ईसाई जगत में सैद्धान्तिक
एकता का अभाव था और धर्म के गूढ तत्वों को लेकर उनमें आन्तरिक मतभेद उत्पन्न हो
गये। कोई भाग्यवाद में श्रद्धा रखता था तो कोई 'इच्छा स्वातन्त्र्य में। चर्च और राज्य के सम्बन्धों को
लेकर भी उनमें भारी मतभेद था। कोई चर्च की स्वतन्त्रता का समर्थक था तो कोई चर्च
पर राज्य के नियंत्रण का पक्षपाती था। ऐसी अवस्था में भिन्न-भिन्न मार्गों का उदय
होना स्वाभाविक ही था। सम्प्रदाय के संगठन को लेकर भी मतभेद बढ़ा कुछ समय बाद
विभिन्न मत-मतान्तरों के प्रचलन से यह मतभेद और भी अधिक बढ़ गया।
9. लोकसाहित्य का
विकास-
कैथोलिकों की ट्रेण्ट सभा में यह
प्रमुख निर्णय लिया कि आवश्यकता पड़ने पर जनभाषा में उपदेश दिया जाए। इस निर्णय से
धर्मसुधारकों ने सामान्य जनता को धर्म का गूढ़ रहस्यों तथा अपने विचारों को समझाने
के लिए लोकभाषा को अपने भाषणों का माध्यम बनाया ओर इसी में अपने विचार सम्बन्धी साहित्य
का प्रकाशन करवाया इसका परिणाम लोकभाषा और लोक साहित्य के
विकास के रूप में देखने को मिलता है।
आशा हैं कि हमारे
द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो
इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।
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