मध्य और पश्चिमी
एशिया
रूस और इंग्लैण्ड में मुख्य रूप से साम्राज्यवाद के विस्तार के लिए प्रतिस्पर्धा रही। बर्लिन कांग्रेस के निर्णयों से रूस की प्रगति को बाल्कन प्रायद्वीप में अवरूद्ध कर दिया। रूस ने अब अपना पूरा ध्यान मध्य एशिया की ओर केन्द्रित किया, जिससे इंग्लैण्ड की चिन्ता बढ़ गयी। रूस का मुख्य उद्देश्य ऐसे बन्दरगाहों को अधिकृत करना था, जो वर्ष भर खुले रहे। क्रीमिया युद्ध के बाद रूस को ब्लाडीवोस्टक बन्दरगाह की स्थापना में सफलता प्राप्त हो गयी।
मध्य एशिया में रूस ताशकन्द
(1864), समरकन्द (1868), खिर्वा (1873) और खोभकन्द
(1876) पर बर्लिन सम्मेलन से पूर्व ही अधिकार कर लिया। रूस की सीमाएँ अफगानिस्तान
से जा मिली थीं। ब्रिटेन की परेशानी का मुख्य कारण रूस का राजनैतिक विस्तार
अफगानिस्तान की सीमाओं तक पहुँचना था। इंग्लैण्ड ने भारत और लंका
में अपने साम्राज्य की स्थापना सम्पूर्ण कर ली थी।
एशिया के साम्राज्यवाद का नया रूप |
रूसी विस्तारवादी की
नीति के कारण इंग्लैण्ड को भारतीय साम्राज्य की स्वाभाविक चिन्ता होने लगी।
इंग्लैण्ड ने रूस के प्रभाव को अफगानिस्तान में समाप्त करने के लिए सर्वप्रथम
प्रयास वहाँ के शासक दोस्त मोहम्मद को गद्दी से उतार कर भगोड़े शाह शुजा
को नया शासक बनाकर किया। इंग्लैण्ड के दुर्भाग्य से स्वतंत्रता प्रिय
अफगानों ने उसके कठपुतली शासक शाह शुजा की हत्या कर दी और 1842 ई. में
दोस्त मोहम्मद को पुनः अपने देश की गद्दी पर बिठा दिया।
इसके बाद अंग्रेजों
ने अफगानिस्तान में निक्रियता की नीति अपनाई। अंग्रेजों ने 1878-79 में अफगानिस्तान
पर आक्रमण कर दिया। अफगानिस्तान का अमीर शेर अली रूसी सीमा
की ओर भागते हुए मार्ग में मौत के घाट उतार दिया और उसके स्थान पर उसके पुत्र याकूब
खाँ को नया अमीर बना दिया। याकूब खाँ ने ब्रिटिश सरकार की
नीति का अनुसरण करने का वायदा किया।
रूस ने अब दूसरी ओर राजनैतिक
प्रभाव का विस्तार करना प्रारम्भ किया। 1881 ई. में उसने तुर्किस्तान पर अपना
अधिकार स्थापित कर लिया। रूस के इस कृत्य का इंग्लैण्ड ने जोरदार विरोध
किया। इस समय फारस के शाह को आर्थिक सहायता की आवश्यकता थी। इंग्लैण्ड ने
इस अवसर का लाभ उठा कर इम्पीरियल बैंक ऑफ पर्शिया की स्थापना कर फारस
के शाह को ऋण उपलब्ध करवाया। रूस भी इंग्लैण्ड से पीछे नहीं रहा, उसने फारस में 'बैंक ऑफ लोन्स' की स्थापना करके फारस की
सरकार को कम व्याज पर ऋण देना प्रारम्भ किया। इस प्रकार फारस को अपने प्रभाव में
लाने के लिए होड़ प्रारम्भ हो गयी। 1907 ई. में इंग्लैण्ड और रूस ने
समझौता कर लिया,
जिसके अनुसार
फारस के उत्तरी भाग पर रूस का और दक्षिण भाग
पर इंग्लैण्ड का प्रभाव क्षेत्र मान लिया गया तथा मध्य फारस
में दोनों को कार्य करने की छूट मिल गयी।
अंग्रेजों ने भारत विजित कर
लेने के बाद बर्मा को भी अपने अधिकार में कर लिया और उसे अपने साम्राज्य का
एक हिस्सा बना लिया। 1885 ई. तक बर्मा में अंग्रेजों को तीन युद्ध करने
पड़े। बर्मा को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने का मुख्य कारण फ्रांस का भय था, क्योंकि हिन्द-चीन
पर फ्रांस का प्रभाव स्थापित हो गया था। तिब्बत और सिक्किम जैसे
छोटे-छोटे भू-भाग भी ब्रिटिश प्रभाव के अन्तर्गत आ गये।
सुदूर पूर्व एवं
दक्षिण-पूर्वी एशिया
यूरोप के देशों के साम्राज्यवाद
के प्रसार से चीन और जापान बचे हुए थे। चीन में यूरोपीय साम्राज्यवाद
का प्रसार अफीम युद्धों से हुआ। प्रथम अफीम युद्ध में ही चीन
की दुर्बलता स्पष्ट हो गयी। प्रथम अफीम युद्ध में पराजित हो
जाने के कारण चीन को अपने पाँच बन्दरगाह यूरोपीय देशों को खोलने पड़े। हांगकांग
के भू-भाग पर इंग्लैण्ड का अधिकार हो गया। द्वितीय अफीम युद्ध
में पराजित हो जाने के बाद 11 अन्य बन्दरगाओं को यूरोपीय देशों को खोलना पड़ा।
रूस ने भी चीन की
दुर्बलता का लाभ उठाकर आमूर नदी के उत्तर के चीनी भू-भाग और ऊसरी के
पूर्व के प्रदेश अपने अधिकार में कर लिए। चीन ने रूस के इन प्रदेशों
पर अधिकार को मान्यता प्रदान कर अपनी दुर्बलता को स्पष्ट कर दिया। 1884 ई. में फ्रांस
ने अनाम पर अधिकार कर लिया और चीन को अपनी सम्प्रभुता का
दावा त्यागना पड़ा।
जापान ने यूरोपीय देशों एवं
अमेरिका के साथ प्रारम्भ से ही संधियाँ कर ली और अपनी शक्ति को विस्तृत कर साम्राज्यवाद
के मार्ग की ओर बढ़ गया। 1874 ई. में उसने चीन के लुचू द्वीप
समूह पर अधिकार कर लिया। जापान ने कोरिया पर भी अपना प्रभाव
आगे बढ़ाया । जापान का चीन से 1894-95 ई. में युद्ध हुआ, जिसमें चीन पराजित
हो गया तथा मंचूरिया, फारमोसा तथा अन्य द्वीपों पर जापान
का अधिकार हो गया। 1897 ई. में जर्मनी ने अपने दो पादरियों की हत्या कर
बहाना बना त्सिंग-ताओ बन्दरगाह तथा कियांऊचाऊ की खाड़ी पर अधिकार कर
लिया।
1898 ई. तक चीन
के विभिन्न भागों को यूरोपीय देशों ने अपने प्रभाव क्षेत्रों में बाँट
लिया। 1900 ई. में यूरोपीय शक्तियों के विरुद्ध चीन में बाक्सर
आन्दोलन हुआ। जापान, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी और इंग्लैण्ड
की संयुक्त सेनाओं ने बाक्सर आन्दोलन को बुरी तरह कुचल दिया और
क्षतिपूर्ति के रूप में अनेक सुविधाएँ प्राप्त कर ली। यह सही है कि चीन की
अखण्डता बचाये रखने में अमेरिका का ही योगदान था। रूस-जापान युद्ध
में रूस के पराजित हो जाने पर चीन के मंचूरिया इलाके पर जापान
का अधिकार हो गया। इस प्रकार मंचूरिया और कोरिया में जापान
का प्रभाव बढ़ गया।
हिन्देशिया
(इन्डोनेशिया) में सर्वप्रथम पुर्तगाल
ने प्रवेश किया,
परन्तु राजनैतिक
शक्ति की स्थापना में डचं सफल रहे। फ्रांस की राज्य-क्रांति के काल
में हिन्देशिया पर फ्रांस का अधिकार रहा। इंग्लैण्ड ने 1811-1819 ई.
तक हिन्देशिया पर आधिपत्य रखा, इसके बाद यह
भू-भाग हॉलैण्ड को वापिस दे दिया गया। डचवासियों के विरुद्ध हिन्देशिया
में अनेक विद्रोह हुए, जिनको भलीभांति डचवासियों
ने कुचल दिया।
भरनाया
प्रायद्वीप में यूरोपीय
व्यापारी 16वीं शताब्दी में ही स्थापित हो गये थे। मलक्का द्वीप पर
1511 ई. से ही पुर्तगालियों का अधिकार था। पुर्तगालियों से डचों
ने 1661 ई. में मलक्का द्वीप अपने अधिकार में कर लिया। ब्रिटेन
का अधिकार, मलक्का द्वीप पर 1795 ई.
में हुआ। वियना सम्मेलन के निर्णयों के अनुसार मलक्का द्वीप वापिस
डचवासियों (हॉलैण्ड) को मिल गया। अंग्रेजों ने मलाया के जोहोर राज्य
को खरीद लिया,
क्योंकि सिंगापुर
का विख्यात बन्दरगाह इसी राज्य में था। 1824 ई. में अंग्रेजों ने हॉलैण्ड
से मलक्का के द्वीप को एक संधि करके हस्तगत कर लिया। अंग्रेजों की
विस्तारवादी नीति का परिणाम यह हुआ कि इस सम्पूर्ण भू-भाग पर अंग्रेजों का अधिकार
हो गया।
हिन्द-चीन प्रायद्वीप के अन्तर्गत
तीन देश थे—कम्बोडिया, लाओस और वियतनाम। फ्रांस
ने उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हिन्द-चीन में प्रवेश करके
वियतनाम को अपने संरक्षण में ले लिया। 1884 ई. में फ्रांस की संधि कम्बोडिया
के शासक से हो गयी, जिससे कम्बोडिया
भी उसके उपनिवेश में परिवर्तित हो गया। जब लाओस पर थाइलैण्ड ने
अधिकार करना चाहा तो फ्रांसीसी रुष्ट हो गये और उन्होंने लाओस के लुआंग-प्रवांग
के भू-भाग पर अधिकार स्थापित कर लिया।
बीसवीं शताब्दी के प्रथम
दशक में फ्रांस ने लाओस के ऊपर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। वियतनाम
के प्रथम दशक में फ्रांस ने लाओस के ऊपर अपना अधिकार स्थापित कर
लिया। वियतनाम हिन्द-चीन तीसरा बड़ा देश था। वियतनाम के शासक दियुत्री
ने फ्रांसीसी पादरियों को उनके कृत्यों के कारण मृत्यु दण्ड दिया था।
यद्यपि यह आदेश क्रियान्वित नहीं हो सका था। फ्रांसीसियों ने बदले की भावना से
वियतनाम के तूरेन बन्दरगाह पर अधिकार कर लिया और बमबारी की। 1848 ई. में फ्रांसीसियों
ने पूरी तरह से तूरेन पर अधिकार कर लिया। सितम्बर 1848 ई. में फ्रांसीसियों
ने सैगोन पर भी अपना कब्जा जमा लिया। जून, 1862 में वियतनाम के सम्राट के शक्तिहीन होने के
कारण फ्रांस के साथ एक संधि कर ली। इस संधि की शर्तों के अनुसार सैगोन और
उसके आसपास का इलाका फ्रांसीसियों को मिल गया। 1866 ई. में फ्रांस ने कोचीन
चीन पर अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया। फ्रांसीसियों का दक्षिणी
वियतनाम (कोचीन चीन) पर अधिकार करने का कार्य आठ वर्ष में पूरा हुआ और टोकिंग
(उत्तरी वियतनाम) पर उनका आधिपत्य 16 वर्षों में स्थापित हुआ।
फिलीपाइन्स पर स्पेन ने
अधिकार कर लिया। 1898 ई. में क्यूबा के आधिपत्य के ऊपर अमेरिका और स्पेन
में संघर्ष हो गया। इस संघर्ष में स्पेन पराजित हुआ। 1898 ई. की पेरिस की
संधि से फिलीपाइन्स पर अमेरिका का अधिकार हो गया। इस प्रकार अमेरिका
प्रथम बार उपनिवेश का मालिक हो गया।
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