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आधुनिक चीन के निर्माण में सनयात सेन का योगदान

डॉ. सनयात सेन

डॉ. सनयात सेन चीन में राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रमुख नेता थे। उनका जन्म सन् 1863 ई. में कैन्टन के निकट एक गाँव के कृषक परिवार में हुआ था। 13 वर्ष की आयु में वे अपने बड़ी भाई के पास होनोलुलू गये। वहाँ चार वर्ष तक रहकर एक मिशन स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। इसके पश्चात् हाँगकांग में वे मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थी बने जहाँ से सन् 1892 ई. में उन्होंने मेडिसिन एवं सर्जरी में स्नातक की उपाधि प्राप्त की तथा डॉक्टरी का अभ्यास किया परन्तु कुछ समय बाद ही डाक्टरी का अपना व्यवसाय छोड़ दिया और एक ऐसी गुप्त संस्था के नेता बन गये जिसका उद्देश्य मन्चु शासन को उखाड़ फेंककर चीन में गणतन्त्रीय शासन स्थापित करना था। सन् 1895 ई. में कैन्टन के उपद्रवकारियों का पहला उपद्रव हुआ। इस उपद्रव के दौरान अपनी जान बचाने के लिए डॉ. सनयात सेन को चीन छोड़कर विदेश भाग जाना पड़ा।

सन् 1905 ई. में जापान में उन्होंने 'तुंग मेंग हुई' नामक एक राष्ट्रीय क्रान्तिकारी दल की स्थापना की। यह दल आगे चलकर कोमिन्तांग दल के नाम से विख्यात हुआ। सनयात सेन चीन की एकता, समृद्धि और शक्ति को बढ़ाना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने राष्ट्रीयता, जनतन्त्र और समाजवाद इन तीनों सिद्धान्तों को अपनाया। तुंग-मेंग हुई दल के क्रांतिकारियों ने सन् 1911 ई. की राज्य क्रांति में बढ़-चढ़कर भाग लिया और मेंन्चु वंश सम्राट को सिंहासन छोड़ने के लिए बाध्य किया। इस क्रान्ति की सूचना मिलते ही डॉ. सेन अमेरिका से चीन वापस लौट आए एवं 1 जनवरी 1912 को उन्हें नानकिंग चीनी राष्ट्र का अस्थायी राष्ट्रपति बनाया गया। परन्तु डॉ. सेन ने राष्ट्रीय एकता बनाए रखने के लिए अपने पद से त्यागपत्र दे दिया और 12 फरवरी, 1912 को युआनसी-काई को चीन का राष्ट्रपति चुन लिया।

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आधुनिक चीन के निर्माण में सनयात सेन का योगदान


युयानसी-काई बड़ा ही अवसरवादी निकला। सत्तारूढ़ होते ही उसने पुनः मैन्चु सम्राटों की भाँति चीन में निरंकुश शासन स्थापित करने के लिए प्रयत्न करना शुरू किया। 4 नवम्बर, 1913 को उसने कोमिंतांग दल को गैर कानूनी घोषित कर दिया।

सन् 1914 ई. में प्रथम महायुद्ध प्रारम्भ हो गया। चीन की दुर्बलता का लाभ उठाते हुए जापान ने सन् 1913 ई. में चीन के सामने अपनी कुख्यात 21 माँगें रखीं। चीन को विवश होकर अनेक शर्ते स्वीकार करनी पड़ी। सन् 1916 ई. में युआनसी-काई ने चीन में राजतंत्र की घोषणा कर दी। परन्तु सम्पूर्ण देश में इसका घोर विरोध किया गया। इससे चीन में युआनसीकाई का निरंकुश शासन अधिक दिनों तक कायम नहीं रह सका। जून, 1916 में उसकी मृत्यु हो गई।

कोमिंतांग दल का संगठन

युआन-शी-काई की मृत्यु के उपरान्त चीन में पुनः अराजकता फैल गई और सारा देश अव्यवस्था का अड्डा बन गया। केन्द्रीय सरकार नाममात्र के लिए रह गई थी और विभिन्न प्रान्तीय शासक अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र शासकों की भाँति आचरण करने लगे। इस स्थिति में डॉ. सनयात सेन ने लाभ उठाया। उन्होंने कोमिंतांग दल का पुनः गठन करना शुरू कर दिया। सन् 1921 ई. में डॉ. सनयात सेन कैन्टन की राष्ट्रीय सरकार के राष्ट्रपति बन गये।

अब डॉ. सेन ने कोमिंतांग दल को शक्तिशाली बनाने के लिए रूस से सहायता लेने का निश्चय किया। अतः सन् 1923 ई. में माईकेलमोडिन नामक रूसी सलाहकार चीन आए। उसने नई सिरे से कोमिंतांग दल का संगठन करना शुरू किया। इस दल का सर्वप्रथम राष्ट्रीय सम्मेलन कैन्टन में जनवरी, 1924 में हुआ। डॉ. सनयात सेन को आजीवन दल का अध्यक्ष बना दिया गया। पीकिंग के फौजी सरदारों का दमन करने के लिए कैन्टन के निकट एक सैनिक विद्यालय खोला गया तथा च्यांग-काई-शेक को सैनिक विद्यालय का अध्यक्ष नियुक्त किया गया।

डॉ. सनयात सेन के सिद्धान्त

सन् 1924 ई. में जब कोमिंतांग दल की पहली महासभा हुई तो उसमें दल के सिद्धान्तों और आदर्शों को स्वीकार किया गया। इन सिद्धान्तों के आधार पर डॉ.सनयात सेन के विचार थे। यह सिद्धान्त निम्नलिखित थे-

1. राष्ट्रीयता-

राष्ट्रीयता डॉ. सेन का प्रथम एवं मुख्य सिद्धान्त था। उनका यह विश्वास था कि जब तक चीन के लोगों में राष्ट्रीयता की भावना का भली-भाँति विकास नहीं होगा तब तक चीन उन्नति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकेगा।

डॉ. सेन यह भी अनुभव करते थे कि चीन में राष्ट्रीयता को विकसित करने के लिए बहुत आवश्यक है कि उनमें विदेशी राज्यों के प्रभुत्व के विरुद्ध भावनाओं को उत्पन्न किया जाये। वे कहा करते थे कि विदेशी राज्य चीन को ऐसी स्थिति में लाते जा रहे हैं जिसके कारण उसकी दशा औपनिवेशिक राज्यों से भी बुरी होती जा रही है। अत: चीन को विदेशी साम्राज्यवाद से तभी बचाया जा सकता है जब चीन के लोग अपने देश से प्रेम करने लगे और उनमें देशभक्ति की प्रबल भावना जागृत हो। अपने परिवार और गाँव के प्रति जो भक्ति की भावना उनके हृदय में विद्यमान है, वह चीन राष्ट्र के प्रति हो जानी चाहिए।

2. लोकतन्त्र-

लोकतन्त्र की स्थापना करना कोमिंतांग दल का दूसरा सिद्धान्त था। डॉ. सनयात सेन का लोकतन्त्र में अपूर्व विश्वास था। चीन के विकास के लिए वे लोकतन्त्रीय व्यवस्था को अत्यन्त आवश्यक मानते थे। डॉ. सनयात सेन की मान्यता थी कि चीन की सरकार बहुत मजबूत हो। जनता का उस पर नियन्त्रण अवश्य हो परन्तु सरकार के पास इतनी शक्ति होनी चाहिए कि वह देश में शान्ति और व्यवस्था को भली-भाँति कायम रख सके।

डॉ. सेन का यह विचार था कि पूर्ण लोकतंत्र शासन की स्थापना होने से पूर्व चीन को तीन दशाओं से होकर गुजरना होगा। सबसे पहले केन्द्रीय चीन सरकार की सैनिक शक्ति को इतना प्रबल बनाना होगा कि व विविध प्रांतीय सैनिक सरदारों केसाथ लोहा लेकर उन्हें अपने अधीन कर सके। सैनिक शक्ति के प्रयोग द्वारा जब चीन एक केन्द्रीय सरकार के आधिपत्य में आ जायेगा तो धीरे-धीरे जनता को लोकतन्त्रीय शासन की शिक्षा देनी होगी। तीसरी अवस्था वैधानिक अवस्था थी जिनमें जनता के लोग शिक्षित होकर स्वयं राज-काज चलाये। डॉ. सनयात सेन जनमत को सर्वोपरि स्थान देते थे और चाहते थे कि चीन की जनता शासन के कार्य में अत्यधिक हिस्सा ले।

3. आर्थिक उन्नति-

जन-जीविकावाद जनता की आर्थिक उन्नति डॉ. सनयात सेन का तीसरा सिद्धान्त था। चीन की बहुसंख्यक जनता देहातों में निवास करती थी और खेती पर निर्भर करती थी अतः डॉ. सेन का यह विचार था कि देहात के जमींदारों और किसानों में जो भारी आर्थिक विषमता है, वह दूर होनी चाहिए और भूमि के स्वामित्व के सम्बन्ध में समता की स्थापना की जानी चाहिए। डॉ. सनयात सेन का यह विचार था कि कोमिंतांग दल को देहातों की किसान जनता को आर्थिक उन्नति पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

डॉ. सनयात सेन के नेतृत्त्व में कोमिंतांग दल की बड़ी प्रगति हुईं। सन् 1920 ई. में इस दल ने कैन्टन में अपनी सरकार की स्थापना की। उन्होंने पीकिंग सरकार से समझौता करके चीन में राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने का निश्चय किया। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे सन् 1925 ई. में पीकिंग गए परन्तु वहाँ जाकर उन्हें घोर निराशा का सामना करना पड़ा। 1 मार्च, 1925 ई. को पीकिंग में ही उनकी मृत्यु हो गयी।

डॉ. सनयात सेन के सुधार

डॉ. सनयात सेन ने राष्ट्रीयता, लोकतंत्र व समाजवाद के सिद्धान्तों पर आधारित अनेक सुधार किये जिनमें से कुछ प्रमुख निम्न प्रकार हैं-

(i) चीनी भाषा को सरल बनाने के लिए संकेत शब्द की संख्या 40 हजार से घटाकर 13 हजार कर दी गयी।

(ii) यूरोपीय ज्ञान व साहित्य का चीनी भाषा में अनुवाद करवाया गया।

(iii) चीन में पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन को प्रोत्साहन दिया गया। चीन में राष्ट्रीय एकता की भावना का प्रसार किया गया।

(v) राष्ट्रवादियों को सैनिक शिक्षा देने के लिए व्हास्फोआ में सैन्य अकादमी की स्थापना की गई।

(vi) बड़े उद्योगों को प्रोत्साहन दिया गया और उत्पादन वृद्धि के लिए हर सम्भव सहायता दी गयी।

(vii) चीन की पुरानी रूढ़ियों व अन्धविश्वासों का उन्मूलन कर उसे पाश्चात्य शैली में आधुनिकीकरण पर बल दिया गया।

डॉ. सनयात सेन का महत्त्व

डॉ. सेन चीन के महान् सपूत थे। उन्होंने एक सोये हुये राष्ट्र को जगाने तथा उसमें राष्ट्रीयता और देशभक्ति की भावना भरने का अपूर्व प्रयास किया। वे एक महापुरुष थे। जिन्होंने अपना सारा जीवन देश की सेवा में अर्पित कर दिया।

डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार का कथन है कि "जिस प्रकार भारत में महात्मा गाँधी को और रूस में लेनिन को अत्यधिक श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है, वैसे ही चीन की जनता ने डॉ. सनयात सेन के प्रति सम्मान और श्रद्धा के भाव प्रदर्शित करने शुरू किये। शिक्षणालयों, सार्वजनिक स्थानों और सरकारी दफ्तरों में उनके चित्रों व प्रतिमाओं की स्थापना की गई।

डॉ. सनयात सेन की पुस्तकों को लोग धर्म-ग्रन्थों के समान आदर करने लगे और उनमें नाम व आदर्शों के कारण कोमिंतांग दल में नई स्फूर्ति और नव जवीन का संचार हुआ।

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