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सिन्धु घाटी सभ्यता (Indus Valley Civilization)

सिन्धु घाटी सभ्यता की खोज

सिन्धु घाटी सभ्यता (Indus Valley Civilization) की जानकारी से पूर्व विद्वानों का यह मानना था कि भारत में मानव सभ्यता आर्यों के साथ ही प्रारंभ हुई थी, लेकिन सिन्धु घाटी के उत्खनन के उपरांत यह भ्रम दूर हो गया और भारत में मानव सभ्यता का प्रारंभ आर्यों के आगमन से भी अनेक शताब्दियों पूर्व स्वीकार्य हो गया।

सर्वप्रथम 1826 में चार्ल्स मेशन ने (1842 में प्रकाशित अपने लेख में) भारत में हड़प्पा नामक प्राचीनतम नगर होने की बात कही। इसके बाद 1834 ई में बर्नेश ने किसी नदी के किनारे ध्वस्त किले के होने की जानकारी दी।

1851 में अलेक्जैंडर कंनिघम ने पहली बार हड़प्पा के टीले का सर्वेक्षण किया तथा 1856 में पहली बार इस पर मानचित्र जारी किया गया। 1853 में कराची से लाहौर (मुल्तान) के लिए रेलवे लाइन बिछाते समय ज़ोन बर्टन विलियम बर्टन के आदेशों से पहली बार हड़प्पा के टीले से ईंटे निकाली गई। सन् 1875 में अलैक्जैण्डर कनिंघम को हड़प्पा सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए जिनमें लिपियुक्त मुहर और भवन के अवशेष सम्मिलित थे।

1899 से 1905 के दौरान भारत में एक व्यक्ति गवर्नर जनरल द वायसराय बनकर आया जिसका नाम लॉर्ड कर्जन था, लॉर्ड कर्जन ने 1904 में भारतीय पुरातत्व एवं सर्वेक्षण विभाग की स्थापना की जिसके प्रथम अध्यक्ष ए. कनिघंम को बनाया गया। ए. कनिघंम को भारतीय पुरात्तत्व का जनक भी कहा जाता है। 1908 में कनिंघम की मृत्यु के बाद नए निदेशक के रूप में जॉन मार्शल आए और उन्होंने एक पांच सदस्यों की कमेटी गठित की जिसे भारत में प्राचीन नगर खोजने का कार्य दिया गया है इसमें निम्नलिखित व्यक्ति शामिल थे- दयाराम साहनी, राखाल दास बनर्जी, माधोस्वरूप वत्स, मार्टिन वीलर, अर्नेस्ट मैके।

सन 1921 में दयाराम साहनी श्री के नेतृत्व में हड़प्पा में खुदाई का कार्य किया गया। हड़प्पा पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) के माण्टगोमरी जिले में रावी नदी के तट पर स्थित है। इस सभ्यता के अवशेषों को पुराविदों के समक्ष रखा।  इसके बाद लगभग इसी समय सन् 1922 ई. में राखालदास बनर्जी के नेतृत्व में मोहनजोदड़ो में खुदाई का कार्य किया गया। मोहनजोदड़ो सिन्ध प्रान्त के लरकाना जिले में स्थित है। यहाँ से भी हड़प्पा से मिलते जुलते साक्ष्य प्रकाशित किये। यद्यपि दोनों स्थलों की दूरी लगभग 485 किलोमीटर है तथापि दोनों स्थलों से प्राप्त सामग्री में अद्भुत समानता है।

दयाराम साहनीराखाल दास बनर्जी ने क्रमशः 1921 व 1922 में हड़प्पा सभ्यता व मोहनजोदड़ो की खोज की जिससे यह छुपी हुई सभ्यता प्रकाश में आई।

सन् 1928 एवं 1933 में माधोस्वरूप वत्स ने हड़प्पा में, 1946 में व्हीलर ने मोहनजोदड़ो में उत्खनन किया और इस सभ्यता से संबंधित अनेक जानकारियां उद्घाटित कीं। आगे चलकर एन. जी. मजूमदार, मैके, एस. आर. राव, डेल्स, फेयरसर्विस इत्यादि पुराविदों ने सिन्धु सभ्यता के विभिन्न स्थलों में उत्खनन कार्य करवाये और हड़प्पा सभ्यता की अनेक जानकारियां प्रस्तुत की।

इस सभ्यता हेतु तीन नाम प्रयुक्त किए जाते हैं- सिंधु सभ्यता, सिंधु घाटी सभ्यता व हड़प्पा।

सिंधु सभ्यता- यह नाम जॉन मार्शल द्वारा दिया गया जिसे 1932 में प्रकाशित एक साप्ताहिक समाचार पत्र द लंदन वीकली में पहली बार मुद्रित करवाया गया। इस सभ्यता के अवशेष सिन्धु नदी की घाटी में मिले हैं,  इस कारण इसे सिन्धु सभ्यता के नाम से जाना जाता है। कुछ विद्वान सभ्यता के अधिकांश लगभग 250 स्थलों का सिन्धु घाटी में सकेन्द्रण के कारण इसे सिन्धु सभ्यता पुकारना अधिक सही मानते हैं।

सिंधु घाटी सभ्यता- भारत विभाजन के बाद यह नाम डॉक्टर रफीक मुगल द्वारा दिया गया।

हड़प्पा- वर्तमान में प्रचलित नाम जो की इसकी प्रथम उत्खनित क्षेत्र हड़प्पा के आधार पर रखा गया क्योंकि यह सभ्यता सर्वप्रथम हड़प्पा में खोजी गयी थी।

तीनों ही नाम प्रचलित हैं और एक ही सभ्यता का प्रतिनिधित्व करते हैं। सिन्धु सभ्यता को प्राचीनता के आधार पर मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यताओं के समकक्ष रखा जा सकता है।

सिन्धु घाटी सभ्यता की जानकारी के स्रोत

इस अत्यधिक विस्तृत संस्कृति के विषय में जानकारी के स्रोत, पुराविदों द्वारा किये गये उत्खनन एवं उनसे प्राप्त तत्संबंधित अवशेष तथा साक्ष्य हैं, जिनका विश्लेषण कर पुराविदों एवं अन्य विद्वानों ने इस सभ्यता के संबंध में विस्तृत जानकारी उपलब्ध करायी है। सिन्धु सभ्यता से भारी मात्रा में, मृणमूर्तियां, धातु की मूर्तियां, मुद्राऐं ,विभिन्न उपकरण, आभूषण, दैनिक जीवन की वस्तुएँ इत्यादि जानकारी के स्रोत मिले है।

नगर-विन्यास-

सिन्धु सभ्यता एक नगरीय सभ्यता थी और उत्खनन से ऐसे विभिन्न नगर प्रकाश में आये हैं। इन नगरों में मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंगा, सूरकोटडा, बनावली, लोथल, रंगपुर, धौलावीरा इत्यादि शामिल है। इन नगरों का नगर-विन्यास तत्कालीन जीवन के विषय में अनेकानेक महत्वपूर्ण सूचनाएं प्रस्तुत करता है, जैसे उस काल के नागरिकों द्वारा उपयोग की जाने वाली भौतिक सुविधाएं, उनका रहन-सहन, नगरों में निर्मित सार्वजनिक महत्व के स्थल, उनका प्रयोजन इत्यादि।

नगरों में निर्मित भवन भी इस दिशा में यथेष्ठ प्रकाश डालने पर जानकारी होती है कि सिन्धु निवासियों ने नगर में सफाई व्यवस्था के लिए सुनियोजित नालियों एवं कूड़ा करकट डालने के लिए मिट्टी के बढ़े बरतनों का उपयोग किया था, नगर में जल वितरण का भी उत्कृष्ट प्रबन्ध दिखता है, मोहनजोदड़ो के प्रायः प्रत्येक भवन में कूओं का प्रावधान मिलता है, इसी प्रकार चौड़ी-चौड़ी सड़कें तथा सुनियोजित गलियां भी यहां के नागरिक जीवन का अच्छा परिचय देती हैं।

भोजन-

उत्खनन से जो साक्ष्य मिले हैं उनके आधार पर सिन्धु नागरिकों के भोजन के विषय में भी निश्चित रूप से कह सकते हैं। सिन्धु नागरिक सामिष और निरामिष दोनों ही प्रकार का भोजन करते थे, उनके भोजन में दुग्ध पदार्थों के अलावा खाद्यान्न के रूप में मुख्यतः गेहूं और जौ सम्मिलित था यद्यपि रंगपुर से धान की प्राप्ति भी हुई है, अवशेषों, मुद्राओं तथा मृणमूर्तियों में अंकित चित्रों के आधार पर सिन्धु सभ्यता में गाय ,भैंस ,हाथी, ऊँट, भेड़ ,बकरी, सूअर ,कुत्ता, हिरण, चूहा, नेवला, सांड, खरगोश, बन्दर, शेर, रीछ, गैंडा, कछुआ, मछली इत्यादि के साक्ष्य मिले हैं, इनमें से अनेक जानवरों का मांस भोजन हेतु भी प्रयुक्त किया जाता रहा होगा।

धातुऐं व कलाकृतियां-

सिन्धु सभ्यता कांस्ययुगीन सभ्यता है और कांस्य युग की अनेक कलाकृतियां यहां से प्राप्त हुई हैं। उत्खनन से जो धातुऐं प्रकाश में आयीं हैं उनमें सोना, चांदी, सीसा, तांबा, कांसा प्रमुख हैं, यहां लोहे के प्रयोग की कोई जानकारी नहीं मिलती है। अन्य सामग्री में हमें सीपियों, हाथी दांत तथा विभिन्न जानवरों की हड्डियों का प्रयोग मिलता है। वस्त्र के लिए सिन्धु नागरिक कपास और ऊन का प्रयोग करते थे। मुद्राओं एवं मृणमूर्तियों में अंकित चित्र उनके वस्त्र विन्यास, केश विन्यास आदि पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं।

आभूषण-

सिन्धु घाटी के उत्खनन से पर्याप्त मात्रा में आभूषण भी मिले हैं, हम कह सकते हैं कि सिन्धु सभ्यता में स्त्रियां एवं पुरूष दोनों ही आभूषणों के शौकीन थे और दोनों ही हार, कंगन, अंगूठी का प्रयोग करते थे जबकि कमरबन्द, नाक के कांटे, बुंदे ओर नूपुर का प्रयोग केवल स्त्रियां करती थीं। अमीर वर्ग के आभूषण सोने, चांदी ,मोतियों और हाथी दांत के होते थे जबकि निर्धन और गरीब लोगों के आभूषण सीपियों, हड्डियों, तांबे और कम कीमत के पत्थरों से निर्मित होते थे। सौन्दर्य प्रसाधन के भी अनेक उपकरण प्रकाश में आये हैं। सिन्धु नगरों से प्राप्त संरचनाओं, मुहरों एवं मृणमूर्तियों के अध्ययन से सिन्धुकालीन सामाजिक जीवन ,धार्मिक जीवन एवे आर्थिक जीवन का अच्छा परिचय प्राप्त होता है।

सिन्धु सभ्यता का विस्तार तथा क्षेत्र

वर्तमान में यह सभ्यता आधुनिक पाकिस्तान से भी आगे तक विस्तृत हो चुकी है। सिन्धु सभ्यता पश्चिम दिशा से पूर्व दिशा तक लगभग 1600 किलोमीटर तथा उत्तर दिशा से दक्षिण दिशा तक लगभग 1400 किलोमीटर के क्षेत्र में विस्तृत है। बीसवीं सदी के सातवें दशक के प्रारंभ तक लगभग 250 स्थलों की गिनती की गयी थी किन्तु हाल के एक अनुमान के अनुसार सिन्धु सभ्यता के उत्खनित स्थलों की संख्या अब 2800 को पार कर गयी है और उल्लेखनीय है कि इनमें से अधिकांश लगभग 2000 तक स्थल वर्तमान भारतीय क्षेत्र में स्थित हैं। जिनमें गुजरात में सर्वाधिक स्थल मिले है। सिन्धु सभ्यता के स्थलों का संकेन्द्रण सिन्धु तथा उसकी सहायक नदियों के मैदानों में है और इस क्षेत्र में हमें लगभग 250 स्थल विद्यमान मिलते हैं।

पिछले दशकों में हुए उत्खनन से अनेक महत्वपूर्ण स्थलों की जानकारी प्रकाश में आयी है। इनमें से एक स्थल उत्तरी-पूर्व अफगानिस्तान में ओक्सस के दक्षिणी मैदानों में स्थित शोर्तगोई (शौर्टूघई) है, इस स्थल में शायद बख्शाँ की खानों से प्राप्त लेपिस लजुली का व्यापार और अन्य चीजों जैसे तांबे आदि का व्यापार भी होता था। इसी प्रकार सौराष्ट्र में रोजदी तथा कच्छ क्षेत्र में देसालपुर को उत्खनित किया गया है। दक्षिणी सिन्ध तथा बलूचिस्तान में अल्लाहदीनों एवं लासबेला के निकट बालाकोट की खोज भी महत्वपूर्ण उपलब्धियां हैं। इनमें से अनेक स्थलों की प्राप्तियां इन्हें परिपक्व हड़प्पा सभ्यता के अंतर्गत रखती हैं। रोपड़ और आलमगीरपुर के अवशेष इस सभ्यता का पूर्व दिशा में दोआब क्षेत्र की ओर विस्तार को बतलाते हैं।

सिन्धु सभ्यता के दो प्रमुख नगरों मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के अलावा वर्तमान में अनेक छोटे-छोटे स्थलों का उत्खनन भी हुआ है। ऐसे स्थलों को शासन के प्रांतीय केन्द्रों के रूप में माना जा सकता है। ऐसा ही एक स्थल कालीबंगन (कालीबंगा) है, जिसका नगर-विन्यास बिल्कुल हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसा ही है।

लोथल नामक स्थल भी महत्वपूर्ण है, यह गुजरात में खंबात की खाड़ी पर स्थित है। मोहनजोदड़ो से लगभग 130 किलोमीटर दक्षिण में विद्यमान चन्हुदाड़ो भी महत्वपूर्ण केन्द्र रहा होगा। इसी प्रकार बनवाली का उल्लेख भी किया जा सकता है। हाल ही के वर्षों की एक महत्वपूर्ण खोज भर्राना (जून 2016, हरियाणा) नामक स्थल है। कुछ अन्य महत्वपूर्ण स्थलों के अंतर्गत कोटदीजी, रोजदी, देसालपुर,रंगपुर,डाबरकोट, बालाकोट इत्यादि को सम्मिलित किया जा सकता है।

सिन्धु सभ्यता के कुछ स्थल पश्चिम दिशा में बलूचिस्तान में मकरान समुद्र तट के पास प्राप्त होते हैं, इनमें सबसे दूर स्थित स्थल आधुनिक पाकिस्तान-ईरान सीमाप्रांत में स्थित सुत्कांगेडोर (सुत्कलैंडोर- ब्लूचिस्तान) है, यह स्थल एक व्यापारिक चौकी या बंदरगाह रहा होगा। सिन्धु के पूर्व में कच्छ के समीप समुद्रतट के आसपास भी स्थल मिलते हैं, इनमें सबसे महत्वपूर्ण केम्बे की खाड़ी में विद्यमान लोथल नामक स्थल है।

पूर्व दिशा में भी सिन्धु सभ्यता का व्यापक प्रसार दिखता है। यहां हमें मेरठ जिले के आलमगीरपुर नामक स्थान में सिन्धु सभ्यता के अवशेष मिले हैं। इस संदर्भ में शाहजहाँपुर जनपद का हुलास नामक स्थल भी महत्वपूर्ण है, यहां हुआ उत्खनन भी सिन्धु सभ्यता के यहां तक के प्रसार को दर्शाता है।

उत्तर दिशा में भी सिन्धु संस्कृति पर्याप्त विस्तृत थी, उत्तर दिशा में पहले इस सभ्यता की सीमा पंजाब में स्थित रोपड़ नामक स्थल तक मानी थी परंतु अब जम्मू-काश्मीर राज्य में स्थित मांड (अखनूर) तक इस सभ्यता के स्थल मिल चुके हैं।

दक्षिण दिशा में भी सिन्धु सभ्यता का व्यापक प्रसार हुआ था। पूर्व की खोजों के अनुसार पहले इस सभ्यता की दक्षिणी सीमा गुजरात प्रांत में स्थित एक छोटी सी नदी किम के समीप स्थित भगत्रव नामक स्थल तक मानी जाती थी लेकिन बाद के उत्खनन ने सभ्यता की सीमा महाराष्ट्र राज्य के अहमदनगर जिले में स्थित दैमाबाद तक विस्तृत कर दी है।

इस प्रकार सिन्धु सभ्यता का सम्पूर्ण क्षेत्र एक विशाल समचतुर्भुजाकार की भांति है और लगभग 15 लाख वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र समेटे हुए है। पूर्व में इसका क्षेत्रफल 1299600 वर्ग किमी. था जो आधुनिक पाकिस्तान से तो बढ़ा है ही प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया के संयुक्त क्षेत्रफल से भी बढ़ा है।

सिन्धु घाटी सभ्यता, खोज, उत्पत्ति व लिपि
सिन्धु घाटी सभ्यता Indus Valley Civilization

सिन्धु सभ्यता की भाषा एवं लिपि

सिन्धु लिपि की उत्पत्ति के संबंध में अभी आधिकारिक रूप से कुछ भी कहना प्रासंगिक नहीं है; संभवतः भविष्य की खोज ही इस विषय में सम्यक प्रकाश डाल पायेगी। यहां पर इस विषय को समझने में आपको प्रख्यात विद्वान डेविड डिरिंगर का कथन महत्वपूर्ण हो सकता है। डिरिंगर के अनुसार सिन्धु सभ्यता की लिपि सांकेतिक थी, किन्तु यह स्थापित करना अत्यंत कठिन है कि यह स्थानीय थी या बाहर से लायी गयी थी। इस लिपि और कीलाक्षर लिपि तथा प्राचीन एलमाइट लिपियों की पूर्वज लिपि में कोई संबंध रहा होगा लेकिन यह स्थापित करना कठिन है कि यह संबंध क्या था। इस संबंध कुछ अनुमान लगाये जा सकते हैं ; जैसे- सिन्धु लिपि शायद उस लिपि से उत्पन्न हुई जो इस समय अज्ञात है और शायद जो कीलाक्षर लिपि और एलमाइट लिपि की भी पूर्वज थी। यह भी हो सकता है कि तीनों ही लिपियों का जन्म स्थानीय हो लेकिन इनमें एक लिपि कीलाक्षर लिपि या पुरानी एलमाइट लिपि का प्रतिरूप थी, क्योंकि वह मौलिक लिपि थी और शेष दो लिपियों का जन्म उस प्रेरणा का परिणाम था जो लेखन कला के कारण अस्तित्व में आ चुकी थी।

सिन्धु लिपि, अर्द्ध-सांकेतिक लिपियों के परिवार से संबंधित प्रतीत होती है। इसमें 400- 500 विभिन्न चिह्न हैं, लेकिन मूल चिह्न 64 हैं और शेष उन्हीं के परिवर्तित रूप हैं। परिवर्तित रूप मूल चिह्नों या अक्षरों में मात्रा या अर्द्ध-अक्षर या अन्य अक्षर को जोड़कर बनाये गये लगते हैं। उदाहरण के लिए मीन या मछली चिह्न से अनेक प्रकार के सरल और क्लिष्ट अक्षर बने मिलते हैं।

कुछ मुद्राओं से ऐसा लगता है कि यह लिपि भाव चित्रात्मक थी, इसकी प्रथम लाइन दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी जबकि दूसरी लाइन बाएँ से दाएँ लिखी जाती थी। इस लिपि को सर्पिलाकार, गोमूत्रीलिपी तथा ब्रुस्टोफेदन लिपी के नाम से भी जाना जाता है।

लिपि का उत्पत्ति-

अनेक विद्वानों ने सिन्धु लिपि की उत्पत्ति के विषय में प्रकाश डालने का प्रयास किया है। सर जॉन मार्शल, रैवरेण्ड हैरस जैसे विद्वानों सिन्धु सभ्यता का तादात्मीकरण द्रविड सभ्यता से स्थापित करने का सुझाव देते हैं। रैवरेण्ड हैरस तो सिन्धु लिपि को बायें से दायें पढ़ते हैं और उसे तमिल भाषा का पूर्व रूप बतलाते हैं। विद्वान पुरालिपिशास्त्री वैडल ने अपनी पुस्तक दि इण्डो सुमेरियन सील्स डिसाइफर्ड में सिन्धु लिपि का संबंध सुमेर की भाषा और लिपि के साथ स्थापित करने का प्रयास किया है। वैडल का मानना है कि चौथी सहस्राब्दी ईसापूर्व में सुमेरियाइयों ने सिन्धु घाटी में अपना एक उपनिवेश स्थापित कर लिया था और वहां अपनी भाषा तथा लिपि को भी प्रचलित किया। विश्व की प्राचीनतम लिपियों में वस्तुतः अपनी चिह्न-सांकेतिक प्रवृत्तियों के कारण पर्याप्त एकरूपता दृष्टिगोचर होती है। सिन्धु लिपि और मिस्र, क्रीट ,सुमेर आदि देशों की लिपियों में यह एकरूपता स्वाभाविक है, वर्तमान साक्ष्यों के प्रकाश में यह कहना कठिन है कि सिन्धु नागरिकों ने अपनी लिपि सुमेर से प्राप्त की थी या सुमेर के लोगों ने अपनी लिपि सिन्धु घाटी से।

दि स्क्रिप्ट ऑफ हड़प्पा एण्ड मोहनजोदड़ो में जी.आर. हण्टर, सांकेतिक लिपि की प्रकृति बताते हुए लिखते हैं कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुद्राओं के बहुत से लिपि-चिह्न प्राचीन मिस्र की सांकेतिक लिपि से मिलते हैं। विशेषतौर पर वे चिह्न जो देवी-देवताओं को मानव रूप में प्रस्तुत करने के लिए प्रयुक्त किये गये हैं, यहां सिन्धु सभ्यता की लिपि और मिस्र की लिपि में अद्भुत समानता मिलती है। हण्टर आगे बताते हैं कि एसे चिह्नों का एक भी पर्याय हमें सुमेर की लिपि या प्रोटो-एलमाइट लिपि में नहीं मिलता है, साथ ही हण्टर कहते हैं कि देखने वाली बात यह है कि हमें कई ऐसे चिह्नों के पर्याय प्रोटो-एलमाइट लिपि और विशेषकर जैम्दैत-नस्र अभिलेखों में मिलते है।

अतः यह स्पष्ट है कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की लिपि कुछ मिस्र की लिपि से और कुछ मेसोपोटामिया का लिपि से ली गयी है। यह भी संभव है कि तीनों लिपियों को जन्म देने वाली कोई अन्य लिपि हो हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की लिपि में मिस्र का तत्व बाहर से लिया गया हो।

लिपि पढ़ने का प्रयास-

वर्तमान तक सिन्धु लिपि पढ़ी नहीं जा सकी है, इस संबंध में सभ्यता के 20वीं सदी के तीसरे दसक में प्रकाश में आने के बाद से ही प्रयास प्रारंभ हो चुके थे लेकिन प्रायः 90 वर्ष बीत जाने पर भी सिन्धु लिपि एक पहेली बनी है। इस बारे में खोज करने पाले प्रायः सभी विद्वानों का मानना है कि इस लिपि का अनुवाद करने के लिए उपयुक्त साधन अभी तक प्राप्त नहीं हो सके हैं। पुरालिपिशास्त्रियों को आवश्यकता है एक द्विभाषी अभिलेख की, जिसमें एक भाषा का हमें पूर्ण ज्ञान हो या फिर एक ऐसे लंबे शिलालेख की प्राप्ति हो जिसमें कुछ महत्वपूर्ण भाग बारबार प्रयुक्त हों। अभी तक हमें जो भी अभिलेख मिले हैं वे छोटे हैं और उनमें औसत रूप से केवल छह अक्षर हैं, सबसे लंबा शिलालेख भी जो मिला है उसमें केवल 17 अक्षर हैं।

लिपि पढ़ने का प्रयास सबसे पहले वेडेन महोदय ने किया था परंतु असफल रहे थे। पिछले कुछ वर्षों में फिनिश रिसर्च टीम, रूसी भारतविद् तथा एस. आर. राव द्वारा सिन्धु लिपि को पढ़े जाने का दावा प्रस्तुत किया गया लेकिन ये सभी दावे आशंकाओं को परिपूर्ण नहीं कर पाये और अभी भी सिन्धु भाषा और लिपि एक अबूझ पहेली बनी हुई है।

सिन्धु सभ्यता का कालक्रम

सिन्धु सभ्यता की तिथि के संबंध में व्यापक विवाद रहा था, लेकिन वैज्ञानिक प्रविधियों के प्रयोग के उपरांत पुराविद् सिन्धु सभ्यता का सही कालक्रम निर्धारित करने में सफल हुए हैं। सिन्धु सभ्यता की तिथि के संबंध में विभिन्न विद्वानों के विचारों का संक्षिप्त परिचय जानना ठीक होगा।

जॉन मार्शल के अनुसार-

जॉन मार्शल जैसे विद्वानों के अनुसार सिन्धु सभ्यता तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व की सभ्यता है। इन विद्वानों ने सिन्धु सभ्यता का प्राचीन मेसोपोटामिया के नगरों के साथ संबंधों और इन संबंधों के फलस्वरूप आदान-प्रदान की गयी वस्तुओं के आधार पर तिथि निर्धारण का प्रयास किया है।

फादर हेरास के अनुसार-

फादर हेरास नामक विद्वान ने नक्षत्रीय गणना के आधार पर सिन्धु घाटी की सभ्यता का काल 5600 ईसा पूर्व तक बतलाया है।

मार्टिमर व्हीलर के अनुसार-

मार्टिमर व्हीलर ने भी सिन्धु नगरों से पाये गये पुरावशेषों का पश्चिम के पुरावशेषों के साथ तुलनात्मक अध्ययन द्वारा काल निर्धारण का प्रयास किया और 2500 ईसा पूर्व से 1500 ईसा पूर्व सिन्धु सभ्यता का काल निर्धारित किया।

सी.एल. फैब्री के अनुसार-

सी.एल. फैब्री नामक पुरातत्ववेत्ता ने मोहनजोदड़ो में पाये गये एक बरतन पर अंकित सुमेरो-बेबिलोनियन लेख के आधार पर सिन्धु सभ्यता का काल 2800 ईसा पूर्व से 2500 ईसा पूर्व में निर्धारित किया है।

डी.पी. अग्रवाल के अनुसार-

वर्तमान में उपलब्ध वैज्ञानिक प्रविधियों का प्रयोग करते हुए डी.पी. अग्रवाल ने कार्बन-14 तिथि निर्धारण के आधार पर सिन्धु सभ्यता का कालक्रम 2300 ईसा पूर्व से 1750 ईसा पूर्व निर्धारित किया है, वर्तमान में डॉ. अग्रवाल द्वारा निर्दिष्ट तिथिक्रम को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है।

यह सत्य है कि 1750 ईसा पूर्व तक सिन्धु सभ्यता के प्रमुख नगरों में सभ्यता का अवसान हो गया था, लेकिन अन्य स्थलों में सभ्यता विद्यमान थी यद्यपि वह ह्रासोन्मुख हो चुकी थी। गुजरात में स्थित सिन्धु सभ्यता का एक प्रमुख नगर रंगपुर अभी भी विकास कर रहा था और इस स्थल में हमें निरेतर लगभग 800 ईसा पूर्व तक सभ्यता के साक्ष्य मिलते हैं। यदि समग्र रूप में सिन्धु सभ्यता के कालक्रम को देखा जाय और विभिन्न उत्खननों ,विद्वानों ,पुराविदों एवं आधुनिक अनुसंधानों का अनुशीलन किया जाय तो सिन्धु संस्कृति के संम्पूर्ण काल को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-

1. सिन्धु सभ्यता का आरंभिक काल -2500 ईसा पूर्व से 2250 ईसा पूर्व,

2. सिन्धु सभ्यता का विकसित काल -2250 ईसा पूर्व से 1950 ईसा पूर्व,

3. सिन्धु सभ्यता का ह्रासोन्मुख काल -1950 ईसा पूर्व से 1750 ईसा पूर्व।

सिन्धु सभ्यता की उत्पत्ति तथा विकास

सिन्धु सभ्यता के उद्गम के विषय में पुरावशेषों की अपूर्णता और लिपि सम्बन्धित अज्ञानता के कारण किसी निश्चित विचार को ग्रहण करना अभी संभव नहीं है, फिर भी सभ्यता के विषय में कुछ विचारधाराऐं महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय हैं।

प्रथम विचारधारा-

एक विचारधारा के अनुसार, सिन्धु संस्कृति और कुल्ली-नाल तथा झोब संस्कृतियों के मध्य निश्चित सम्बन्ध हैं। दक्षिण-मध्य बलूचिस्तान तथा लासबेला में नाल तथा प्रारंभिक कुल्ली संस्कृति के अवशेष प्राप्त होते हैं। झोब संस्कृति, सुलेमान पहाड़ियों के पश्चिम में फली-फूली थीं। ये संस्कृतियां चतुर्थ या तृतीय सहस्राब्दी ईसा पूर्व में अस्तित्व में थीं। इन संस्कृतियों के मध्य सम्बन्ध बैठाने के लिए कुछ निश्चित प्रमाण दिये जाते हैं, जैसे- सिन्ध में बाद के काल में कृषि का होना यह दर्शाता है कि बलूचिस्तान और दक्षिणी अफगानिस्तान की कुछ खेतिहर जनजातियां सिन्ध तक प्रवेश कर गयीं थीं। इसके अलावा उत्तर-पूर्वी सिन्ध से प्राप्त कुछ प्रमाण यह दर्शाते हैं कि प्रारंभिक हड़प्पा सभ्यता की स्थानीय शैली, उत्तरी तथा मध्य बलूचिस्तान से प्राप्त की गयी थी। ये सभी सभ्यताऐं नदियों के किनारे पल्लवित हुयीं थी और सभी कृषि पर आधारित थीं, इसके अलावा इस बात के भी प्रमाण हैं कि प्रारंभिक हड़प्पा बस्तियों ने बलूचिस्तान तथा झोब की संस्कृति के साथ एक लम्बे काल तक स्थिर संबंध रखे थे।

दक्षिण-पश्चिम ईरान तथा कुल्ली सभ्यता के मृणभाण्डों तथा अन्य तथ्यों में समानताएं हैं, इसके अलावा ईरानी तथा कुल्ली दोनों ही प्रकार के साक्ष्य सूरकोटडा से प्राप्त हुए हैं, धातुकार्मिक दक्षता भी कुल्ली-नाल तथा हड़प्पा सभ्यता में समानता रखती हैं। झोब संस्कृति में मातृदेवी तथा लिंग के अवशेष भी प्राप्त होते हैं तथा साथ ही सांड आकृति जोकि सिन्धु सभ्यता में दिखाई देती है, झोब संस्कृति में एक प्रिय विषय या चिह्न के रूप में प्राप्त होती है।

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर निश्चित नहीं किया जा सकता है कि हड़प्पा सभ्यता का उद्गम बलूचिस्तान की सभ्यता से है। कोटदीजी से प्राप्त प्रारंभिक मृणभाण्ड, बलूचिस्तान के कृषक समुदाय के मृणभाण्ड तथा हड़प्पा से प्राप्त मृणभाण्डों से साम्यता रखते हैं जबकि कोटदीजी से ही प्राप्त बाद के मृणभाण्ड हड़प्पा के मृणभाण्डों से साम्यता रखते हैं इसी प्रकार कालीबंगन की खुदाई दर्शाती है कि वहां हड़प्पा काल से भी पूर्व बस्तियां थीं और उनके मृणभाण्ड आमरी और कोटदीजी से प्राप्त मृणभाण्डों से साम्यता रखते हैं जबकि कालीबंगन के बाद के भवन निश्चिततः हड़प्पा सभ्यता के ही अंग थे। उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह मानना कठिन हो जाता है कि कि हड़प्पा सभ्यता, कुल्ली- नाल या झोब संस्कृतियों से विकसित हुई थी।

द्वितीय विचारधारा-

उद्गम के संबंध में एक दूसरे विचार के अनुसार हड़प्पा सभ्यता को आमरी सभ्यता की प्रच्छाया बताया गया है। इस विचार के अनुसार आमरी में पहले शहरी सभ्यता उत्पन्न हुई और फिर मानव धीरे-धीरे अन्य बस्तियों की खोज करते आगे बढ़ा। इस संदर्भ में पुराविद् कासल ने पूर्व हड़प्पा काल से बाद के हड़प्पा काल तक भौगोलिक स्तरीकरण निश्चित किया हैं। आमरी बस्तियों में मृणभाण्ड बिना चाक की सहायता के हाथ से बने हुए तथा धातु चिह्न अत्यल्प हैं, किंतु बाद के स्तर में अलंकृत भाण्ड तथा बिना पकी हुयी मिट्टी की ईंटों से बने भवन मिलते हैं , इसके अलावा खुदाई से पता चलता है कि आमरी सभ्यता की कुछ विशिष्ठ परंपराएं, हड़प्पा सभ्यता की परंपराओं से मेल खाती हैं। उपरोक्त ज्ञान के बावजूद भी हड़प्पा सभ्यता और प्रारंभिक आमरी सभ्यता के बीच संबंध नहीं बैठाया जा सकता है, हांलाकि आमरी के मृणभाण्ड हड़प्पा के नगर प्राचीर के चारों तरफ पाये गये हैं। मोहनजोदड़ो के निचले स्तर में अवश्य बलूचिस्तान की सभ्यता का प्रभाव मिलता है ना कि आमरी सभ्यता का, अतः कहा जा सकता है कि आमरी सभ्यता से हड़प्पा सभ्यता का विकास नहीं हुआ था।

तृतीय विचारधारा-

उद्गम से संबधित एक अन्य विचार के अनुसार, हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से प्राप्त संरचनाओं का संबंध ईसा पूर्व सातवीं सहस्राब्दी में अनातोलिया के कैटल हुयुक तथा बलूचिस्तान के जैरिको और साथ ही सुमेरिया के उदाहरणों के साथ संबंधित किया जा सकता है। अनातोलिया नगर में घुसपैठियों से रक्षा के लिए नगर के चारों ओर सीड़ियों की श्रृंखला सी उठा दी गयी है। इस नगर के लोग मृणभाण्डों का प्रयोग जानते थे तथा प्रस्तर प्रतिमाओं की पूजा करते थे। जेरिको में एक अति विशिष्ठ प्रस्तर प्राचीर से घिरा नगर मिला है। हांलाकि कैटल हुयुक और जैरिको के लोग प्रारंभिक कृषक समुदाय से संबंधित थे फिर भी उन्होंने नागरिक जीवन के कुछ निश्चित अंग विकसित कर लिए थे। सुमेरियाइयों ने मंदिर तथा मिट्टी की ईंटों से बने जिग्गुरात बनाये जो कि कृत्रिम पर्वतों की भांति दिखते थे। इसी प्रकार सिन्धु सभ्यता के स्थलों के भी दो भाग हैं, एक शहर का उठा हुआ भाग तथा दूसरा निचले स्तर में स्थित नगर। लेकिन इन समानताओं के बावजूद भी यह सिद्ध नहीं किया जा सकता है कि हड़प्पा सभ्यता किसी निश्चित नगरीय सभ्यता से प्रभावित रही हो।

चतुर्थ विचारधारा-

उद्गम से संबधित एक अन्य विचार के अनुसार, सिन्धु सभ्यता सुमेर सभ्यता की ऋणी है। सुमेर सभ्यता और सिन्धु सभ्यता के मध्य निश्चित संबंधों की जानकारी है। गिल्गामेश आकृति, एनकिडु, सांड-मानव, मुद्राओं और मृण्मूर्तियों में गोदीबाड़े के चिह्न, भारतीय तट को मेसोपोटामिया में मैलुहह की संज्ञा का मिलना आदि मेल हमें प्राप्त होते हैं। लेकिन हमें मालूम है कि इन संबंधों के बावजूद भी सिन्धु नागरिकों ने सुमेरियाइयों से अपने विकास तथा उत्तरजीविता के संबंध में कुछ विशिष्ठता नहीं प्राप्त की या कुछ खास नहीं सीखा। उदाहरण के लिए हम कह सकते हैं कि सुमेरियाइयों की उत्कृष्ठ सिंचाई व्यवस्था तथा उच्चकोटि की कलाकृतियों को जानने या अपनाने के प्रमाण हमें नहीं मिलते हैं। इन सबसे प्रमुख यह बात है कि सिन्धु लिपि की, पश्चिम एशिया की किसी भी लिपि से संबंधता नहीं मिलती है अर्थात यह सुमेर की लिपि से बिल्कुल भिन्न है। हम केवल यह मान सकते हैं कि पश्चिम एशियाइयों और सिन्धु सभ्यता के मध्य संबंध थे, लेकिन यह संबंध सैन्धव सभ्यता के मूल में नही थे, इसके अतिरिक्त सिन्धु सभ्यता एक स्टैटाइट सभ्यता थी जबकि सुमेर की सभ्यता में स्टैटाइट के कुछ ही दाने मिले हैं।

पंचम विचारधारा-

उद्गम से संबधित एक अन्य महत्वपूर्ण विचार के अनुसार, हड़प्पा सभ्यता, सिन्धु घाटी के अंदर चलने वाली एक दीर्घकालीन विकास प्रक्रिया का परिणाम है। सिन्धु सभ्यता के अनेक लक्षणों का मूल हमें वहीं प्राप्त आरंभिक स्तर की ग्रामीण संस्कृतियों मे मिलता है। सिन्धु सभ्यता का निचला स्तर निश्चत रूप से हड़प्पा सभ्यता की प्रस्तावना के रूप में एक लम्बे काल से चलने वाली स्थानीय कृषि और तकनीकी का प्रमाण प्रस्तुत करता है।इस विचार के पीछे अन्य तथ्य भी हैं। उस काल में नगर की समकोणीय संरचना की योजना पश्चिम एशिया की किसी भी स्थान में नहीं मिलती है। पश्चिम एशिया के साथ व्यापार भी यह इंगित करता है कि हड़प्पा सभ्यता में अत्यंत उच्चकोटि का विकसित माल बनता होगा और अवश्य ही विकास के इस स्तर को प्राप्त करने में दीर्घकालीन समय लगा होगा।

इसके अलावा हाल की पुरातात्विक खुदाइयां भी बहुत सी पुरा-हड़प्पीय और विकसित -हड़प्पीय बस्तियों के मध्य निरंतरता को बतलाती हैं। इस संदर्भ में चन्हूदाड़ो का उदाहरण दिया जा सकता है, जो मनके बनाने वालों का केन्द्र रहा था, यहां हमें संस्कृति की निरंतरता प्राप्त होती है। यद्यपि बलूचिस्तान में अनेक स्थलों और कालीबंगा में हड़प्पा-पूर्व बस्तियों के अवशेष मिले हैं तथापि उनमें और हड़प्पा संस्कृतियों के स्थलों में कोई बहुत स्पष्ट संबंध दिखाई नहीं देता, यद्यपि संभव है कि हड़प्पा सभ्यता का विकास इन्ही देशज बस्तियों से हुआ हो।

सिन्धु सभ्यता के निर्माता किस समुदाय से संबंधित थे, इसे निश्चित करना वर्तमान में टेढ़ी खीर है, फिर भी प्राचीन नर कंकालों का अध्ययन कर पुराविदों ने इस सभ्यता में प्रोटो-ऑस्ट्रेलॉयड , भूमध्य सागरीय, अल्पाइन तथा मंगोल प्रजातियों के मानव जन के निवास करने को प्रमाणित किया है।

सिन्धु सभ्यता की निरंतरता

सिन्धु संस्कृति की निरंतरता भारतीय सभ्यता के धार्मिक, सामाजिक या सार्वजनिक तथा आर्थिक जीवन में दिखाई देती है। तथ्यों और तार्किक विश्लेषण द्वारा इस निरंतरता को स्पष्ट किया जा सकता है।

सार्वजनिक एवं सामाजिक जीवन में निरंतरता-

कुछ विद्वान सिन्धु लिपि को ब्राह्मी लिपि का प्रतिरूप मानते हैं , किन्तु इस विषय में निश्चित प्रमाण नहीं हैं, यदि ऐसा हो तो लिपि के क्षेत्र में भी निरंतरता माननी होगी।

नियोजित नगर-विन्यास की कल्पना सिन्धु सभ्यता से ही मानी जानी चाहिए।

द्यूत क्रीड़ा या पांसे का खेल सिन्धु घाटी की ही देन कही जा सकती है।

वी.जी. चाइल्ड के अनुसार ,सिन्धु सभ्यता , भवन-निर्माण और उद्योग के साथ-साथ वेशभूषा तथा धर्म में आधुनिक भारतीय संस्कृति का आधार है।

सौन्दर्य प्रसाधन, यथा- चुडियां, हाथी दांत की कंघियां , पाउडर, होंटों को रंगना आदि सिन्धु सभ्यता की निरंतरता मानी जा सकती है।

सिन्धु नागरिकों द्वारा वस्त्र पहनने का तरीका भी महत्वपूर्ण है, मुद्राओं की आकृतियों से स्पष्ठ होता हैकि वहां पुरूषों द्वारा अंगरखे का प्रयोग इस प्रकार किया जाता कि वह बांयें कन्धे को ढकता हुआ दांयें कन्धे के ठीक नीचे से निकलता था, इसी प्रकार से अंगरखे का प्रयोग आज भी रूढ़िवादी हिन्दू के घर देखा जा सकता है।

सिन्धु सभ्यता से वृहत् परिमाण में मिट्टी के खिलौने मिले हैं, ऐसे ही खिलौनों का प्रयोग बच्चों द्वारा आधुनिक भारतीय गांवों में किया जाते देखा जा सकता है।

धार्मिक जीवन में निरंतरता-

सिन्धु घाटी से प्राप्त अनेक मुद्राओं में सिन्धु देवताओं को अर्द्ध मानव, अर्द्ध-पशु की आकृति में अंकित किया गया है, इसी प्रकार की कल्पना हमें पौराणिक नृसिंह अवतार में भी मिलती है।

हड़प्पा सभ्यता की योगी की मूर्ति को शिव-पशुपति का रूप माना गया है। मूर्ति के चारों ओर जानवर हैं (पशुपति), आकृति ध्यान मग्न है (योगीश्वर), तीन मुखों का संबंध बाद की तीन आँखों की कल्पना से मालूम पड़ता है और लबी शिरोभूषा के साथ दोनों सींगों ने आगे चलकर त्रिशूल का रूप धारण कर लिया होगा। लिंगों की प्राप्ति से यह मिलान और भी सबल हो जाता है क्योंकि शिव, वर्तमान में सर्वत्र लिंग रूप में ही पूजित हैं।

सिन्धु घाटी से मातृदेवी की मूर्तियां भी पर्याप्त मात्रा में मिली हैं, मातृ देवी को बाद के देवताओं की अर्धांगिनियों या मातृकाओं के रूप में संभवतः पूजने की परंपरा चल निकली। योनि--पूजा सिन्धु सभ्यता की विशिष्ठता है जो आगे चलकर हिन्दू तंत्रवाद और बौद्ध-तंत्रवादियों की पूजा की विशिष्ठ अंग रही है।शक्ति पूजा के रूप में यह लोकप्रिय है।

प्रकृति की पूजा सिन्धु घाटी के धर्म की निरंतरता है। आज भी सिन्धु मुहरों में दर्शाये गये वृक्ष, बबूल, पीपल, जीवन-वृक्ष आदि की पूजा होती है। सर्प या नाग देवता भी सिन्धु मुहरों में मिलता है जिसने ऐतिहासिक काल में विभिन्न वंशों के चिह्न के रूप में कार्य किया और जो नाग आदि वंशों के नाम से प्रसिद्ध हुए। आज भी गांवों में सर्प देवता के मंदिर दिख जाते हैं।

सिन्धु घाटी से प्राप्त ताबीज और मन्त्र-तन्त्र पर विश्वास आज भारतीय सामाजिक व्यवस्था में बना हुआ है। पवित्र स्वास्तिक चिह्न का प्रयोग भी सिन्धु घाटी में मिलता है।

जल-पूजा और सामूहिक स्नान का महत्व सिन्धु सभ्यता से अब तक बना हुआ है। बहुत संभव है कि भारतीय धर्म-ग्रंथों की प्रलय की कहानी हड़प्पा सभ्यता की बाढ़ से ही ली गयी हो?

एक दाढ़ीयुक्त तथा जटायुक्त पुरूष की नग्न मृण्मूर्ति, जिसमें पुरूष सीधे खड़ा है, पैर सटे हुए नहीं वरन् दूर-दूर हैं तथा हाथ बगलों के समानान्तर परन्तु उन्हें छूते नहीं हैं, बाद के जैन साधुओं की कायोत्सर्ग मुद्रा से मिलता है।

सिन्धु सभ्यता का पवित्र कूबड़युक्त बैल वर्तमान में भी शिव के वाहन नंदी के रूप में पवित्र और सर्वत्र पूज्य माना जाता है।

आर्थिक जीवन में निरंतरता-

कपास का प्रयोग सिन्धु सभ्यता से निरंतर मिलता है।

आधुनिक मुर्गी का पूर्व रूप हड़प्पा सभ्यता में देखा जा सकता है।

सिन्धु सभ्यता का प्रमुख खाद्यान्न गेहूँ आज भी उत्तर भारत का प्रमुख खाद्यान्न है।

सिन्धु सभ्यता के बांट-बटखरे, 16 अथवा उसके गुणज भार के हैं, आज भी नाप-तौल के लिए 16 अथवा इसके गुणज की इकाइयां प्रयुक्त होती हैं।

कुम्हार का चाक, छकड़ा, इक्का और नावें आज तक देखी जा सकती हैं।

यह सिद्ध नही किया जा सकता कि सिन्धु सभ्यता की कौन-कौन सी विशेषताएं बाद में भी अपनायीं गयीं पर इतना ज्ञात है कि आर्यों की पाचन शक्ति अत्यधिक थी , उन्होंने आगे चलकर अनेक विदेशी समूहों को आत्मसात कर लिया था, स्वंय अनार्यों को भी उन्होंने अपनी जाति व्यवस्था में स्थान दे दिया था, अतः यह असंभव नहीं कि आर्यों ने सिन्धु सभ्यता से पर्याप्त मात्रा में विचार ग्रहण किये हों।

सिन्धु सभ्यता की विशेषताएं

सिन्धु सभ्यता एक विशिष्ट वातावरण में मानव जीवन के एक सर्वागंपूर्ण समायोजन का प्रतिनिधित्व करती है। यह सभ्यता काल की कसौटी में खरी उतरी है और आधुनिक भारतीय संस्कृति के लिए आधार प्रस्तुत करती है। इसकी कुछ प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं-

सिन्धु सभ्यता तृतीय कांस्यकाल की सभ्यता है, हांलाकि अधिक वस्तुएं नहीं मिली हैं, फिर भी जो वस्तुएं मिलती हैं उनसे इस सभ्यता में कांस्यकाल की सर्वोत्कृष्ट विशेषताएं परिलक्षित होती हैं, इस संदर्भ में मोहनजोदड़ो की कांस्य नृत्यकी का उदाहरण दिया जा सकता हैं।

यह सभ्यता नगरीय और व्यापार प्रधान है। इसके अंतर्गत सिन्धु नागरिकों ने आश्चर्यजनक उन्नति की थी। उन्हें नागरीय जीवन की अगणित सुविधाएं प्राप्त थीं। विशाल नगरों ,पक्के भवनों ,सुव्यवस्थित सड़कों , नालियों और स्नानागारों के निर्माता, सुद्रढ़ शासन पद्धति और धार्मिक व्यवस्था के व्यवस्थापक तथा आंतरिक उद्योग धंधों और विदेशी व्यापार के संगठनकर्ता , सिन्धु निवासियों की इस चतुर्दिक अभ्युन्नति के पीछे साधना और अनुभव की एक सुदीर्घ परंपरा थी। इसीलिए सिन्धु प्रदेश की सुख-शांति और विलासिता को देखते हुए कहा गया है कि यहां का साधारण नागरिक सुविधा और विलास का जिस मात्रा में उपभोग करता था उसकी तुलना समकालीन सभ्य संसार के अन्य भागों से नहीं की जा सकती है।

सिन्धु सभ्यता में खाद्य अतिरेक की उपलब्धता थी, व्यापार-वाणिज्य का उच्च स्तर था, उन्हें लिपि की जानकारी थी, वे अपनी आवश्यकता के पदार्थों के लिए सक्रिय वाणिज्यिक क्रियाकलाप करते थे, सिन्धु नागरिकों में बहुत अधिक मिश्रित सामाजिक स्तरीकरण, श्रम विभाजन मिलता है। उद्योग-धंधों और शिल्पों की अधिकता इस सभ्यता में दिखाई देती है।

सिन्धु सभ्यता शान्तिमूलक थी , उसके संस्थापकों को युद्ध से अनुराग नहीं था , यही कारण है कि सिन्धु प्रदेश के उत्खनन में कवच, शिरस्त्राण और ढाल नहीं मिले हैं। जो अस्त्र-शस्त्र मिले हैं उनका प्रयोग बहुधा आत्म-रक्षा अथवा आखेट के लिए किया जाता था।

सिन्धु सभ्यता के अंतर्गत धर्म द्विदेवतामूलक था। सिन्धु निवासियों की श्रृद्धा-भक्ति के प्रमुख केन्द्र थे, दो देवता- एक पुरूष के रूप में और दूसरा नारी के रूप में। पुरूष और नारी के चिरंतन द्वन्द का यह मधुर दैवीकरण सिन्धु निवासियों की निशित कल्पना का परिचायक है।

सिन्धु सभ्यता में लेख, गणना और माप की प्रतिष्ठा हो चुकी थी,  इन्होंने उसकी प्रगति को सत्वरता प्रदान की होगी।

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