केन्द्र और राज्यों के मध्य विधायी सम्बन्ध
(अनुच्छेद 245-255)
विभिन्न संघ राज्यों में केन्द्र और राज्य के बीच शक्तियों का विभाजन उस देश की तात्कालिक आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों के आधार पर भिन्न-भिन्न तरीकों से किया गया है। भारतीय संविधान में शक्तियों के वितरण की योजना के मूल में कनाडा के संविधान की प्रेरणा निहित है। हमारे संविधान में शक्ति वितरण के प्रायः वही सिद्धांत अपनाये गये हैं जो 1935 के भारत सरकार अधिनियम में थे। कनाडा के संविधान से ली गई इस प्रेरणा में आस्ट्रेलिया के संविधान से प्रभावित होकर ग्रहण की गई समवर्ती सूची की व्यवस्था अतिरिक्त है। इस प्रकार भारतीय संविधान में केन्द्र और राज्यों के मध्य तीन सूचियों के द्वारा विधायी शक्तियों का वितरण कर दिया गया है। ये तीन सूचियाँ हैं-
1. संघीय सूची-
संघीय सूची में राष्ट्रीय महत्त्व के 97 विषय हैं, जिनमें कुछ ये हैं- प्रतिरक्षा सेवायें, विदेश सम्बन्ध, अस्त्र-शस्त्र तथा गोला-बारूद, देशीकरण और नागरिकता, विदेशियों का भारत में प्रवेश, राजनयिक संधियाँ, रेलवे, जहाजरानी तथा नौ परिवहन, वायुमार्ग, डाक व तार, संचार, मुद्रा-निर्माण, लोक-ऋण, विदेशी ऋण, भारत का रिजर्व बैंक, विदेशी व्यापार, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार व वाणिज्य, आयात व निर्यात, बैंकिंग, बीमा, उद्योग-नियंत्रण, खानों व खनिज पदार्थों तथा तेल उत्खननों का नियमन, तोल तथा माप, संघीय लोक सेवायें आदि।
केंद्र-राज्य विधायी संबंध |
इन सभी राष्ट्रीय
महत्त्व के विषयों पर समान कानून का होना आवश्यक है और इसलिए इन पर कानून बनाने का
एकमात्र अधिकार संसद को दिया गया।
2. राज्य सूची-
राज्य सूची में 66 विषय
हैं। स्थानीय महत्त्व के समस्त विषयों को राज्य सूची में रखा
गया है, जिन पर राज्य सरकारें ही कानून बना सकती हैं।
(42वें संवैधानिक संशोधन के बाद गणना की दृष्टि से राज्य सूची के विषयों की संख्या
घटकर 62 रह गयी है, लेकिन संवैधानिक दृष्टि से आज भी इसकी संख्या 66 ही बनी हुई
है।) राज्य सूची के मुख्य विषय इस प्रकार हैं-
सार्वजनिक कानून एवं
व्यवस्था, पुलिस, न्याय प्रशासन, जेल तथा सुधार गृह, स्थानीय शासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि एवं सिंचाई, पशुपालन, पुस्तकालय, अजायबघर, अस्पताल व औषधालय, वनों व जंगली
जानवरों की रक्षा, ग्रामसुधार, सार्वजनिक निर्माण कार्य, मण्डियाँ और मेले, राज्यग्रस्त व्यापार
व वाणिज्य, कृषि, आयकर, भूमिकर, मनोरंजन कर, विलासिता की वस्तुओं
पर कर, स्थानीय क्षेत्र के माल पर कर, राज्य लोक सेवा आयोग
एवं लोक सेवा आयोग, विद्युत कर आदि। इन समस्त विषयों पर कानून बनाने का पूर्ण
अधिकार राज्यों का है।
3. समवर्ती सूची–
इस सूची में स्थानीय
और राष्ट्रीय दोनों के महत्त्व के 47 विषय सम्मिलित हैं जिन पर केन्द्र
और राज्य सरकार दोनों ही कानून बना सकती हैं, किन्तु दोनों के कानूनों के
विरोधाभास की स्थितियों में केन्द्रीय कानून ही मान्य होगा। 42वें संविधान
संशोधन के बाद समवर्ती सूची में 17(क) वन, 17(ख) वन
जीव-जन्तुओं और पक्षियों का संरक्षण, 20(क) जनसंख्या नियंत्रण और
परिवार नियोजन, 25-क शिक्षा, 33-क बाट और नाप-तौल विषय
और जोड़े गये हैं, इस प्रकार समवर्ती सूची के विषयों की संख्या
बढ़कर 52 हो गई है, लेकिन संविधान में इनकी क्रमसंख्या 47 ही रही है। इस सूची
के प्रमुख विषय हैं-
फौजदारी कानून
प्रणाली, व्यवहार प्रणाली, निवारक निरोध, विवाह और विच्छेद, दिवालियापन तथा ऋण
शोध क्षमता, पागलपन, ठेके और साझेदारी, मजदूर संघ, आर्थिक तथा सामाजिक
नियोजन, सामाजिक सुरक्षा और बीमा, शरणार्थी सहायता, पुनर्वास, खाद्य पदार्थों में
मिलावट, रोजगार और बेरोजगारी विधि, औषधियाँ, जन्म-मरण के आँकड़े, श्रम-कल्याण, मूल्य नियंत्रण, कारखाने, बिजली, समाचार-पत्र, पुस्तकें तथा
मुद्रणालय आदि।
4. अवशिष्ट शक्तियाँ-
जिन विषयों का वर्णन
उक्त तीनों सूचियों में नहीं है या परिस्थितियों के अनुसार यदि नये विषय उत्पन्न
हों तो संविधान निर्माताओं द्वारा ऐसी अवशिष्ट शक्तियाँ संघीय सरकार
को संविधान के अनुच्छेद 248 के अन्तर्गत सौंपी गई है। भारत में इस व्यवस्था
के अन्तर्गत केन्द्र ऐसे कर लगा सकता है जिसका समावेश राज्य और समवर्ती
सूचियों में नहीं किया गया है। संघ सूची के विषयों पर निर्मित कानूनों के उपयुक्त
कार्यान्वयन के लिए संसद नये न्यायालय भी स्थापित कर सकती है।
संविधान के अनुच्छेद
246 के अनुसार संसद को संघीय विधायी सूची के विषयों पर विधि बनाने
का पूर्ण अधिकार है। राज्य विधान मण्डलों को राज्य सूची के विषयों के सम्बन्ध में
विधि बनाने का तथा समवर्ती सूची पर संसद व राज्य विधान मण्डलों को
एक साथ विधि निर्माण का अधिकार है।
5. विशेष व्यवस्था-
उपर्युक्त तीनों
सूचियों में शक्ति वितरण की जो योजना प्रस्तुत की गई है वह केवल सामान्य काल
के लिए है। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसी विशिष्ट परिस्थितियाँ भी हैं जिनमें या तो उक्त
व्यवस्था स्थगित कर दी जाती है या संघीय संसद के विधायी अधिकारों का दायरा राज्य
सूची तक बढ़ जाता है।
केन्द्र एवं राज्यों के विधायी सम्बन्धों की समीक्षा
केन्द्र एवं राज्यों के विधायी
सम्बन्धों की समीक्षा के दो पक्ष हैं-
सैद्धान्तिक पक्ष-
भारतीय संविधान में
सैद्धान्तिक दृष्टि से संघात्मक सिद्धान्त को अपनाया गया है और
दोनों सरकारों के कार्य-क्षेत्र को संविधान द्वारा विभाजित कर दिया गया है, तथापि विधायी
शक्तियों के विभाजन में संघीय सर्वोच्चता को मान्यता दी गई है अर्थात् संविधान में
संघ को राज्यों की अपेक्षा अधिक अधिकार प्रदान किये गये हैं। यह बात निम्नलिखित
तथ्यों से प्रकट होती है-
(1) संघीय सूची में उल्लिखित कुछ विषय– संघीय सूची में कुछ इस
प्रकार के विषयों का उल्लेख किया गया है जिनके द्वारा संघ सरकार राज्य सरकारों पर
नियंत्रण रख सकेगी। इस सम्बन्ध में दो विषयों का उल्लेख किया जा सकता है- चुनाव
और लेखों की जाँच। राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव भी संसद के नियंत्रण
में रखे गये हैं। साथ ही राज्य के लेखों की जाँच भी केन्द्र का विषय है।
(2) समवर्ती सूची पर केन्द्र को प्राथमिकता– यदि समवर्ती सूची के किसी
भी विषय पर संसद तथा किसी राज्य विधान मण्डल दोनों का कानून बनाना
है और इन दोनों कानूनों में कोई विरोध है तो राज्य द्वारा बनाया गया कानून उसी
सीमा तक अवैध होगा जिस सीमा तक वह संसद निर्मित कानून के विरोध में पड़ता
है।
(3) संविधान का अनुच्छेद 251- संविधान की धारा 251 के अनुसार यदि राज्य की विधानसभा द्वारा
पास किया हुआ कानून संसद द्वारा पास किये हुए कानून से संविधान के अनुच्छेद
249 से 250 के अन्तर्गत बनाये गये नियमों के विरुद्ध है तो राज्य द्वारा बनाया गया
कानून प्रभावहीन हो जायेगा।
(4) अवशिष्ट शक्तियों पर केन्द्र का अधिकार- अवशिष्ट शक्तियों के सम्बन्ध में कानून बनाने
का अधिकार केन्द्र की व्यवस्थापिका को है अर्थात् संसद को ऐसे विषय पर कानून बनाने
का अधिकार है जिसका किसी भी सूची में वर्णन नहीं है।
(5) साधारण विधायी प्रक्रिया द्वारा कुछ असंवैधानिक संशोधन– भारतीय संसद साधारण
विधायी प्रक्रिया द्वारा किसी भी राज्य की सीमा में परिवर्तन कर सकती है। वह किसी
भी राज्य को समाप्त कर सकती है तथा कोई भी नया राज्य बना सकती है।
(6) केन्द्रीय कार्यपालिका की स्वीकृति- संविधान के अन्तर्गत कुछ विशेष परिस्थितियों
में राज्य तभी कानून बना सकता है जब केन्द्रीय कार्यपालिका उस पर अपनी स्वीकृति
प्रदान कर दे। संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के अन्तर्गत राज्यपाल स्वविवेक से
राज्य व्यवस्थापिका द्वारा पारित विधेयक राष्ट्रपति के विचारार्थ रोक सकता है।
राष्ट्रपति किसी भी विधेयक को वीटो कर सकता है।
(7) विशेष परिस्थितियों में राज्य सूची पर विधि निर्माण का अधिकार- राज्य सूची पर भी केन्द्र
को विधि निर्माण का अधिकार है। निम्न परिस्थितियों में भारतीय संसद राज्य सूची के
विषयों पर कानून बना सकती है-
संविधान का अनुच्छेद 249- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 249 के अनुसार यदि राज्य सभा
उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से यह प्रस्ताव पारित करे कि
राज्य सूची में उल्लिखित कोई विषय राष्ट्रीय महत्त्व का हो गया है तो उस पर एक
वर्ष के लिए कानून बनाने का अधिकार संसद को प्राप्त हो जाता है।
संविधान का अनुच्छेद 250- संविधान के अनुच्छेद 250 के अनुसार आपातकालीन परिस्थिति
में संसद राज्य सूची में दिये गये विषयों पर कानून बनाने का अधिकार रखती है।
आपातकाल की समाप्ति के बाद भी इस अधिकार के तहत बने कानून छह महीने तक वैध रहेंगे।
संविधान का अनुच्छेद 253- अनुच्छेद 253 के अनुसार संसद संपूर्ण भारत या उसके किसी
भाग के लिये अन्य देश या देशों के साथ हुई संधि, करार या समझौते या
अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों, परिषदों या संगठनों में किये गये निर्णयों को लागू करने के
लिये कानून बना सकती है।
संविधान का अनुच्छेद 356– संविधान के अनुच्छेद 356
के अनुसार राष्ट्रपति कभी किसी विशेष राज्य के शासन को अपने हाथ में ले लेता है तो
राज्य विधान मण्डल के अधिकार संसद को मिल जाते हैं।
व्यावहारिक पक्ष-
संविधान निर्माताओं ने केन्द्र को जितना अधिक
शक्तिशाली बनाया, बाद में केन्द्र ने अपनी शक्ति में और वृद्धि की है और
राज्य और कमजोर हुए हैं। इसे निम्नलिखित बिनदुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-
(1) राज्य सूची एवं समवर्ती सूची में केन्द्र के अधिकार क्षेत्र को बढ़ाया गया है-
पिछले 66 वर्षों के
शासनकाल में केन्द्र सरकार द्वारा राज्य सूची एवं समवर्ती सूची
में केन्द्र के अधिकार क्षेत्र को बढ़ाया गया है। उदाहरण के लिए, कृषि व उद्योग विषय राज्य
सूची में परिगणित हैं लेकिन इन क्षेत्रों में केन्द्र प्रवर्तित परियोजनाओं व
उद्योग विकास और नियमन कानून के द्वारा केन्द्र ने दखल दिया है।
(2) कतिपय राज्य सूची के विषयों पर केन्द्र द्वारा नियंत्रण-
पिछले चार दशकों में केन्द्र सरकार ने जिस तरह से राज्य सूची में वर्णित विषयों पर नियंत्रण कायम किया है, उससे संघात्मक ढाँचे को, व्यवहार में केन्द्र-प्रधान बना दिया है।
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