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राष्ट्रपति के पद की स्थिति एवं स्वरूप

राष्ट्रपति के पद की स्थिति एवं स्वरूप

भारतीय राष्ट्रपति की वास्तविक स्थिति का निर्धारण एक अत्यधिक विवादग्रस्त प्रश्न है। इस सम्बन्ध में प्रमुख रूप से दो धारणाओं का प्रतिपादन किया गया है-

(अ) स्वतन्त्र राष्ट्रपति की धारणा, और (ब) संवैधानिक प्रधान की धारणा, यथा-

(अ) स्वतन्त्र राष्ट्रपति की धारणा-

इस धारणा के प्रतिपादक विचारकों का कथन है कि संविधान के द्वारा राष्ट्रपति को अनुच्छेद 53 (i) तथा अनुच्छेद 74 (i) के अन्तर्गत जो शक्तियाँ प्रदान की गई हैं, व्यवहार में वह स्वयं अपने विवेक के आधार पर इन शक्तियों का प्रयोग कर सकता है। इन अनुच्छेदों के आधार पर अनेक मुख्य विचारकों, जैसे डॉ. बी.एम. शर्मा, डी.एन. बनर्जी, बी. एन. राव तथा डॉ. राजेन्द्र प्रसाद आदि का मत रहा कि संविधान में कोई ऐसी सुनिश्चित व्यवस्था नहीं है कि वह मन्त्रिपरिषद् के परामर्श के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य हो ही।

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राष्ट्रपति के पद की स्थिति एवं स्वरूप

इस मत के प्रतिपादक अपने पक्ष में संविधान के जिन विशेष तथ्यों की तरफ ध्यानांकित करते हैं, वे हैं-

(1) संविधान के लिखित प्रावधान,

(2) इस पद की निर्वाचन प्रकृति,

(3) भारत की संघात्मक व्यवस्था, और

(4) संविधान की सर्वोच्चता।

इन तथ्यों की अवहेलना नहीं की जा सकती और इनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में राष्ट्रपति की स्थिति वैसी नहीं है जैसी ब्रिटेन के सम्राट् की है तथा कुछ परिस्थितियों में संविधान के संघात्मक लक्षण को बनाए रखने के लिए राष्ट्रपति के द्वारा स्वविवेक के आधार पर कार्य किया जाना चाहिए।

सुब्बाराव का कथन है कि राष्ट्रपति केवल एक संवैधानिक प्रधान नहीं है। उस पर संविधान की व्यवस्थाओं को क्रियान्वित करने का विशेष भार है।"

इस बारे में वे अपने पक्ष के समर्थन में स्वतन्त्र राष्ट्रपति की धारणा के समर्थक निम्न तर्क प्रस्तुत करते हैं-

(i) वह किसी साधारण विधेयक को दुबारा विचार के लिए संसद के पास लौटा सकता है।

(ii) वह किसी मन्त्री के व्यक्तिगत निर्णय को फिर से विचार के लिए मन्त्रिपरिषद् के सामने रखवा सकता है।

(iii) यह आवश्यक नहीं है कि भारत में संसदीय परम्पराओं का विकास उसी दिशा में हो, जिस दिशा में इंग्लैण्ड में हुआ है, क्योंकि परम्पराओं का विकास उस देश की परिस्थितियों, संयोग, मानवीय तत्त्व तथा अन्य अनेक बातों पर निर्भर करता है।

(iv) ब्रिटिश सम्राट् और भारतीय राष्ट्रपति की स्थिति में अन्तर है। ब्रिटिश सम्राट् उत्तराधिकार के आधार पर अपना पद प्राप्त करता है, परन्तु राष्ट्रपति परोक्ष रूप से जनता का निर्वाचित प्रतिनिधि है।

(v) त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में प्रधानमन्त्री के चयन करने तथा लोकसभा को भंग करने की स्थिति में वह अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है।

(ब) संवैधानिक प्रधान की धारणा-

कुछ विद्वानों का यह मत है कि भारतीय राष्ट्रपति वास्तविक कार्यपालिका का अध्यक्ष न होकर संवैधानिक प्रधान है। इस सन्दर्भ में निम्न तर्क दिये गये हैं-

(i) भारत में संसदीय शासन प्रणाली है जिसमें वास्तविक कार्यकारी शक्तियाँ प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिमण्डल के हाथ में होती हैं। संविधान सभा में राष्ट्रपति की स्थिति को स्पष्ट करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि, "राष्ट्रपति की वही स्थिति होती है जो ब्रिटिश संविधान में सम्राट की है। वह राष्ट्र का प्रधान है कार्यपालिका का नहीं, वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, उसका शासन नहीं। वह साधारणतया मन्त्रियों के परामर्श को मानने के लिए बाध्य होगा, वह न तो उसके परामर्श के विरुद्ध कुछ कर सकता है न उसके परामर्श के बिना ही।"

(ii) संविधान में यह उपबन्धित है कि मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होगी। इसका तात्पर्य यह है कि मन्त्रिपरिषद् की अवधि लोकसभा के विश्वासपर्यन्त होगी, अत: राष्ट्रपति द्वारा मन्त्रिपरिषद् की नियुक्ति तथा उसकी कार्यावधि केवल एक औपचारिकता है।

(iii) अनुच्छेद-76 में विश्लेषण से ज्ञात होता है कि शासन कार्य के सम्बन्ध में सभी निर्णय मन्त्रियों द्वारा ही लिये जायेंगे तथा प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् के सभी निर्णयों की सूचना राष्ट्रपति को देगा।

(iv) अनुच्छेद 74 के अनुसार राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सहायता एवं परामर्श के बिना कार्य नहीं कर सकता।

अत: यह कहा जा सकता है कि सामान्यतः राष्ट्रपति एक संवैधानिक अध्यक्ष ही है और अत्यन्त विशेष परिस्थितियों में ही उनके द्वारा किन्हीं मामलों में अपने विवेक का प्रयोग किया जा सकता है।

राष्ट्रपति की पदावधि

संविधान के अनुच्छेद-56 के अनुसार राष्ट्रपति अपने पदग्रहण की तिथि से पाँच वर्ष की अवधि तक अपने पद पर बना रहता है। कार्यकाल पूर्ण होने पर वह तब तक अपने पद पर बना रहता है जब तक नवीन निर्वाचित राष्ट्रपति पद ग्रहण न करे। राष्ट्रपति का पद मृत्यु, त्याग पत्र या महाभियोग की प्रक्रिया के कारण समय से पूर्व रिक्त हो सकता है। इस आकस्मिक रिक्ति के दौरान उसकी अनुपस्थिति में उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति पद के कार्यों का निर्वहन करेगा और राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति दोनों के पद पर आकस्मिक रिक्ति होने पर भारत का मुख्य न्यायाधीश कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करेगा।

वेतन भत्ते एवं सुविधाएँ

राष्ट्रपति को निःशुल्क शासकीय निवास एवं अन्य ऐसी उपलब्धियाँ, भत्ते एवं विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं जो संसद की विधि द्वारा निर्धारित हैं। वर्तमान में राष्ट्रपति को पाँच लाख रुपये प्रतिमाह वेतन एवं अन्य भत्ते जो संसद द्वारा निर्धारित किये जाते हैं, प्राप्त होते हैं।

व्यवहार में राष्ट्रपति के पद की स्थिति को निर्धारित करने वाले तत्त्व

राष्ट्रपति के पद की स्थिति तथा स्वरूप निम्नलिखित बातों पर निर्भर करता है-

(1) लोकसभा की दलीय स्थिति-

यदि लोकसभा में किसी एक दल को भारी बहुमत प्राप्त है तो ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति की भूमिका एक संवैधानिक अध्यक्ष की ही रहेगी, परन्तु यदि किसी एक दल को सीमित बहुमत प्राप्त होता है या स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं है तो राष्ट्रपति को ऐसे अवसर मिल सकते हैं जिनमें वह अपने विवेक का प्रयोग कर सके। यदि किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ तो यह राष्ट्रपति के विवेक पर निर्भर करता है कि वह मिले-जुले दलों के नेता को प्रधानमन्त्री बनाये या उस दल के नेता को प्रधानमन्त्री पद के लिए आमन्त्रित करे जिसे लोकसभा में सर्वाधिक स्थान प्राप्त हुए हैं। यदि केन्द्र में मिली-जुली सरकार अस्तित्व में है तो राष्ट्रपति की महत्ता बढ़ जाती है। लोकसभा में किसी एक दल का स्पष्ट बहुमत न होने की दशा में मिली-जुली सरकारों का गठन होता है। मिली-जुली सरकारों में जब कोई सरकार को समर्थन देने वाला दल अपना समर्थन वापस ले लेता है, तो ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति के पद का महत्त्व बढ़ जाता है।

(2) शासक दल द्वारा भ्रष्ट तरीकों को अपनाया जाना-

यदि शासक दल भ्रष्ट तरीके अपनाना आरम्भ कर दे तो राष्ट्रपति को अपने विवेक का प्रयोग करने का अवसर मिल सकता है, क्योंकि इस प्रकार की स्थिति में शासक दल की प्रतिष्ठा धूमिल पड़ जाती है। यद्यपि भारत में इस प्रकार की स्थिति अभी तक नहीं आ पाई है परन्तु राज्यों में अवश्य आ चुकी है। हरियाणा में राव वीरेन्द्र सिंह ने इस प्रकार के तरीके अपनाये थे जिन्हें भ्रष्ट कहा जा सकता है। फलस्वरूप राज्यपाल ने विधानसभा को भंग कर दिया। यदि राज्यपाल चाहते तो राव वीरेन्द्र सिंह कुछ और समय तक मुख्यमन्त्री रह सकते थे।

(3) राष्ट्रपति की शक्ति पर संवैधानिक बन्धन-

संविधान के अनुच्छेद 53 के अनुसार 'संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित' है। परन्तु वह अपने इन कार्यपालिका कृत्यों को करने में संविधान तथा कार्यपालिका की सलाह पर निर्भर है। राष्ट्रपति की इस शक्ति पर संविधान द्वारा निम्न सीमाएँ लगायी गयी हैं-

(i) अनुच्छेद 53 (क) के अनुसार राष्ट्रपति को इन शक्तियों का प्रयोग संविधान के अनुसार करना चाहिए।

(ii) अनुच्छेद 75 (1) स्पष्ट रूप से यह अपेक्षा करता है कि राष्ट्रपति मन्त्रियों को प्रधानमन्त्री की सलाह पर ही नियुक्त कर सकेगा। यदि राष्ट्रपति किसी ऐसे व्यक्ति को मन्त्री नियुक्त करता है जिसका नाम प्रधानमन्त्री द्वारा दी गई सूची में नहीं है तो यह संविधान का उल्लंघन होगा। यदि राष्ट्रपति संविधान के किसी उपबन्ध का उल्लंघन करता है तो उसे महाभियोग की प्रक्रिया द्वारा हटाया जा सकेगा।

(iii) 42वाँ और 44वाँ संशोधन भारतीय सविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार राष्ट्रपति को सहायता एवं सलाह देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी जिसका प्रधान, प्रधानमन्त्री होगा और राष्ट्रपति अपने कार्यों का सम्पादन इसकी सलाह के अनुसार ही करेगा।

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