भारतीय संघीय व्यवस्था की प्रकृति
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-1 में भारत को राज्यों का संघ कहा गया है जिसमें एक ऐसी द्वैध शासन प्रणाली की स्थापना की गई है, जिसमें केन्द्र में संघ सरकार तथा उसके चारों ओर परिधि में राज्य सरकारें हैं।
प्रो.
एलेक्जेन्ड्रोविच के अनुसार, "भारतीय संघ ऐसा संघ है जिसमें केन्द्र तथा राज्य
सरकार सम्प्रभुता शक्ति में साझीदार होती हैं।"
भारतीय संघवाद अपने में
विलक्षण है जिसमें संविधान की सर्वोच्चता और अचलता, शक्तियों का विभाजन, स्वतन्त्र तथा
सर्वोच्च न्यायपालिका, विधायिका के उच्च सदन में राज्यों का समान प्रतिनिधित्व और
संविधान संशोधन में राज्यों के समान महत्त्व आदि संघवाद के कठोर ढाँचे में
नहीं रखकर, इसे इनके लचीले ढाँचे में रखा गया है।
भारतीय संघीय व्यवस्था |
भारतीय संघवाद की प्रकृति का विवेचन
निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-
1. भारतीय संघवाद राज्यों
का संघ' है—
भारतीय संविधान एक संघात्मक व्यवस्था की
स्थापना करता है, लेकिन संयमान में कहीं भी 'संघ राज्य'
(Federation) शब्द का प्रयोग नहीं
किया गया है, वरन् उसके स्थान पर 'राज्यों के संघ' (Union of States) शब्द का प्रयोग किया गया है। संविधान के
प्रथम अनुच्छेद में स्पष्ट कहा गया है कि "भारत राज्यों का एक संघ
होगा।" इसका अर्थ यह है कि भारत एक संघ राज्य है, लेकिन यह संघ किसी
प्रकार के पारस्परिक समझौतों का परिणाम नहीं है, इसलिए इसके किसी भी राज्य
को संघ से अलग होने का अधिकार नहीं है। वर्तमान में भारतीय संघ में 28 राज्य और 9
संघीय क्षेत्र हैं।
2. संघात्मक व्यवस्था की
प्रकृति निरन्तर विकासशील है-
संघात्मक व्यवस्था कोई स्थिर
व्यवस्था नहीं है, वरन् यह निरन्तर विकासशील व्यवस्था है। 19वीं सदी के अन्तिम
वर्षों तथा 20वों सदी के प्रारम्भ में संघात्मक व्यवस्था की अवधारणा में दो
दिशाओं में परिवर्तन आया।
प्रथमत- आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक
परिस्थितियों के परिणामस्वरूप संघात्मक व्यवस्था में केन्द्रीय सरकार का पक्ष
प्रबल हो गया और इस विचार को स्वीकार कर लिया गया कि इकाइयों की सरकारों की तुलना
में केन्द्र सरकार का अधिक शक्तिशाली होना नितान्त स्वाभाविक है।
द्वितीयत- यह विचार विकसित हुआ कि केन्द्रीय सरकार तथा इकाइयों की
सरकारें परस्पर पूरक तथा सहयोगी हैं।
3. भारतीय संघात्मक
व्यवस्था के मॉडल-
1947-49 के काल में
जब भारतीय संविधान का निर्माण हो रहा था, तब संघात्मक
व्यवस्था के तीन मॉडल विकसित हो रहे थे- (1) सहयोगी संघवाद (1)
एकात्मवादी संघवाद, तथा (11) सौदेबाजी वाली संघीय व्यवस्था।
भारतीय संविधान सभा
द्वारा संघात्मक व्यवस्था के पहले दो रूपों 'सहयोगी संघवाद' और 'एकात्मवादी संघवाद' को अपनाया गया है। इस प्रकार भारतीय संघवाद का स्वरूप
सहयोगी संघवाद तथा एकात्मवादी संघवाद का मिला-जुला रूप है, यथा-
(1) सहयोगी
संघवाद-
"सहयोगी
संघवाद से आशय उस व्यवस्था से है जिसमें सामान्य और क्षेत्रीय सरकारों में
सहयोग का चलन हो, क्षेत्रीय सरकारें आंशिक रूप से केन्द्र सरकार से प्राप्त
होने वाले अनुदानों पर निर्भर हों और केन्द्र सरकार सशर्त अनुदानों के आधार पर उन
विषयों में विकास को प्रोत्साहन करती हो, जो संविधान द्वारा
क्षेत्रीय सरकारों को प्रदान किये गए हों।"
ग्रेनविल आस्टिन ने लिखा है कि भारतीय
संघवाद में कुछ अपवादों को छोड़कर सहयोगी संघवाद के उपर्युक्त सभी लक्षण विद्यमान
हैं। भारत में सहयोगी संघवाद की स्थापना करने वाली मुख्य संस्थाएँ हैं- (1) योजना आयोग (2)
राष्ट्रीय विकास परिषद् (3) वित्त आयोग (4) अन्तर्राज्य परिषद् (5) अखिल भारतीय
सेवाएँ (6) चुनाव आयोग (7) नियन्त्रक और महालेखा परीक्षक (8) क्षेत्रीय परिषदें
(9) विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (10) प्रतिवर्ष राज्यपाल, मुख्यमन्त्री सम्मेलन, वित्तमन्त्री
सम्मेलन, गृहमन्त्री एवं विधि मन्त्री सम्मेलन आदि। ये सभी संस्थाएँ
एवं सम्मेलन सहयोगी संघवाद की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य करती हैं।
(2) एकात्मवादी संघवाद-
भारत में एकात्मवादी
संघवाद को भी अपनाया गया है। एकात्मवादी संविधान के लक्षण भारतीय
संविधान अन्तरंग में भी उपस्थित हैं तथा बहिरंग में भी। संविधान के
अन्तर्गत एकात्मक संघवाद के तत्त्व ये हैं—
(1) शक्तियों का बँटवारा केन्द्र के पक्ष में,
(2) संघ एवं राज्यों के लिए एक ही संविधान,
(3) इकहरी नागरिकता,
(4) केन्द्र सरकार राज्यों के नाम व सीमाओं के परिवर्तन में
समर्थ,
(5) एकीकृत न्याय व्यवस्था,
(6) कानून, लेखा-परीक्षा और चुनाव
व्यवस्था के सम्बन्ध में एकरूपता
(7) आर्थिक रूप से
राज्यों की दुर्बल स्थिति,
(8) राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा, तथा
(9) संकटकालीन
प्रावधान।
बहिरंग अर्थात् व्यवहार
में भी अनेक तत्त्वों ने एकात्मवादी संघवाद को बढ़ावा दिया है।
इनमें मुख्य ये हैं- (1) प्रधानमन्त्री (पं. नेहरू और श्रीमती गाँधी) का चमत्कारी
व्यक्तित्व, (2) एकदलीय प्रभुत्व, (3) योजना आयोग, तथा (4) राष्ट्रीय
विकास परिषद्।
(3) सौदेबाजी पर आधारित संघवाद-
11वीं, 12वीं, 13वीं, 14वीं तथा 15वीं लोकसभा
चुनावों के बाद केन्द्र में किसी एक दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं
मिला और मिली-जुली सरकारों का गठन हुआ। इस अवधि में क्षेत्रीय दलों और क्षेत्रवादी
प्रवृत्तियों की शक्ति में भारी वृद्धि हुई और राज्य स्तर पर विभिन्न राज्यों में
अलग-अलग राजनीतिक दलों की सरकारें गठित हुईं। क्षेत्रीय शक्तियों ने केन्द्रीय
सरकार पर दबाव डालने की चेष्टाएँ कीं। इन परिस्थितियों ने सौदेबाजी पर आधारित संघीय
व्यवस्था को जन्म दिया। परन्तु सहयोगी संघवाद तथा एकात्मवादी संघवाद
का समन्वय ही भारत की परिस्थितियों के अनुकूल है। भारतीय संघवाद सौदेबाजी पर आधारित
एक सहकारी या सहयोगी संघवाद है।
सहकारी या सहयोगी संघवाद
एच.एच. विर्च ने अपनी पुस्तक 'Federalism, Finance and Social Legislations' नामक पुस्तक में संघवाद के एक सहकारी संघ
के रूप को चित्रित करते हुए कहा है कि-
"प्रधान और
क्षेत्रीय सरकारों के बीच सहयोग की प्रक्रिया क्षेत्रीय सरकारों की प्रधान सरकारों
द्वारा भुगतान पर आंशिक निर्भरता तथा इस तथ्य द्वारा होता है कि प्रधान सरकारें
सशर्त अनुदानों के जरिये बहुधा उन मामलों में गतिविधियों को प्रोत्साहित करती हैं
जो क्षेत्रों के संविधान के अन्तर्गत सौंपे गये हैं।"
मैरिस जोन्स ने अपनी पुस्तक "The Government and Politics of India" में और कार्ल जे. फ्रेडरिक (CarlJ. Friederich) ने अपनी पुस्तक 'Trends
of Federalism in Theory and Practice' में भारतीय संघवाद के सम्बन्ध में कहा है कि भारत
में सहयोगपूर्ण के पीछे स्वतन्त्रता और परस्पर निर्भरता का द्वन्द्वात्मक
सिद्धान्त काम कर रहा है।
फ्रेडरिक के शब्दों में, "भारत के सहकारी संघवाद ने एकीकरण तथा विभेदीकरण दोनों ही दिशाओं में
कार्य किया है।" इस सहकारी संघवाद के स्वरूप को निम्नलिखित बिन्दुओं के
अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-
सहकारी संघवाद से
आशय-
सहकारी संघवाद एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें
केन्द्रीय सरकार यद्यपि शक्तिशाली होती है, किन्तु राज्य सरकारें भी
अपने-अपने क्षेत्र में कमजोर नहीं होती हैं। सहकारी संघवाद का प्रमुख लक्षण
है कि दोनों प्रकार की सरकारें एक-दूसरे की पूरक तथा एक-दूसरे पर निर्भर होती हैं।
राष्ट्रीय और राज्य सरकारें शासन की एक व्यवस्था के स्वैच्छिक परिपूरक अंग समझी
जाती हैं जिनकी शक्तियों का प्रयोग सम्पूर्ण राज्य के सामान्य उद्देश्यों को
प्राप्त करना होता है।
इस प्रकार सहकारी
संघवाद में केन्द्र तथा राज्य कानूनी रूप से एक-दूसरे से संघर्ष में न उलझकर
अपने को जनता की सेवा करने वाली संस्थायें मानते हैं।
सहकारी (सहयोगी)
संघवाद की विशेषताएँ-
सहकारी (सहयोगी)
संघवाद की प्रमुख
विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) सहयोगी संघ में संघ
व इकाइयों (राज्यों) की सरकारें अपने-अपने क्षेत्र में स्वायत्त होते हुए भी
पारस्परिक सहयोग तथा समझ पर निर्भर करती हैं। यहाँ परस्पर प्रतिद्वन्द्विता के
स्थान पर सहयोग और समन्वय पर बल दिया जाता है।
(2) इसमें संघीय सरकारें
इकाइयों (राज्यों) की अपेक्षा संवैधानिक तौर पर अधिक शक्तिशाली होती हैं। विशेष
परिस्थितियों में संघीय सरकार की स्थिति प्रधान और निर्णयात्मक होती है।
(3) सहयोगी संघ में संघ
और इकाइयों के वित्तीय स्रोत पृथक्-पृथक् होते हुए भी इकाइयों की विकासवादी
योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए संघीय अनुदानों की व्यवस्था होती है।
(4) सहयोगी संघ में
सामाजिक और आर्थिक नियोजन पर संघीय सरकार का नियनण होता है।
(5) इसमें परस्पर
विवादों का निपटारा करने के लिए गोष्ठियों, सम्मेलनों, अन्तर-राज्य परिषदों
तथा क्षेत्रीय परिषदों का सहारा लिया जाता है। कुछ परिस्थितियों में विवादों को निपटाने
की शक्ति संघीय सरकार को ही सौंप दी जाती है ताकि मुकदमेबाजी को बढ़ावा न मिले।
उदाहरण के लिए, भारत में नदियों के जल से उत्पन्न होने वाले विवादों का
निपटारा संसद कानून द्वारा कर सकती है। राष्ट्रपति चाहे तो ऐसे विवादों पर उच्चतम
न्यायालय से परामर्श ले सकता है।
सहयोगी संघ की
संस्थाएँ–
सहयोगी संघ की मुख्य
संस्थाएँ हैं- (i) योजना आयोग, (i) क्षेत्रीय परिषदें, (ii) अन्तर्राज्य परिषद्, (iv) आपातकालीन सेवायें, (v) वित्त आयोग तथा (vi) न्यायिक संस्थाएँ।
भारतीय सहयोगी
संघवाद का व्यावहारिक स्वरूप-
भारतीय सहयोगी
संघवाद के व्यावहारिक
स्वरूप का विवेचन इस प्रकार है-
1.
राज्यों के एकीकरण और पुनर्गठन की प्रक्रिया-
भारतीय संघ का निर्माण किसी सन्धि
के कारण नहीं हुआ, जैसा कि अमेरिकी संघ का निर्माण हुआ; बल्कि इसका निर्माण
दो प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप हुआ है। ये हैं-
(1) ब्रिटिश प्रान्तों के सत्ता अधिकार का विस्तार तथा उसमें
प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण की सुविधा,
(2) स्वतन्त्रता के बाद देशी रियासतों को भारतीय संघ में
स्वेच्छा या बलपूर्वक मिलाना।
इस एकीकरण के
बाद पहले संविधान में राज्यों को तीन श्रेणियों में बाँटकर उनका गठन किया गया तथा
1956 में पुनः संविधान संशोधन कर भाषायी आधार पर राज्यों का
पुनर्गठन किया गया। परन्तु पुनर्गठन की यह प्रक्रिया अभी समाप्त नहीं हुई है, आज भी नये राज्यों
की माँग लगातार सुनाई पड़ रही है। इस पुनर्गठन की प्रक्रिया में सबसे पहले
आन्ध्रप्रदेश राज्य का निर्माण हुआ। इसके पश्चात् राज्यों के पुनर्गठन की
प्रक्रिया निरन्तर चलती रही। इसी के परिणामस्वरूप सन् 2000 में तीन राज्यों
उत्तरांचल (उत्तराखण्ड), झारखण्ड और छत्तीसगढ़ का निर्माण हुआ। 1 जून, 2014 को पृथक् तेलंगाना
राज्य का गठन किया गया।
2.
सत्ताधिकारों का विभाजन तथा भारतीय संघवाद-
भारत में सत्ताधिकारों का
विभाजन तीन क्षेत्रों में हुआ है- विधायी, प्रशासनिक एवं वित्तीय।
(1) विधायी सम्बन्ध–
विधायी शक्तियों का तीन
सूचियों द्वारा बँटवारा किया गया- संघीय, समवर्ती तथा राज्य। अवशिष्ट
विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्र को है, संकटकाल में तथा राज्य के
चाहने पर संघ राज्य के विषयों पर भी कानून बना सकता है। इस विभाजन से स्पष्ट लगता
है कि विभाजन का झुकाव केन्द्र की ओर है। परन्तु इस विभाजन को व्यवहार में देखने
से केद्र की श्रेष्ठता स्पष्ट नहीं होती है। नवम्बर, 1988 में एक संविधान संशोधन
द्वारा खेल को भी राज्य सूची से निकालकर समवर्ती सूची में परिवर्तित कर दिया गया
है, किन्तु व्यवहार में—इससे केन्द्र का राज्यों के
साथ संघर्ष प्रारम्भ हो गया। केरल में लम्बे समय तक वेतन आयोग द्वारा सुझाए गए
वेतनमानों को कॉलेज-शिक्षकों पर कार्यान्वित नहीं किया। मध्यप्रदेश ने उसे संशोधित
कर दिया। संघ और राज्य के मध्य शिक्षा-माध्यम को लेकर आज भी विवाद चल रहा है। अतः
स्पष्ट होता है कि संघीय व्यवस्था के सही रूप में काम करने के लिए दोनों प्रकार की
सरकारों का परस्पर सहयोग आवश्यक है।
(2) प्रशासनिक सम्बन्ध–
प्रशासनिक दृष्टि से केन्द्र को
राज्यों को आवश्यक निर्देश देने का कार्यकारी अधिकार है। राष्ट्रीय महत्त्व के
किसी भी विषय के प्रशासन की दृष्टि से केन्द्र राज्य को निर्देश दे सकता है। इन
निर्देशों के व्यावहारिक स्वरूप को देखें तो भारतीय संघ एक सहयोगी संघ' के स्वरूप में ही
चित्रित होता लगता है। उदाहरण के लिए, रेलवे संघीय विषय है, परन्तु उसकी सुरक्षा
के लिए राज्यों का सहयोग आवश्यक है। वर्तमान में जैसे-जैसे एक-दलीय वर्चस्व की
स्थिति समाप्त होती जा रही है, प्रशासनिक सहयोगी संघवाद
पुष्ट होता जा रहा है। दूसरे, केन्द्र पूरी तरह से राज्य
के मुख्यमन्त्रियों की उपेक्षा नहीं कर सकता।
(3) वित्तीय सम्बन्ध–
भारत में वित्तीय
अधिकारों का विभाजन परम्परागत संघों के विभाजन के अनुरूप नहीं है, बल्कि विभाजन ए.एच.
बर्च द्वारा दिए गए सहयोगी संघवाद के विवरण का मूर्त रूप है। भारतीय संविधान
संघ के वित्तीय अधिकारों, विशेषकर सहायता और अनुदान का प्रावधान करता है, ऋण लेने तथा वित्त
आयोग के सम्बन्ध में व्यवस्था करता है।
संविधान में कराधान के अवशिष्ट
अधिकार केन्द्र को प्रदान कर दिए गए हैं। एक वित्त आयोग की स्थापना का प्रावधान कर
यह कहा गया है कि इसका काम राजस्वों के वितरण के प्रश्न पर विचार करना होगा।
केन्द्र तथा राज्यों के अधिकारों को स्पष्ट रूप से अलग-अलग रखा गया है। यथा-
(अ) वित्त आयोग और सहयोगी संघवाद- यदि सत्ताधारियों के विभाजन के वित्तीय पक्ष का
मूल्यांकन करें तो स्पष्ट होता है कि संसाधनों के मामलों में केन्द्रीय स्थिति
सुदृढ़ है। राज्य केन्द्र पर पूरी तरह निर्भर है। इस निर्भरता को वित्त आयोग ने कम
करने का प्रयास किया है, परन्तु वह इस निर्भरता को पूर्णतः समाप्त नहीं कर पाया है।
वित्त आयोग की सिफारिशें प्रायः औचित्य के सिद्धान्त पर आधारित रही हैं। इस प्रकार
स्पष्ट है कि वित्त आयोग की सिफारिशों का उद्देशय सहयोगी संघ की दिशा में राज्यों
की निर्भरता को कम करना था।
(ब) क्षेत्रीय परिषदों तथा सहयोगी संघवाद- क्षेत्रीय परिषदों की स्थापना 1956 में राज्यों
के पुनर्गठन के बाद की गई। इनकी स्थापना का उद्देश्य पड़ोसी राज्यों या
इकाइयों में सहयोग की भावना का विकास करना था। क्षेत्रीय परिषदों में सामान्य हित
के विषयों पर विचार-विमर्श कर भिन्न-भिन्न विचारों में समन्वय स्थापित कर समझौते
किये जाते हैं ताकि क्षेत्र की सामाजिक-आर्थिक विकास की योजनाओं में एक-दूसरे का
सहयोग प्राप्त हो सके। इसके अलावा ये परिषदे क्षेत्र में शामिल राज्यों में
सामूहिक चिन्तन की आदत पैदा करती हैं, उनमें अनावश्यक
प्रतिद्वन्द्विता या विवादों को समाप्त करती हैं और राज्यों की विधायी और
कार्यपालिका शक्तियों पर प्रहार किये बिना क्षेत्र के मानवीय और भौतिक साधनों के
समुचित विकास पर बल देती हैं।
(स) अन्तर्राज्य परिषद् की स्थापना- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 263 में एक 'अन्तर्राज्य परिषद्' की स्थापना का प्रावधान किया गया है। राजमन्नार आयोग, प्रशासनिक सुधार आयोग और सरकारिया आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस सिफारिश पर बल दिया कि अन्तर्राज्य परिषद् की स्थापना की जानी चाहिए। परन्तु व्यवहार में 1990 तक इसकी स्थापना नहीं की गई। पहली बार 1990 में एक अन्तर्राज्य परिषद् की स्थापना की गई। इसमें यह प्रावधान किया गया है कि “इस परिषद् के अध्यक्ष प्रधानमन्त्री होंगे तथा छः संघीय केबिनेट मन्त्री तथा राज्यों के मुख्यमन्त्री इसके सदस्य होंगे। परिषद् के एक सचिवालय की स्थापना भी की गई है जो इसकी बैठकों के लिए कार्यक्रम तय करेगा तथा रिकॉर्ड रखेगा। परिषद् की प्रतिवर्ष तीन नियमित बैठकें होंगी तथा विचारार्थ विषयों पर आम सहमति के आधार पर निर्णय लिये जायेंगे।" परन्तु व्यवहार में अभी यह परिषद् अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा पाई है।
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