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इतिहास लेखन की अवधारणा : ई. एच. कार

इतिहास लेखन के बारे में ई. एच. कार के विचार

ई. एच. कार का संक्षिप्त परिचय-

ई. एच. कार का जन्म सन् 1892 ई. में हुआ था। मर्चेण्ट टेलर्स स्कूल, लन्दन एवं ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज में शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे 1916 से 1936 ई. तक ब्रिटिश विदेश विभाग से सम्बद्ध रहे। 1936 में विदेश-विभाग से त्याग पत्र देकर यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ वेल्स, एबेरी स्वाइट्ज के अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति विभाग में 'विल्सन प्रोफेसर' का पद ग्रहण किया। 1941 से 1946 तक वे 'दि टाइम्स' के सह-सम्पादक रहे।

ई. एच. कार ने अनेक पुस्तकों की रचना की जिनमें 'हिस्ट्री ऑफ सोवियत एशिया', इन्टरनेशनल रिलेशन बिट्वीन टू वर्ल्ड वार' तथा 'ह्वाट इज हिस्ट्री' (इतिहास क्या है) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इतिहास-दर्शन के क्षेत्र में 'इतिहास क्या है' नामक पुस्तक का विशेष महत्त्व है।

ई. एच. कार की इतिहास सम्बन्धी अवधारणा

ई. एच. कार की इतिहास सम्बन्धी अवधारणा की विवेचना निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत की जा सकती है-

1. क्रिया-प्रतिक्रिया की अनवरत प्रक्रिया-

ई.एच. कार ने उचित ही लिखा है कि "इतिहास, इतिहासकार तथा उसके तथ्यों के बीच क्रिया-प्रतिक्रिया की एक अनवरत प्रक्रिया है तथा वर्तमान और अतीत के बीच एक अन्तहीन संवाद है।" इस प्रकार इतिहास को अतीत तथा वर्तमान के बीच अनवरत परिसंवाद कहा गया है। परन्तु यह एकाकी व्यक्तियों के बीच संवाद नहीं, अपितु अतीतकालिक तथा वर्तमानकालिक समाज के बीच संवाद है। इतिहास अतीत और वर्तमतान को जोड़ने वाला एक सेतु है। इतिहासकार इस सेतु का डाट एवं प्रकाश स्तम्भ है जो इस सेतु के माध्यम से समसामयिक समाज को अतीत के उन तथ्यों की जानकारी देता है जो वर्तमान को प्रकाशित तथा नियन्त्रित कर सके और सुखद भविष्य के निर्माण में सहायक होकर मार्गदर्शन कर सके।

2. इतिहास में मापदण्ड का निर्माण अनैतिहासिक-

ई.एच. कार के अनुसार इतिहास में मापदण्ड का निर्माण अनैतिहासिक होता है। इतिहास कम अथवा अधिक संयोगों का एक अध्याय है, किन्तु इतिहास में संयोग के लिए विचार ही मुख्य नहीं होता है। कार के अनुसार संयोग के महत्त्व को मान्यता देने का तात्पर्य इतिहासकार के मस्तिष्क का दिवालियापन है। इसीलिए वे मानते हैं कि अतीत की घटनाओं को क्रमबद्धता देना तथा कारण और परिणाम के पारस्परिक सम्बन्धों को क्रम से प्रस्तुत करना ही इतिहास है।

कार के अनुसार इतिहास का अर्थ उसकी व्याख्या है। उन्होंने लिखा है कि "इतिहास वह है जो मूल्यों के इतिहासाश्रित चरित्र को जानता है, न कि वह जो अपने मूल्यों के लिए इतिहासातीत वस्तुवादिता का दावा करती है।"

उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि इतिहास को दुर्घटनाओं का एक अध्याय कहकर इतिहासकार अपने को आलसी तथा अक्षम स्वीकार करता है। वस्तुतः इतिहास में दुर्घटना या संयोग की समस्या का समाधान कारणों की खोज में होना चाहिए। कार उदाहरण देते हुए बतलाते हैं कि स्टालिन के साथ संघर्ष में ट्राटस्की का बतखों के शिकार के समय ज्वरग्रस्त होकर निष्क्रिय हो जाना संयोग की बात नहीं थी। किसी क्रान्ति अथवा युद्ध का अनुमान पहले से लगाया जा सकता है, परन्तु शरद् ऋतु में जंगली बतखों के शिकार के परिणाम का अनुमान कठिन प्रतीत होता है।

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इतिहास लेखन की अवधारणा : ई. एच. कार

अतएव इतिहास को वर्तमान और अतीत के मध्य परिसंवाद मानना उचित है, क्योंकि वर्तमान समय को हम भूतकाल के ज्ञान के आधार पर ही ठीक प्रकार के समझ सकते हैं। इस आधार पर हमें इतिहास का दोमुखी कार्य यों प्राप्त होता है- प्रथम तो यह कि मनुष्य को भूतकाल के समाज को समझने में सहायता देना तथा दूसरा उसकी वर्तमान समाज के निर्माण की शक्ति में वृद्धि करना।

3. ऐतिहासिक तथ्य तथा इतिहासकार-

कार के अनुसार इतिहास में दो बातें मुख्य रूप से दिखाई पड़ते हैं- (1) ऐतिहासिक तथ्य तथा (2) इतिहासकार। इतिहास के निर्माण में इन दोनों की ही मुख्यतः प्रभावी भूमिका होती है। कार के अनुसार ऐतिहासिक तथ्य पुस्तकों, पाण्डुलिपियों, अभिलेखों एवं शिलालेखों में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। ऐतिहासिक तथ्य एक प्रकार का अनुमान होता है। इस प्रकार ऐतिहासिक तथ्य एक प्रतीक है जो वर्तमान में इतिहासकार के मस्तिष्क में रहता है। वस्तुत: तथ्य की तुलना में महत्त्वपूर्ण स्थान इतिहासकार का ही होता है। वैसे तो दोनों ही एक-दूसरे के लिए आवश्यक होते हैं। कार के अनुसार तथ्यों का वर्णन यथावत् होना चाहिए, अर्थात् उनका स्वरूप उपदेशात्मक नहीं होना चाहिए।

तथ्य दो प्रकार के होते हैं कठोर तथा कोमल। इतिहासकार कठोर तथ्यों को नहीं बदल सकते, परन्तु कोमल तथ्यों को बदल सकते हैं। इसी विशेषता के कारण कोमल तथ्यों को इतिहासकार का व्याख्यात्मक वर्णन भी कहते हैं। कार ने लिखा है कि "तथ्य स्वयं नहीं बोलते, अपितु इतिहासकार उन्हें बुलवाता है।" इसमें इतिहासकार की व्यक्तिगत इच्छा मुख्य स्थान रखती है जिससे इतिहास-लेखन में पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण एवं द्वेष-भावना का आ जाना स्वाभाविक होता है। इसीलिए ई.एच. कार ने लिखा है कि "तथ्य इतिहास के नहीं, अपितु इतिहासकार के कच्चे माल होते हैं" सी.पी. स्काट के हवाले से कार ने तथ्य को पवित्र माना है परन्तु मन्तव्य को स्वतन्त्र कहा है। दूसरे शब्दों में, ऐतिहासिक तथ्य वस्तुनिष्ठा तथा इतिहासकार की व्याख्या से सर्वथा भिन्न होते हैं।

कार के अनुसार सभी तथ्य ऐतिहासिक तथ्य नहीं होते, अपितु इतिहासकार जिन तथ्यों को स्वीकार करे, उन्हें ही ऐतिहासिक तथ्य कहा जाता है। कार के अनुसार जब कभी महान् व्यक्ति या इतिहासकार छोटी घटना का उल्लेख कर देता है, तो वह ऐतिहासिक तथ्य बन जाता है। भूतकालीन घटना के परिकल्पनात्मक पुनर्निर्माण के लिए ऐतिहासिक तथ्य इतिहासकार के उपादान होते हैं। ऐतिहासिक तथ्यों का इतिहासकार चयन करता है और उनके आधार पर परिकल्पनात्मक पुनर्निर्माण करता है। उसकी रुचि समसामयिक समाज की रुचि होती है। कार ने लिखा है कि ऐतिहासिक तथ्य मछली बेचने वाले की पट्टी पर विभिन्न प्रकार की मछलियों की भाँति होते हैं। इतिहासकार अपनी रुचि के अनुसार मछली खरीदकर घर ले जाता है और अपनी इच्छानुसार उसे पकाकर रसास्वादन करता है। किन्तु अच्छा यही होता है कि महत्त्वपूर्ण तथ्यों को ऐतिहासिक तथ्यों में बदलकर के महत्त्वहीन तथ्यों को, अनैतिहासिक सिद्ध करके उनकी व्याख्या की जाए। इसे इतिहासकार का 'विस्मरण' नामक गुण माना गया है।

ई.एच. कार के अनुसार तथ्यों की पहले जाँच करके फिर उनका परिणाम निकालना चाहिए क्योंकि तथ्य रूपी गुठली से ज्यादा महत्त्वपूर्ण भाग बाहरी गूदा होता है। सामान्यीकरण सिद्धान्त के आधार पर आवश्यक तथ्यों का चयन तथा अनावश्यक तथ्यों का त्याग कर देना चाहिए। कार महोदय अधिकाधिक, सम्पूर्ण और अपूर्ण तथ्यों को स्वीकार नहीं करते। उनका कहना है कि यदि इतिहासकार में एक कलाकार की तरह तथ्यों का चयन कर पाने का गुण नहीं है, तो उसे कभी सफल इतिहासकार नहीं कहा जा सकता। ये तथ्य ऐतिहासिक साक्ष्य भी कहे जाते हैं। इतिहासकार साक्ष्यों का अन्वेषण नहीं, अपितु खोज करता है। कार के अनुसार सभी तथ्य ऐतिहासिक अध्ययन के आधार हैं, परन्तु कुछ तथ्यों पर अत्यधिक विश्वास करने वाले व्यक्ति विवेकहीनतावश तथ्यों के उपासक होते हैं । वे प्रायः भूल जाते हैं कि व्याख्या के अभाव में तथ्य अनुपयोगी तथा नीरस हैं।

इतिहासकार ऐतिहासिक तथ्यों से सदैव जुड़ा होता है। दोनों का सम्बन्ध समानता तथा आदान-प्रदानात्मक होता है। इतिहासकार न तो अपने ऐतिहासिक तथ्यों के अधीन है और न ही निरंकुश स्वामी। किन्तु इतिहासकार स्वयं में काफी महत्त्वपूर्ण होता है। उसके अतिरिक्त अन्य कोई भी इतिहास का अनुभव पुनर्निर्माण नहीं कर सकता। वह सामान्यीकरण सिद्धान्त के अनुरूप कार्य करता हुआ प्रसिद्धि प्राप्त करता है। इसी कारण कार ने इतिहास को सामान्यीकरण सिद्धान्त से भिन्न बताना मूर्खतापूर्ण एवं उपहासास्पद माना है, क्योंकि इतिहास सामान्यीकरण सिद्धान्त पर ही आधारित और विकसित होता है। किन्तु अन्यत्र वे यह भी स्वीकार करते हैं कि इतिहास का सम्बन्ध सामान्य के साथ-साथ विशेष से भी होता है।

इतिहासकार के विषय में कार यह भी कहते हैं कि अतीत का अध्ययन करने के कारण उसे भविष्यवक्ता नहीं कह सकते, क्योंकि वह वर्तमान पर प्रकाश डालते हुए भविष्यवाणी नहीं कर सकता। किन्तु तथ्यों की वह जो व्याख्या करता है, उसका महत्त्व अवश्य होता है, क्योंकि इतिहास में तथ्य प्रधान नहीं होता, अपितु उसकी व्याख्या प्रधान होती है। इसी आधार पर कार कहते हैं कि इसका अर्थ उसकी व्याख्या है।

इतिहासकार की ऐतिहासिक व्याख्या में अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का समावेश होता है। कार के अनुसार हीगेल ने भी इतिहास की व्याख्यात्मक प्रक्रिया का विकास वर्तमान में ही देखा था उसके लिए भविष्य का कोई महत्त्व नहीं था। किन्तु रदरफोर्ड के विषय में सर चार्ल्स स्नो का कथन उद्धृत करते हुए कार लिखते हैं कि इतिहासकारों की अस्थियों में भविष्य समाहित होता है, जैसाकि सभी वैज्ञानिकों में समाया होता है। यद्यपि वे कभी नहीं सोचते कि इसका अभिप्राय क्या है।

प्रत्येक इतिहासकार व्याख्या के माध्यम से अतीत की सम्पदा और परम्पराओं को भविष्य के गर्भ में प्रक्षेपित कर सुरक्षित रखता है। भविष्य में रुचि के कारण ही इतिहासकार अतीत से प्रेम करता है। कार ने यहाँ तक कहा है कि केवल भविष्य ही इतिहासकार को अतीत की व्याख्या का यन्त्र प्रदान कर सकता है। अतीत भविष्य पर प्रकाश डालता है और भविष्य अतीत पर। यह तथ्य एक प्रकार से इतिहास की व्याख्या भी है। कार के अनुसार कार्ल मार्क्स ने वर्गहीन समाज को सम्बोधित करते हुए कहा था कि उन्हें अपने पूर्ण सत्य को भविष्य से प्रक्षेपित करना चाहिए। कार ने ऐतिहासिक व्याख्या को मूल्यसम्पृक्त कहा है।

4. व्याख्या के दृष्टिकोण-

व्याख्या के दृष्टिकोणों की चर्चा करते हुए कार लिखते हैं कि ऐतिहासिक घटनाएँ युगचक्रवादी (पूर्व निर्धारित परियोजनानुसार) होती हैं। उनमें आवश्यक सम्भाविता के गुण होते हैं जिससे युद्ध की घटनाएँ युद्ध में भाग लेने को विवश कर देती हैं। कार का अभिमत है कि इतिहास कम अथवा अधिक संयोगों का एक अध्याय है । इतिहास में व्याख्या के साथ मूल्यों के आधार पर गुण-दोष विवेचन जुड़ा रहता है। हीगेल की भाँति कार ने भी वर्तमान में इतिहास के अवसान का अनुभव किया है और वास्तविकता भी यही है कि इतिहासकार की अभिरुचि समान रूप से अतीत, वर्तमान और भविष्य में रहती है। यही कारण है कि ऐतिहासिक व्याख्या में अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करते हुए कार ने इतिहास को इतिहासकार तथा तथ्यों के बीच अन्त:क्रिया को अविच्छिन्न प्रक्रिया एवं वर्तमान तथा अतीत के बीच अनवरत परिसंवाद कहा है।

5. इतिहास में कार्य-कारण की अवधारणा-

कार्य-कारण के विषय में भी कारने सम्यक् दृष्टि अपनाई है। कारण के परिप्रेक्ष्य में इतिहास को चित्रित करते हुए कार ने लिखा है कि अतीत की घटनाओं को क्रमबद्धता देना तथा कारण और परिणाम के पारस्परिक सम्बन्धों को क्रम से प्रस्तुत करना ही इतिहास है। इसीलिए कार ने यह माना है कि इतिहास के अध्ययन का अभिप्राय कारणों का अध्ययन होता है, अर्थात् इतिहास का अध्ययन कारणों का अध्ययन है।

दूसरे शब्दों में, इतिहास-अध्ययन का अर्थ है, कारणों का अध्ययन। कारण सामान्य, नैतिक, भौतिक आदि कई प्रकार का होता है। अतीतकालिक घटनाएँ कुछ कारणों का परिणाम होती हैं। प्रत्येक राजवंश के उत्थान, राजत्वकाल तथा पतन के पीछे कुछ नैतिक, भौतिक तथा सामान्य कारण होते हैं और सब कुछ उसी के अन्तर्गत घटता है। कार ने इस बात को स्वीकार किया है कि मानवीय कार्यों का परिणाम प्रायः उनकी इच्छा के विपरीत होता है। मनुष्य के कार्यों के ऐसे परिणाम होते हैं जिसकी वे कभी कल्पना भी नहीं करते हैं। कार्यों के विपरीत परिणाम इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण है कि इतिहास में व्यक्ति की भूमिका नहीं होती।

ईसाइयों का विश्वास है कि व्यक्ति सचेतन रूप में अपने स्वार्थ के लिए प्रयास करता है, परन्तु वह ईश्वरीय योजना की पूर्ति का साधन होता है। एडम स्मिथ का अदृश्य हाथ, हीगेल की बुद्धि की चतुराई आदि मानवीय प्रयास विफल करने में सहायक हुई है। कार का अभिमत है कि मनुष्य ईश्वरीय इच्छा के अनुसार कार्य करता है। उन्होंने कार्ल आर. पापर के इस कथन को अर्थहीन तथा मिथ्यापूर्ण माना है कि मानवीय कार्य-व्यापार में सब कुछ सम्भव है। उन्होंने सरइसाइया बर्लिन के उस कथन को भी अस्वीकार कर दिया है कि मानवीय व्यवहार के पीछे दैवी शक्ति निर्णायक होती है। उनके अनुसार मानवीय कार्य नियत और कुछ स्वतन्त्र होते हैं। मानवीय कार्य-व्यवहार के पीछे कारण होते हैं जिनकी पुष्टि की जा सकती है।

नियतिवाद में अटूट आस्था रखने वाले इतिहासकारों का विश्वास है कि मनुष्य बाह्य परिस्थितियों तथा व्यक्तित्व की बाध्यता के कारण व्यवहार करता है। इतिहास के जनक हेरोडोटस को कारण- कार्य सम्बन्ध का अच्छा ज्ञान था। कार्य-कारण को स्पष्ट करना ही इतिहासकार का कौशल है।

कारण तथा इतिहासकार का परस्पर सम्बन्ध बड़ा घनिष्ठ होता है। कारण के अभाव में इतिहासकार व्यर्थ होता है और इतिहासकार के बिना कारण मृत एवं निर्जीव होता है। इतिहासकार द्वारा मान्यता प्रदत्त सामान्य तथ्य भी ऐतिहासिक हो जाता है। इतिहासकार की व्याख्या ही कारणों के चयन तथा क्रमबद्धता का निर्धारण करती है। स्थान तथा समय के सन्दर्भ में इतिहासकार कारणों की व्याख्या करता है। काल तथा स्थान के परिवेश में यह सम्भव नहीं है कि सभी इतिहासकार एक कारण को एक स्वर से स्वीकार करें। अतएव यथार्थ न केवल बोधात्मक तथा अनुभवगम्य है बल्कि कारण-परक निर्धारक तत्त्व है, इसलिए ऐतिहासिक व्याख्या को मूल्यसम्पृक्त कहा गया है। कारण-कार्य के सम्बन्ध में इतिहासकार की व्याख्या उद्देश्यपरक तथा मूल्यसम्पृक्त होती है। इतिहास में व्याख्या के साथ मूल्यों के आधार पर गुण-दोष विवेचन भी सम्पृक्त रहता है।

6. इतिहास में संयोग और कारण-

इतिहास में संयोग और कारण के बारे में ई.एच. कार ने अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। उनके अनुसार इतिहास कम अथवा अधिक संयोगों का एक अध्याय है। घटनाओं का ऐसा क्रम जिसका निर्णय संयोग करते हैं, उनका कारण अत्यन्त सामान्य होता है। एक उदाहरण द्वारा वे समझाते हैं कि 1923 की शरद् ऋतु में बत्तखों का शिकार खेलते समय ज्वरग्रस्त होने के कारण ट्राटस्की को बाध्य होकर उस समय राजनीति से पृथक् होना पड़ा जब स्टालिन के साथ वास्तविक सत्ता प्राप्त करने के लिए उनका संघर्ष चरम स्थिति में था। इसी आधार पर वे लिखते हैं कि किसी क्रान्ति अथवा युद्ध का अनुमान पहले से लगाया जा सकता है, परन्तु शरद् ऋतु में जंगली बत्तखों के शिकार के परिणाम का अनुमान कठिन प्रतीत होता है।

ई.एच. कार ने एक अन्य उदाहरण भी दिया है जिसमें इतिहास में संयोग के स्वरूप को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। कार लिखते हैं कि 1556 ई. में पानीपत के द्वितीय युद्ध में बाईस युद्धों के विजेता हेमू की पराजय का कारण संयोगवश उसका घायल होना था। सैनिक शक्ति की दृष्टि से उसकी विजय निश्चित थी। परन्तु आकस्मिक घटना ने विजय को पराजय में बदल दिया। एक स्थान पर वे कहते हैं कि संयोग का विशेष प्रदर्शन व्यक्तियों के चरित्र में होता है। उनके अनुसार संयोग के महत्त्व को मान्यता देने का तात्पर्य इतिहासकार के मस्तिष्क का दिवालियापन है। इसे स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि इतिहास को दुर्घटनाओं का एक अध्याय कहकर इतिहासकार अपने को पंगु तथा अक्षम स्वीकार करता है। इतिहास में दुर्घटना या संयोग की समस्या का समाधान कारणों की खोज में होना चाहिए।

7. इतिहास में कारण, भविष्य और अवश्यम्भाविता-

कारण, भविष्य और अवश्यम्भाविता के बारे में ई.एच. कार का विश्वास है कि इतिहासकार की अस्थियों में भविष्य समाहित रहता है और क्यों' पूछने के अतिरिक्त इतिहासकार प्रायः पूछता है कि 'किधर'? सर चार्ल्स स्नो ने रदरफोर्ड के विषय में लिखा है कि सभी वैज्ञानिकों की तरह उनकी अस्थियों में भविष्य समाया हुआ था, यद्यपि वे कभी नहीं सोचते थे कि इसका अभिप्राय क्या है? प्रत्येक इतिहासकार व्याख्या के माध्यम से अतीत की सम्पदा और परम्पराओं को भविष्य के गर्भ में प्रक्षेपित कर सुरक्षित रखता है। भविष्य में रुचि के कारण ही इतिहासकार अतीत से प्रेम करता है।

कार ने यहाँ तक कहा है कि केवल भविष्य ही इतिहासकार को अतीत की व्याख्या का यन्त्र प्रदान कर सकता है। अतीत भविष्य पर प्रकाश डालता है और भविष्य अतीत पर। यह तथ्य एक प्रकार से इतिहास की व्याख्या भी है। कार ने ऐतिहासिक अवश्यम्भाविता अथवा अनिवार्यता सम्बन्धी अपनी समझ को गलत माना है और स्वीकार किया है कि वहाँ पर 'सम्भाव्य' शब्द का प्रयोग होना चाहिए था।

8. इतिहास में नैतिक-न्याय-

इतिहास में नैतिक न्याय दिये जाने के विषय में ई.एच. कार ने यह तो स्वीकार किया है कि इतिहासकार के लिए यह दायित्व का विषय अवश्य है कि वह अपनी पुस्तक के पृष्ठों पर आने वाले व्यक्तियों के जीवन पर नैतिक न्याय देने के विषय में सोचे और इस अभिप्राय से जर्मनी के यहूदियों पर हिटलर द्वारा किये गये अत्याचारों की निन्दा करें, किंग जान के लज्जाजनक प्रत्येक अपराध का उल्लेख करे, मुसोलिनी द्वारा 1935 में एबीसीनिया पर किये गये आक्रमण को जानबूझकर किया गया पाप घोषित करे इत्यादि, किन्तु न्याय देना उसके अधिकार की सीमा से बाहर होता है। इतिहास में यातनाएँ स्थानीय होती हैं। प्रत्येक महान् विजय के साथ पराजय की स्थितियाँ भी होती हैं। इतिहासकार के पास कोई मापदण्ड नहीं है कि वह निष्कर्ष प्रस्तुत कर सके कि कितने लोग लाभान्वित हुए और कितनों को कष्ट उठाना पड़ा। इतिहासकार को ऐसी समस्याओं में पड़कर नैतिक न्याय नहीं देना चाहिए।

कार के अनुसार नैतिक न्याय में विश्वास करने वाले इतिहासकार इतिहास में परा ऐतिहासिक मापदण्ड बनाना चाहते हैं। वास्तविकता तो यह है कि इतिहास में मापदण्ड का निर्माण अनैतिहासिक होता है। यही नहीं, यह इतिहास की सारवस्तु के विपरीत है। मापदण्ड धर्माचार्यों तथा आचारशास्त्रियों के लिए होता है, इतिहासकार के लिए नहीं। इतिहास एक आन्दोलन है और आन्दोलन में अन्तर्निहित होता है। इसी कारण इतिहासकार अपने नैतिक निष्कर्ष को प्रगतिशील जैसी तुलनात्मक शब्दावली भी देते हैं। अच्छा या बुरा जैसी निर्णयात्मक और समझौताविहीन शब्दावली इतिहास के शब्दकोश में नहीं है। 

एक अर्थ में यदि देखा जाए तो कार की बात उचित प्रतीत होती है कि इतिहासकार अपने नैतिक न्याय के द्वारा समाज के एक वर्ग को तो सन्तुष्ट करता है, किन्तु वहाँ दूसरा वर्ग असन्तुष्ट भी हो सकता है, जबकि उससे अपेक्षा यह की जाती है कि वह अपनी रचनाओं में सम्पूर्ण समसामयिक समाज तथा युग का प्रतिनिधित्व करता रहे । अतएव यह कहना उचित है कि इतिहासकार को नैतिक न्याय देने के विषय में नहीं सोचना चाहिए। इसी कारण ई. एच. कार ने लिखा है कि नैतिकता का इतिहास, इतिहास का वास्तविक आ नहीं है।

9. इतिहास में प्रगति की अवधारणा-

ई. एच. कार के अनुसार कि प्रगति समाज की विकासात्मक व्याख्या है, एक अमूर्त संज्ञा है। मानव जाति जिन स्थूलों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील है, उसकी प्राप्ति इतिहास के बाहर नहीं, अपितु इतिहास के परिप्रेक्ष्य में ही सम्भव है। प्रगति का अर्थ मानव जीवन के लिए अधिकाधिक स्वतंत्रता की प्राप्ति है, इसीलिए रूसी सम्राट निकोलस प्रथम ने प्रगति शब्द पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। कार के अनुसार पृथ्वी पर मानव इतिहास की पूर्णता के लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयास-को प्रगति का इतिहास माना गया है। उन्होंने इसे नैतिक तथा तार्किक स्तर पर स्वीकार किया है। इस अवधारणा से यह सिद्ध होता है कि इतिहास की भाँति प्रकृति भी प्रगतिशील है। इसका एकमात्र श्रेय जैविक विज्ञान के महान् दार्शनिक डार्विन को है। जैविक वंश गति विकास स्रोत के रूप में प्रगति का स्रोत माना गया है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक प्राप्त दक्षताओं के सम्प्रेषण द्वारा प्रगति ही इतिहास है। प्रगति की अवधारणा की व्याख्या में भविष्य ही अतीत की व्याख्या का यंत्र प्रदान कर सकता है। अतीत का भविष्य पर प्रकाश तथा भविष्य का अतीत पर प्रकाश डालना स्वाभाविक है। भविष्य के प्रति आस्था, मनुष्य को प्रगति के लिए विवश तथा बाध्य करती है।

कार के अनुसार यदि इतिहास अतीत और वर्तमान के बीच अनवरत परिसंवाद है, तो इसे अतीत की घटनाओं और उभरते हुए भावी परिणामों के बीच अनवरत परिसंवाद की संज्ञा दी जा सकती है। गेटे का अभिमत बतलाते हुए कार लिखते हैं कि "जब कोई युग परिवर्तनशील होता है, तो सभी प्रवृत्तियाँ, आत्मगत हो जाती हैं। इसके विपरीत जब नवीन युग का आरम्भ होता है तो परिपक्व परिस्थितियों की सभी प्रवृत्तियाँ पुनः सक्रिय एवं क्रियाशील होकर प्रगति के मार्ग को प्रशस्त करती हैं।"

इतिहासकार वर्तमानकालिक मूल्यों के अधार पर ऐतिहासिक घटनाओं की व्याख्या करके उसे प्रगति सूचक अथवा विरोधी स्वीकार करता है। इतिहासकार का पुनीत कर्त्तव्य तथ्य तथा उसकी व्याख्या के बी एवं तथ्य तथा मूल्य के भी सन्तुलन स्थापित करना है। वस्तुतः इतिहास परिवर्तन, गति तथा प्रगति में निहित है। कार ने स्पष्ट लिखा है कि इतिहास में हमारा दृष्टिकोण हमारे अतीतकालिक सामाजिक दृष्टिकोण को सदैव प्रतिबिम्बित करता रहा है। उन्होंने अपने अटूट विश्वास की अभिव्यक्ति समाज तथा इतिहास के भविष्य में की है। समाज तथा इतिहास के भविष्य में अटूट अस्था का अभिप्राय प्रगतिसूचक है।

10. इतिहास में व्यक्ति की भूमिका-

कार के अनुसार इतिहास में व्यक्ति की भूमिका नहीं होती। उनका कहना है कि मनुष्य के कार्यों के विपरीत परिणाम इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण है कि इतिहास में व्यक्ति की भूमिका नहीं होती। महापुरुष या तो वर्तमान शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है या फिर उन शक्तियों का जो वर्तमान व्यवस्था को चुनौती देती हों, जैसे महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश सत्ता को भारतीय स्वतन्त्रता के लिए चुनौती दी थी। इसके साथ ही कार यह भी कहते हैं कि इतिहास में व्यक्ति की भूमिका होती है। इस प्रकार वे दोनों ही बातें मानते हैं। उन्होंने लिखा है कि इतिहास का महापुरुष मानव-चिन्तन को परिवर्तित करने वाली सामाजिक शक्तियों का निर्माता तथा प्रतिनिधि साथ-साथ होता है। इस तरह महापुरुषों का महत्त्वपूर्ण योगदान, सहयोग तथा विरोध दोनों ही होता है।

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