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इतिहास के सम्बन्ध में आदर्शवादी मत

ऐतिहासिक व्याख्या का आदर्शवादी दृष्टिकोण

आदर्शवादी दृष्टिकोण भावनात्मक एवं अमूर्त है। आदर्शवादी दृष्टिकोण का सूत्रपात जर्मनी में इमेनुअल कान्ट ने किया था। इसकी चरम परिणति हमें हीगल के विचारों में मिलती है। जर्मनी के प्रभाव में इंग्लैण्ड में टी.एच. ग्रीन, बोसांके और ब्रेडले आदि ने आदर्शवाद का प्रतिपादन किया। आदर्शवाद राज्य और समाज का एक आदर्श चित्र प्रस्तुत करता है जो व्यावहारिक दृष्टि से कठिन होते हुए भी दार्शनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।

आदर्शवादी इतिहासकार अपना चित्रण विवेकपूर्ण ढंग से करते हुए आदर्श प्रस्तुत करता है। वह राज्य को एक वास्तविक तथ्य न मानकर उसे एक आदर्शपरक वस्तु मानकर आगे बढ़ता है। विद्वानों ने हीगेल को द्वन्द्वात्मक आदर्शवादी माना है, क्योंकि उसमें बुद्धिवाद और विज्ञानवाद के साथ-साथ आदर्शवाद भी था। आदर्शवाद की अवधारणा काफी पुरानी है। हमें प्लेटो और अरस्तू की रचनाओं में आदर्शवादी मान्यताएँ मिलती हैं। अरस्तू और प्लेटो नैतिक विकास के लिए राज्य एवं समाज को उपयोगी मानते हैं।

मध्यकाल में चिन्तन पर धर्म का प्रभाव छाया रहा। उसके पश्चात् पुनर्जागरण काल में सर टामस मूर और आधुनिक युग में रूसो ने आदर्शवादी विचारों का अनुसरण किया। इसके बाद जर्मनी आदर्शवाद का केन्द्र बन गया। यहाँ कांट तथा हीगेल ने आदर्शवाद चिन्तन प्रस्तुत किया। इंग्लैण्ड में ग्रीन, ब्रेडले, बोसांके आदि आदर्शवादी चिन्तक हुए।

आदर्शवाद की मूलभूत मान्यताएँ

आदर्शवाद की मूलभूत मान्यताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) इतिहास के प्रवाह में एक क्रमिक विकास है-

हीगेल के अनुसार इतिहास के प्रवाह में एक क्रमिक विकास है। यह विकास एक क्रम में होता है और वह क्रम द्वन्द्वात्मक है। विकास-क्रम की द्वन्द्वात्मकता उसके युक्तिसंगत होने का परिणाम है क्योंकि ज्ञान का विकास सहज रूप से एक द्वन्द्वात्मक क्रम का अनुसरण करता है। ज्ञान में अपने सत्य के प्रति एक जागरूकता निरन्तर बनी रहती है और वह पहले पक्ष को स्वीकारता है और फिर उसे परखने के लिए उसके विपक्ष की ओर मुड़ता है और अन्तत: पक्ष और विपक्ष दोनों की एकांगिता को समझ उनके समन्वय का प्रयास करता है। विशुद्ध विचार के क्षेत्र में सहज रूप से उपलब्ध होने वाली यह द्वन्द्वात्मकता मानवीय इतिहास के स्थूल स्तर पर भी एक अन्तर्नियामक के रूप में उपलबध होती है।

(2) इतिहास की प्रक्रिया विकास की प्रक्रिया है-

हीगेल की दृष्टि से इतिहास की प्रक्रिया एक तर्कसंगत द्वन्द्वात्मकता के क्रम का अनुसरण करते हुए विकास की प्रक्रिया है। हीगेल का सबसे अधिक जोर इतिहास की युक्तिसंगत सार्थकता पर है। इतिहास का अधिष्ठान मानस है जिसका सारांश बुद्धि है। बुद्धि-मानस आत्मज्ञान की ओर उद्दिष्ट होता है क्योंकि वही ज्ञान का सर्वोच्च प्रत्यय है। यही आत्मज्ञान की ओर यात्रा जब देश-काल में सम्पन्न होती है तो इतिहास का रूप धारण कर लेती है।

(3) इतिहास-दर्शन इतिहास का एक विवेकपूर्ण विचार है-

इतिहास-दर्शन इतिहास का एक विवेकपूर्ण विचार है। विवेक मनुष्य का विशिष्ट स्वभाव है। फिर भी इतिहास को विवेक से जोड़ना आपततः असन्तोषजनक प्रतीत होता है क्योंकि इतिहास में तथ्यों की प्रधानता होती है और विचार उनके अधीन होते हैं। दर्शन में इसका उल्टा है क्योंकि वहाँ विचार अपने अस्तित्व निरपेक्ष स्वराज्य में विचरण करते हैं। अतएव इतिहास के दर्शन में सदा इसका भय रहेगा कि कहीं वह इतिहास के तथ्यों की प्राक्कल्पनाओं के अनुसार तोड़-मरोड़ न करें। किन्तु यह भय वस्तुत: निराधार है क्योंकि दर्शन इतिहास के पास एक ही पूर्व कल्पना लेकर आता है और वह है, बुद्धि या विवेक। वह यह मानकर चलता है कि "बुद्धि विश्व का शासन करती है, अतएव विश्व का इतिहास एक बुद्धिमान प्रक्रिया है। दर्शन में यह विश्वास, कि बुद्धि ही परम तत्त्व है और विश्व उसकी अभिव्यक्ति, एक तर्क-प्रतिपाद्य धारणा है।"

डॉ. गोविन्द चन्द्र पाण्डेय के अनुसार ऐतिहासिक ज्ञान के सन्दर्भ में यह. दार्शनिक प्रतिपत्ति एक प्रकार की परिकल्पना बन जाती है जिसके सहारे इतिहास के तथ्य परखे जाते हैं। जो इतिहासकार अपने को कल्पनापेक्षी और निष्पक्ष कहते हैं और यह मानते हैं कि वे तथ्य मात्र का यथावत् प्रतिबिम्बन करते हैं, वे भी अपनी बुद्धि का सक्रिय प्रयोग करते ही हैं। वे भी अपने समक्ष प्रस्तुत प्रतिभासों को समझने के लिए अपने बुद्धिविकल्पों का प्रयोग करते हैं। सभी विद्याओं के अपने पदार्थ' अपनी मूल कल्पनाएँ होती हैं और यह असम्भव है कि बौद्धिक दृष्टि के बिना किसी विद्या का विकास हो सके। बौद्धिक दृष्टि से विश्व को देखने से विश्व भी बुद्धिसंगत दीखता है।

एनाक्सागोरस ने कहा था कि "बुद्धि विश्व का शासन करती है। यहाँ बुद्धि का अर्थ चैतन्य नहीं है, अपितु बौद्धिक ज्ञान की उपयुक्त विषमता है। सौर परिवार में ग्रह नित्य नियमों के अनुसार चलते हैं। इस प्रकार की व्यवस्था या 'धर्मता' को अव्यक्त बुद्धि कहा जा सकता है क्योंकि उसके स्वरूप को बुद्धि-विषय के रूप में ही सोचा जा सकता है। मध्यकाल में इतिहास को ईश्वराधीनता के रूप में उस पर बुद्धि के शासन को स्वीकारा गया था। किन्तु इस मत में भी वही दोष है जो पिछले में था।

इतिहास के सम्बन्ध में आदर्शवादी मत, ऐतिहासिक व्याख्या का आदर्शवादी दृष्टिकोण
इतिहास के सम्बन्ध में आदर्शवादी मत

ईश्वरेच्छा अतर्क्य और अज्ञात रहती है और उसका विशिष्ट घटनावाली से कोई बुद्धिगम्य सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता। किन्तु यदि हम इतिहास को बुद्धि तत्त्व पर अथवा ईश्वरीय बुद्धि पर आश्रित मानते हैं, तो हमारी बुद्धि का यह कर्तव्य हो जाता है कि मानवीय इतिहास में बुद्धि की प्रेरणा ओर चमत्कार देखें। इस दृष्टि से इतिहास-दर्शन ईश्वरीय न्याय का दर्शन हो जाता है। इसके लिए एक और यह जानना आवश्यक है कि विश्व का परम साध्य क्या है, दूसरी ओर यह कि इतिहास में यह साध्य कहाँ तक सिद्ध हुआ और अनर्थ को परास्त कर सका है।

(4) इतिहास आध्यात्मिक सत्ता से मूल रूप से संलग्न है-

यद्यपि भौतिक प्रकृति महत्त्वपूर्ण होती है,परन्तु इतिहास आध्यात्मिक सत्ता से ही मूल रूप से संलग्न है। आध्यात्मिकता का तत्त्व उसकी स्वाधीनता में है। स्वाधीनता ही आत्मा का एकमात्र सत्य है। भूतसत्ता गुरु इस कारण होती है कि वह एक केन्द्र की ओर खिंचती है। वह अनेकात्मक है और उसके अवयव एक-दूसरे के बाह्य होते हैं, किन्तु वह केन्द्र-बिन्दु की ओर समाना चाहती है। एकात्मकता उसका साध्य भाव है, आदर्श है। इसके विपरीत आत्मसत्ता स्वकेन्द्रित है। इसकी एकता उसके बाहर नहीं है, बल्कि उसके अन्दर है। भूतसत्ता का तत्त्व उसके बाहर रहता है। आत्मसत्ता अपने में सम्पूर्ण होती है। यह स्वात्म विश्रान्ति ही स्वतन्त्रता है। चैतन्य में दो अंश होते हैं- ज्ञान का विषयी और ज्ञान का विषय। आत्मज्ञान में ये दोनों एक हो जाते हैं, जिसे सम्भावना और यथार्थ का ऐक्य भी कह सकते हैं। इस दृष्टि से विश्व-इतिहास को आत्मा का उस प्रक्रिया में उपदर्शन कह सकते हैं जिसमें वह अपने सामान्य स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करती है।

(5) मानव-इतिहास स्वतन्त्रता के बोध का इतिहास है-

पूर्वी देशों में मानवीय आत्मा की सहज स्वतन्त्रता का बोध नहीं था। वे एक व्यक्ति को ही स्वतन्त्र मानते थे और इस धारणा से एकतन्त्र व्यवस्था में फंसे रहे। यूनानियों ने सबसे पहले स्वतन्त्रता का परिचय पाया। किन्तु वे भी केवल कुछ लोगों को ही स्वतन्त्र मानते थे। ईसाई धर्म से प्रभावित जर्मन जातियों ने सबसे पहले मनुष्य की स्वाभाविक स्वतन्त्रता का बोध पाया, पहले धर्म में और फिर जीवन के अन्य क्षेत्रों में। मानव-इतिहास को इस स्वतन्त्रता के बोध का इतिहास कहा जा सकता है। आध्यात्मिक विश्व की नियति, विश्व के परिवर्तनों का चरम साध्य और प्रयोजन, आत्मा का यह स्वतन्त्रता-बोध ही है।

(6) राज्य एक नैतिक संस्था है-

राज्य एक नैतिक संस्था है। यह एक अनिवार्य तथा सर्वशक्तिमान संस्था है। यह पृथ्वी पर साक्षात् ईश्वर का आगमन है, यह एक ऐसी दैवी इच्छा है जो विश्वव्यापी व्यस्था में वास्तविक रूप में प्रकट होती है, राज्य और व्यक्ति में कोई विरोध नहीं है। राज्य का अपना उद्देश्य व्यक्तित्व होता है। वह मनुष्य की सामान्य इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है। राज्य बल पर आधारित नहीं,वरन् इच्छा पर आधारित है। राज्य की आज्ञा का पालन करना ही स्वतन्त्रता है, राज्य अधिकारों का जन्मदाता है। यह साध्य है, साधन नहीं है। राज्य और समाज में कोई अन्तर नहीं है। राज्य ही इतिहास का मुख्य अधिष्ठान है। यह नैतिकता और कानून, समाज और संस्कृति सभी का उपजीव्य है।

(7) ऐतिहासिक राज्य राज्य के आदर्शों को चरितार्थ करने की प्रक्रिया की विभिन्न अवस्थाएँ हैं-

विभिन्न ऐतिहासिक राज्य राज्य के आदर्शों को चरितार्थ करने की प्रक्रिया की विभिन्न अवस्थाएँ हैं। राष्ट्र की आधुनिक धारणा में भावनात्मक तादात्म्य और सामूहिक हित, दोनों समन्वित रूप से मिलते हैं। राष्ट्रीय राज्य में सभी व्यक्तियों को समान रूप से स्वतन्त्रता का अधिकार होता है। यह राष्ट्रीय राज्य विकास का सर्वोच्च रूप है।

अव्यक्त बुद्धि से संचालित आवेगों और स्वार्थों के अनुसंधान में मनुष्य समाज बनाता है और समाज राज्य के रूप में उसकी अन्तर्निहित स्वतन्त्रता को उसके समक्ष एक वस्तु सत्ता के रूप में रखता है। राज्य रक्षित समाज में कला, धर्म आदि अन्य सांस्कृतिक रूपों में मनुष्य अपने पारमार्थिक स्वरूप को खोजता है। यह सारी खोज अन्तत: मनुष्य के आत्मसत्ता के निर्धारण पर आश्रित होती है, उसके क्रम से ही विकसित होती है। जो बात दर्शन में है, बुद्धि अकालिक रूप से प्रत्यक्ष करती है। वह इतिहास में काल-क्रम से मूर्त होती है। इसका निरूपण ही इतिहास-दर्शन है।

(8) तथ्यात्मक तथा विचारात्मक पक्षों में समन्वय-

मानव जीवन को ठीक तरह से समझने के लिए एक ओर उसके अन्तर्निहित विचारों और आदर्शों को समझना आवश्यक है, तो दूसरी ओर उसकी बदली हुई परिस्थितियों को, उसके यथार्थ के दबावों को समझना आवश्यक है। हीगेल में इन दोनों पक्षों का, जिन्हें तथ्यात्मक तथा विचारात्मक, ऐतिहासिक और दार्शनिक कह सकते हैं, एक अपूर्व समन्वय मिलता है।

हीगेल के पहले न किसी दार्शनिक को इतना इतिहास का ज्ञान था, न किसी इतिहासकार को इतने दर्शन का ज्ञान था। हीगेल धर्म, दर्शन, कला, नैतिकता, कानून, सामाजिक संस्थाएँ, राजनीतिक व्यवस्थाएँ, इन सबको उतनी ही बारीक समझ से परखते हैं जितना वे विशुद्ध तर्क, मनोविज्ञान और आध्यात्म विद्या को। वे विचारों की सत्ता के सन्दर्भ में और सत्ता के विचारों के सन्दर्भ में रखकर दोनों को ही प्रस्तुत करते हैं।

डॉ. गोविन्द चन्द्र पाण्डेय लिखते हैं कि "हीगेल के निरूपित इतिहास में बहुत-सी कमियाँ और त्रुटियाँ सम्भव है और सबसे बड़ी यह है कि वे स्वयं अपनी दृष्टि को इतिहास की अन्तिम दृष्टि के समान मान लेते हैं, किन्तु उनके इतिहास दर्शन का उद्देश्य अवश्य ही प्रशंसनीय है। हम सभी चाहते हैं कि इतिहास में युक्तियुक्तता को देख सकें, उसको एक सार्थकता के सूत्र में पिरो सकें और मनुष्य की आदर्श खोज की ओर इतिहास को विमुक्त अथवा तटस्थ मानने के विचार को दूर रख सकें। इस प्रकार के प्रतिपादन में हीगेल का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।

(9) यथार्थता और युक्तियुक्तता एक ही बात है-

हीगेल की यह मूलभूत मान्यता है कि यथार्थता और युक्तियुक्तता एक ही बात है। ज्ञान और वास्तविकता एक-दूसरे की ओर निरपेक्ष नहीं हैं। प्रकृति और सत्ता, अन्दर और बाहर का भेद, कार्य-कारण भाव- ये सब ज्ञान के बाहर के स्वत: सिद्ध पदार्थ नहीं हैं, बल्कि ज्ञान की ही कल्पनाएँ हैं। ज्ञान में अप्रामाणिक और प्रामाणिक का भेद उसके अपने अन्दर के अधूरेपन और विसंगति के आधार पर तय होता है। वास्तविक और अवास्तविक का भेद प्रामाणिक और अप्रामाणिक ज्ञान के आधार पर होता है। इसलिए हीगेल का कहना है कि जब किसी विषय में बुद्धिगम्य संगति न प्रतीत हो, तो हमें यह मानना चाहिए कि वह विषय अभी पूरी तरह सच्चा नहीं है और उसकी अवास्तविकता का बोध ज्ञान को वास्तविकता की ओर बढ़ने की प्रेरणा है।

सामान्य लोग जब अपने विचारों को यथार्थ के अनुरूप नहीं पाते तो विचारों को दोषी ठहराते हैं। अपनी बुद्धि पर भरोसा न कर अपनी इन्द्रियों की सूचना पर भरोसा करते हैं। ऐसे लोग सदा ही यह मानते रहेंगे कि सूर्य तथा चन्द्रमा चलते-फिरते छोटे-छोटे गोले हैं। जैसे-जैसे मनुष्य के ज्ञान का विकास होता है, वह प्रत्यक्ष-प्रतीतियों को बुद्धि के द्वारा सुधारता है। वह अप्रत्यक्ष बुद्धिगोचर नियमों से प्रत्यक्ष जगत् को समझता और बदलता है। मूल्य-ज्ञान के क्षेत्र में यह और भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। हम अपने नैतिक विश्वासों के अनुसार सामाजिक यथार्थ को बदल देना चाहते हैं, अपने कलात्मक आदर्शों के अनुसार नई रचना करते हैं, अपने धार्मिक विश्वासों के अनुसार जीवन का उत्सर्ग करने के लिए तैयार करते हैं। जब यथार्थ और आदर्श में भेद प्रतीत होता है, तो विवेकशील पुरुष आदर्शों को न छोड़कर यथार्थ को दोषी और एक गहरे अर्थ में अवास्तविक मानता है। उसकी प्रेरणा होती है, उस अपारमार्थिक यथार्थ को आदर्श के अनुसार फिर से गढ़ने की।

(10) आत्म-ज्ञान अखण्ड होता है-

हीगेल के इस बुद्धिवाद, विज्ञानवाद और यथार्थवाद में यह अन्तर्निहित है कि सत्ता, ज्ञान और मूल्य तीनों एक ही आत्म-ज्ञान रूपी अखण्ड परमार्थ के अन्तर्गत विभेद हैं। सत्ता उसका विषय-पक्ष है, ज्ञान उसका विषयी पक्ष है और मूल्य उसके तादात्म्य की पहचान है। जिस समय विषयी विषय के रूप में अपने को पहचानता है, वही उसकी मूल्य बोध अथवा स्वतन्त्रता बोध की अवस्था है। सत्ता ज्ञान की विषमता है, मूल्य उसका आत्म-परिज्ञान। सभी ज्ञान-खण्ड अखण्ड और अनन्त आत्म-ज्ञान की अभिव्यक्तियाँ हैं। इसीलिए सभी खण्ड-ज्ञानों में अपने अधूरेपन का आभास रहता है और उसे उत्कीर्ण करने की प्रेरणा रहती है। यही आत्म-ज्ञान की प्रेरणा है अथवा ज्ञान की स्वात्म सम्पूर्णता की ओर प्रेरणा है। इसीलिए ज्ञान सदा आत्मनिषेध के द्वारा अपनी अखण्डता या सीमितता को दूर करना चाहता है।

हीगेल के अनुसार निषेध यथार्थ का हृदय है। ज्ञान के अन्दर यह निषेध की प्रक्रिया ही उसकी तार्किक द्वन्द्वात्मकता है। शुद्ध विचार के प्रतियोगी के रूप में शुद्ध सत्ता का उदय इसी द्वन्द्वात्मकता का व्यापार है। इसी कारण प्रकृति की जड़ता आवश्यक रूप से चेतन मन की अपेक्षा करती है और सभी खण्ड सत्ताएँ नष्ट हो जाती हैं। मनुष्य की आत्मज्ञान की ओर प्रवृत्ति के अन्दर अव्यक्त और अखण्ड आत्मज्ञान का अनिवार्य आकर्षण है। विश्व और उसका इतिहास आत्मज्ञान का ही विवर्त है।

(11) विचारगम्य तत्त्वात्मकता और क्रियात्मक वर्तमानता सत्य या परमार्थ के दो अधूरे पक्ष हैं-

हीगेल विचारगम्य तत्त्वात्मकता और क्रियात्मक वर्तमानता को सत्य या परमार्थ के दो अधूरे पक्ष मानते हैं। इन दो पक्षों का समन्वय तत्त्व को यथार्थता और यथार्थ को तात्त्विकता प्रदान करता है। यह समन्वय ज्ञान में ही होता है और जिस अंश में यह सम्पन्न होता है, उसी अंश में ज्ञान पूर्ण होता है। तार्किक विकास, प्राकृतिक विकास और ऐतिहासिक विकास क्रमशः तत्त्व, यथार्थ और सत्य के स्तर पर सम्पन्न होते हैं। मानवीय अनुभूति में ही सत्य की सिद्धि होती है और यह उसी क्रम में होती है जो क्रम सामान्याकारिक रूप में विशुद्ध तर्क उपलब्ध करता है।

(12) हीगेल की इतिहास की व्याख्या उसकी विश्व की दार्शनिक व्याख्या पर आधारित है-

हीगेल की इतिहास की व्याख्या स्पष्ट ही उसकी विश्व की दार्शनिक व्याख्या पर आधारित है। हीगेल की बुद्धिवादी, विज्ञानवादी और आदर्शवादी धारणाओं को स्वीकार करना एक विशेष दृष्टिकोण को स्वीकार करना है। इतिहासकार के लिए यह कोई आवश्यक नहीं है कि वह किसी विशेष दर्शन का अनुसरण करे, किन्तु क्या मानव जीवन या इतिहास की व्याख्या बिना किसी भी दर्शन को स्वीकार किए सम्भव है? साधारण तौर से इतिहासकार जिस लोकसिद्ध व्यवहार बुद्धि को अपनाते हैं, वे अपने युगदर्शन से अप्रभावित नहीं होते। मध्यकाल में प्रत्यक्ष का विश्वास धार्मिक श्रद्धा के अविरोधी रूप में स्वीकार किया जाता था। ईसा मसीह के अनुयायियों ने आँखों देखा हाल लिखने में चमत्कारों का वर्णन किया है। मध्यकालीन इतिहासकार इस साक्ष्य को सत्य के रूप में स्वीकार करते थे और उन्हें उनमें कोई दार्शनिक दुराग्रह नहीं दिखता था।

(13) ऐतिहासिक प्रक्रिया की विशिष्टता यह है कि यह विकासात्मक है-

हीगेल के अनुसार ऐतिहासिक प्रक्रिया की विशिष्टता यह है कि यह विकासात्मक है। इस विकास को समझने के लिए इसमें मानवीय विचारों के द्वारा निभाई गई भूमिका को समझना आवश्यक है। हीगेल का कथन है कि मानवीय विकास के पीछे मनुष्य के विश्वास रहते हैं और जिन्हें वह सत्य समझता है। मनुष्य विचारशील, आदर्श खोजी प्राणी है। वह अपनी अवस्था और व्यवस्था को अपने विचारों और आदर्शों के अनुरूप बदलता रहता है।

हीगेल ने विचारों और व्यवस्थाओं के इस अन्तःसम्बन्धों को महत्त्वपूर्ण बताया है। जैसे हीगेल ने विचारों का इतिहास लिखा है और दर्शन के इतिहास की नई विधा को जन्म दिया है, ऐसे ही उन्होंने इतिहास के परिवर्तनों में विचारों का महत्त्व बताकर इतिहास-दर्शन की विधा को जन्म दिया।

(14) इतिहास विचाराश्रित विकास है-

हीगेल के अनुसार इतिहास विचाराश्रित विकास है। इस विकास का क्रम द्वन्द्वात्मक होता है। हीगेल के इतिहास-दर्शन को 'द्वन्द्वात्मक आदर्शवाद' कहा जाता है। विचारों में जो आत्मबोध द्वारा प्रगति का क्रम है, वैसा ही क्रम हीगेल इतिहास में देखना चाहते हैं।

डॉ. गोविन्दचन्द्र पाण्डेय का कथन है कि "इसमें कोई सन्देह नहीं है कि इतिहास में भी संस्थाओं और विचाधाराओं की अपूर्णता और एकाग्रता उनके संघर्ष, अतिक्रमण और समन्वय का कारण बनती है और बहुधा परिस्थितियाँ विपरीत अवस्था में बदल जाती हैं। तो भी इतिहास में द्वन्द्वात्मकता को यदि एक प्रकार की पारस्परिक सापेक्षता या 'प्रतीत्यसमुत्पाद' कहें, तब तो वह ठीक लगता है, परन्तु ऐतिहासिक, द्वन्द्वात्मकता में नितान्त तर्क सारूप्य समझना एक भ्रान्ति है।"

(15) इतिहास में वैचारिक द्वन्द्वात्मकता होती है-

आदर्शों और मूल्यों की द्वन्द्वात्मकता विचार के स्तर पर उनकी सम्भावनाओं की निरी आकारिक द्वन्द्वात्मकता होती है। इतिहास के स्तर पर बुद्धि सम्भावित आकारों को मूर्त रूप देकर परखा जाता है। इस तरह इतिहास में वैचारिक द्वन्द्वात्मकता द्विगुणित हो जाती है- एक ओर विचारों की आकारिक द्वन्द्वात्मकता, दूसरी ओर विचारों और उनके कार्यान्वयन एवं रूपान्वयन की। जहाँ विचारगत द्वन्द्वात्मकता तार्किक प्रसंग पैदा करती है और अभ्युपगमन, निषेध एवं 'निषेध के निषेध' के द्वारा प्रवृत्त होती है, इतिहासगत द्वन्द्वात्मकता में आदर्श की विभिन्न अभिव्यक्तियों के रूप-प्रभेद भी संगृहीत होते हैं। हीगेल ने इस द्विरूपता की ओर ध्यान नहीं दिया है।

ऐतिहासिक व्याख्या के आदर्शवादी दृष्टिकोण की समीक्षा

ई. एच. कार ने हीगेल के आदर्शवादी दृष्टिकोण की आलोचना करते हुए लिखा है कि "हीगेल ने अपने पूर्ण को विश्व-आत्मा के रहस्यवादी आकार में प्रस्तुत किया और इतिहास की गति को भविष्य में प्रक्षेपित करने की बजाय वर्तमान में समाप्त करने की बड़ी गलती की। उसने अतीत में अनवरत विकास की प्रक्रिया को पहचाना और बड़े ही अशोभनीय ढंग से भविष्य में उसी प्रक्रिया को नकार दिया। हीगेल के बाद जिन लोगों ने बेहद गम्भीरता से इतिहास की प्रकृति पर विचार किया है, उन्होंने उसे अतीत और भविष्य के संश्लिष्ट रूप में ही देखा है।" स्पष्ट है कि हीगेल की आदर्शवादी दृष्टिकोण की व्याख्या दार्शनिक रहस्यवाद के कारण इतिहास को आधुनिक वैज्ञानिक संकल्पना से मेल नहीं खाती।

डॉ. झारखण्डे चौबे ने लिखा है कि "हीगेल ने इतिहास की गति को भविष्य में प्रक्षेपित करने की बजाय वर्तमान में ही समाप्त कर एक भयंकर भूल की थी। उसने अतीत की विकास प्रक्रिया को स्वीकार किया, परन्तु भविष्य में इस अनवरत प्रक्रिया की भूमिका को स्पष्ट रूप से अस्वीकार किया है। हीगेल के पश्चात् अन्य दार्शनिकों ने अतीत और भविष्य के संश्लिष्ट स्वरूप को मान्यता प्रदान की है।"

डॉ. गोविन्द चन्द्र पाण्डेय लिखते हैं कि "हीगेल की इतिहासक की व्याख्या स्पष्ट ही उसकी विश्व की दार्शनिक व्याख्या पर आधारित है। हीगेल की बुद्धिवादी, विज्ञानवादी और आदर्शवादी धारणाओं को स्वीकार करना एक विशेष दार्शनिक दृष्टिकोण को स्वीकार करना है। इतिहासकार के लिए यह कोई आवश्यक नहीं है कि वह किसी विशेष दर्शन का अनुसरण करे किन्तु क्या मानव जीवन या इतिहास की व्याख्या बिना किसी भी दर्शन को स्वीकार किए सम्भव है। साधारण तौर से इतिहासकार जिस लोकसिद्ध व्यवहार बुद्धि को अपनाते हैं, वे अपने युगदर्शन से अप्रभावित नहीं होते। हीगेल के इतिहास दर्शन को द्वन्द्वात्मक आदर्शवाद कहा जाता है, परन्तु ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मकता में नितान्त तर्क सारूप्य समझना एक भ्रान्ति है।"

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