Heade ads

भारतीय संघीय व्यवस्था में क्षेत्रीय दलों की भूमिका

क्षेत्रीय दल

क्षेत्रीय दल वे दल हैं जिनका संगठन एवं प्रभाव क्षेत्र प्रायः केवल एक राज्य या प्रदेश है। इस प्रकार क्षेत्रीय दलों का दृष्टीकोण संकीर्ण, प्रादेशिक या साम्प्रदायिक होता है। वर्तमान समय में क्षेत्रीय दलों का प्रभाव केवल राज्यों तक ही सीमित नहीं है बल्कि ये दल केन्द्र की मिली-जुली सरकारों को भी प्रभावित करते हैं। 

15वीं एवं 16वीं लोकसभा के निर्वाचन से प्राप्त परिणामों के उपरान्त क्षेत्रीय दलों की स्थिति तथा भारतीय राजनीति में सम्पादित भूमिका से यह स्पष्ट होता है कि उक्त राजनीतिक दल केवल क्षेत्र या राज्यों तक सीमित नहीं रहे हैं बल्कि ये मिली-जुली सरकारों के भागीदार, समर्थक या प्रभावक बन चुके हैं।

क्षेत्रीय दलों की भूमिका

अथवा

गठबन्धन सरकारों के दौर में क्षेत्रीय दलों की भूमिका

1. राजनीति को लोगों के निकट लाना-

प्रायः क्षेत्रीय दल अपने क्षेत्र के लोगों से नजदीकी से जुड़े होते हैं। जब अपने क्षेत्र तथा केन्द्र में क्षेत्रीय दलों की भूमिका बढ़ती है तो अनेक मुद्दों पर वे अपने क्षेत्र के लोगों की राय जानने की कोशिश करते हैं तथा जनमानस को पहचानते हैं अथवा जनमानस तैयार करते हैं। इस प्रकार वे राजनीति को लोगों के निकट लाते हैं। इससे लोकतन्त्र का भी विस्तार होता है।

भारतीय संघीय व्यवस्था में क्षेत्रीय दलों की भूमिका
भारतीय संघीय व्यवस्था में क्षेत्रीय दलों की भूमिका

2. केन्द्रीय राजनीति में अधिक स्थान मिलना-

केन्द्र में गठबन्धन सरकारों के दौर में क्षेत्रीय दलों का महत्त्व बढ़ता है। क्षेत्रीय दलों के समर्थन से ही कोई दल या गठबन्धन सरकार बना पाता है। इस स्थिति में क्षेत्रीय दलों को देश की केन्द्रीय राजनीति में भाग लेने का अधिक अवसर प्राप्त होता है। उन्हें केन्द्रीय राजनीति में अधिक विस्तार मिलता है। इससे उनकी भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। न केवल क्षेत्रीय बल्कि केन्द्रीय मुद्दों पर भी उन्हें ध्यान देना होता है।

3. राजनीतिक तथा आर्थिक दृष्टिकोण पर बल-

भारत में क्षेत्रवाद की गतिविधियाँ केवल धार्मिक, सांस्कृतिक, भाषायी एवं जातीय विविधता के आधार पर नहीं बढ़ी, बल्कि शिक्षा के प्रसार के साथ बढ़ती हैं। दूसरे, आधुनिकीकरण की प्रक्रिया ने भी इनके प्रसार तथा विकास में योगदान दिया है। क्षेत्रीय दल प्रायः अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा वर्तमान में आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में सत्ता के लिए अधिक आकृष्ट हैं।

4. क्षेत्रीय दल द्वारा क्षेत्रीय दलों के संघीकरण को जन्म देना-

राष्ट्रीय मोर्चा का निर्माण क्षेत्रीय दलों का संघीय आधार पर संगठित होकर सकारात्मक विकास की तरफ एक अच्छा कदम था। 1996, 1998, 1999 तथा 2004 के चुनावों में क्षेत्रीय दलों का पुनः उत्कर्ष हुआ है। 2009 एवं 2014 के लोकसभा चुनावों में भी क्षेत्रीय दलों की भूमिका एवं महत्त्व रहा है परन्तु इनकी संख्या में पहले की अपेक्षा कमी आई है। ऐसा ही 2019 के लोकसभा चुनावों में हुआ है। क्षेत्रीय दल केन्द्र की सरकार में भागीदार बने हैं। इससे इनके दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है, क्योंकि अब ये क्षेत्रीय समस्याओं के साथ-साथ राष्ट्रीय समस्याओं पर भी मंथन करने को विवश हुए हैं। अतः क्षेत्रीय दलों का उभार लोकतन्त्र और संघवाद के विकास में सहायक हो रहा है।

5. केन्द्र सरकार की निरंकुश प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना-

चुनावी प्रतिस्पर्धा लोकतान्त्रिक व्यवस्था का प्राण है। भारत में क्षेत्रीय स्तर पर कुछ ऐसे क्षेत्रीय दल हैं जो अपने क्षेत्र विशेष में बहुत प्रभावशाली हैं। उदाहरणार्थ, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, आन्ध्र प्रदेश में तेलगू देशम, तमिलनाडु में द्रमुक व अन्नाद्रमुक दल, असम में असम गण परिषद्, पंजाब में अकालीदल, जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेन्स आदि। वर्तमान में गठबन्धन के दौर में राष्ट्रीय स्तर पर भी ये ताकतवर हो रहे हैं।

क्षेत्रीय स्तर पर तथा केन्द्र सरकार में शामिल क्षेत्रीय दलों की सुदृढ़ स्थिति लोकतन्त्र और संघवाद दोनों के लिए लाभकारी है। यह कम से कम क्षेत्रीय सीमाओं पर केन्द्र सरकार को निरंकुश प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने में सक्षम है। वर्तमान में अनेक राज्यों में, जैसे- तमिलनाडु, हरियाणा, पंजाब, असम, बिहार, उड़ीसा, आन्ध्रप्रदेश आदि राज्यों में क्षेत्रीय दल अपने प्रभाव को बनाए हुए हैं और वहाँ वे या तो सत्तासीन हैं या प्रमुख विपक्षी दल की भूमिका निभा रहे हैं।

6. क्षेत्रीय दलों का राष्ट्रीय दलों से मेल-जोल होना-

गठबन्धन के दौर में क्षेत्रीय दलों का राष्ट्रीय दलों से मेल-जोल होने से उनका आधार स्तर व्यापक बनता है और वे संकीर्णता को त्याग देते हैं। उदाहरणार्थ, जो क्षेत्रीय दल कभी पृथकतावाद की माँग करते थे, वे आज इस प्रकार की माँग प्रस्तुत नहीं करते हैं। क्षेत्रीय दल वस्तुतः अत्यधिक केन्द्रीकरण के विरोधी हैं जो लोकतन्त्र और संघवाद दोनों के लिए हानिकारक हैं। इन दलों की प्रमुख माँग वित्तीय स्वायत्तता तथा सत्ता के विकेन्द्रीकरण की है और ये दोनों माँगें लोकतन्त्र और संघवाद के लिए लाभकारी हैं।

7. क्षेत्र विशेष के लिए आर्थिक पैकेज की माँग करना-

गठबन्धन सरकारों के दौर में क्षेत्रीय दल केन्द्र के समक्ष अपनी माँगें प्रभावी तरीके से रख पाते हैं। इन दलों की सबसे बड़ी रचनात्मक भूमिका यही है कि इनके द्वारा राज्य विशेष के लिए अधिकतम आर्थिक सुविधाओं की मांग की गई जिससे प्रादेशिक विषमता दूर हुई और भारत के समुचित सर्वांगीण विकास को गति मिली।

8. सत्ता के वास्तविक उपयोग के लिए क्षेत्रीय स्वायत्तता के नारे द्वारा केन्द्र पर दबाव डालना-

क्षेत्रीय दलों का विकास आर्थिक और राजनीतिक सत्ता प्राप्ति के लिए होता है। ये दल इस आर्थिकराजनीतिक सत्ता के वास्तविक उपयोग के लिए अधिकतम राजकीय स्वायत्तता की माँग करते हैं और इस हेतु केन्द्र पर दबाव डालकर उससे लेन-देन की भूमिका का निर्वाह करते हैं।

अतः स्पष्ट है कि वर्तमान दौर अथवा गठबन्धन सरकारों के दौर में क्षेत्रीय दलों की भूमिका बहुत बढ़ गई है। क्षेत्रीय दलों ने संविधान द्वारा प्रदत्त राज्यों की स्वायत्तता की रक्षा की है, लोकतान्त्रिक व्यवस्था के सफल संचालन में सहायता की है तथा राज्यों के आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

आशा हैं कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।

Back To - भारतीय संविधान एवं राजव्यवस्था

Post a Comment

0 Comments