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ऐतिहासिक प्रत्यक्षवाद

इतिहास के सम्बन्ध में प्रत्यक्षवादी मत

प्रत्यक्षवाद का उद्भव एवं विकास-

वैज्ञानिक आन्दोलन का एकमात्र उद्देश्य प्रकृति, समाज तथा अध्यात्म के उन रहस्यों का पर्दाफाश करना था जिसके परिणामसवरूप भान्तिमूलक प्रवृत्तियों का समाज एवं अध्यात्म के क्षेत्र में उद्भव तथा विकास हुआ। वैज्ञानिकों ने दर्शन तथा इतिहास की आलोचना की। दर्शन के स्वरूप भाववादी था जिसके परिणामस्वरूप आत्मा, परमात्मा तथा जगत् के सम्बन्ध में अनेक दार्शनिकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से परिकल्पनात्मक विवरण प्रस्तुत किये हैं जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।

वैज्ञानिक आन्दोलन से प्रेरित एवं प्रोत्साहित अनेक दार्शनिकों ने इन भाववादी अवधारणाओं को यथावत् स्वीकार करने के पहले ऐसे अनेक वैज्ञानिक प्रश्नों को उठाया जिनकी यथार्थता वैज्ञानिक कसौटी पर सिद्ध की जा सके। चूँकि उपर्युक्त दार्शनिक तथ्य गवेषणात्मक तथा निरीक्षात्मक नहीं है, अतः उसका प्रत्यक्षीकरण सम्भव नहीं है।

1930 ई. में वैज्ञानिक आन्दोलन से प्रेरित दार्शनिकों ने वियना सर्किल संगोष्ठी के माध्यम से भाववादी दर्शन की कटु आलोचना की। उनकी अवधारणा थी कि यदि वैज्ञानिक विधियों से परिकल्पनात्मक भाववादी दार्शनिक तत्त्वों का परीक्षण एवं निरीक्षण सम्भव नहीं है, तो तर्क के आधार पर आत्मा, परमात्मा, जगत्, स्वर्ग, नरक की यथार्थता का मूल्यांकन किया जाए।

बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भाववाद का स्थान तार्किक भाववाद ने ले लिया। इसके दो स्वरूप हैं- (1) यूरोपीय तार्किक भाववाद तथा (2) तार्किक अनुभववाद। इस विचार को तार्किक भाववाद तथा तार्किक अनुभववाद के अतिरिक्त वैज्ञानिक अनुभववाद की संज्ञा भी दी जा सकती है। परिणामस्वरूप इसका स्वरूप तर्क के साथ-साथ वैज्ञानिक भी है। सामान्य रूप से दर्शन के क्षेत्र में प्रचलन भाववाद का ही है।

इन विचारकों ने यथार्थता की पुष्टि के लिए तार्किक भाववाद, तार्किक अनुभववाद तथा वैज्ञानिक अनुभववाद के परिवेश में तार्किक विश्लेषण तथा तार्किक संरचना विधि का प्रयोग किया है। इस तथ्य को स्थापित करने के लिए उन्होंने एक अर्थ सिद्धान्त Verificational Theory of Meaning' के नाम से प्रचलित किया। इन विचारकों के अनुसार यथार्थ ज्ञान विज्ञान के माध्यम से ही सम्भव है। उनके अनुसार दर्शन का मूल कार्य विज्ञान के सन्दर्भ में निहित अस्पष्टता, अनेकार्थकता एवं सम्मिश्रण को दूर करना है। इस कार्य के लिए दार्शनिकों ने तार्किक भाषा तथा विश्लेषण विधि को आवश्यक बताया। इस प्रकार बीसवीं शताब्दी के अनेक दार्शनिकों ने दर्शन के गूढ़ रहस्यों की गवेषणा के लिए तार्किक तथा वैज्ञानिक विधियों के प्रयोग की आवश्यकता की उपादेयता को अपरिहार्य माना है।

कॉम्टे और प्रत्यक्षवाद-

समाजशास्त्र एवं प्रत्यक्षवाद के जनक आगस्ट काम्टे का जन्म 19 जनवरी, 1798 को हुआ था। 1830-1842 के बीच काम्टे ने प्रत्यक्षवाद दर्शन की रचना की। काम्टे का प्रत्यक्षवादी दर्शन पूर्ण रूप से विज्ञान पर आधारित था। उनका दृष्टिकोण कैथोलिक धर्म पर आधारित 'Catholic minus Christianity' था। 1830 में उनकी महान् कृति 'The Course of Positive Philosophy' का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ तथा शेष पाँच भाग 1842 तक पूर्ण हुए।

कॉम्टे के अनुसार प्रत्यक्षवाद-

(1) परीक्षण, निरीक्षण, प्रयोग तथा वर्गीकरण की कार्यप्रणाली- काम्टे के अनुसार प्रत्यक्षवाद का अर्थ वैज्ञानिक है। उनका अभिमत है कि समस्त ब्रह्माण्ड अपरिवर्तनीय प्राकृतिक नियमों द्वारा नियन्वित, व्यवस्थित तथा निर्देशित होता है और यदि हमें नियमों को समझना है, तो तात्त्विक या धार्मिक आधारों द्वारा नहीं, क्योंकि विज्ञान की विधियों में कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं है। इनकी परीक्षण, निरीक्षण, टेस्ट, वर्गीकरण की एक व्यवस्थित कार्यप्रणाली होती है। इस प्रकार निरीक्षण, परीक्षण, प्रयोग तथा वर्गीकरण पर आधारित वैज्ञानिक विधियों द्वारा निष्कर्ष ही प्रत्यक्षवाद है।

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ऐतिहासिक प्रत्यक्षवाद

काम्टे का कथन है कि अनुभव, परीक्षण, निरीक्षण, प्रयोग तथा वर्गीकरण की सुव्यवस्थित कार्यप्रणाली द्वारा न केवल प्राकृतिक घटनाओं का अध्ययन सम्भव है, बल्कि समाज का भी, क्योंकि समाज प्रकृति क एक अभिन्न अंग है। जिस प्रकार प्राकृतिक घटनाएं कुछ निश्चित नियमों पर आधारित होती हैं जैसे रात-दिन, सूर्य-ग्रहण, चन्द्र ग्रहण, ऋतु परिवर्तन, शीतकाल, ग्रीष्मकाल तथा वर्षा ऋतु आदि, उसी प्रकार सामाजिक घटनाएँ राज्यों की स्थापना, प्रसार, विकास, संगठन तथा पतन निश्चित नियमों के आधार पर घटती हैं। काम्टे के प्रत्यक्षवाद का यही आधारभूत सिद्धान्त है।

(2) धार्मिक तथा तात्त्विक विचारों को अस्वीकार करना- काम्टे के प्रत्यक्षवाद का दूसरा सिद्धान्त यह है कि उन्होंने धार्मिक तथा तात्त्विक विचारों को अस्वीकार कर दिया था क्योंकि इनका अध्ययन विधि से कदापि सम्भव नहीं था। काम्टे का प्रत्यक्षवाद कल्पना या ईश्वरीय महिमा के आधार पर नहीं, बल्कि निरीक्षण, परीक्षण, प्रयोग तथा वर्गीकरण की व्यवस्थित कार्यप्रणाली के आधार पर सामाजिक घटनाओं की व्याख्या करता है। अपने अध्ययनकाल में प्रत्यक्षवादी अनुभव तथा प्रयोग को उत्तरोत्तर कार्य में लाते हैं। इस प्रकार प्रत्यक्षवादी किसी निरपेक्ष विचार को यथावत् स्वीकार नहीं करते, क्योंकि सामाजिक जीवन में परिवर्तन उसी प्रकार स्वाभाविक है, जिस प्रकार प्राकृतिक जगत् में।

प्रत्यक्षवाद धार्मिक तथा तात्त्विक विचारों को अस्वीकार करता है। इस प्रकार का विचार एक प्रकार की सट्टेबाजी है। काम्टे का विश्वास है कि धार्मिक व तात्त्विक विचारों के अटकलपच्चू चिंतन द्वारा प्राप्त निष्कर्ष सत्य भी हो सकता है और काल्पनिक भी, अत: ऐसे निष्कर्षों का सत्य या काल्पनिक होना संयोग या अनुमान की बात हो सकता है। परन्तु उनके सत्यापन का निर्णय यदि सम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। यह वैज्ञानिक चिंतन, संयोग या अनुमान पर कदापि सम्भव नहीं हो सकता। प्रत्यक्षवाद एक विचार प्रणाली है, इस कारण इसे यथार्थ होना चाहिए। यथार्थता के क्षेत्र में सट्टेबाजी या अनुमान के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। इस प्रकार निरीक्षण, परीक्षण, प्रयोग तथा वर्गीकरण प्रत्यक्षवाद की आधारशिला है।

प्रत्यक्षवाद तथा इतिहास-

इतिहास अतीत में मनुष्य के कार्यों एवं उपलब्धियों की कहानी है। अनेक प्रसिद्ध इतिहासकारों ने इतिहास-अध्ययन में यथार्थता की प्राप्ति के लिए वैज्ञानिक विधियों के प्रयोग का प्रबल समर्थन किया है। कॉम्टे का प्रत्यक्षवाद पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है जिसके अनुसार अतीत को पुनर्णाप्ति प्रत्यक्षवाद सिद्धान्त के समुचित क्रियान्वयन द्वारा सम्भव है। विज्ञान का संस्तरण गणितशास्त्र से आरम्भ होता है, खगोलशास्त्र, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, प्राणीशास्त्र से होता हुआ समाजशास्त्र तक समाप्त हो जाता है। इतिहास समाजशास्त्र की जननी है। इसका काम्टे के प्रत्यक्षवाद से प्रभावित होना अपरिहार्य था।

दर्शनशास्त्र में प्रत्यक्षवाद का अभिप्राय एक विधा से है जिसके माध्यम से आंकड़ों का वैज्ञानिक विधि से संकलन अनुभव के आधार पर किया जाए। इसमें धार्मिक विचारों के लिए कोई स्थान नहीं है। जान स्टुअर्ट मिल के अनुसार, "अनुभव को गणित के समकक्ष स्वीकार करने को प्रत्यक्षवाद कहते हैं।"

इतिहास जगत् में वैज्ञानिक तथा प्रत्यक्षवादी आन्दोलनों का एकमात्र उद्देश्य अतीत का यथावत् यथार्थ प्रस्तुतीकरण है। इसके लिए अनेक इहिासकारों ने ऐतिहासिक गवेषणा की आधुनिक विधाओं का प्रस्तुतीकरण किया है। जर्मनी में नेवूर तथा रांके, ब्रिटेन में ब्यूरी तथा एक्टन, फ्रांस में टेने जैसे प्रसिद्ध इतिहासकारों ने विद्वता का उच्च आदर्श प्रस्तुत किया है। इन विद्वानों ने न केवल ऐतिहासिक गवेषणा की आधुनिक विधाओं का प्रतिपादन किया, बल्कि ऐतिहासिक अध्ययन की वैज्ञानिक प्रणाली सम्बन्धी सुदृढ़ आधारशिला का निर्माण किया।

बर्नहीम, लांगलाय तथा सेवास ने कठिन परिश्रम तथा गहन अध्यवसाय से इतिहास अध्ययन में वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करके समसामयिक समाज को अतीत का अवलोकन तथा अतीत के गर्भ में अन्तर्निहित तथ्यों का दिग्दर्शन कराया। इस प्रकार यथार्थ तथ्यों का संकलन करके इतिहासकारों ने अपनी अद्भुत कलात्मक शैली से बिखरे हुए तथ्यों को शृंखलाबद्ध करके एक रोचक, सजीव एवं सुन्दर अतीत का चित्र प्रस्तुत किया है।

रांके और प्रत्यक्षवाद-

रांके ऐतिहासिक प्रत्यक्षवाद के जनक थे। रांके ने नेबूर का अनुकरण करते हुए ग्रन्थालयों में बिखरे अनेक ऐतिहासिक स्रोतों को सम्पादित किया। उनके अनुसार ऐतिहासिक तथ्यों की प्राप्ति तभी सम्भव हो सकती है जब ऐतिहासिक स्रोतों को समुचित रूप से सम्पादित करके शोधकर्ता के समक्ष प्रस्तुत किया जाए।

रांके ने इतिहास के शोध छात्रों को नवीन तकनीक से अवगत कराने का प्रयास किया। उसने एक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ कर शोध छात्रों को ऐतिहासिक गवेषणा की नवीन विधाओं और तकनीक से अवगत कराने का प्रयास किया।

पी.जी. क्रम्प का कथन है कि ऐतिहासिक विधा के इतिहास में रांके का यह सर्वप्रथम प्रयास है। इसलिए इस महान् इतिहासकार को आधुनिक इतिहास का कोलम्बस तथा प्रत्यक्षवाद का जनक कहा जाता है। आधुनिक इतिहास-अध्ययन एवं लेखन का एकमात्र श्रेय नेबूर तथा रांके को है।

भाविक ने लिखा है कि "इतिहास अध्ययन को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान करने में सर्वाधिक योगदान रांके का है, आधुनिक गवेषण विधा के शिलान्यासकर्ता को इस योगदान के लिए सर्वोच्च उपाधि से विभूषित करना चाहिए।"

ऐतिहासिक प्रत्यक्षवाद की प्रमुख विशेषताएँ

प्रत्यक्षवाद का एकमात्र उद्देश्य अतीत का यथार्थ तथा यथावत् प्रस्तुतीकरण है। इसमें व्यक्तिगत दृष्टिकोण तथा प्रतिमान लेखन से अतिरंजित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। व्यक्तिगत दृष्टिकोण से अतीत की गवेषणा, अतीत की यथार्थता को प्रदूषित कर सकता है। इसीलिए प्रत्यक्षवादी वैज्ञानिक इतिहासकारों ने कुछ वैज्ञानिक विधाओं का प्रतिपादन किया है, जिसके माध्यम से अतीत का यथार्थ चित्रण सम्भव हो सकेगा। ऐतिहासिक प्रत्यक्षवाद की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) बाह्य आलोचना-

हाकेट का मत है कि ऐतिहासिक गवेषणा की दीक्षा के साथ शोधकर्ता में उच्च कोटि की चिंतनशक्ति अपरिहार्य है। शोध में बाह्य आलोचना का अभिप्राय पाण्डुलिपि पुस्तक, अभिलेख तथा शिलालेखों की विश्वसनीयता को सिद्ध करना है, क्योंकि ऐतिहासिक स्रोतों के मूल स्वरूप में परिवर्तन पाया गया है। कुछ स्वार्थी लोगों ने धन कमाने के उद्देश्य से ऐतिहासिक स्रोतों के मूल स्वरूप को परिवर्तित किया है। परिणामस्वरूप इतिहास-अध्ययन के क्षेत्र में चोरबाजारी की बढ़ती हुई प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए इतिहासकारों ने मूल ग्रन्थ के लेखक तथा उसके समय की विश्वसनीयता को सिद्ध करने की आवश्यकता का अनुभव किया। यूरोपीय इतिहास में कामसेन तथा भारतीय इतिहास में सर यदुनाथ सरकार का योगदान इस क्षेत्र में सराहनीय है। वर्तमान युग में ऐतिहासिक स्रोतों की विश्वसनीयता की प्राप्ति शोध का आवश्यक अंग माना गया है।

(2) आन्तरिक अथवा उच्चस्तरीय आलोचना-

बाह्य आलोचना द्वारा शोधकर्ता ऐतिहासिक स्रोत तथा लेखक की विश्वसनीयता को सिद्ध करता है। इसके पश्चात् वह लेखक के कथन की विश्वसनीयता का परीक्षण आलोचनात्मक विधि से करता है। लेखक का कथन ही ऐतिहासिक तथ्य होते हैं। यदि इसका स्वरूप उच्च कोटि का नहीं है, तो इतिहासकार का रचनात्मक कार्य निम्न कोटि का होगा। तथ्य ही इतिहासकार का कच्चा माल, ईंट, सीमेंट, लोहे के छड़, पत्थर, संगमरमर के टुकड़ों की भाँति होते हैं । इसकी शुद्धता से अच्छे भवन का निर्माण होता है।

राजस्थान के राजाओं के दरबारी चारण राजाओं की प्रशंसा में गीतों की रचना करते थे। उन्हें लिपिबद्ध किया गया है। इस प्रकार वर्णित तथ्यों की यथार्थता संदिग्ध है क्योंकि इनमें अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा का संग्रह है। यद्यपि तराइन के द्वितीय युद्ध में 1192 में पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु हो गई थी, परन्तु चन्दबरदाई ने पृथ्वीराज की मृत्यु का दूसरा ही कारण बताया है जो सही नहीं है। चन्दबरदाई के कारण की कोई ऐतिहासिक कहानी नहीं है।

आन्तरिक आलोचना की विधियाँ पूर्ण रूप से वैज्ञानिक होती हैं। अनेक ऐतिहासिक स्रोतों में वर्णित तथ्य द्वेष तथा पक्षपातपूर्ण होते हैं। प्रत्यक्षवादी इतिहासकार वैज्ञानिक विधाओं से इन तथ्यों का परीक्षण करके यथार्थ की गवेषणा तथा प्रस्तुतीकरण करता है। बाणभट्ट तथा अबुलफजल की रचनाएँ ऐसे उद्धरणों से भरी पड़ी हैं। हिन्दुओं में जीवन चरित्रात्मक इतिहास का प्रचलन हुआ। पुराणों में राम, रावण, मान्धाता, भागीरथ, युधिष्ठिर, अर्जुन आदि महापुरुषों के अस्तित्व को भी सन्देहास्पद माना गया है और यहाँ तक कहाँ गया है कि हम नहीं कह सकते कि वे कभी हुए थे अथवा नहीं।

भारतीय इतिहास में कुछ ऐसे ऐतिहासिक ग्रन्थ हैं जो कथानकों, किंवदन्तियों से भरे पड़े हैं जिनकी ऐतिहासिकता संदिग्ध है। इन ग्रन्थों में फोर्स की रचना 'रसमाला', गंगाधर कृत गंगादास, प्रताप विलास एवं मेंडलीक महाकाव्य आदि यद्यपि ऐतिहासिक रचनाएँ हैं, लेखकों ने कल्पना के उड़ान में ऐतिहासिक तथ्यों की उपेक्षा की है और उनकी पुष्टि अन्य परन्तु ऐतिहासिक स्रोतों से करना असम्भव है। इसी प्रकार 'मुहणोत नैणसी की ख्यात' तथा 'हम्मीर महाकाव्य' में कथानकों एवं किंवदन्तियों की भरमार है। प्रत्यक्षवादी वैज्ञानिक इतिहासकार ऐसे तथ्यों को यथावत् स्वीकार न करके गवेषणात्मक आलोचनात्मक विधा द्वारा अन्य ऐतिहासिक स्रोतों से पुष्टि करने का प्रयास करते हैं। बाणभट्ट तथा अबुलफजल की ऐतिहासिक रचनाएँ अत्यधिक अतिशयोक्तिपूर्ण हैं।

(3) सकारात्मक आलोचना-

सकारात्मक आलोचना द्वारा यथार्थता की गवेषणा के लिए भाषा का ज्ञान आवश्यक है। दार्शनिकों ने भी प्रत्यक्षवादी सिद्धान्त के आधार पर वाक्य विन्यास की विधा को सार्थक बताया है। दार्शनिक कारनैप ने अर्थनिर्धारण का विश्लेषण करते हुए पुन: परीक्षणीयता अथवा सत्यापन की आवश्यकता को स्वीकार किया है। उनका मानना है कि उसके आधार पर कुछ ऐसे निरीक्षणीय वाक्य अथवा स्वभावमूलक वाक्य ही सत्यापन के आधार होते हैं। प्रायः ऐतिहासिक स्रोत के मूल लेखक अपने विचारों की अभिव्यक्ति ऐसे वाक्यों के माध्यम से करते हैं जिसका शाब्दिक अर्थ वास्तविक अर्थ से भिन्न होता है। जब शेक्सपियर कृत जूलियस सीजर में मार्क एंटोनी ने ब्रूटस को मानवीय शब्द से सम्बोधित किया तो उसका अभिप्राय व्यंग्यात्मक था। एंटोनी का अभिप्राय प्रतिष्ठासूचक नहीं, अपितु विश्लेषणात्मक रहा है।

प्रायः मूल लेखक अपने युग की भाषा, रीति-रिवाज के अनुसार अपने विचारों की अभिव्यक्ति करता है। उदाहरणार्थ, 'गली में बुद्धि का रोना' का अभिप्राय यह है कि निरंकुश तानाशाह शासक द्वारा अनुभवी, बुद्धिमान सलाहकारों की सलाह की उपेक्षा। 1325 में गयासुद्दीन तुगलक की मृत्यु एक सुनियोजित षड्यन्त्र का परिणाम था, परन्तु प्रत्यक्षदर्शी इतिहासकार बरनी मात्र एक वाक्य में उल्लेख करता है- "आकाश से उल्कापात, अल्लाह सत्य को जानता है।" इसी प्रकार मध्ययुगीन चित्रों में बिस्तर पर लेटे हुए शासकों के सर पर मुकुट चित्रित किया गया है इसका संकेत शासक को साधारण जनसमूह से अलग दिखाना है। जब शेख अब्दुल्ला को 'शेरे कश्मीर' कहा गया, तो इसका संकेत उसकी बहादुरी से था।

इस प्रकार सकारात्मक आलोचना का एकमात्र उद्देश्य मूल लेखक के कथनों से वास्तविक अर्थ की गवेषणा है। प्रायः मूल लेखक की विवशता परिस्थितिजन्य होती है जिसके कारण वह अपनी अभिव्यक्ति को शब्दजाल से प्रस्तुत करता है। सकारात्मक आलोचना का स्वरूप विश्लेषणात्मक होता है। शोधकर्ता का निष्कर्ष निश्चयात्मक होना चाहिए। आलोचना सिद्धान्त को दीक्षा नहीं दी जा सकती क्योंकि यह एक कला है, जिसके लिए शोधकर्ता की व्यक्तिगत प्रतिभा की आवश्यकता होती है। फिर भी सकारात्मक आलोचना विधायुक्त है।

(4) नकारात्मक आलोचना-

प्रत्यक्षवादी वैज्ञानिक अवधारणा का एकमात्र अभिप्राय यथार्थ तथ्यों की गवेषणाह'। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए शोधकर्ता प्रत्येक वाक्य को संदिग्ध दृष्टि से देखता है। मूल लेखक की संदिग्धता के कुछ आधारभूत कारण होते हैं। हसन निजामी ने मुहम्मद गौरी की मृत्यु के विषय में लिखा है "उसकी आत्मा आठों स्वर्गों तथा नौ आसमानों को पार कर दस फरिश्तों में जा मिली।" इस प्रकार वह मुहम्मद गौरी की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा करके दिल्ली के प्रारम्भिक सुल्तानों को प्रसन्न कर धनोपार्जन तथा राज्याश्रय प्राप्त करना चाहता था। इसी प्रकार मुगलकालीन इतिहासकार बदायूँनी ने उन सभी की आलोचना की है जिनका दृष्टिकोण उदारवादी था। बदायूँनी स्वयं एक कट्टर धर्मान्ध सुन्नी मुसलमान था। उसने शरीअत का विरोध करने वालों की कटु आलोचना की है।

इस प्रकार इन इतिहासकारों का कथन पूर्ण रूप से विश्वसनीय नहीं है। धर्म, जाति के कारण भी इतिहासकारों के कथन को संदेहपूर्ण दृष्टि से देखा जाना चाहिए। औरंगजेब के संबंध में सर यदुनाथ सरकार और फारुकी का दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से धर्म एवं जातिगत भावनाओं से प्रेरित है। गिवन, कार्ल मार्क्स तथा टायनबी ने विशेष दृष्टिकोण से अतीत का अवलोकन कर तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इसी प्रकार हीगेल, क्रोचे तथा कालिंगवुड ने विशेष दृष्टिकोण से अतीत की व्याख्या की है।

आधुनिक युग में प्रायोगिक मनोविज्ञान के इतिहासकारों ने गवेषणा की नवीनतम विधा प्रस्तुत की है। विशेष परिस्थिति में मानवीय मस्तिष्क की प्रक्रिया का अनुमान लगाया जा सकता है। जानसन के अनुसार यदि कोई प्रत्यक्षदर्शी न्यायालय में यह बयान दे कि उसने अंधेरे में एक व्यक्ति को लाल टोपो देखी परन्तु नीले कोट को नहीं देख संका, तो उसका बयान गलत सिद्ध हो जायेगा क्योंकि प्रायोगिक मनोविज्ञान विधा से यह सिद्ध किया गया है कि अंधेरे में लाल को अपेक्षा नीला रंग स्पष्ट दिखाई देता है। इस प्रकार शोधकर्ता के लिए मानसिक प्रक्रिया का ज्ञान आवश्यक है।

अबुलफजल अकबर के शासन काल की सभी घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी था। परन्तु उसने भी घटनाओं का यथार्थ उल्लेख नहीं किया है क्योंकि यह यथार्थ वर्णन द्वारा अकबर महान् के चरित्र को कलंकित नहीं करना चाहता था। अकबर की मुगल सेना ने खानदेश में असीरगढ़ के दुर्ग पर विजय प्राप्त की। अबुलफजल घटना का प्रत्यक्षदर्शी था। विजय के कारणों का वर्णन करते हुए उसने लिखा है कि महामारी के कारण विजय सरल हो गई। परन्तु पुर्तगाली प्रत्यक्षदर्शी जैवियर ने लिखा है कि मुगल सेनापति ने किले के रक्षकों को घूस देकर किले का द्वार खुलवा दिया। मुगल सेना ने प्रवेश करके किले पर अधिकार कर लिया।

नकारात्मक आलोचना विधि से शोधकर्ता को यह पता लगाना चाहिए कि किन परिस्थितियों के कारण प्रत्यक्षदर्शी इतिहासकार ने घटना की वास्तविकता को छिपाने का प्रयास किया है। जॉनसन ने कहा है कि शोधकर्ता को प्रत्यक्षदर्शी की भावुक तथा बौद्धिक क्षमता का परीक्षण किये बिना उसके विवरण को यथार्थ मानकर नहीं स्वीवकार करना चाहिए। उसके द्वारा वर्णित तथ्यों को अन्य स्रोतों से पुष्टि करनी चाहिए। ब्रिटिश इतिहासकारों ने राबर्ट क्लाइव को भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का संस्थापक माना है, जबकि भारतीय इतिहासकारों ने उसे एक लुटेरे की संज्ञा दी है।

इसी प्रकार ऐतिहासिक स्रोतों में अनेक अफवाहों तथा किंवदन्तियों का विवरण मिलता है जिसका प्रयोग प्रायः इतिहासकारों ने किया है। डॉ. एल. पी. पाण्डेय के अनुसार, "समय परिवर्तन के साथ परिष्कृत परम्परा ने ऐतिहासिक तथ्य के रूप में मान्यता प्राप्त की है।"

(5) मूल लेखक सम्बन्धी ज्ञान-

कुछ ऐतिहासिक सोतों के लेखक संदिग्ध होते हैं। बाइबिल को लिपिबद्ध करने का श्रेय इसाइया को है। प्रत्यक्षवादी वैज्ञानिक इतिहासकारों ने बाह्य आलोचना विधिसे इस धार्मिक पुस्तक की गवेषणा की तो इसके मूल लेखक के विषय में सन्देह होने लगा। बाइबिल के प्रथम अध्याय में ईसामसीह के समकालीन जुड़ा के शासकों का उल्लेख है, परन्तु पैंतालीसवें अध्याय में पर्सिया के शासक सीरस का वर्णन है। इस प्रकार प्रथम अध्याय के वर्णन तथा पैंतालीसवें अध्याय की कथावस्तु में दो सौ वर्षों का अन्तर है। इस प्रकार किसी लेखक की दो सौ वर्ष की अयु असम्भव है। ऐतिहासिक गवेषणा की आलोचनात्मक विधि से बाइबिल की विवेचना के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया कि इस धार्मिक पुस्तक के तीन लेखक इसाइया प्रथम, इसाइया द्वितीय तथा इसाइया तृतीय थे।

इसी प्रकार की संदिग्धता अबुलफजल कृत अकबरनामा' के विषय में भी है। अकबरनामा में 1526 से 1605 तक की ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख है। अबुलफजल की हत्या वीरसिंह बुंदेला द्वारा 1601-02 में कर दी गई थी। अत: 1601-02 के बाद की घटनाओं का वर्णन किसी दूसरे व्यक्ति ने किया है, जिसका अनुमान अभी तक नहीं लगाया जा सका है। ऐसी परिस्थिति में शोधकर्ता द्वारा बाह्य आलोचना की विधि से मूल लेखक का निश्चय करके विश्वसनीयता को पुनर्स्थापित करना चाहिए।

(6) सहायक ऐतिहासिक स्रोतों का प्रयोग-

वास्तविक लेखक का पता लगाने के लिए पड़ोसी राज्यों के शासनकाल की घटनाओं सम्बन्धी स्रोतों का प्रयोग करना चाहिए। बाइबिल के मूल लेखक इसाइया का काल 740 से 700 ई. पूर्व था। तृतीय इसाइया इसके पश्चात् आता है। इससे सिद्ध होता है कि बाइबिल तीन लेखकों द्वारा लिखी गई।

(7) ऐतिहासिक स्रोत का स्वर-

बाह्य आलोचना का सर्वाधिक प्रयोग बाइबिल के सम्बन्ध में किया जा सकता है। यहूदियों द्वारा वर्णित घटनाओं में विपरीत स्वर का आभास होता है। बदायूँनी अकबर का समकालीन था। अबुलफजल तथा बदायूँनी के इतिहास में परस्पर विरोधी स्वर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। रोमन इतिहासकार टेसीटस ने आगस्टन वंश के शासकों की कटु आलोचना की है। फ्रांसीसी इतिहासकार टेन ने लिखा है कि ऐसी पुस्तकों को देखने के बाद शोधकर्ता स्वतः इस निष्कर्ष पर पहुँच जाता है कि पुस्तक का क्या स्वर तथा तथ्य है।

यदि हेरोडोटस से टायनबी तक इतिहास लेखन की प्रवृत्तियों का अध्ययन किया जाए, तो विभिन्न स्वरों के अनेक उदाहरण मिलेंगे (i) गुमनाम लेख, (ii) छायामात्र लेखक, (iii) संस्मकरणात्मक जीवनी तथा आत्मकथा, (iv) व्यक्तिगत पत्र, (v) समाचारपत्र, (vi) जालसाजी की गवेषणा तथा साहित्यिक चोरी।

(8) साक्ष्य-

वैज्ञानिक विधा में आस्थावान इतिहासकारों ने यथार्थता की पुष्टि के लिए अनेक विधाओं का प्रतिपादन किया है। इतिहासकार में कार्य-कारण के संबंधों का भी स्पष्ट ज्ञान होना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक घटनाओं के स्पष्टीकरण तथा वस्तुनिष्ठा की विधा का ज्ञान शोधकर्ता के लिए अपरिहार्य है।

कॉप्टे के प्रत्यक्षवादी सिद्धान्त के अनुसार अतीत का निरीक्षण, अवलोकन और परीक्षण तो संभव नहीं है। फिर यदि रांके तथा उनके अनुयायियों द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक विधा का प्रयोग अतीत को गवेषणा के लिए किया जाए, तो निश्चित रूप से अतीत का यथार्थ प्रस्तुतीकरण संभव हो सकेगा।

ऐतिहासिक प्रत्यक्षवाद की आलोचना

इतिहास के प्रति दार्शनिकों की अभिरुचि तथा आकर्षण का एकमात्र कारण अतीत की रहस्यवादिता रही है। यदि वैज्ञानिकों ने प्रकृति के तथ्यों के रहस्योद्घाटन का प्रयास किया तो दार्शनिकों एवं वैज्ञानिक विधा में आस्था रखने वाले प्रत्यक्षवादी इतिहासकारों ने अतीत के गर्भ में अन्तर्निहित तथ्यों को प्रकाश में लाने का प्रयास किया है। मानव ज्ञान के लिए अतीत की उपयोगिता असंदिग्ध है। अतीत संबंधी ज्ञान की उपादेयता को सभी इतिहासकारों ने एक स्वर से स्वीकार किया है।

ओकशाट ने लिखा है कि व्यावहारिक अतीत के गर्भ से वर्तमान का आविर्भाव हुआ है और यही मनुष्य के भविष्य का निर्णय करता रहेगा। इतिहासकारों द्वारा अतीत का अध्ययन वर्तमान को सुरक्षित करने तथा सुखद भविष्य के निर्माण के लिए किया गया है।

रांके तथा नेबूर ने प्रत्यक्षवादी अवधारणा के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। उनका विश्वास था कि यदि अतीत का यथावत् प्रस्तुतीकरण किया जाए, तो वह मानव समाज के लिए अत्यधिक उपयोगी तथा कल्याणकारी होगा। कार्ल मार्क्स प्रत्यक्षवादी अवधारणा का कटु आलोचक था। उसने कहा कि "प्रत्यक्षवाद एक अनुपयुक्त शब्द है।" यद्यपि अतीत अध्ययन की उपादेयता में कार्ल मार्क्स की अटूट आस्था थी, परन्तु उसने रांके की प्रत्यक्षवादी अवधारणा के अनुसार अतीत के यथावत् प्रस्तुतीकरण की कटु आलोचना की है। उसने कहा है कि प्रत्यक्षवादी अवधारणा के अनुसार अतीत के यथावत् प्रस्तुतीकरण का अभिप्राय दास प्रथा, सामतंतशाही व्यवस्था तथा कुलीन वर्ग द्वारा गरीब श्रमिकों के शोषण को मान्यता प्रदान करना होगा। इस पुरातन व्यस्था के कारण गरीब श्रमिकों के असंख्य शवों पर इतिहास का निर्माण हुआ है।

कॉम्टे को प्रत्यक्षवाद का जनक कहा जाता है। उसने जीवन भर अतीत की गवेषणा में वैज्ञानिक विधाओं के प्रयोग की अनिवार्यता का समर्थन किया। उसके प्रत्यक्षवाद में धर्म तथा नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं था। यदि कॉम्टे ने अपने प्रत्यक्षवादी सिद्धान्तों को स्थायित्व प्रदान किया होता, तो निश्चित ही आधुनिक युग के श्रेष्ठतम वैज्ञानिक विचारकों में एक प्रतिष्ठित स्थान अवश्य प्राप्त करता। मिल का मत है कि कॉम्टे ने प्रत्यक्षवादी दर्शन जिस वैज्ञानिक स्तर पर स्थापित किया, उस पर वह स्वयं ही स्थिर नहीं रह सका। उसके प्रत्यक्षवादी दर्शन में धर्म तथा नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं था, अन्त में वह धर्म तथा नैतिकता का पुजारी बन गय। इसीलिए मार्विन ने कहा है कि "प्रत्यक्षवाद का जनक स्वयं ही सबसे कम प्रत्यक्षवादी था।" काम्टे की भाँति रांके भी अपने प्रत्यक्षवादी सिद्धान्तों पर अडिग नहीं रहा और अल्प समय में ही अपने सिद्धान्तों को तिलांजलि दे दी। रांके ने प्रत्यक्षवादी इतिहास लेखक की इतनी दुर्बल आधारशिला रखी कि उसके जीवनकाल में निम्न कोटि की सामग्री से निर्मित इमारत स्वयमेव ध्वस्त होने लगी। उसके अनुयायियों के अथक प्रयासों के बावजूद प्रत्यक्षवादी इमारत खण्डहर बन गई । फ्रांसीसी इतिहासकार फस्टेल द कोलैंज़ ने भी ऐतिहासिक प्रत्यक्षवाद की आलोचना की है।

प्रत्यक्षवाद तथा समसामयिकवाद

दार्शनिक क्रोचे ने प्रत्यक्षवाद की कटु आलोचना की है। उसने इतिहास की विषयवस्तु के स्वरूप को मान्यता प्रदान की तथा वस्तुनिष्ठ लेखन की कटु आलोचना की है। इतिहास पर संस्कार, जाति, धर्म तथा सामाजिक परिवेश का प्रभाव अपरिहार्य है। वह कितना ही वस्तुनिष्ठ तथा निष्पक्ष क्यों न हो, वह अपने समसामयिक समाज का सदस्य होता है तथा अपनी रचना समसामयिक रुचि एवं आवश्यकता के अनुसार करता है।

इसीलिए क्रोचे ने प्रत्यक्षवादी अवधारणा की कटु आलोचना करते हुए समसामयिकता को सभी इतिहास लेखन की विशेषता कहा है। कोई भी इतिहासकार अपने को बाह्य परिस्थितियों में मुक्त नहीं कर पाता है, वह वस्तुनिष्ठा के आवरण से अपने को ढकने का कितना ही प्रयास क्यों न करे। इसीलिए इतिहासकार को अवांछित तथा निष्पक्ष इतिहास लेखन का प्रयास नहीं करना चाहिए। समसामयिक प्रभावों से इतिहास को मुक्त करने का अभिप्राय मृत अतीत का मृत प्रस्तुतीकरण होगा।

क्रोचे के विचारों को बढ़ाने का एकमात्र श्रेय कालिंगवुड ने समस्त इतिहास को विचार का इतिहास कहा है। उसने भी सामाजिक परिवर्तनों के परिवेश में विचारों तथा साक्ष्यों में परिवर्तन की अपरिहार्यता को स्वीकार किया है। सभी इतिहासकारों ने एक स्वर से समसामयिक रुचि एवं आवश्यकतानुसार इतिहास लेखन की आवश्यकता को अनुभव किया है। इतिहासकार अपने समसामयिक समाज का सदस्य ही नहीं, अपितु साहित्यकार की भाँति समाज का प्रतिनिधि होता है। उसकी वाणी युग की पुकार होती है। युग की वाणी की उपेक्षा करने वाले व्यक्ति सफल इतिहासकार नहीं होते।

प्रत्यक्षवादी इतिहासकार रांके तथा उनके अनुयायियों ने अतीत के यथावत् प्रस्तुतीकरण संबंधी स्वप्नलोकीय कल्पना की है। परन्तु एफ.एच. ब्रैडले ने इस स्वप्नलोकीय कल्पना का कटु आलोचना करते हुए कहा है कि वर्तमान सामाजिक परिवर्तनों के परिवेश में अतीत के प्रस्तुतीकरण के स्वरूप में परिवर्तन स्वाभाविक एवं अपरिहार्य है।

आर. बी. हाल्डेन ने भी प्रत्यक्षवादी अवधारणा की आलोचना करते हुए लिखा है कि इतिहास का स्वरूप कला की भौति है। इसमें वैज्ञानिक विधाओं का प्रतिरोपण एक अपवाद है।

जी.पी. टेगार्ट ने प्रत्यक्षवादी अवधारणा को स्पष्ट रूप से अस्वीकार किया है तथा समसामयिक परिवर्तनों का इतिहास-लेखन पर प्रभाव को स्वीकार किया है। चार्ल्स ओमन के अनुसार इतिहास विशुद्ध रूप से विषयनिष्ठ नहीं है, इतिहासकार अपनी व्याख्या के माध्यम से तथ्यों का संबंध व्यवस्थित करता है। इस प्रकार अतीत तथा वर्तमान के अन्योन्याश्रित संबंध के परिवेश में ई.एच. कार ने कहा है कि इतिहास अतीत तथा वर्तमान के बीच अनवरत परिसम्वाद है।

परिकल्पना और प्रत्यक्षवाद

प्रत्यक्षवादी तथा वैज्ञानिक विधा में अटूट आस्था रखने वाले इतिहासकारों ने इतिहास की साहित्य शैली की कटु आलोचना की है। 1939 में हिस्टोरिकल एसोसिएशन के समक्ष अपने अभिभाषण में अर्ल आफ क्राफोर्ड एवं बालकेरीज ने कहा था कि "इतिहास एक सुन्दर चित्र है जिसकी शोभा किसी आकार में मढ़कर नहीं बढ़ाई जा सकती अथवा यह एक बहुमूल्य रत्न है, जिसकी सुन्दरता की अभिवृद्धि किसी आभूषण में जड़कर नहीं बढ़ाई जा सकती।"

1903 ई. में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में अभिभाषण देते हुए प्रो. जे.बी. ब्यूरी ने कहा था कि "इतिहास विज्ञान है, न कम और न अधिक।" उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि "जब तक इतिहास को कला माना जायेगा, इसमें सत्यता तथा यथार्थता का प्रतिष्ठापन कठिन होगा और यह स्मरण दिलाना चाहूँगा कि इतिहास साहित्य की शाखा नहीं है।" आई.ए. रिचर्ड्स ने लिखा है कि "कला सम्प्रेषण प्रक्रिया का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप है।"

हेनरी पिरेन का कथन है कि इतिहास प्राचीन काव्य है तथा काव्य के रूप में हमारे स्वभाव के अनुरूप है। मानवीय स्वभाव संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति इतिहास द्वारा होती है। क्रोचे के अनुसार कला न अनन्द के आदान-प्रदान का साधन है और न प्राकृतिक सौन्दर्य का चित्रण, बल्कि व्यक्तिगत अन्तर्ज्ञानात्मक दृष्टि की अभिव्यक्ति है। कलाकार के इस विशिष्ट प्रस्तुतीकरण को सभी लोग उसी रूप में देखते हैं। कला इस प्रकार व्यक्तिगत भावनाओं की अभिव्यति की प्रक्रिया नहीं अपितु किसी व्यक्ति के ज्ञान की अभिव्यक्ति है। क्रोचे के अनुसार इतिहासकार का पुनीत कर्त्तव्य अतीतकालिक तथ्यों का कलात्मक प्रस्तुतीकरण है।

इस प्रकार कला भावनाओं की अभिवयक्ति मात्र नहीं, अपितु संज्ञानात्मक प्रक्रिया है। निश्चित रूप से इसका ज्ञान व्यक्तिगत तथा विशिष्ट है। एक वैज्ञानिक प्राकृतिक तथ्यों का अवलोकन करता है तथा इतिहासकार एक कलाकार के रूप में अनुभव करता है। इतिहासकार तथा कलाकार में यही सामंजस्य है। इतिहास एक अत्यन्त लोकप्रिय कला है। सामान्यता के साथ दोनों में अंतर भी है। कला में मात्र संभावनाओं का वर्णन होता है। इसके विपरीत इतिहास यथार्थ ऐतिहासिक तथ्यों का प्रस्तुतीकरण है। एक कलाकार अपने विशिष्ट शिल्प से प्राकृतिक सौन्दर्य का अवलोकन करके उसका प्रस्तुतीकरण करता है। इतिहासकार अपने अतीतकालिक स्रोतों पर आधारित घटनाओं की अनुभूति अपने मस्तिष्क में करता है। उसका प्रस्तुतीकरण मानसिक प्रक्रिया का परिणाम होता है।

कार्ल पियर्सन ने भी इतिहास को कला स्वीकार किया है। उसके अनुसार ज्ञान को दक्षता प्रदान करने के लिए कलात्मक शैली अपरिहार्य है। जी.आर. एल्टन का मत है कि वैज्ञानिक विधाओं से परिष्कृत करने के बाद उसके प्रस्तुतीकरण में कलात्मक शैली की नितान्त आवश्यकता होती है। इतिहासकार अपनी शैली में अतीत का परिकल्पनात्मक चित्र प्रस्तुत करता है। यह गिबन, मैकाले, कारलायल की साहित्यिक शैली का अनुकरण नहीं कर सकता और न उसे करना चाहिए। उसकी रचना समसामयिक समाज के लिए होती है। इतिहासकार यथार्थता के साथ विवरण संबंधी कुशलता, रोचकता, दृष्टान्तों का चयन तथा चरित्र की विशेषताओं पर विशेष ध्यान देता है। इस गंभीर अर्थ में इतिहास निश्चित रूप से कला है।

प्रत्यक्षवादी वैज्ञानिक विधियों से अतीत के यथर्थ तथ्यों का प्रस्तुतीकरण इतिहास को नीरस, दुरूह तथा अपठनीय बना देगा। ऐतिहासिक तथ्य नीरस, निर्जीव तथा अस्थिपंजर मात्र होते हैं। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा आदि स्थानों की खुदाई के पश्चात् प्राप्त भग्नावशेष, खण्डित मूर्तियाँ, बर्तनों के टुकड़े आदि को यदि यथावत् प्रस्तुत किया जाए, तो उसमें समसामयिक समाज की क्या रुचि होगी। यह इतिहासकार की विशेषता है कि इन्हीं निर्जीव, अस्थिपंजर तथ्यों के आधार पर अतीत का परिकल्पनात्मक, सरस तथा रोचक प्रस्तुतीकरण समसामयिक समाज को प्रदान करता है। परिणामस्वरूप समसामयिक समाज में अतीतकालिक पूर्वजों की उपलब्धियों के ज्ञान के लिए स्वयमेव उत्कंठा जाग्रत हो जाती है।

इतिहासकार पर्यटक गाइड की भाँति समसामयिक समाज के लोगों को अपनी रचना के माध्यम से अतीतकालिक समाज के राजमहलों के जीवन से लेकर जनसामान्य की झोंपड़ियों में रहने वाले गरीबों, उनके सामाजिक रीति-रिवाजों, संस्कारों, धार्मिक वातावरण, आर्थिक जीवन का अवलोकन कराकर इतिहास-अध्ययन के लिए अभिरुचि का सृजन करता है। यदि इतिहासकार में मृत अतीत के निर्जीव तथ्यों को सरस, रोचक तथा आकर्षक बनाने की क्षमता नहीं है, तो वह सफल इतिहासकार नहीं हो सकता। यह इतिहासकार की कुशलता पर निर्भर करता है कि वह पाठक को अतीतकालिक समाज में परिभ्रमण कराकर उसके मस्तिष्क को कितना प्रभावित करता है। इतिहास तथ्य एवं परिकल्पना का एक सुन्दर समन्वय है। ऐतिहासिक तथ्य के प्रस्तुतीकरण में परिकल्पना का वैसा ही स्वरूप है जैसे समुद्र तट पर समुद्र के बीच सुन्दर पाषाण-शिला। ट्रेवेलियन ने उचित ही कहा है कि यथार्थता इतिहास अध्ययन की कसौटी है, इसकी उत्प्रेरक अभ्यर्थना व्याख्यात्मक है।

रोमांटिक युग के इतिहासकार गिबन, मैकाले, कारलायल तथा वाल्टर स्काट की रचनाएँ साहित्यिक एवं काव्यात्मक हैं। इन इतिहासकारों की लोकप्रियता का रहस्य उनकी काव्यात्मक साहित्यिक शैली है। इस प्रकार परिकल्पना को इतिहास लेखन से अलग करने का अभिप्राय शरीर से हृदय को अलग कर निष्प्राण करना होगा। प्रत्यक्षवादी इतिहासकारों द्वारा अतीत का यथावत् प्रस्तुतीकरण का तात्पर्य मृत अतीत का निर्जीव एवं निष्प्राण प्रस्तुतीकरण होगा। ऐसा इतिहास समसामयिक समाज को अतीत की गवेषणा के लिए क्या रुचि सृजन कर सकता है। यदि इतिहास अध्ययन का उद्देश्य वर्तमान को प्रशिक्षित करना तथा सुखद एवं सुसम्पन्न भविष्य का मार्गदर्शन होता है तो निश्चित रूप से प्रत्यक्षवादी अवधारणा अभिशाप स्वरूप है। इसीलिए इतिहास को अंधेरी कोठरी कहा गया है।

डॉ. झारखण्डे चौबे के अनुसार, "निष्कर्ष के रूप में हमें स्वीकार करना होगा कि इतिहास को समसामयिकतावाद तथा परिकल्पना के प्रभावों से मुक्त नहीं किया जाना चाहिए। इस तथ्य को स्वीकारने से इतिहास में प्रत्यक्षवाद की उपादेयता संदिग्ध हो जाती है। प्रत्यक्षवाद का संबंध मात्र यथार्थ तथ्यों के चयन तक सीमित होना चाहिए। उसके प्रस्तुतीकरण में कलात्मक तथा साहित्यिक शैली को अपरिहार्यता को सभी इतिहासकार स्वीकार करेंगे।"

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