इतिहास में प्रगति
की अवधारणा
समाज की विकासात्मक गतिविधियों को प्रगति कहते हैं। प्रगति एक अमूर्त संज्ञा है, मानव जाति जिन लक्ष्यों को प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील है, उसकी प्राप्ति इतिहास के बाहर नहीं, अपितु इतिहास के हो परिप्रेक्ष्य में संभव है।
लेनपूल का कहना है कि इतिहास
सदैव गतिशील रहता है। इसके अन्तर्गत किसी घटना का विचार या प्रारंभ नवीन
नहीं होता। प्रत्येक युग अतीत के भार से बोझिल रहता है। वर्तमान का
आविर्भाव अतीत के गर्भ से ही होता है। प्रत्येक इतिहासकार अतीत की परम्परा
को वर्तमान तथा भविष्य में परिप्रेक्षित देखता है। प्रगति की इसी अवधारणा
को ऐक्टन ने वैज्ञानिक अवधारणा की संज्ञा दी है।
इतिहास में प्रगति अवधारणा
का चिन्तन केन्द्र इंग्लैण्ड रहा है। ब्रिटिश इतिहासकार बटरफील्ड तथा लार्ड
ऐक्टन प्रगति की अवधारणा के जनक रहे हैं। इन विद्वानों ने ब्रिटिश साम्राज्य
की निरन्तर विकास प्रक्रिया में प्रगति की अवधारणा को ढूँढ़ने का
प्रयास किया है।
यूरोप का एक छोटा सा राज्य उन्नीसवीं सदी के
उत्तरार्द्ध तथा बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक यूरोपीय महाद्वीप के मानचित्र
पर एक महाशक्ति बनकर प्रकट हुआ। उसका साम्राज्य सुदूर पूर्व दक्षिण पूर्व एवं
पश्चिम एशिया, अफ्रीका महाद्वीप, उत्तरी
तथा दक्षिणी अमेरिका तक विस्तृत था। ब्रिटिश इतिहासकार गर्व से यह कहने लगे कि
ब्रिटिश साम्राज्य में सूर्यास्त कभी नहीं होता है। ब्रिटिश इतिहासकारों ने
ब्रिटिश साम्राज्य की प्रगति के विभिन्न आयामों का अध्ययन किया। इस प्रकार प्रगति अवधारणा
के उद्गम का एक मात्र श्रेय ब्रिटिश इतिहासकारों को ही दिया जाता है।
प्रगति अवधारणा का
स्वरूप
प्रगति का स्वरूप एक समान नहीं रहता
है। इसमें आरोह, अवरोह, उत्थान,
पतन, विकास तथा हास की स्थितियाँ आती रहती
हैं। प्रगति में एक समान निरन्तरता की कल्पना एक भ्रम है। उत्थान-पतन,
आरोह- अवरोह प्रकृति के नियमानुसार होते हैं। सृष्टि गतिहीन नहीं
है। युग चक्रवादी अवधारणा के अनुसार धर्म की अवनति तथा पतन के परिणामस्वरूप
ही, ईश्वर का अवतार प्रगति को
गति तथा शक्ति प्रदान करने के लिए ही होता है। भारतीय दर्शन में कहा गया
है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृज्याम्यहम्।।
सूर्योदय के पश्चात् सूर्यास्त तथा रात्रि का आगमन
धीरे-धीरे ही होता है। रात्रि अपना कार्य दिन को तथा दिन अपना कार्य रात्रि को
सुपुर्द करता है। यही प्रगति की गतिशीलता की अवस्थाएँ हैं। इसी प्रकार एक युग
प्रगति के दायित्व को दूसरे युग को सुपुर्द करता है।
इतिहास की प्रगति में व्यक्ति की
भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, क्योंकि वह चिन्तनशील
प्राणी है। मनुष्य की रचना शक्ति और उसके कर्म से ही इतिहास की नवीन धाराएँ निकलती
हैं। सृजनशील व्यक्तियों द्वारा ही इतिहास का निर्माण होता है। कर्म का
सिद्धान्त व्यक्तिवादी है। मोक्ष का सिद्धान्त व्यक्तिगत प्रगति की
अवधारणा का पोषक है। व्यक्तिगत प्रगति का प्रयास प्रगति की अवधारणा नहीं
कहा जा सकता। प्रगति का मापदण्ड समाज होता है। सामाजिक सामूहिकता प्रगति के लिए
परमावश्यक है। सामूहिक प्रयास से ही सामाजिक प्रगति सम्भव है।
कालिंगवुड के अनुसार पशु-पक्षियों का
भी समाज होता है, परन्तु उस समाज में प्रगति संभव नहीं है,
क्योंकि प्रगति के लिए चिन्तनशील मस्तिष्क की आवश्यकता होती है। प्रगति
का मार्ग चिन्तनशील मनुष्य तथा समाज के सहयोग द्वारा ही प्रशस्त किया जा सकता है।
मनुष्य चिन्तनशील होते हुए भी बिना समाज के सहयोग के अकेले कुछ भी नहीं कर सकता।
वैज्ञानिक प्रगति के विभिन्न आयाम समाज के सम्मिलित प्रयासों द्वारा ही संभव हुए
हैं। चन्द्रमा पर मानव का अवतरण भी सामूहिक प्रयासों का परिणाम है।
प्रगति की अवधारणा
के संबंध में विरोधात्मक विचार
इतिहास प्रगति नही
है-
भारतीय तथा युनानी संस्कृतियो
में यह अवधारणा पायी जाती है कि मानव इतिहास पूर्व से ही निर्धारित है। मानव
इतिहास पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार अग्रसर होता रहता है। इसका लक्ष्य भी
सुनिश्चित है। इस अवधारणा के अनुसार मानव इतिहास निरन्तर पतन का इतिहास है
जिसमें मनुष्य अधिकाधिक दुःख तथा निराशा की स्थिति की ओर बढ़ता जाता है। अन्त में
इसे विनष्ट होना पड़ता है। भारतीय अवधारणा के अनुसार इतिहास की गति युग
चक्रीय है। इस प्रकार युग चक्रवादी दृष्टिकोण के अनुसार इतिहास प्रगति
नहीं है।
आधुनिक इतिहास के कुछ विद्वान, मानव जीवन के निरन्तर विकास को प्रगति का सूचक नहीं मानते। रूसो के
अनुसार, वैज्ञानिक युग के कारण मनुष्य की स्वतन्त्रता में
निरन्तर गिरावट हुई है। मनुष्य स्वतन्त्र पैदा होकर भी दासता के बंधन में बंधा हुआ
है। प्रगति का अभिप्राय मानव जीवन के लिए अधिकाधिक स्वतंत्रता की प्राप्ति
है। प्रो. अर्नोल्ड ने 1941 में इस तर्क को बढ़ाया कि
मानव इतिहास का आधुनिक काल इतिहास का अन्तिम चरण है। इस प्रकार का मूल्यांकन
सुख-सुविधा में कमी के आधार पर किया गया है। निस्सन्देह वैज्ञानिक विकास के कारण
यूरोप तथा अमेरिका प्रगतिशील माने जाते हैं, परन्तु इस
प्रगति के साथ मानवीय मूल्यों, गुणों तथा नैतिकता में गिरावट
आयी है।
टायन्बी ने स्पष्ट लिखा है कि
पश्चिमी जगत् पतन की ओर अग्रसर हो रहा है। अत: उसे अपनी रक्षा हेतु प्राचीन
सभ्यताओं से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। स्पेंगलर तथा टॉयन्बी के
दृष्टिकोणों में यथार्थता है। यदि विज्ञान ने मानवीय सुख-सुविधा में वृद्धि की है
तो साथ ही आणविक तथा न्यूक्लीय अस्त्र-शस्त्रों
ने मानवीय विनाश की पृष्ठभूमि भी तैयार की है।
कार्ल मार्क्स तथा एंजिल भी
इतिहास गति को पतनोन्मुख देखते हैं। आज का आर्थिक विकास अगणित लाशों के ऊपर अपना
विजय रथ दौड़ा रहा है। पूँजीवादी अर्थ व्यवस्था ने श्रमिकों का शोषण किया
है। कालिंगवुड के अनुसार विज्ञान, कला, नैतिकता तथा दर्शन में प्रगति होती ही नहीं है, क्योंकि
इनका संबंध स्थान विशेष तथा व्यक्ति विशेष से होता है। गुप्तकालीन स्वर्ण युग की
प्रगति नहीं हुई। शाहजहाँकालीन कला की प्रगति नहीं हुई। कालिदास जैसा साहित्य आज
तक नहीं लिखा गया। अत: इससे स्पष्ट है कि इतिहास में प्रगति की कल्पना करना
भूल होगी।
इतिहास में प्रगति-
इतिहास के अधिकांश विद्वानों का
अभिमत है कि मानव इतिहास निरन्तर प्रगति का इतिहास है। प्रो. गोविन्दचन्द्र
पाण्डे के अनुसार मानव इतिहास अकुशल से कुशल की ओर गतिशील है। यह सही अर्थों
में विकासशील है। यह अधिक न्याय, अधिक सुविधा
तथा अधिक सुख की प्राप्ति की ओर उन्मुख है। सृष्टि के प्रारंभ से आज तक, यदि मानव-समाज के इतिहास का अवलोकन किया जाये तो स्पष्ट हो जाता है
कि प्रारम्भिक एकाकी जीवन से आधुनिक समाज का तुलनात्मक अध्ययन इस तथ्य का स्पष्ट
प्रमाण है कि मानव मस्तिष्क के साथ समाज निरन्तर प्रगतिशील रहा है। लेनपून
ने भी मानव इतिहास को प्रगति की निर्बाध शृंखला कहा है।
प्रगति की अवधारणा (Concept
of Progress) उन्नीसवीं सदी की देन है। समृद्धिशाली ग्रेट ब्रिटेन
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जब अपनी शक्ति, आत्मबल तथा
साम्राज्य विस्तार के उच्च शिखर पर था, उस समय प्रगति की
अवधारणा इतिहासकारों के चिन्तन एवं लेखन की मुख्य विषय वस्तु बन गयी। लार्ड
एक्टन ने कैम्ब्रिज मॉडर्न हिस्ट्री की योजना पर अपनी रिपोर्ट में इतिहास को
एक प्रगतिशील विज्ञान कहा था। ब्रिटिश इतिहास लेखकों पर प्रगति शब्द का इतना
व्यापक प्रभाव पड़ा था कि 1920 में प्रो. जे. बी. ब्यूरी ने
"Idea of Progress" पुस्तक को रचना द्वारा प्रगति
अवधारणा के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। प्रो. ई. एच. कार के
अनुसार पृथ्वी पर मानव इतिहास की पूर्णता के लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयास को प्रगति
का इतिहास माना गया है।
ऐतिहासिक प्रगति का तात्पर्य मानवीय
प्रक्रिया से है। मनुष्य अपने प्रत्येक कार्य में अनेक समस्याओं का सामना करता है।
उसका दूसरा प्रयास समस्याओं के समाधान के लिए होता है। इस प्रकार समस्याओं के
समाधान में निरन्तरता रहती है। इसी निरन्तरता को प्रगति कहते हैं। प्रगति
के लिए निरन्तरता तथा प्रयास आवश्यक तथ्य होता है। कालिंगवुड के अनुसार सभी
इतिहास विचार प्रधान होता है। विचारों की प्रगति इतिहास के माध्यम से ही संभव है।
महान वैज्ञानिक आइन्सटीन ने न्यूटन के विचार तत्व को अपने मस्तिष्क में
रखकर आगे बढ़ाया तो इसे प्रगति कहा जा सकता है। इसी प्रकार कालिंगवुड
के अनुसार प्रगति का अभिप्राय ऐतिहासिक ज्ञान का प्रयास है, जिसे प्रगति (Progress) कहा जा सकता है।
महान दार्शनिक हीगेल के अनुसार इतिहास प्रगतिशील है, क्योंकि मानवीय समाज तथा प्रक्रियाओं में परिवर्तन होता रहता है। प्रकृति
प्रगतिशील नहीं है। पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा,
तारों की स्थिति आज भी वैसी ही है। प्रगति संबंधी अवधारणा में हीगेल
ने दो प्रमुख तथ्यों पर विशेष जोर दिया है।
1. ऐतिहासिक प्रक्रिया की विशेषता
प्रगतिशीलता में है।
2. प्रगतिशीलता को समझने के लिए मानवीय
विचारों को समझना आवश्यक है।
हर्डर की अवधारणा है कि इतिहास प्रगतिशील
है। इतिहास की प्रगति के अन्तर्गत वह विकास-प्रक्रिया को मान्यता
देता है। विकास की प्रत्येक अवस्था प्रकृति द्वारा इस प्रकार नियोजित है कि वह
आगामी अवस्था का मार्ग प्रशस्त कर सके। कोई भी अवस्था स्वयं में लक्ष्य नहीं है
किन्तु मनुष्य के प्रयासों की प्रक्रिया में वह अपनी परिणति को पहुंचती है।
प्रकृति तर्क तथा बुद्धि-जन्य प्राणी को जन्म देती है, जिसका पूर्ण विकास भविष्य में होता है। इस अवधारणा से यह सिद्ध होता है कि
इतिहास की भाँति प्रकृति भी प्रगतिशील है।
कार्ल मार्क्स का भी विश्वास इतिहास
की प्रगतिशीलता में था। उनके अनुसार समाज निरन्तर प्रगति की ओर अग्रसर हो
रहा था। दास प्रथा का अन्त तथा मानव स्वतन्त्रता इस तथ्य की पुष्टि करता है। ई.एच.
कार ने नैतिक तथा तार्किक स्तर पर इसे स्वीकार किया है। जार्ज ऐक्टन के
अनुसार "इतिहास प्रगति का आलेखमात्र नहीं है, अपितु
एक प्रगतिशील विज्ञान है।'
प्रगति प्रक्रिया में कुछ समय
प्रगति का होता है तथा कुछ समय प्रतिक्रिया का होता है। मुगल सम्राट अकबर, जहाँगीर तथा शाहजहाँ का काल प्रगति का था तो औरंगजेब का शासनकाल
प्रतिक्रिया तथा पतन का था। उत्थान व पतन सार्वभौमिक नियमानुसार स्वत: ही होता है।
परन्तु प्रगति में इस अवधारणा का क्रियान्वयन संभव नहीं है। प्रगति में अवरोध उठना
संभव है। परन्तु यह स्वीकार करना अनुचित होगा कि एक बार पीछे हटने के पश्चात् पुनः
उसी मार्ग या बिन्दु से प्रगति का प्रारंभ होगा।
प्रो. जे. बी. ब्यूरी ने
भविष्य के प्रति अपनी आस्था की अभिव्यक्ति की है। उन्होंने कहा है कि प्रगति
अवधारणा के सिद्धान्त में अतीत व भविष्य की कल्पना का समन्वय होता है। एल. बी.
नेमियर के अनुसार इतिहासकार अतीत की कल्पना और भविष्य का स्मरण करता है। प्रगति
अवधारणा को व्याख्या में भविष्य ही अतीत की व्याख्या का सूत्र प्रदान कर सकता
है। अतीत का भविष्य पर प्रकाश तथा भविष्य का अतीत पर प्रकाश डालना स्वाभाविक है। कोंदोर्स
ने भी प्रगति अवधारणा में अतीत, वर्तमान तथा भविष्य की
एकसूत्रता को महत्त्व दिया है। सभी व्यक्ति, समाज तथा
राष्ट्र का प्रयास मानव प्रगति के लिए होता है। भविष्य के प्रति आस्था
मनुष्य को प्रगति के लिए विवश तथा बाध्य करती है।
गेटे का अभिमत है कि जब कोई युग
परिवर्तनशील होता है तो सभी प्रवृत्तियाँ आत्मगत हो जाती हैं। इसके विपरीत जब नवीन
युग का आरंभ होता है तो परिपक्व परिस्थितियों (अतीत) को सभी प्रवृत्तियाँ
पुनः सक्रिय एवं क्रियाशील होकर भविष्य की ओर प्रगति के मार्ग को प्रशस्त करती है।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि इतिहास में प्रगति शक्तियाँ अन्तर्निहित
होती हैं। इनका कभी अन्त नहीं होता।
इतिहास में प्रगति का
तात्पर्य सफलताओं तथा उपलब्धियों मात्र से नहीं होना चाहिए। कालिंगवुड का
कहना है कि प्रचुर साक्ष्यों के आधार पर इतिहासकार किसी युग को उत्थान काल तथा
किसी युग को पतन का काल मान लेता है। इतिहासकार किसी व्यक्ति विशेष को एक
स्थान पर देवता या सर्वोत्कृष्ट महापुरुष बना देता है तो अन्यत्र उसी व्यक्ति को
संस्कारहीन की संज्ञा से सम्बोधित करता है । इतिहासकार वर्तमानकालिक मूल्यों के
आधार पर ऐतिहासिक घटनाओं की व्याख्या करके उसे प्रगति सूचक या विरोधी मान लेता है।
इतिहासकार का पुनीत कर्तव्य तथ्य तथा उसको व्याख्या के बीच एवं तथ्य तथा
मूल्य के बीच सन्तुलन स्थापित करना है। वस्तुतःइतिहास परिवर्तन, गति और प्रगति में निहित है।
ऐक्टन के अनुसार प्रगति वह
वैज्ञानिक अवधारणा है जिसके आधार पर इतिहास लिखा जाता है। इतिहास में अनेक ऐसे
उदाहरण मिलते हैं जब वर्तमानकालिक मनुष्य अपनी क्षमता में विश्वास खोने के बाद
प्रगति की गति को नवीन शक्ति और चेतना प्रदान करने के लिए अतीत की ओर दृष्टिपात
करता है। यूरोप में पुनर्जागरण काल का उदय यूनान तथा रोमन इतिहास के अध्ययन
का ही परिणाम रहा है। इसी प्रकार भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के समय भारतीय नेताओं
ने स्वतन्त्रता की प्रेरणा महाराणा प्रताप, शिवाजी तथा
रानी लक्ष्मी बाई से प्राप्त की।
भारतीय मनीषियों, विचारकों तथा
दार्शनिकों ने प्रगति अवधारणा के विषय में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। इस विषय
पर सर यदुनाथ सरकार, डी. डी. कौशाम्बी, प्रो. राधाकमल मुकर्जी, हुमायूँ, कबीर तथा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के
विचार प्रशंसनीय हैं। सर यदुनाथ सरकार- अर्थव्यवस्था, कला तथा विज्ञान के विकास को राष्ट्र विकास, एकता
तथा सुरक्षा को राष्ट्र प्रगति का मानक मानते हैं। वे राष्ट्र की प्रगति के लिए
आदर्श विचारों तथा आपसी मतभेदों को भुलाकर हिन्दू मुस्लिम समन्वयवाद के
प्रबल पक्षधर थे। राधाकमल मुकर्जी की मान्यता है कि प्रगति का मूल
आधार मानवता तथा सभ्यता है।
पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी प्रगति संबंधी अवधारणा में मानव जिज्ञासा, धर्म चिन्तन को अनिवार्यता के साथ-साथ विज्ञान को अन्वेषणात्मक उपलब्धियों की उपादेयता को स्वीकार किया है। वे कट्टरवादिता के विरोधी थे। डॉ. राधाकृष्णन ने अतीत के वर्तमान रूप में पुनर्जन्म स्वीकार किया है। नेहरूजी का मानना है कि मानव प्रगति के इतिहास में विज्ञान की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है, इसीलिए शान्ति के पुजारी पं. नेहरू ने शान्ति, सहयोग और सहअस्तित्व को मानव प्रगति का एक नवीन आयाम प्रस्तुत किया है। उन्हों के विचारों के अनुसार आज भारत विश्व में प्रगति पथ पर अग्रसर है।
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