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टॉयनबी की अध्ययन पद्धतियाँ व प्रविधियाँ

टॉयनबी की अध्ययन पद्धतियाँ

टॉयनबी द्वारा अपनाई गई प्रमुख अध्ययन पद्धतियाँ निम्नलिखित हैं-

1. अनुभववादी पद्धति-

टॉयनबी का मत है कि भविष्य के विषय में अतीत के आधार पर भविष्यवाणी करना सम्भव है। टॉयनबी ने 20 वर्ष तक लगातार परिश्रम करने के पश्चात् एक विशाल स्थान और समय की सीमाओं में सीमित विभिन्न सभ्यताओं की तुलना करते हुए हमारी स्थिति और भविष्य के सम्बन्ध में जो कुछ भी स्पष्ट किया वह बहुत ही भयानक था। उन्होंने बताया कि 16वीं शताब्दी से हमारी सभ्यता का निरन्तर रूप से पतन हो रहा है। वर्तमान में सभ्यताओं का अन्तिम स्तर सर्वव्यापी राज्य आ चुका है। पश्चिम की सभ्यता प्राय: मिट चुकी है। जिसका कारण वे पाप को मानते हैं और इसका पतन प्राय: एक मात्र पश्चाताप है।

टॉयनबी ने अपने स्वयं को लम्बे अतीत की घटनाओं के साथ एकाकार कर लिया है। इन घटनाओं के माध्यम से ही उसने प्रत्यक्ष रूप से अनुभव प्राप्त किया है। वह प्राय: घटनाओं रूपी सागर की एक लहर के समान बन जाता है जिसके पश्चात् उसके द्वारा कही गई कोई भी बात उपके अनुभव का ही परिणाम मानी जा सकती है। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए उसने अपने आपको तृतीय पुरण के रूप में प्रस्तुत किया है। टॉयनबी की अध्ययन प्रविधि के आधार पर हमें उसके सिद्धान्तों को हमारे अनुभव के अनुकूल पाने पर ही स्वीकार करने चाहिए। हमें चाहिए कि हम उन तथ्यों की यथा सम्भव जाँच करें। क्योंकि टॉयनबी की प्रत्येक बात स्वीकार नहीं की जा सकती है।

टॉयनबी के इस अनुभववादी सिद्धान्त की कई विचारकों द्वारा आलोचना की जाती है। इस सम्बन्ध में आलोचक यह स्पष्ट करते हैं कि टॉयनबी के अनुभववाद को सदैव ही सत्य रूप से ग्रहण करना जरूरी नहीं है। इस सम्बन्ध में रेपर का मत है कि उसकी तकनीकी प्रविधि अनुभव पर आधारित नहीं है। इस प्रविधि के अन्तर्गत सिद्धान्तों को तथ्य रूप में ग्रहण किया गया  है। साथ ही इनकी तथ्यों से जाँच भी नहीं की गई है। इस प्रविधि के अन्तर्गत सिद्धान्तों के चित्रित करने के लिए तथ्यों को चयनित और समायोजित किया गया है। अत: ये सिद्धान्त काल्पनिक मात्र हैं।

प्रो. गील ने उदाहरण देते हुए बताया कि सभ्यताओं में प्रकृति के नियमों पर अध्याय में टॉयनबी ने यह स्पष्ट किया है कि पतनोन्मुख सभ्यताएँ युद्ध और शांति के नियमित चक्र के माध्यम से चलती हैं। प्रत्येक चक्र में प्रारम्भिक युद्ध सामान्य युद्ध, कुछ अवकाश अनुपूरक युद्ध  और एक सामान्य शान्ति रहती है। उसके बाद यह चक्र प्रारम्भ हो जाता है परन्तु यूरोप के घटना  क्रम को देखने से यह विचार सही सिद्ध नहीं होता है।

2. ऐतिहासिक पद्धति-

टॉयनबी का ऐतिहासिक उपागम उसके जीवन के विभिन्न कालों में परिवर्तित होता है। यह उपागम प्रायः प्रमुख रूप से तीन प्रकार का होता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि टॉयनबी ने भूल और सुधार की प्रक्रिया को अपनाते हुए पहले उपागम को छोड़ कर नया उपागम अपनाने में किसी प्रकार का संकोच महसूस नहीं किया।

टॉयनबी ने अपनी रचना प्रारम्भ में प्रकाशित की उनसे यह स्पष्ट है कि वे प्रकाशन उसके प्रशिक्षण के प्रारम्भिक प्रयास हैं। परन्तु प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् उसके दृष्टिकोण में बदलाव आया। इसी समय में उसने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'इतिहास का एक अध्ययन' की रूपरेखा तैयार की थी। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् पश्चिमी जगत के संघर्ष की नई व्याख्या प्रस्तुत की।

टॉयनबी ने पश्चिमी सभ्यता के अस्तित्व के अवसरों की संख्या के प्रश्न पर भी विचार किया। जिसके लिए उसने तुलनात्मक पद्धति के साथ-साथ दो अन्य पद्धतियों  का भी सहारा लिया जो सांख्यिकीय और मनोवैज्ञानिक पद्धति है।

3. तुलनात्मक पद्धति-

ई.ए. फ्रोमैन का तुलनात्मक इतिहास टॉयनबी के लिए प्रेरणा स्रोत था। इस सम्बन्ध में स्वयं टॉयनबी ने है कि फ्रीमैन के ऐतिहासिक निबन्धों के अध्ययन के प्रति वह इतना ऋणी है कि वह उसे चुकाने में असमर्थ है। समाजों को पृथक् और अलग-अलग इकाइयों के रूप में पढ़ा जा सकना एवं उनकी तुलना का विचार प्रायः फ्रीमैन ने ही दिया था। इसी तुलनात्मक पद्धति को टॉयनबी ने समान चीजों के अध्ययन के लिए अपनाई।

इस सम्बन्ध में टॉयनबी का विचार था कि इतिहासकार तुलनात्मक पद्धति के अनुसार ऐतिहासिक तथ्यों के अध्ययन की सम्भावनाओं के विषय में विवाद रखते हैं परन्तु पश्चिम के व्यापारियों ने सम्पूर्ण दुनिया की निरन्तर तुलनात्मक रूप में अध्ययन के दौरान इस पद्धति का खुलकर प्रयोग किया है। इस सम्बन्ध में जीवन बीमा कम्पनियों के व्यापारिक लेनदेन सर्वश्रेष्ठ उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किये जा सकते हैं।

टॉयनबी के अध्ययन की प्रविधियाँ का विवेचन कीजिए, टॉयनबी का इतिहास ज्ञान के विकास में योगदान
टॉयनबी की अध्ययन पद्धतियाँ व प्रविधियाँ

इसके अतिरिक्त टॉयनबी का मत था कि किसी भी अध्ययनकर्ता को यदि विभिन्न सभ्यताओं में कुछ एक जैसे अनुभव प्राप्त हों तो इसके आधार पर एक काम चलाऊ सिद्धान्त का प्रतिपादन भी किया जा सकता है। यदि रोम, असीरिया और अन्य सभ्यताओं में सैनिकवाद के अपरिहार्य परिणाम निकलें तो ऐसी स्थिति में पश्चिमी सभ्यता में सैनिकवाद के ऐसे ही परिणामों की बात सोची जा सकती है। टॉयनबी द्वारा भी विभिन्न कालों एवं विभिन्न सभ्यताओं का एक ही काल में अध्ययन किया गया है। अध्ययनकर्ता द्वारा इनको नया अर्थ प्रदान करने पर ही इन तुलनाओं का फल प्राप्त हो सकता है।

4. वैज्ञानिक पद्धति-

इतिहास और इसके अध्ययन की तकनीकें, विज्ञान और कल्पना का टॉयनबी के लिए अनोखा संयोग है। रहस्यवाद को अनुभववादियों के द्वारा और विज्ञानवाद को मानवतावादियों के द्वारा निरन्तर रूप से चुनौतियाँ मिलती रही हैं। टॉयनबी ने भी विज्ञानवाद का समर्थन किया अर्थात् विज्ञानवाद पर बल दिया। जिससे वे भी पेरेटो, वकल और हन्टिगटन को परम्पराओं से जुड़ गया है। टॉयनबी ने वैज्ञानिक प्रणाली की उपयोगिता को स्वीकार किया है।

5. सांख्यिकीय पद्धति-

कुछ लोगों का मत है कि यह वैज्ञानिक पद्धति का ही एक रूप है। टॉयनबी का सांख्यिकी विज्ञान के प्रति विश्वास था। परन्तु इतिहास में इस पद्धति की उपयोगिता सीमित है। जिसका कारण यह है कि मनुष्य की स्वतन्त्र इच्छा से प्रभावित व्यवहार पर इसे लागू कर पाना सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त इतिहास में प्रयोगों के लिए नमूनों की संख्या भी सीमित होती हैं। प्रयोगों की संख्या प्राकृतिक विज्ञानों में तो असंख्य होती है परन्तु सभ्यताओं की संख्या सीमित होने के कारण इस प्रतिदर्श के आधार पर भविष्य की स्पष्ट छाया दिखाई नहीं दे सकती है।

6. मनोवैज्ञानिक पद्धति-

टॉयनबी किसी प्रकार की भावनाओं के मूल्यांकन और तुलना को मनोवैज्ञानिक मानते हैं। यह इस बात की जानकारी करता है कि सभ्यता के भविष्य के सम्बन्ध में अतीत और वर्तमान के विभिन्न नेताओं के दृष्टिकोण और निर्णय क्या रहे हैं? टॉयनबी की यह मान्यता है कि ऐतिहासिक समस्याओं के सम्बन्ध में सर्वाधिक तेज अन्तर्दृष्टि भविष्यवक्ताओं एवं कवियों की रही है। चीन के दार्शनिक गोथे और बाइबिल ने प्रारम्भ में सभ्यताओं के जन्म के रहस्यों को उजागर करने में टॉयनबी को काफी मदद की थी। जहाँ तक पश्चिम के भविष्य का प्रश्न है, यह पद्धति इस विषय के सम्बन्ध में प्रायः महत्त्वहीन ही हैं। भविष्यवक्ताओं के प्रमाणों से यह भ्रम और विरोध अवश्य प्रकट होता है कि हमारा भविष्य एक खुला प्रश्न बनकर रह जाता है।

7. भौगोलिक पद्धति-

टॉयनबी ने भौगोलिक विचार एक असाधारण और मौलिक चिन्तक एल्सवर्थ हन्टिंगटन से ग्रहण किया। वह विचार है कि इतिहास का घटना चक्र मनुष्य के भौगोलिक परिवेश से सम्बन्ध का परिणाम है। टॉयनबी के अनुसार मौसम का चक्र हमारे जीवन की आपूर्ति को नियन्त्रित करके हमारे जीवन को प्रशासित करता है। टॉयनबी भी बकल और हन्टिंगटन की भाँति यह मानता है कि मनुष्य का भाग्य उसके भौगोलिक परिवेश की अपेक्षा स्थायी कारकों द्वारा रूप ग्रहण करता है।

टॉयनबी वैज्ञानिक तकनीकों के माध्यम से एक समाज के विकास और उसके भौगोलिक आधार में अत समंध स्थापित करने में विश्वास रखता है उसने यह जानने का प्रयास किया कि जिन समाजों के विकास और पतन का एक जैसा रूप होता हैं उनके भौगोलिक कारक क्या समान होते हैं? इस सम्बन्ध में यह विचार उत्पन्न होता है कि क्या भौगोलिक कारक आचरण या एक समाज के जन्म या विकास और मृत्यु के लिए पूर्णरूप से उत्तरदायी माने जा सकते हैं?

8. धार्मिक पद्धति-

टॉयनबी ने अपना विचार व्यक्त किया कि विचार और मिथ एवं अधिक स्पष्ट इतिहासकार के साधनों का अंग होते हैं। उसने मिथकों का प्रयोग वैज्ञानिक जाँच के साधन के रूप में सजग रूप से और जान-बूझकर किया। उसका भौगोलिक नियतिवाद प्राय: एक अधूरे समर्थन से अधिक कुछ नही है। टॉयनबी में वैज्ञानिक उपागम की उपयोगिता को स्वीकार किया है परन्तु साथ ही उनका यह भी मत है कि यह एक अपूर्ण तकनीक है। इस सम्बन्ध में उसने स्पष्ट किया कि जीवन्त प्राणियों का अध्ययन करने वाले ऐतिहासिक विचारों पर वैज्ञानिक प्रणाली लागू करना एक दोष ही माना जा सकता है क्योंकि वैज्ञानिक प्रणाली का उद्देश्य तो निर्जीव प्रकृति के सम्बन्ध में चिन्तन करना होता है। उनका मानना है कि यदि हम एक क्षण के लिए विज्ञान के सूत्रों की ओर से अपनी आंखें बन्द कर लें तो धर्मशास्त्रों की भाषा के प्रति हमारे कान खुल जायेंगे।

टॉयनबी के इतिहास-लेखन पर अंग्रेजी चर्च का गहरा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। यह समाज के विज्ञान को एक महाकाव्य के रूप में प्रस्तुत करता है। मनुष्य के अन्दर प्रायः ईश्वरीय आत्मा और एक शैतान दोनों का साथ-साथ निवास होता है। यह शैतान मनुष्य को चुनौतियाँ देता है। मनुष्य के भाग्य का नियन्त्रण और स्वामित्व इन दोनों शक्तियों के हाथ में होता है। यह दोनों शक्तियों मानवीय मस्तिष्क के अन्तर्गत एक-दूसरे के विरुद्ध शत्रुतापूर्ण सिद्धान्तों और शक्तियों में संलग्न रहती हैं। उनका यह मानना है कि इन दोनों शक्तियों के मध्य संघर्ष में विजय प्रायः ईश्वरीय शक्ति की ही होनी चाहिए परन्तु विरोधी द्वारा उपस्थित चुनौतियों से जो गत्यात्मक शक्तियां सक्रिय होती हैं, उन्हें केवल ईश्वरीय पूर्णता के द्वारा ही रोक पाना सम्भव नहीं है। इस संघर्ष को या दैवी नाटक को प्रयोगशाला में नहीं देखा जा सकता है। इसे तो मानवीय मस्तिष्क और उनके सामाजिक सम्बन्धों के मध्य देख पाना ही सम्भव है।

इस सम्बन्ध में एच.ए. एल. फिशर ने लिखा है कि टॉयनबी पूर्ण रूप से तथ्यों तक ही सीमित न होकर बड़े ऐतिहासिक विचारों और सुझावात्मक तुलनाओं की दृष्टि से उपजाऊ है। हम यह विचार नहीं रखते कि इन प्रेरणा प्रदान करने वाले अभियानों द्वारा उसके ग्रन्थ का व्यावहारिक मूल्य खत्म हो गया है। टॉयनबी का मस्तिष्क प्रायः निष्पक्ष है।

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