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असामान्य मनोविज्ञान क्या है?

असामान्य मनोविज्ञान

मनोविज्ञान और मनोरोग का एक लम्बा इतिहास है जो सामान्य और असामान्यता के प्रतिवाद के क्षेत्र से जुड़ा हुआ है। असामान्यता मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की ही एक शाखा है। जिसके अन्तर्गत असामान्य व्यवहार को विवेचित करते हैं। असामान्यता का शाब्दिक अर्थ सामान्यता से विचलन है। आप आश्चर्यचकित होंगे कि इसे ही असामान्य व्यवहार कहते है।

असामान्य व्यवहार कि व्याख्या मनुष्य के अन्दर एक अवयव के रूप में नहीं कर सकते है। यह विभिन्न जटिल विशेषताओं से आपस में जुड़ा होता है। आमतौर पर असामान्यता एक समय में उपस्थिति अनेक विशेषताओं को निर्धारित करता है। असामान्य व्यवहार में जिन लेखों की विशेषताओं को परिभाषित किया जाता है, वो हैं, विरल घटना, आदर्श का उल्लंघन, व्यक्तिगत तनाव, विक्रिया और अप्रत्याशित व्यवहार। आइये इन अवधारणाओं को समझते हैं-

1. विरल घटना- लोगों का बहुमत औसतन उस व्यवहार को दर्शाता है जो कि उनकी जीवन की किसी घटना से सम्बन्धित होता है। जो लोग औसत विचल को दर्शाते हैं वो बहुत प्रवृत्तिशील होते है।। लेकिन आवृति को सुविचारित नहीं किया जा सकता, जैसे एक मात्र मूलतत्व को असामान्य व्यवहार में निर्धारित नहीं किया जा सकता है।

2. आदर्श का उल्लंघन- यह उपागम सामाजिक आदर्शी और सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित है। जो विशिष्ट स्थितियों में व्यवहार का मार्ग-प्रदर्शक होता है। यदि एक विशिष्ट व्यक्ति सामाजिक आदर्शो को तोड़ता है, धमकाता है, या दूसरों को चिंतित करता है तो यह विचार असामान्य व्यवहार जैसा है। असामान्यता, स्वीकृत आदर्शो से उच्चस्तर पर विचलित करना माना जाता है। लेकिन इसमें ध्यान देने योग्य बात ये है कि आदर्श मूल्य अलग-अलग सांस्कृतियों में अलग-अलग होते है। एक जगह जो नैतिक होता है वो दूसरी जगह अनैतिक भी हो सकता है यह अवधारणा अपने आपमें बहुत व्यापक है जैसे अपराधी और वैश्याएं सामाजिक मूल्य जोड़ते है परन्तु आवश्यक नहीं है कि उन्हें असामान्य मनोविज्ञान में पढ़ा जाये।

3. व्यक्तिगत तनाव- एक व्यवहार, यदि वो सुविचारित असामान्य है, तो यह तनाव उत्पन्न करता है किसी व्यक्ति में जो इसे महसूस करता है। उदाहरण के लिए, एकलगातार और भारी मात्रा में उपभोक्ता अपनी मद्यसार की आदत को पहचानता है कि यह अस्वास्थ्यकर हे, और इस आदत को रोकना चाहिए। यह व्यवहार असामान्य जैसी पहचान देता हे। व्यक्तिगत तनाव, आत्म-स्व का नमूना नहीं है, परन्तु जो लोग इससे पीड़ित होते है वो ही इसकी सूचना दे सकते और निर्णय करते है। विभिन्न लोगों में तनाव का स्तर भी बदलता रहता है।

4. विक्रिया- विक्रिया या अयोग्य नमूना उसी व्यक्ति की असामान्य मानता है यदि उसके संवेग, क्रियाएं और विचार उसकी सामान्य सामाजिक जीवन जीने में हस्तक्षेप करते है।उदाहरण के लिए असमान तत्वों के दुरूपयोग के कारण एक व्यक्ति के कार्य-निष्पादन, में बाधा आती है।

5. अप्रत्याशिता- इस प्रारूप में अप्रत्याशित व्यवहार की पुनरावृत्ति होने को लिया जाता है।

उपर्युक्त सभी निर्धारक असामान्यता को परिभाषित करने में सहायक होते है। असामान्य व्यवहार के अंतरतम भाग का वर्णन किया है, वह है कुसमायोजन। दिन प्रतिदिन के जीवन की अपेक्षाओं से जुझने एवं उनकी पूर्ति के मार्ग में व्यक्ति का असामान्य व्यवहार कठिना उत्पन्न करता है। सामान्य और सामान्य के बीच को स्पष्ट विभक्तिकरण रेखा नहीं होंती। यह एक मन की स्थिति होती है जिसका अनुभव प्रत्येक व्यक्ति करता है।

असामान्य मनोविज्ञान क्या है?
असामान्य मनोविज्ञान क्या है?


एक मनोवैज्ञानिक के अनुसार- ‘‘व्यवहार असामान्य है। यह एक मानसिक विकार का द्योतक है, यदि यह दोनों विद्यमान तथा गम्भीर स्तर तक होते है तो व्यक्ति की सामान्य स्थिति की निरन्तरता के विरूद्ध तथा अथवा मानव समुदाय जिसका वह व्यक्ति सदस्य होता है के विपरित होता है। यह भी विचारणीय है कि असामान्यता की परिभाषा किसी सीमा तक संस्कृति पर आधारित होती है। उदाहरणार्थ- अपने आप से बात करना। एक आसान्य व्यवहार के रूप में माना जाता है। परन्तु कुछ निश्चित पोलीनेशियन देशों तथा परीक्षा अमेरिकी समाजों में इसे देवियों द्वारा प्रत्येक विशिष्ट स्तरीय उपहार माना जाता है।

असामान्य मनोविज्ञान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

असामान्य व्यवहार के बारे में अध्ययन करना अपने आप में कोई नया कार्य नहीं है, क्योंकि यह कार्य बहुत प्राचीन समय से किया जाता रहा है। असामान्य मनोविज्ञान की एक लम्बी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। मनोरोगों के अध्ययन का प्रारंभ मानवजाति के अभिलिखित इतिहास से ही होता है। अत्यधिक प्राचीन समय में मानसिक विकृतियों का कोई ऐतिहासिक उल्लेख मनोवैज्ञानिकों के पास उपलब्ध नहीं है। अतिप्राचीनकाल में असामान्य व्यवहार का अध्ययन वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित न होने के कारण अधूरा था। मनोवैज्ञानिक ने असामान्य मनोविज्ञान के इतिहास को तीन भागों में वर्गीकृत किया है-

पूर्व वैज्ञानिक काल : प्राचीन समय से लेकर 1800 तक।

असामान्य मनोविज्ञान का आधुनिक उद्भव : 1801 से लेकर सन् 1950 तक।

आज का असामान्य मनोविज्ञान : सन् 1951 से आज तक।

असामान्य मनोविज्ञान के इतिहास में प्रत्येक काल में असामान्य व्यवहार के प्रति अलग-अलग दृष्टिकोण को अपनाया गया है।

पूर्व वैज्ञानिक काल

(पुरातन समय से लेकर 1800 तक)

पूर्ववैज्ञानिक काल का प्रारंभ पुरातन लोगों द्वारा असामान्य व्यवहार के अध्ययन से माना जाता है। इसमें 18वीं सदी तक किये गये सभी अध्ययन सम्मिलित हैं। इस काल में असामान्य व्यवहार के कारण एवं निवारण को लेकर अत्यधिक उतार-चढ़ाव रहा। असामान्य व्यवहार को लेकर अलग-अलग मतों का प्रतिपादन किया गया। अत: अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से पूर्ववैज्ञानिक काल को निम्न चार खण्डों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

1. पाषाण युग का जीववादी चिन्तन (Animistic thinking of stone age)

2. प्रारंभिक दार्शनिक एवं मेडिकल विचारधारायें (Early philosophical and medical concepts)

3. मध्य युग में पैशाचिकी (Demonology in middle age)

4. मानवीय दृष्टिकोण का उद्भव (Oligion of Humanitarian Viewpoint)

सर्वप्रथम हम अध्ययन करते हैं, पाषाण युग के जीववादी चिन्तन के बारे में-

1. पाषाण युग का जीववादी चिन्तन-

वास्तव में असामान्य व्यवहार तथा उसके उपचार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का आरम्भ पाषाण युग की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अवधारणा ‘‘जीववाद’’ से प्रेरित विचारों से मानते हैं। प्राचीन समय में ग्रीक, चीन तथा मिस्र आदि देशों में इसी विचारधारा का प्रचलन था। जीववादी चिन्तन के अनुसार जब किसी मनुष्य के प्रति भगवान की कृपा दृष्टि समाप्त हो जाती है तो दण्ड के रूप में ईश्वर की ओर से उस प्राणी में मनोरोग उत्पन्न हो जाता है, और उस व्यक्ति पर किसी बुरी आत्मा का आधिपत्य स्थापित हो जाता है। प्राचीन समय में मनोरोगों के प्रति लोगों का दृष्टिकोण इस जीववादी चिन्तन से सर्वाधिक प्रभावित हुआ था।

जीववाद की मान्यता के अनुसार व्यक्ति में असामान्य व्यवहार विकसित होने का मूल कारण उसके भीतर किसी भूत-प्रेत या बुरी आत्मा का प्रविष्ट हो जाना है। इसे पिशाचआधिपत्य (Demon Possession) का नाम दिया गया।

इसके साथ ही लोगों की यह मान्यता भी थी कि जब किसी व्यक्ति के शरीर में अच्छी आत्मा प्रविष्ठ हो जाती है तो उसका व्यवहार आध्यात्मिक हो जाता है। किन्तु ऐसा माना जाता था कि अच्छी आत्मा का आधिपत्य तो कम ही होता था, अधिकतर आधिपत्य बुरी आत्माओं का ही होता था। प्राचीन जीववादी चिन्तन में न केवल व्यक्ति के असामान्य व्यवहार की अवस्था को प्रभावित किया, बल्कि इससे मनोरोगों के उपचार का ढंग भी अत्यधिक प्रभावित हुआ। उस समय मनोरोगों के उपचार के लिये दो विधियाँ प्रचलित थी-

अपद्रूत-निसारन- अपद्रूत-निसारन में विभिन्न प्रविधियों के माध्यम से शरीर के भीतर प्रविष्ट बुरी आत्मा को बाहर निकाला जाता था। जैसे- प्रार्थना, जादू-टोना, शोरगुल, झाड़-फूँक और अनेक कष्टदायी एवं अमानवीय विधियाँ, जैसे-लम्बे समय तक भूखा रखना, कोड़े लगाना इत्यादि। इन विधियों को अपनाने के पीछे यह मान्यता थी कि इस प्रकार के तरीकों का उपयोग करने से मनोरोगी का शरीर इतना कष्टकारी स्थिति में पहुँच जायेगा कि बुरी आत्मा स्वत: ही उसके शरीर को छोड़ देगी और उसका रोग दूर हो जायेगा। बाद में अपद्रूत निसारन विधि चीन, मीस्र, ग्रीस के देशों के पुजारियों में अत्यन्त लोकप्रिय हो गयी, जो उस समय मनोचिकित्सक का कार्य भी करते थे।

ट्रीफाइनेशन- अपद्रूत-निसारन के अतिरिक्त बुरी आत्मा को बाहर निकालने के लिये ट्रीफाइनेशन विधि का प्रयोग भी किया जाता था, जिसमें मनोरोग ग्रस्त व्यक्ति की खोपड़ी में नुकीले पत्थरों से मार-मार कर एक छेद कर दिया जाता था। इस विधि को अपनाने के पीछे यह मान्यता थी कि बुरी आत्मा इस छेद द्वारा बाहर निकल जायेगी और व्यक्ति स्वस्थ हो जायेगा।

2. प्रारंभिक दार्शनिक एवं मेडिकल विचारधारायें-

आज से करीब 2500 वर्ष पूर्व मनोरोगों के संबंध में एक विवेकपूर्ण वैज्ञानिक विचारधारा का जन्म हुआ। इसका श्रेय आधुनिक चिकित्साशास्त्र के जनक माने जाने वाले ग्रीक चिकित्सक हिपोक्रेट्स को जाता है। असामान्य व्यवहार के संबंध में हिपोक्रेट्स ने अपने क्रांतिकारी, वैज्ञानिक विचार प्रतिपादित करते हुये कहा कि शारीरिक एवं मानसिक रोग कुछ स्वाभाविक कारणों से उत्पन्न होते हैं न कि किसी बुरी आत्मा के शरीर में प्रवेश करने पर अथवा देवी-देवताओं के प्रकोप से। इस विचारधारा को प्रकृतिवाद का नाम दिया गया जो जीववादी चिन्तन के प्रतिकूल थी। मनोरोगों के संबंध में इन प्रारंभिक दार्शनिक एवं मेडिकल विचारधाराओं का वर्णन चार बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है-

(1) हिपोक्रेट्स का योगदान- असामान्य मनोविज्ञान के इतिहास में हिपोक्रेट्स का योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। मनोरोगों के संबंध में इन्होंने एक अत्यन्त वैज्ञानिक एवं तार्किक विचारधारा को जन्म दिया, जो पाषाण युग के जीववादी चिन्तन की बिल्कुल विपरीत थी। हिपोक्रेट्स का विचार था कि शारीरिक रोगों के समान ही मानसिक रोग भी कुछ स्वाभाविक कारणों से उत्पन्न होते हैं और जिस प्रकार शारीरिक रोगों का इलाज किया जाता है, उसी प्रकार मानसिक रोगियों का इलाज भी मानवीय ढंग से होना चाहिये और ऐसे रोगियों की पर्याप्त देखभाल की जानी चाहिये। हिपोक्रेट्स ने मानसिक रोगों का मूल कारण मस्तिष्कीय विकृति को माना, क्योंकि सभी प्रकार के बौद्धिक कार्यों में मस्तिष्क की ही सर्वाधिक प्रमुख भूमिका होती है। इन्होंने मनोरोगों को निम्न तीन श्रेणियों में विभक्त किया-

(1) उन्माद (Mania)

(2) विषाद रोग (Melancholia)

(3) उन्मप्तता (Phrentis) या मस्तिष्कीय ज्वर (Brain Fever)

मनोरोगियों के निरीक्षण से प्राप्त नैदानिक अनुभवों के आधार पर उन्होंने प्रत्येक मनोरोग के नैदानिक लक्षण भी बताये। मनोरोगियों के व्यक्तित्व को समझने में हिपोक्रेट्स ने स्वान की भूमिका को भी स्वीकार किया। मनोरोगों की उत्पत्ति के सन्दर्भ में इन्होंने मस्तिष्कीय विकृति के साथ-साथ वंशानुक्रम, पूर्ववृत्ति तथा पर्यावरणी कारकों के महत्व को भी स्वीकार किया। हिपोक्रेट्स की मान्यता भी कि मनोरोगियों को यदि अपने परिवार से अलग एक अच्छे, स्वस्थ वातावरण में रखा जाये तो वे शीघ्र स्वास्थ्य लाभ कर मनोरोगों से छुटकारा पा सकते हैं।

हिस्टीरिया रोग के सन्दर्भ में हिपोक्रेट्स ने बताया कि यह रोग केवल स्त्रियों में ही होता है और विशेष रूप से उन स्त्रियों में जिनमें बच्चा पैदा करने की तीव्र इच्छा होती है। अत: विवाह ही इस रोग का सबसे अच्छा इलाज है। इसके साथ ही इन्होंने मनोरोगों के कारणों के संबंध में यह भी बताया कि जब हमारे शरीर के चार प्रमुख पित्त- पीला पित्त, काला पित्त, रक्त एवं श्लेष्मा का अनुपात असंतुलित हो जाता है, तो इससे भी मनोरोग उत्पन्न हो जाते है। यद्यपि वर्तमान समय में हिपोक्रेट्स के विचार पूरी तरह मान्य नहीं है। किन्तु फिर भी इनके विचार उस समय इतने क्रांतिकारी थे, जिनके कारण मनोरोगों की उत्पत्ति के संबंध में दैवीय प्रकोप एवं दुष्ट आत्मा संबंधी विचार की मान्यता जाती रही और उसके स्थान पर नये वैज्ञानिक विचारों का प्रादुर्भाव हुआ।

(2) प्लेटो एवं अरस्तू का योगदान- हिपोक्रेट्स के अतिरिक्त अन्य ग्रीक दार्शनिकों जैसे-प्लेटों एवे उनके शिष्य अरस्तू द्वारा भी मनोरोगियों का अध्ययन किया गया। इन दार्शनिकों के द्वारा विशेष रूप से आपराधिक कार्य करने वाले मानसिक रोगियों के अध्ययन पर ध्यान केन्द्रित किया गया। ऐसे मनोरोगियों के संबंध में प्लेटों का विचार था कि चूँकि ऐसे मनोरोगी अपने आपराधिक कृत्यों के लिये प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार नहीं होते है। इसलिये इनके साथ सामान्य अपराधियों जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिये और न ही उनके समान दण्ड दिया जाना चाहिये वरन् इनके साथ मानवीय दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिये। जैसे उनके पारिवारिकजनों अथवा मित्रों या रिश्तेदारों द्वारा उन पर निगरानी रखना इत्यादि।

प्लेटो का विचार था कि मनोरोगों को ठीक प्रकार से समझने के लिये मानव व्यवहार का ढंग से समझना अत्यन्त आवश्यक है। प्लेटों में सभी प्रकार के व्यवहारों को शारीरिक अनावश्यकताओं द्वारा प्रेरित माना। प्लेटों ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Republic में मानसिक क्षमताओं से सम्बद्ध वैयक्तिक विभिन्नता की महत्ता पर बल दिया है तथा यह बताया है कि किसी भी व्यक्ति के विचार एवं व्यवहार पर सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों का भी अत्यन्त प्रभाव पड़ता है। अपने इन सभी आधुनिक विचारों के बावजूद भी प्लेटों इस विचार से भी कुछ हद तक सहमत थे कि मनोरोग आंशिक रूप से दैवीय कारणों से भी होता है।

(3) इस्लामिक देशों में ग्रीक विचारों की मान्यता- मध्य युग के समय कतिपय इस्लामिक देश पहले के ग्रीक चिकित्सकों के विचारों से प्रभावित रहे 792 ईस्वी में बगदाद में प्रथम मानसिक अस्पताल खोला गया तथा इसके बाद डमासकश और ऐलेपों में भी इस प्रकार के अस्पताल खोले गये, जिनमें मनोरोगियों का मानवीय ढंग से उपचार करने पर बल दिया गया। इस्लामिक चिकित्सा विज्ञान में सर्वाधिक प्रसिद्ध चिकित्सक ऐशइसना है। इन्हें चिकित्सकों का राजकुमार कहा जाता है। इनकी प्रसिद्ध कृति The Canon of Medicine है, जिसमें अवसाद, मिरगी, उन्माद, हिस्टीरिया आनि मनोरोगों का विशेष रूप से अध्ययन किया तथा उपचार के प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाया।

(4) उत्तर ग्रीक एवं रोमवासियों का योगदान- महान् चिकित्सक हिपोक्रेट्स के बाद ग्रीक तथा रोमन चिकित्सक मनोरोगों के अध्ययन में उनके द्वारा बताये गये पथ का अनुकरण करते रहे। इस संबंध में मिस्र में काफी प्रगति हुई एवं वहाँ के अनेक गिरजाघरों एवं मंदिरों को आरोग्यशालाओं में परिवर्तित कर दिया गया और वहाँ के शांत एवं स्वस्थ वातावरण में मनोरोगियों को रखने की विशेष रूप से व्यवस्था की गई। इन आरोग्यशालाओं में मनोरोगियों को विभिन्न प्रकार की सर्जनात्मक एवं मनोरंजन करने वाली गतिविधियों जैसे नृत्य करना, गाना-बजाना, बगीचे में घूमना इत्यादि में शामिल किया जाता था। इस समय मनोरोगों के उपचार में कुछ अन्य नयी तकनीकों को भी शामिल किया गया। जैसे व्यायाम, जल चिकित्सा, अल्पभोजन तथा कुछ विशिष्ट रोगों में शरीर से रक्त बहा देना, यांत्रिक दबाव इत्यादि।

मनोरोगों एवं असामान्य व्यवहार के अध्ययन में अनेक रोमन चिकित्सकों जैसे- एस्कलेपियड्स, सिसेरो, ऐरेटियस, गेलेन इत्यादि के द्वारा भी महत्वपूर्ण योगदान दया गया। एस्कलेपियड्स सबसे पहले चिकित्सक थे, जिन्होंने तीव्र (Acute) एवं चिरकालिक (Chronic) मनोरोगों के बीच तथा भ्रम (illusion) विभ्रम (Hallucination) एवं व्यामोह (Delusion) के बीच अन्तर स्पष्ट किया। इसी प्रकार सिसेरो ने सर्वप्रथम यह बताया कि मानसिक रोगों की उत्पत्ति में सावेमिक कारकों की भूमिका सर्वाधिक होती है। लगभग एक शताब्दी के उपरान्त ऐरेत्यिस द्वारा सबसे पहले यह विचार प्रतिपादित किया गया कि अवसाद एवं उन्माद एक ही रोग की दो अलग-अलग मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्ति है। ऐरेटियस का विचार था कि जो लोग सुस्त तथा गंभी स्वभाव के होते हैं उनमें विषादग्रस्त होने की संभावना अधिक होती है एवं जो व्यक्ति अधिक चिड़चिड़े एवं आक्रोशी प्रकृति के होते हैं, वे प्राय: उन्मादग्रस्त हो बतो हैं। प्रसिद्ध चिकित्सक गेलेन जो मूलत: ग्रीक थे तथा बाद में जाकर रोग में बस गये थे उन्होंने मनोरोगों के कारणों को निम्न दो वर्गों में विभक्त किया- (1)  शारीरिक कारण एवं (2) मानसिक कारण।

मस्तिष्क में चोट लगना, अत्यधिक मद्यमान, आघात, भय, मासिक धर्म में गड़बड़ी, आर्थिक अभाव, प्रेम में असफल होना इत्यादि कारकों को मनोरोगों का कारण माना गया।

3. मध्ययुग में पैशाचिकी-

ग्रीस तथा रोम की सभ्यता का सूर्य अस्त होने के बाद अर्थात जब गेलेन की मृत्यु हो गयी (200 ईस्वी) तत्पश्चात इन देशों में मनोरोगों के कारण एवं उपचार के संबंध यहाँ के दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित विचार एवं विधियाँ भी अपना प्रभाव खोने लगी और पुन: जीववादी चिन्तन जोर पकड़ने लगा अर्थात फिर से उस समय के लोग एवं चिकित्सक भी मनोरोगों का कारण दैवीय प्रकोप एवं दुष्ट आत्मा का शरीर में प्रवेश करना मानने लगे। इसलिये असामान्य मनोविज्ञान के इतिहास में इसे अन्धकार युग (Dark age) माना जाता है, जिसका समय 500 ईस्वी तक माना गया है। 500 ईस्वी से 1500 ईस्वी तक के समय को ‘‘मध्ययुग’’ (Middle age) माना गया है। दोनों कालों में मानसिक रोगों के प्रति प्राय: एक जैसा दृष्टिकोण ही था। ग्रीक एवं रोमन सभ्यता के सूर्यास्त एवं इसाईयत के सूर्योदय से अंधकारयुग का आरंभ माना जाता है। इस युग में एक बार फिर मनोरोगों का मूल कारण बुरी आत्मा के प्रवेश या दैवीय प्रकोप को माना जाने लगा। इसाईयत के बढ़ते प्रचार ने इस मान्यता को और दृढ़ किया। मध्ययुग के प्रारंभ में भी मानसिक रोगों की उतपत्ति एवं उपचार के प्रति यही दृष्टिकोण बना रहा।

मध्ययुग के उत्तरार्द्ध में असामान्य व्यवहार में सामूहिक पागलपन की एक नयी प्रवृत्ति की शुरूआत हुयी और धीरे-धीरे यूरोप के काफी बड़े हिस्से में यह रोग एक महामारी के रूप में फैल गया। इस सामूहिक पागलपन की बीमारी में जैसे ही हिस्टीरिया का लक्षण किसी एक व्यक्ति में दिखाई देता तो दूसरे लोग भी इससे प्रभावित होने लगते और असामान्य व्यवहार दिखाने लगते जैसे उछलना, कूदना, एक दूसरे के कपड़े फाड़ देना आदि। इटली में इस प्रकार के सामूहिक नाच-गाने के उन्माद को नृत्योन्माद कहा गया। नृत्योन्माद को समान ही एक दूसरा तरह का उन्माद वृकोन्माद भी फैला। इसमें मनोरोगी को ऐसा लगता था कि वह एक भेड़िया के रूप में बदल गया है। इसलिये उसकी गतिविधियाँ भी भेड़िए के समान ही हो जाती थी। 14वीं-15वीं सदी में सामूहिक पागलपन की यह प्रवृत्ति अपनी चरम सीमा पर थी। मध्ययुग में मनोरोगों का उपचार मूलत: पादरियों द्वारा ही किया जाता था। इस युग के प्रारंभ में तो मनोरोगों के उपचार हेतु कुछ मानवीय तरीके अपनाये गये लेकिन बाद में फिर से अपदू्रतनिरासन एवं ट्रीफाइनेशन जैसी अवैज्ञानिक एवं अमानवीय विधियों को अपनाया गया।

15वीं सदी के उत्तरार्द्ध में लोगों में यह विचार काफी सुदृढ़ हो गया कि बुरी आत्मा का आधिपत्य दो तरह का होता है। एक आधिपत्य ऐसा होता है। जिसमें व्यक्ति के स्वयं के पापकर्म के फलस्वरूप कोई बुरी आत्मा व्यक्ति की इच्छा के विरूद्ध उसमें प्रवेश कर जाती हैं और उसमें मनोरोगों को जन्म देती है। दूसरे प्रकार का आधिपत्य ऐसा होता हे। जिसमें व्यक्ति स्वयं अपनी इच्छा से बुरी आत्मा से मित्रता कर लेता है और असामान्य व्यवहार करने लगता है। इस दूसरे प्रकार के आधिपत्य में व्यक्ति उस बुरी आत्मा की अलौकिक शक्तियों को प्राप्त करके विभिन्न प्रकार के सामाजिक उपद्रव जैसे- आँधी-तूफान, बाढ़ महामारी, अकाल आदि लाकर लोगों को अनेक तरीकों से परेशान करता है। इस प्रकार के मनोरोगियों को डायन या जादूगर माना जाने लगा। 15वीं सदी के अन्त तक इन दोनों प्रकार के मनोरोगियों में अन्तर खत्म हो गया तथा सभी मानसिक रोगियों को अब जादूगर या डायन ही माना जाने लगा और इनका उपचार भी अत्यन्त अमानवीय ढंग से किया जाता था। इनके उपचार के लिये कठोर शारीरिक दण्ड जैसे कोड़ा लगाना, अंगों को जलाना आदि दिया जाता था। उस युग के पादरियों ने इस प्रकार के जादू-टोना से लोगों को बचाने हेतु एक नियमावली भी बनायी, जिसे ''The withes hammer'' कहा गया। इसमें जादू-टोना के प्रभावों को दूर करने एवं डाइन को न्यायिक दंड देने के तरीकों का उल्लेख था। इस प्रकार स्पष्ट है कि मध्ययुग में मनोरोगों के अध्ययन के संबंध में किसी प्रकार की कोई प्रगति नहीं हुयी। न तो मनोरोगों के कारणों के संबंध में और न ही इनके उपचार के संबंध में किसी तार्किक एवं वैज्ञानिक विचारधारा का प्रतिपादन किया गया।

4. मानवीय दृष्टिकोण का उद्भव-

16वीं सदी के प्रारंभ में ही मनोरोगों के संबंध में मध्ययुग के ईश्वरपरक एवं अंधविश्वायुक्त विचारधारा के विरूद्ध आवाज उठने लगी और इस संबंध में एक नवीन मानवीय दृष्टिकोण का उद्भव हुआ, जिसमें यह माना गया कि शारीरिक रोग के समान ही मनोरोग भी होते है, इनका कारण कोई दैवीय प्रकोप नहीं होता है। अत: मानसिक रोगियों का उपचार भी मानवीय ढंग से ही होना चाहिये। इस सन्दर्भ में जिन विद्वानों एवं चिकित्सकों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया, उनका विवेचन निम्नानुसार है-

‘‘पारासेल्सस’’ एक अत्यन्त प्रख्यात चिकित्सक हुये, जिन्होंने असामान्यता के प्रति मानवीय दृष्टिकोण का परिचय दिया इनका विचार था कि ‘‘नृत्योन्माद’’ रूपी सामूहिक पागलपन की प्रवृत्ति दैवीय प्रकोप या शरीर पर बुरी आत्मा का आधिपत्य होने के कारण उत्पन्न नहीं होती वरन अन्य शारीरिक रोगों के समान यह भी एक रोग है, जिसके इलाज के मानवीय ढंग पर वैज्ञानिक तरीके से विचार करना चाहिये। पारासेल्सस ने मनोरोगों के मनोवैज्ञानिक कारणों पर प्रकाश डाला तथा मानसिक रोगों के उपचार हेतु ‘‘शारीरिक चुम्बकीय’’ विधि को अपनाने पर बल दिया। आगे चलकर यही विधि सम्मोहन विधि के नाम से लोकप्रिय हुई।

यद्यपि पारासेल्सस ने मनोरोगों के कारण के संबंध में दुष्ट आत्मा संबंधी विचारों का खण्डन किया, किन्तु इन्होंने मनोरोगों की उत्पत्ति में नक्षत्रों के प्रभाव को स्वीकार किया है। इनका कहना था कि व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर चन्द्रमा का प्रभाव पड़ता है।

महान जर्मन चिकित्सक जोहान वेयर ने असामान्य व्यवहार एवं मनोरोगों के संबंध में अपने विचारों का प्रतिपादन अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘The Deception of Demons’’ में किया है, जिसमें उन्होंने बताया कि मनोरोगी किसी बुरी आत्मा के आधिपत्य से ग्रसित नहीं होते और न ही वे जादू-टोना करने की कला में निपुण होते हैं, वरन् कुछ शारीरिक एवं मानसिक कारणों से उनमें असामान्य व्यवहार विकसित हो जाता है। अत: ऐसे लोगों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिये और उनका इलाज मानवीय ढंग से करना चाहिये। उस समय के बुद्धिजीवी वर्ग ने तो जोहान वेयर के मत का समर्थन किया, किन्तु कुछ लोग ऐसे भी थे जो उनके विचारों से सहमत नहीं थे और उन्होंने वेयर के विचारों का मजाक उड़ाया। चर्च द्वारा भी वेयर की पुस्तक तथा विचारधारा पर प्रतिबंध लगा दिया गया और यह प्रतिबंध बीसवीं सदी के आरंभ तक लगा रहा। इसका परिणाम यह हुआ कि वेयर के विचार बहुत अधिक प्रभावशाली सिद्ध नहीं हो पाये।

रेजिनाल्ड स्र्काट ने भी असामान्यता के संबंध में मानवीय दृष्टिकोण के विषय में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उस समय के अन्य चिकित्सकों के समान इन्होंने भी मनोरोगों की उत्पत्ति एवं उपचार के संबंध में पैशाचिकी का घोर विरोध किया और इनके विरूद्ध तर्कसम्मत वैज्ञानिक विचारों का प्रतिपादन किया, जिनका वर्णन उन्होंने सन् 1584 में प्रकाशित अपनी प्रसिद्ध कृति ‘‘Discovery of witchcraft’’ में किया है, लेकिन इंग्लैण्ड के राजा जेम्स प्रथम ने इस पुस्तक पर न केवल प्रतिबंध लगाया बल्कि उसकी प्रतियों में आग लगा दी गई, किन्तु उस समय तक मानवीय दृष्टिकोण अत्यन्त बल पकड़ चुका था क्योंकि चर्च के पादरी भी दुरात्मा संबंधी दृष्टिकोण का पूरे जोर-शोर से खण्डन करने लगे थे।

इन सन्दर्भ में सते-बिनसेंट डी पाल का योगदान उल्लेखनीय है, जिन्होंने घोर विरोध के बीच तथा अपने जीवन को संकट में डाल कर इस बात की घोषणा की कि शारीरिक रोग के समान मानसिक बीमारी भी एक प्रकार का रोग है, कोई दैवीय प्रकोप नहीं। अत: मनोरोगियों के जीवन के कल्याण के लिये ईसाईयों को मानवीय दृष्टिकोण अपना कर मानवता का परिचय देना चाहिये। इस प्रकार जैसे-जैसे मानवीय दृष्टिकोण का विचार जोर पकड़ता गया वैसे-वैसे लोगों के मन से दुरात्मा संबंधी अंधविश्वास धीरे-धीरे दूर होने लगा और उनके मन में यह विचार पनपने लगा कि मनोरोगियों का उपचार भी किसी मानसिक अस्पताल या मानसिक स्वास्थ्य केन्द्रों में होना चाहिये न कि किसी सुनसान जगह पर। इसके परिणामस्वरूप सोलहवीं सदी के मध्य से ही अनेक चर्च एवं मंदिरों को आरोग्यशालाओं में बदल दिया गया, किन्तु इस संबंध में भी दुर्भाग्य की बात यह रही कि इन आरोग्यशालाओं का निर्माण तो रोगियों का मानवीय ढंग से इलाज करने के लिये किया गया था, किन्तु वास्तविकता कुछ और ही थी। यहाँ पर भी उनके साथ जानवरों से भी खराब अत्यन्त अमानवीय व्यवहार किया जाता था।

मनोरोगियों के प्रति सही अर्थों में मानवीय दृष्टिकोण का उद्भव प्रसिद्ध फ्रे्रच चिकित्सक फिलिप पिनेल (1745-1826) के सक्रिय प्रयासों के परिणामस्वरूप हुआ। फिलिप पिनेल को आधुनिक मनोरोगविज्ञान (Modern Psychiatry) का जनक माना जाता है। सन् 1792 में फ्रांस की क्रान्ति का प्रथम चरण समाप्त होने पर पिनेल के पेरिस के मानसिक अस्पताल लाविस्टरे के प्रभारी पद पर नियुक्त किया गया। पद ग्रहण करते ही पिनेल ने जो सबसे पहला और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य किया, वह था वहाँ के मनोरोगियों को लोहे की जंजीरों से आजाद करवाना और उन्हें हवा एवं प्रकाशयुक्त कमरों में रखना। अस्पताल के अधिकारियों द्वारा पिनेल के इन कार्यों का अत्यन्त मजाक उड़ाया गया किन्तु मानवीय ढंग से उपचार करने पर मनोरोगियों के व्यवहार में काफी सकारात्मक परिवर्तन होने लगे और उन्होंने उपचार में सहयोग करना भी आरंभ कर दिया। इसके बाद पिनेल को सालपेट्रिर अस्पताल का प्रभारी बनाया गया। वहाँ पर भी उन्होंने मानसिक रोगियों का मानवीय ढंग से उपचार करना प्रारंभ किया, जिसके परिणाम अत्यन्त सकारात्मक थे। पिनेल के बाद उनके शिष्य जीनएस्क्यूटरोल द्वारा उनके कार्य को आगे बढ़ाया गया और लगभग 10 ऐसे मानसिक अस्पतालों की स्थापना की गई, जहाँ मनोरोगियों का मानवीय तरीके के उपचार किया जाता था।

इस प्रकार फ्रांस विश्व का ऐसा प्रथम देश बना जहाँ मनोरोगियों का इलाज मानवीय ढंग से किया जाने लगा। इसका प्रभाव विश्व के दूसरे देशों पर भी बड़ा और उन्होंने भी मनोरोगों के मानवीय उपचार की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम उठाये। जिस समय फ्रांस में पिनेल अपने क्रांतिकारी कार्य को अंजाम दे रहे थे, उसी दौरान इंग्लैण्ड में विलियम टर्क ने चार्क रिट्रीट नामक मानसिक अस्पताल खोला, जिसमें मानसिक रोगों के मानवीय उपचार पर बल दिया गया।

इस असामान्य मनोविज्ञान के इतिहास में पूर्व वैज्ञानिक काल, जो प्राचीन समय में लेकर सन् 1800 तक का माना गया है, मनोरोगों के संबंध में अत्यन्त उतार-चढ़ाव का समय रहा है। इस युग में असामान्यता को लेकर समय-समय पर अनेक विचारधाराओं का प्रतिपादन हुआ। सबसे प्रारंभ में जीववादी चिन्तन का बोलबाला रहा, जिसमें दुष्टात्मा या दैवीय प्रकोप को ही मनोरोगों की उत्पत्ति का मूल कारण माना गया। इसके बाद ग्रीक चिकित्सक हिपोक्रेट्स के प्रकृतिवाद का उद्भव हुआ, जिसके अनुसार असामान्यता को शारीरिक रोग के समान ही एक मानसिक रोग माना गया और इसकी उत्पत्ति में शारीरिक एवं पचविरणी कारकों की भूमिका को स्वीकार किया गया। इसके उपरान्त 1500 ईस्वी तक अर्थात् मध्ययुग में मनोरोगों के संबंध में दुरात्मा संबंधी दृष्टिकोण ही प्रचलित रहा, किन्तु बाद के समय में अर्थात् सन् 1800 ईस्वी तक इस सन्दर्भ में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन हुये और मनोरोगियों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण का उद्भव हुआ, जिसमें नेतृत्व फ्रेंच चिकित्सक फिलिपपिनेल ने किया।

असामान्य मनोविज्ञान का आधुनिक उद्भव

(1801 से लेकर सन् 1950 तक)

असामान्य मनोविज्ञान के इतिहास में इस काल का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस युग में मनोरोगों के कारणों एवं उपचार के संबंध में अनेक महत्त्वपूर्ण विचारों का प्रतिपादन किया गया और उनके प्रयोग भी किये गये।

फ्रेंच चिकित्सक फिलिप पिनेल तथा इंग्लैण्ड में टर्क ने जिन मानवीय उपचार विधियों का प्रयोग किया, उनके परिणामों ने मनोरोगों के संबंध में पूरे विश्व में एक क्रांति सी ला दी। अमेरिका में बेंजामिन रश के कार्यों के माध्यम से इसके प्रभावों का पता चलता है। रश ने सन् 1783 में पेनसिलवानिया अस्पताल में कार्य करना प्रारंभ किया तथा सन् 1796 में मनोरोगों के उपचार हेतु एक अलग वार्ड बनवाया। इस वार्ड में मनोरोगियों के मनोरंजन के लिये विभिन्न प्रकार के साधन थे जिससे कि उनके सृजनात्मक क्षमताओं को विकसित किया जा सके। इसके बाद अपने कार्य को और आगे बढ़ाते हुये उन्होंने स्त्री एवं पुरूष रोगियों के लिये अलग-अलग वार्ड बनवाये उनके साथ अधिकाधिक मानवीय व्यवहार अपनाने पर बल दिया गया। सन् 1812 में मनोरोग विज्ञान पर उनकी पुस्तक भी प्रकाशित हुयी, जिसमें मनोरोगों के उपचार के लिये रक्तमोचन विधि (Blood leting method) एवं विभिन्न प्रकार के शोधक अपनाने पर जोर दिया जो किसी भी प्रकार से मानवीय नहीं था।

19वीं सदी के प्रारंभ में अमेरिका में मनोरोगों के संबंध में एक विशेष आन्दोलन की शुरूआत हुई, जिसका नेतृत्व एक महिला स्थूल शिक्षिका डोराथिया डिक्स द्वारा किया गया। यह आन्दोलन मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान आन्दोलन के नाम से लोकप्रिय हुआ। इस आन्दोलन का प्रमुख लक्ष्य था- मनोरोगियों के साथ हर संभव मानवीय व्यवहार करना।’’

यूरोप में तो 18वीं सदी के कुछ अन्तिम वर्षों में ही इस प्रकार के मानवीय दृष्टिकोण का उद्भव हो गया था, किन्तु अमेरिका में इसका प्रादुर्भाव 19वीं सदी के प्रारंभ में हुआ। इस आन्दोलन के परिणाम स्वरूप मनोरोगी जंजीरों से मुक्त हो गये और उन्हें हवा एवं रोशनी से युक्त कक्षों में रखा गया। इसके साथ-साथ उन्हें खेती एवं बढ़ईगिरी इत्यादि के कार्यों में भी लगाया गया, जिससे कि उनका शरीर एवं मन कुछ सर्जनात्मक कार्यों में व्यस्त रहे। डिक्स के इस आन्दोलन का प्रभाव केवल अमेरिका में ही नहीं वरन स्कॉटलैण्ड एवं कनाडा आदि देशों में भी पड़ा और वहाँ के मानसिक अस्पतालों की स्थिति में भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुये। डिक्स ने अपने जीवनकाल में लगभग 32 मानसिक अस्पताल खुलवाये। मानसिक रोगियों के कल्याण हेतु अत्यन्त सराहनीय एवं प्रेरणास्पद कार्य करने वाली इस महिला सुधारक को अमेरिकी सरकार द्वारा सन् 1901 में ‘‘पूरे इतिहास में मानवता का सबसे उप्तम उदाहरण’’ बताया गया।

अमेरिका के साथ-साथ दूसरे देशों में भी जैसे कि जर्मनी, फ्रांस, आस्ट्रिया आदि में भी असमान्य मनोविज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कदम उठाये गये। फ्रांस में ऐसे कार्यों का श्रेय सर्वप्रथम एनटोन मेसमर को जाता है। उन्होंने पशु चुम्बकत्व पर महत्वपूर्ण कार्य किया। मेसमर इलाज के लिये रोगियों में बेहोशी के समान मानसिक स्थिति उत्पन्न कर दे देते थे। इस विधि को मेस्मरिज्म के नाम से जाना गया। बाद में यही विधि सम्मोहन (Hypnosis) के नाम से प्रसिद्ध हुयी। बाद में नैन्सी शहर के चिकित्सकों जैसे लिबाल्ट एवं उनके शिष्य बर्नहिम ने मानसिक रोगों के उपचार में सम्मोहन विधि का अत्यन्त सफलतापूर्वक प्रयोग किया, जिसके कारण यह विधि उस समय मनोरोगों के उपचार की सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली विधि बन गयी।

इसके बाद प्रसिद्ध तंत्रिकाविज्ञानी शार्कों ने पेरिस में हिस्टीरिया के उपचार में सम्मोहन विधि का सफलतापूर्व प्रयोग किया। यदि असामान्य मनोविज्ञान के इतिहास में शार्कों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान देखा जाये तो वह पेरिस के एक अत्यन्त लोकप्रिय शिक्षक के रूप में है, जिनका कार्य मनोविज्ञान के क्षेत्र में कुछ छात्रों को प्रशिक्षित करना था। आगे चलकर ये छात्र मनोविज्ञान के क्षेत्र में अत्यन्त लोकप्रिय हुये। शार्कों के विद्यार्थियों में से दो छात्र ऐसे है, जिनके कार्यों के लिये इतिहास उनका आभारी है। इनमें से एक है- सिगमण्ड फ्रायड (सन् 1856 - सन् 1939)। ये सन् 1885 में वियाना से शार्कों से शिक्षाग्रहण करने आये थे तथा दूसरे हैं, पाइरे जेनेट जो पेरिस के ही रहने वाले थे। शार्कों ने अपनी मृत्यु के 3 साल पूर्व जेनेट को अस्पताल का निदेशक नियुक्त किया। जेनेट ने सफलतापूर्वक अपने गुरू शार्कों के कार्यों को आगे बढ़ाया। मनोरोगों के क्षेत्र में जेनेट का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान है- मनोस्नायुविकृति (Psychoneurosis) में मनोविच्छेद (Dissociation) के महत्त्व को अलग से बताना।

फ्रांस के साथ-साथ जर्मनी में भी इस दिशा में अनेक महत्वपूर्ण कार्य हुये, जिनमें विलिहेल्म ग्रिसिंगर (1817-1868) और ऐमिल क्रेपलिन के कार्य विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। इन दोनों चिकित्सकों ने मनोरोगों का एक दैहिक आधार (Somatic basis) माना और इस विचारी का प्रतिपादन किया कि जिस प्रकार शरीर के किसी अंग में कोई विकार आने पर शारीरिक रोग उत्पन्न हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार मनोरोगों के उत्पन्न होने का कारण भी अंगविशेष में विकृति ही है। इसे ‘‘असामान्यता का अवयवी दृष्टिकोण’’ (arganic viewpoint of abnormality) कहा गया। सन् 1845 में प्रकाशित अपनी पुस्तक में ग्रिंसिगर ने अत्यन्तदृढ़तापूर्वक इस मत का प्रतिपादन किया कि मनोरोगों का कारण दैहिक होता है। ग्रिसिंगर की तुलना में ऐमिल क्रेपलिन का योगदान ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि भिन्न-भिन्न लक्षणों के आधार पर इन्होंने मनोरोगों को अनेक श्रेणियों में बाँटा और उनकी उत्पत्ति के अलग-अलग कारण भी बताये। सर्वप्रथम क्रेपलिन ने ही उन्माद-विषाद मनोविकृति नामक मानसिक रोग का नामकरण किया और आज भी यह रोग इसी नाम से जाना जाता है। उन्होंने जो दूसरा महत्वपूर्ण मनोरोग बताया, उसका नाम था डिमेंशिया प्राक्रोवस इसका नाम बदलकर वर्तमान समय में मनोविदालिता या सिजोफ्रेनिया कर दिया गया है। क्रेपलिन ने मनोरोगों का कारण शारीरिक या दैहिक मानते हुये इसे निम्न दो वर्गों में विभक्त किया-

1. अन्तर्गत कारक- इन कारकों का संबंध वंशानुक्रम से माना गया।

2. बहिर्गत कारक- इन कारकों का संबंध मस्तिष्कीय आघात से था, जिसके अनेक कारण हो सकते थे। जैसे-शारीरिक रोग, विष अथवा दुर्घटना इत्यादि।

19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में आस्ट्रिया में प्रसिद्ध तंत्रिका विज्ञानी एवं मनोरोग विज्ञानी सिगमण्ड फ्रायड द्वारा मनोरोगों के सन्दर्भ में उल्लेखनीय कार्य किया गया। इनका महत्वपूर्ण योगदान यह है कि सर्वप्रथम इन्होंने ही मनोरोगों की उत्पत्ति में जैविक कारकों की तुलना में मनोवैज्ञानिक कारकों को अधिक महत्वपूर्ण बताया। मनोरोग विज्ञान के क्षेत्र में फ्रायड के योगदान में अचेतन, स्वप्न विश्लेषण, मुक्त साहचर्य विधि, मनोरचनायें तथा मनोलैंगिक सिद्धान्त विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। फ्रायड ने जोसेफ ब्रियुअर से मनोस्नायुविकृति के रोगियों पर सम्मोहन विधि का सफलतापूर्वक प्रयोग करना सीखा। इस विधि के प्रयोग के दौरान उन्होंने देखा कि सम्मोहित स्थिति में रोगी बिना किसी संकोच एवं भय के अपने अचेतन में दमित विचारों, इच्छाओं, भावनाओं, संघर्षों, आदि को अभिव्यक्त करता है, जिनका संबंध स्प्ष्ट रूप से उस व्यक्ति के रोग से होता है। फ्रायड तथा ब्रियुअर ने इसे विरेचन विधि (Catthartic method) का नाम दिया।

इसके बाद सन् 1885 में फ्रायड, प्रसिद्ध फ्रेंच चिकित्सक शार्कों से शिक्षा प्राप्त करने पेरिस गये। वहाँ उन्होंने सम्मोहन विधि से मनोस्नायुविकृति के रोगियों में चमत्कारी परिवर्तन देखे। वे इससे अत्यन्त प्रभावित हुये, किन्तु वियाना वापस आने के बाद उन्होंने सम्मोहन विधि द्वारा उपचार करना बन्द कर दिया क्योंकि उनका मत था कि इस विधि द्वारा रोग का केवल अस्थायी उपचार होता है, रोग पूरी तरह दूर नहीं होता है। असामान्य व्यवहार के संबंध में जो एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विचार फ्रायड द्वारा दिया गया वह यह था कि उनके मतानुसार अधिकतर मनोरोगों का कारण अचेतन में दमित इच्छायें, विचार, भावनायें आदि हैं अर्थात मनोरोगों का मूल कारण अचेतन (Unconscious) है। जो विचार, भावनायें या इच्छायें दु:खद, अनैतिक, असामाजिक या अमानवीय होती हैं, उनको व्यक्ति अपने चेतन मन से हटाकर अचेतन में दबा देता है। फ्रायड ने इसे दमन (Repression) कहा है। इस प्रकार से इच्छायें एवं विचार नष्ट नहीं होते वरन् दमित हो जाते हैं और अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति के व्यवहार को नियंत्रित करते हैं। इस लिये किसी भी व्यक्ति के व्यवहार का ठीक प्रकार से अध्ययन करने के लिये उसके अचेतन में दमित संवेगों, विचारों को चेतन स्तर पर लाना अत्यन्त आवश्यक है। इस हेतु इन्होंने दो विधियों का प्रतिपादन किया- मुक्त साहयर्च विधि (Free association method) स्वप्न-विश्लेषण विधि (Deream Analysis method)

अपनी इन विधियों का प्रयोग करके फ्रायड ने सन 1900 में अपनी सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तक ‘‘The interpretation of dream’’ का प्रकाशन किया। मनोरोगों के उपचार हेतु फ्रायड ने जिस विधि का प्रयोग किया उसे ‘‘मनोविश्लेषण विधि’’ (Psychoanalytic Method) कहा जाता है। इस विधि में मनोरोगी के अचेतन में दमित इच्छाओं, विचारों, भावों आदि को मुक्तसाहचर्य विधि एवं स्वप्न-विश्लेषण के माध्यम से बाहर निकाला जाता हे एवं उसके आधार पर रोग का निदान करके उपचार किया जाता है। मनोविश्लेषण विधि के उत्साहजनक परिणाम आने से यह विधि पूरे विश्व में फैला गयी और इनसे इस विधि को सीखने हेतु विश्व के अनेक देशों से लोगों इनके पास आने लगे। फ्रायड के शिष्यों में कार्य युंग एवं एल्फ्रेड एडलर (वियाना) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। फ्रायड के कुछ विचारों से असहमत होने के कारण बाद में युग एवं एडलर ने उनसे अपना संबंध तोड़कर नयी अवधारणाओं को जन्म दिया। युग का मनोविज्ञान विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान (Analytic psychology) तथा एडलर का मनोविज्ञान ‘‘वैयक्तिकमनोविज्ञान’’ (Individual psychology) के नाम से जाना जाता है।

फ्रायड जब 80 साल के थे तो वे अत्यन्त गंभीर रूप से बीमार हो गये तथा उन्हें हिटलर के जर्मन सैनिकों ने पकड़ लिया क्योंकि हिटलर ने वियाना पर आक्रमण कर दिया था। अपने कुछ शिष्यों एवं दोस्तों की सहायता से उन्हें सैनिकों के कब्जे से छुड़ा लिया गया तथा इसके बाद वे लंदन चले गये और वहाँ 83 वर्ष की आयु में अर्थात सन् 1939 में कैंसर के कारण उनका निधन हो गया।

असामान्य मनोविज्ञान के इतिहास में एडॉल्फमेयर का योगदान भी अविस्मरणीय है, जो स्विट्जरलैण्ड के थे किन्तु सन् 1892 में अमेरिका आकर वहीं पर बस गये तथा यहाँ पर इन्होंने मनोरोगों के क्षेत्र में अत्यन्त उल्लेखनीय कार्य किये। असामान्यता के सन्दर्भ में मेयर द्वारा प्रतिपादित विचारधारा को ‘‘मनोजैविक दृष्टिकोण’’ के नाम से जाना जाता है। मेयर का मत था कि मनोरोगों का कारण केवल दैहिक ही नहीं वरन मानसिक भी होता है। इसलिये उपचार भी दोनों आधारों पर किया जना चाहिये। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मनोरोगों के संबंध में मेयर ने एक मिश्रित विचारधारा को जन्म दिया, जो ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होती है। इसके साथ-साथ मेयर ने मनोरोगों की उत्पत्ति में सामाजिक कारकों की भूमिका को भी स्वीकार किया। इसलिये रेनी ने इनके सिद्धान्त का नाम ‘‘मनोजैविक सामाजिक सिद्धान्त’’ भी रखा है। मेयर की मान्यता थी मनोरोगों की सफलतापूर्वक चिकित्सा तभी संभव है जब उसके दैहिक पदार्थों जैसे कि हार्मोन्स, विटामिन्स एवं शरीर के विभिन्न अंगों की क्रियाविधि को संतुलित एवं नियंत्रित करने के साथ-साथ रोगी के घर के वातावरण के अन्त:पारस्परिक संबंधों में भी सुधार किया जाये। वास्तव में देखा जाये तो मेयर के अनुसार मनोरोगियों का उपचार रोगी तथा चिकित्सक के मध्य एक प्रकार का पारस्परिक प्रशिक्षण हैं और इसकी सफलता इनके परस्पर सौहादर््रपूर्ण संबंधों पर निर्भर करती है। मनोरोगों के उपचार हेतु आज भी इस प्रकार की विधियों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा रहा है।

आज का असामान्य मनोविज्ञान

(सन् 1951 से अब तक)

जैसा कि स्पष्ट है कि 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध्र तक केवल मानसिक अस्पतालों में ही मानसिक रोगियों का उपचार किया जाता था, किन्तु समय के साथ धीरे-धीरे इन मानसिक अस्पतालों की सच्चाई लोगों के समन समक्ष प्रकट होने लगी और इस बात का पता चला कि चिकित्सा के नाम पर इन अस्पतालों में रोगियों के साथ कितना अमानवीय व्यवहार किया जाता है। जिनकों स्नेह और आत्मीयता की आवश्यकता है, उनके साथ अत्यन्त घृणित और क्रूर बर्ताव किया जाता है। इसके परिणामस्वरूप रोग ठीक होने की बजाय और बढ़ जाता है और कभी-कभी तो रोगी की मृत्यु तक हो जाती थी। प्रसिद्ध विद्वान् किश्कर (Kisker, 1985) ने ऐसे मानसिक अस्पतालों की स्थिति का वर्णन करते हुये कहा है कि ‘‘मानसिक रोगियों को इन अस्पतालों में एक छोटे से कमरे में झुण्ड बनाकर रखा जाना, ऐसे कमरों में शौचालय भी नहीं होना, धूप और हवा भी लगभग न के बराबर मिलना, आधा पेट खाना दिया जाना, कमसिन लड़कियों को अस्पताल से बाहर भेजकर शारीरिक व्यापार कराया जाना, अस्पताल अधिकारियों द्वारा गाली-गलौज करना आदि काफी सामान्य था।’’

इसके परिणामस्वरूप मानसिक अस्पतालों में रोगियों को रखने और उनका इलाज करवाने के प्रति लोगों की मनोवृत्ति में बदलाव आया और इन मानसिक अस्पतालों स्थान सामुदायिक मानसिक स्वास्थ्य केन्द्र (Community mental health centres) ने ले लिया। इन स्वास्थ्य केन्द्रों का प्रमुख उद्देश्य मानसिक रोगियों की मानवीय तरीके से चिकित्सा करना है।

मानसिक स्वास्थ्य केन्द्रों द्वारा मुख्यत: निम्न कार्य किये जाते हैं-

Ÿ चौबीस घंटा आपातकालीन देखभाल

Ÿ अल्पकालीन अस्पताली सेवा

Ÿ आंशिक अस्पताली सेवा

Ÿ बाह्य रोगियों की देखभाल

Ÿ प्रशिक्षण एवं परामर्थ कार्यक्रम आदि।

अमेरिका तथा कनाडा में ऐसे अनेक केन्द्र हैं और इन्हें अपने कार्यों के लिये सरकार से भी पर्याप्त सहायता मिलती है। आजकल इन देशों में मानसिक स्वास्थ्य केन्द्रों का एक नवीन रूप विकसित हुआ है। इसे संकट काल हस्तक्षेप केन्द्र (Crisis intervention centre) कहा जाता है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट हे इन केन्द्रों को प्रमुख उद्देश्य जरूरतमंद मनोरोगियों को तुरंत सहायता पहुँचाना होता है। इन केन्द्रों की विशेष बात यह है कि इनमें उपचार हेतु पहले से समय लेना आवश्यक नहीं होता है एवं सभी वर्ग के लोगों की यथासंभव सहायता हेतु तुरंत आवश्यक कदम उठाये जाते हैं। वर्तमान समय में संकटकाल हस्तक्षेप केन्द्र का भी एक नया रूप ‘‘हॉटलाइन दूरभाष केन्द्र’’ (Hotline telephone centre) के रूप में विकसित हुआ है। इन केन्द्रों में चिकित्सक दिन या रात में किसी समय केवल टेलीफोन से सूचना प्राप्त करके भी सहायता करने हेतु तैयार रहते हैं। इनका प्रमुख उद्देश्य मनोरोगियों की अधिकाधिक देखभाल एवं सेवा करना होता है। इस तरह का पहला दूरभाष केन्द्र सर्वप्रथम लोस एन्जिल्स के चिल्ड्रेन अस्पताल में खोला गया, जिसकी सफलता से प्रभावित होकर विश्व के विभिन्न देशों में ऐसे केन्द्र तेजी से खुल रहे हैं।

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