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अनुसंधानकर्ता के गुण तथा ऐतिहासिक अनुसंधान में सम्पादित किये जाने वाले कार्य

 अनुसंधानकर्ता के गुण

तथ्यों के संकलन मात्र के आधार पर एक साधारण व्यक्ति भी कहानी प्रस्तुत कर सकता है, परन्तु उसे इतिहास नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक इतिहासकार को हम अनुसंधानकर्ता नहीं कह सकते। एक कुशल अनुसंधानकर्ता में कुछ अन्य आवश्यक गुण भी होने चाहिए। हाकेट का कथन है कि "तथ्यों का संकलन, उनकी आलोचना, व्याख्या तथा विश्लेषण द्वारा एक पठनीय निष्कर्ष प्रस्तुत करना ही अनुसंधानकर्ता का अभिप्राय होना चाहिए।"

एक कुशल अनुसंधानकर्ता में निम्नलिखित गुण होने चाहिए-

(1) मानसिक योग्यता- एक कुशल अनुसंधानकर्ता के लिए विषय-संबंधी मानसिक दक्षता तथा परिपक्वता का होना अनिवार्य है। अनेक विद्वानों का संबंध इतिहास-अध्ययन से नहीं रहा, फिर भी उन्होंने इतिहास की मौलिक रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। कामटे गणित के प्रोफेसर, हीगेल दार्शनिक तथा क्रोचे राज्य प्रशासन में मंत्री थे, फिर भी उनकी रचनाएँ उच्चकोटि की मौलिक ऐतिहासिक कृतियाँ हैं। अत: यह स्पष्ट है कि सफल अनुसंधानकर्ता के लिए विषय-संबंधी मानसिक योग्यता तथा परिपक्वता का होना अनिवार्य है।

(2) परिश्रमी एवं अध्यवसायी- अनुसंधानकर्ता के लिए कठोर परिश्रमी, अध्यवसायी, धैर्यवान और विषयानुरागी होना आवश्यक गुण है, क्योंकि शोध विषय स्नातक तथा स्नातकोत्तर विषय की भाँति निश्चित अवधि के लिए नहीं होता है। शोध विषय की अनेक समस्याएँ हैं, जिनका समाधान निश्चित अवधि में यदि असंभव नहीं, तो कठिन अवश्य प्रतीत होता है।

टायनबी ने 'चुनौती तथा प्रतयुत्तर' के सिद्धान्त के विश्लेषण के लिए बारह भागों में 'दी स्टडी ऑफ हिस्ट्री' नामक पुस्तक की रचना की। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उन्हें कितना अधिक समय लगाना पड़ा होगा। अनुसंधानकर्ता का उद्देश्य श्रेष्ठ रचना का प्रस्तुतीकरण होना चाहिए। शेक अली का कथन है कि "सर विलियम जोंस, चार्ल्स विल्किस, फ्लीट तथा राइस ने बड़े अध्यवसाय तथा परिश्रम से अपनी बहुमूल्य कृतियाँ प्रस्तुत की हैं।"

(3) बौद्धिक गुणों की अनिवार्यता- अनुसंधानकर्ता में धैर्य तथा अध्यवसाय के साथ बौद्धिक गुणों का होना भी अनिवार्य है। कुछ तथ्यों के आधार पर उसे तुरन्त निष्कर्ष प्रस्तुत कर देना चाहिए। तथ्यों तथा स्रोतों की यथार्थता को सिद्ध करने के लिए शोधकर्ता को आलोचना-पद्धति से अलग होना चाहिए। वैदिक दक्षता के अभाव में वह अनेकता में एकता की स्थापना नहीं कर सकता।

(4) साहित्यिक गुण- अनुसंधानकर्ता में साहित्यिक गुण की भी अपेक्षा की जाती है, क्यों इतिहास विज्ञान तथा कला का सुन्दर समन्वय होता है। इतिहासकार के निष्कर्ष का प्रस्तुतीकरण कलात्मक ढंग से पाठकों के लिए रुचिकर तथा ग्राह्य होना चाहिए।

(5) तथ्यों के संकलन एवं विश्लेषण में दक्ष- अनुसंधानकर्ता को इतिहास को एक विज्ञान के विषय के रूप में जानने व मानने वाला होना चाहिए। इतिहास के अध्ययन में वैज्ञानिक विधाओं का प्रयोग करने की उसमें अद्भुत क्षमता होनी चाहिए। उसे तथ्यों का संकलन, आलोचना, साक्ष्य, विश्लेषण आदि कार्यों की जानकारी होनी चाहिए। उसमें यथार्थ एवं अयथार्थ तथ्यों के अन्तर को समझ सकने की क्षमता भी होनी चाहिए।

(6) सामाजिक आवश्यकताओं का ज्ञान- वह शोध कार्य के विधि-विधानों को ठीक तरह से जानता, समझता व प्रतिपादित कर सकता हो। वह अनुसंधानकालीन समाज तथा उसकी आवश्यकताओं को ठीक तरह से समझ सकता हो।

(7) तथ्यों की खोज एवं निरूपण में दक्ष- वह नवीन तथ्यों की खोज, उपलब्ध तथ्यों की नवीन व्याख्या तथा सिद्धान्तों के परिवेश में तथ्यों के निरूपण में दक्ष हो। वह यथार्थ की प्रस्तुति और कल्पनात्मक प्रस्तुति में निपुण हो।

(8) भ्रान्तियों के निवारण में निपुण- वह किंवदन्तियों, परम्परागत रुढ़ियों और भ्रान्तियों के निवारण में निपुण हो। वह अपने समसामयिकों को अतीत का अवबोध कराने में समर्थ हो। वह प्रचलित लिपियों का ज्ञान रखता हो।

(9) सत्यवक्ता एवं आलोचक- वह अपने कथन की अभिव्यक्ति के समय पूर्वाग्रहरहित, प्रभावरहित, स्वाधीन, स्पष्ट तथा सत्यवक्ता एवं आलोचक हो, साथ ही निष्पक्ष न्यायकर्ता के गुण वाला हो तथा गलत विचारों का खण्डन करने में निर्भीक हो।

(10) कथा की पुनर्रचना में समर्थ- वह अपनी कथा की पुनर्रचना परिवर्तित दृष्टिकोण के अनुसार समसामयिक सामाजिक आवश्यकता के अनुसार कराने में समर्थ हो।

(11) सत्यता- उसे कुछ ही तथ्यों के आधार पर शीघ्रता में कोई उल्टा-सीधा निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए, अपितु अन्तिम निष्कर्ष की प्रस्तुति के पूर्व उसकी सत्यता के विषय में आश्वस्त हो लेना चाहिए।

(12) प्रस्तुति वैज्ञानिक एवं आकर्षक- उसकी प्रस्तुति कलात्मक, वैज्ञानिक, सुन्दर, सजीव, रोचक और आकर्षक होनी चाहिए।

(13) बौद्धिक परिपक्वता- अनुसंधानकर्ता में बौद्धिक परिपक्वता होनी चाहिए। इसके अभाव में शोध-विषय का चयन, ग्रन्थों की सूची, तथ्यों का संकलन, उनकी व्याख्या, विश्लेषण, मूल्यांकन तथा यथोचित निष्कर्ष की प्राप्ति असंभव नहीं, तो कठिन अवश्य प्रतीत होती है। अनुसंधान के सिद्धान्त अनुसंधानकर्ता के उपादान करते हैं। आस्कर वाइल्ड का कथन है कि इतिहास का निर्माण मूर्ख भी कर सकता है, परन्तु उसका लेखन प्रतिभावान ही कर सकता है।"

(14) चिन्तन शक्ति- हाकेट के अनुसार अनुसंधानकर्ता में उच्च स्तर की चिन्तन शक्ति होनी चाहिए।

(15) लेखक व स्रोतों के बारे में स्पष्ट जानकारी- उसे ऐतिहासिक स्रोतों की मौलिकता की जाँच कर लेनी चाहिए तथा स्रोतों के लेखकों के विषय में भी पूरी जानकारी होनी चाहिए तथा लेखक व स्रोतों के बारे में उसे स्पष्ट जानकारी होनी चाहिए। उसे पुस्तकों तथा लेखक के स्वर का ज्ञान हो। छायामात्र लेखक, गुमनाम लेखक तथा वास्तविक लेखक की जानकारी होनी चाहिए।

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अनुसंधानकर्ता के गुण

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ऐतिहासिक अनुसंधान में सम्पादित किये जाने वाले कार्य

अनुसंधान में अनुसंधानकर्ता को अनेक कार्य सम्पादित करने होते हैं। अनुसंधान एक वैज्ञानिक विधा है, अतएव इसमें प्राय: सभी वैज्ञानिक अनुसंधान के कार्य सम्पादित करने होते हैं।

ऐतिहासिक अनुसंधान में सम्पादित किये जाने वाले कार्यों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

1. सामान्य कार्य तथा 2. विशिष्ट कार्य।

1. अनुसंधान में सामान्य कार्य-

ऐतिहासिक अनुसंधान में सम्पादित किये जाने वाले सामान्य कार्य इस प्रकार हैं-

(1) सतर्कता- अनुसंधान एक ऐसा कार्य है जिसमें एक अनुसंधानकर्ता को काफी सतर्कता एवं सावधानी बरतनी पड़ती है। यह सतर्कता उसे विषय-शीर्षक चयन से लेकर अध्ययन-लेखन कार्य सम्पादन तक रखनी पड़ती है। उदाहरणार्थ, गलत विषय का चयन न हो जाए, भ्रामक शीर्षक न मिल जाए, व्यर्थ के स्रोत-संदर्भ न सामने आयें, मौलिक-वास्तविक ग्रन्थ ही अध्ययन किये जाएँ, संदर्भ-ग्रन्थों की मौलिक रचना का सही ज्ञान हो, उचित कथन, प्रश्न, परीक्षण, तर्क, अनुमान, निष्कर्ष आदि निकल सकें। इसी प्रकार तथ्यों की प्रस्तुति सही ढंग से हो सके और यथार्थ पर आवरण न चढ़ सके। अनुसंधानकर्ता के लिए अनुसन्धान कार्य के अन्तर्गत जो भी कार्य निर्दिष्ट हों, उन सबके करने में पूरी सतर्कता रखना ही अनुसंधान में सतर्कता की अवधारणा है।

किसी मूल लेखक के विचारों को यथावत् स्वीकार न करके रचनात्मक विश्लेषण द्वारा उसकी यथार्थता को सिद्ध करना चाहिए, परन्तु उसके लिए तथ्यों को तोड़-मरोड़ की आवश्यकता नहीं है। शोधकर्ता एक न्यायाधीश की भाँति पक्ष तथा विपक्ष के सभी साक्ष्यों का तुलनात्मक मूल्यांकन करके अन्तिम निर्णय प्रस्तुत करता है। समुचित साक्ष्यों के अभाव में निर्णय प्रस्तुत करना एक महान् भूल है। अन्तिम निर्णय देने के पहले अनुसंधानकर्ता को आश्वस्त होना पड़ता है कि उसने ऐतिहासिक घटना के संबंध में ऐतिहासिक स्रोतों में उपलब्ध सभी साक्ष्यों का प्रयोग किया है। ऐतिहासिक साक्ष्य के अभाव में निष्कर्ष दोषपूर्ण होता है।

ऐतिहासिक तथ्यों के मूल्यांकन में शोधकर्ता को ध्यान रखना चाहिए कि वह जिस घटना का उल्लेख कर रहा है, उसका संबंध अतीत से है। आलोचना में केवल रचनात्मक तर्क की आवश्यकता है। इसके अभाव में इतिहास की विषयवस्तु दुरूह हो सकती है। आलोचना शोध का आवश्यक गुण है, परन्तु उसके उपयोग का स्वरूप रचनात्मक होना चाहिए।

(2) विषय-शीर्षक का चयन- अनुसंधान कार्य के लिए किसी विषय का चयन करना चाहिए तथा उस विषय के अन्तर्गत शोध-शीर्षक का भी चयन बहुत सावधानी से करना चाहिए। यह कार्य एक बौद्धिक प्रचेष्टा है। इसका अर्थ केवल नवीन आविष्कार या अन्वेषण नहीं है। इसका अर्थ एक नवीन विन्यास, एक नवीन दृष्टिकोण, एक नवीन साक्ष्य आदि भी है। अनुसंधान कार्य विद्यमान आँकड़ों अथवा अभी तक अज्ञात आँकड़ों पर आधारित होता है। इसलिए विषय-शीर्षक का चयन करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि उस पर आँकड़े मिल सकें। जिस विषय का ज्ञान उस अनुसंधानकर्ता को सबसे अधिक हो, उसी विषय पर शोधकार्य करना चाहिए। इसमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उसे विषय-सामग्री सुगमता से प्राप्त हो सके।

उसे विषय की भाषा का ज्ञान होना चाहिए। तुलनात्मक विषयों पर शोध-कार्य करने में काफी कठिनाई होती है, क्योंकि दो तरह की संस्कृति, भाषा और विषय-सामग्री का अध्ययन करना पड़ता है। विषय-शीर्षक चयन में ग्रन्थों एवं पत्र-पत्रिकाओं की संदर्भ सूचियों से भी सहायता ली जा सकती है। विषय-चयन के बाद, विविध अध्यायों का व्यवधान करते हैं। उनके लिए सामग्री संकलन का कार्य पुस्तकालयों में जाकर पुस्तकों तथा पत्र-पत्रिकाओं से करते हैं।

(3) रचना-पुन:रचना- चयनित विषयान्तर्गत अनुसंधानकर्ता रचना अथवा पुन:रचना का कार्य करता है। जब वह सर्वथा नये विषय पर लिखता है, तो उसे रचना कहते हैं और जब किसी पूर्व विज्ञप्त विषय पर अपने भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए लिखता है, तो उसे पुनः रचना कहते हैं। रचना किसी विषय की सीमा के अन्तर्गत तथ्यों की यथार्थ समालोचना के साथ क्रमबद्ध घटना-वर्णन के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत की जाती है, जो समसामयिक मानव-समाज को प्रभावित करती हुई होनी चाहिए। इसकी शैली सरल, सुबोध, सरस और साहित्यिक होती है। रचना रोचक तथा मूल्यसम्पृक्त होनी चाहिए। यह कार्य रचनाकार सामान्यीकरण, व्याख्या, विश्लेषण तथा मूल्यांकन के सिद्धान्तों के आधार पर करता है। विषय की सीमा, तथ्यों की यथार्थता, ऐतिहासिक स्रोतों की विश्वसनीयता तथा घटनाओं की क्रमबद्धता के पश्चात् गवेषणा (अनुसंधान) में कलात्मक पुनर्रचना प्रमुख हो जाती है।

(4) अतीत की पुनप्राप्ति- ऐतिहासिक अनुसंधान की नवीन विधा का उद्देश्य अतीत की पुनप्राप्ति है। कुछ विद्वान् इसे सम्भव, तो कुछ असंभव मानते हैं। 19वीं शताब्दी के जर्मन इतिहासकारों की मान्यता थी कि अतीत का यथावत् प्रस्तुतीकरण ही शोधकर्ता (अनुसंधानकर्ता) का कर्त्तव्य होना चाहिए। परन्तु उनकी यह मान्यता उस समय मिथ्या सिद्ध हुई जब शोधकर्ताओं ने मनोनुकूल तथ्यों का चयन, व्याख्या तथा विश्लेषण करके उन्हें तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करनाल प्रारम्भ किया और उससे क्षुब्ध होकर हेनरी फोर्ड नामक विद्वान ने इतिहास को 'अन्धकार कोठरी' की संज्ञा प्रदान की। अमेरिका के अधिकांश इतिहासकारों ने इस तथ्य को मान्यता प्रदान की है। कार्ल बेकर भी यह कहने के लिए विवश हो गया कि कोई भी इतिहासकार अतीत की पुनर्प्राप्ति नहीं कर सकता। चार्ल्स ए. बियर्ड के अनुसार "लिखित इतिहास एक विश्वास की प्रक्रिया है।"

उपर्युक्त विद्वानों के कथनों में कुछ सत्यता अवश्य है कि वास्तव में अतीत की पुनर्प्राप्ति कठिन है, क्योंकि अतीतकालिक घटनाओं का प्रत्यक्षीकरण एवं यथावत् प्रस्तुतीकरण संभव नहीं है। अनुसंधानकर्ता के पास एक वैज्ञानिक की भाँति ऐसा कोई दूरवीक्षक तथा सूक्ष्मवीक्षक यन्त्र नहीं है, जिसके द्वारा वह अपने समसामयिक समाज को अतीत का दिग्दर्शन करा सके अथवा स्वयं भी कर सके। अनुसंधानकर्ता इतिहासकार केवल ऐतिहासिक स्रोतों में वर्णित तथ्यों के आधार पर अतीत का काल्पनिक पुनर्निर्माण ही कर सकता है। वह अतीत का प्रत्यक्ष निरीक्षण नहीं कर सकता। अतीत के इस काल्पनिक चित्रण में वह स्वयं विश्वास करता है तथा अपने समसामयिक समाज को भी विश्वास करने के लिए प्रेरित करता है। अत: निश्चित रूप से अतीत का प्रस्तुतीकरण एक विश्वास है, इसे यथातथ्य कहना अनुचित प्रतीत होता है। कार्ल बेकर ने लिखा है कि "अतीतकालिक ऐतिहासिक तथ्य एक प्रतीक है, जो इतिहासकार के मस्तिष्क में विद्यमान रहता है।"

अतीत की पुनर्प्राप्ति को असंभव बताने वाले उक्त विद्वानों की कुछ लोगों ने कटु आलोचना की है और उनके कथनों को भ्रान्तिमूलक बताया है। इन विज्ञानों के अनुसार उक्त अवधारणा का प्रमुख कारण उन पर ईसाई धर्म का प्रभाव होना है, क्योंकि ईसाई इतिहास विश्वास-प्रधान है। इन विद्वानों ने बेकर तथा बियर्ड के मतों को भ्रांतिमूलक बताया है और कहा है कि इतिहास न तो अंधेरी कोठरी है और न विश्वासप्रधान । गौतम बुद्ध, अशोक, अकबर, महात्मा गाँधी तथा पं.जवाहरलाल नेहरू ऐतिहासिक तथ्य हैं तथा विश्वास के कारण उन्होंने इतिहास में स्थान प्राप्त नहीं किया है। इतिहास की इन महान् विभूतियों की कृतियाँ किसी न किसी रूप में इतिहास के पृष्ठों पर अंकित हैं। इनसे सम्बन्धित तथ्य किसी न किसी रूप में आज भी उपलब्ध हैं। इसलिए यह कहना गलत है कि ऐतिहासिक अतीत की पुनप्राप्ति संभव नहीं है।

अत: अतीत की पुनाप्ति संभव है, परन्तु यह शोधकर्ता के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि वह अतीत की पुनप्ति किस रूप में चाहता है, क्योंकि अतीत की पुनर्रचना कुछ चुने हुए तथ्यों के आधार पर की जाती है। शोधकर्ता सामाजिक आवश्यकतानुसार अतीत का प्रस्तुतीकरण करता है। यही भावना अतीत की पुनप्ति में होनी चाहिए। ऐतिहासिक अनुसंधान की विधाओं का प्रतिपादन अतीत की पुनर्प्राप्ति के लिए किया गया है।

रेनियर का कथन है कि "ऐतिहासिक अनुसंधान की विधाओं का प्रमुख अभिप्राय अतीत संबंधी उस कहानी का प्रस्तुतीकरण होना चाहिए जो वर्तमान को प्रकाशित कर सके तथा समसामयिक समाज को सन्तुष्ट कर सके।" क्रोचे ने लिखा है कि "इतिहासकार का उद्देश्य उस अतीत की पुनप्ति होनी चाहिए जो शोधकर्ता की आत्मा को स्पंदित कर सके।"

ओकशाट के अनुसार, "वर्तमान का आविर्भाव अतीत के गर्भ से हुआ है, जो वर्तमतान को प्रभावित तथा नियंत्रित करता है तथा सुखद भविष्य का मार्गदर्शन करता है।" अतः अतीत की पुनर्प्राप्ति ऐतिहासिक अनुसंधान को विधाओं का प्रमुख उद्देश्य है।

अतीत की पुनर्प्राप्ति के लिए रेनियर ने निम्नलिखित मूलभूत सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया

(1) घटना

(2) साक्ष्य

(3) संदेह

(4) क्रमबद्धता का संदेश

(5) तिथिक्रम

(6) कार्य-कारण संबंध

(7) अनुमान

(8) वस्तुनिष्ठा

(9) भाषा तथा व्याकरण का ज्ञान

(10) कलात्मक पुनर्रचना।

इनके प्रयोग से अनुसंधान को सम्पुष्टता प्राप्त होती है और अतीत की पुनर्प्राप्ति का मार्ग सुगम हो जाता है।

(5) कल्पना-परिकल्पना एवं अनुमान- कारणों की व्याख्या में परिकल्पना सहायक होती है, क्योंकि कल्पना के अभाव में कारणों की क्रमबद्धता कठिन है। इसी सत्य को ध्यान में रखकर क्रोचे तथा कालिंगवुड ने कहा है कि कल्पना ऐतिहासिक ज्ञान का मूल स्रोत है।

इतिहास में अनुमान भी लगाया जाता है। परन्तु इतिहास पूर्णरूप से काल्पनिक नहीं, अपितु साक्ष्यों पर आधारित है। उदाहरणार्थ, कहीं खण्डहर देखकर अनुमान किया जाता है कि यहाँ कभी एक विशाल नगर रहा होगा। किन्तु अनुमान कभी काल्पनिक भी हो सकता है। दो-चार भवनों के अवशेष देखकर विशाल नगर के बारे में अनुमान कर लेना बहुत अधिक ठीक नहीं कहा जा सकता। यही कारण है कि इतिहासकार का निष्कर्ष अनुमानात्मक अथवा संभावनात्मक ही होता है, विज्ञान की भाँति निश्चयात्मक नहीं।

(6) समीक्षा- ऐतिहासिक अनुसंधान में समीक्षा एक आवश्यक प्रक्रिया है। समीक्षा इतिहासकार की एक विशेषता है जो वह इतिहास-लेखन के प्रयोग में लाता है । वह प्राप्त तथ्यों-साक्ष्यों की विविध प्रकार से समीक्षा करता है, उसकी काल्पनिकता और निश्चयात्मकता की जाँच करता है। इसलिए समीक्षा के गुण किसी भी इतिहासकार में आवश्यक माने जाते हैं।

(7) विश्लेषण- इतिहास में जो प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में हमें साक्ष्य प्राप्त होते हैं, उनको यथावत् स्वीकार कर लेना पहले भले प्रचलित रहा हो, किन्तु वर्तमान वैज्ञानिक समय में लोग उसका विधिवत् विश्लेषण भी किया करते हैं। अतीत का चित्रण कभी पूर्ण नहीं होता और प्रत्येक युग में नवीन साक्ष्यों के परिप्रेक्ष्य में अतीत का चित्रण परिवर्तनशील होता है, इसलिए नवीन साक्ष्य पुरातन साक्ष्यों के पुनर्मूल्यांकन तथा विश्लेषण के लिए शोधकर्ता को विवश करते हैं। कालिंगवुड ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये हैं।

(8) प्रश्न-प्रश्नावली- इतिहास में इतिहासकार कुछ सामाजिक प्रश्न करता है और उसका उत्तर वह अतीत से प्राप्त कर अपने समाज के समकक्ष प्रस्तुत करता है। बेकन के अनुसार वैज्ञानिक सर्वदा प्रकृति से प्रश्नोत्तर प्राप्त करता है। वैज्ञानिक विधा में आस्था रखने वाला इतिहासकार कुछ प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में अतीत का अध्ययन करता है। प्लेटो ने भी अतीत से अपने प्रश्नों का उत्तर चाहा था। सुकरात की शिक्षा उसके प्रश्नों द्वारा ही दी गई थी। भारतीय इतिहासकारों के निष्कर्ष भी उनके प्रश्नों के ही उत्तर हैं। इस विचारधारा को हम कल्पना, पूर्वाग्रह अथवा मूलभूत प्रश्नोत्तर कह सकते हैं। यदि मस्तिष्क में प्रश्न का स्वरूप स्पष्ट नहीं है, तो उसका उत्तर भी स्पष्ट नहीं हो सकता।

कालिंगवुड के अनुसार प्रश्न की स्पष्टता वैज्ञानिक अध्ययन की कसौटी है। साक्ष्य के संदर्भ में देखने पर जहाँ हमें दो प्रकार के साक्ष्य मिलते हैं- शक्तिशाली साक्ष्य (जो अपने आप में पूर्ण होता है और उससे घटना का पूरा विवरण मिल जाता है) तथा वास्तविक साक्ष्य (जो सम्पूर्ण साक्ष्य का एक अंश होता है और जिसे इतिहासकार स्वीकार करता है), उनमें शक्तिशाली साक्ष्यों का लोप होता जा रहा है। प्रश्नोत्तर में सहायक को साक्ष्य कहते हैं। प्रश्नों के अभाव में साक्ष्यों का संकलन कठिन होता है।

(9) कथन- इतिहास में कथन का भी अपना विशेष महत्त्व माना गया है। कथन सत्य और असत्य दोनों से संबद्ध हो सकता है। कथन साक्ष्ययुक्त एवं साक्ष्यरहित, दोनों हो सकता है। साक्ष्ययुक्त कथन अधिक विश्वसनीय होता है। कथन प्रिय (मधुर) एवं अप्रिय (कठोर), दोनों हो सकता है। इतिहास में केवल सत्य किन्तु अप्रिय कथन को महत्त्व देने वालों की संख्या अब घंटती हुई दर पर प्राप्त होती है, जबकि वैज्ञानिक इतिहासकार यह मानने लगे हैं कि अप्रिय कथन से बचने के लिए इतिहासकार को असत्य कथन का भी सहारा लेना पड़ सकता है, जो विशेष परिस्थिति में अन्यथा नहीं कहा जा सकता।

कथन एक प्रकार के साक्ष्य-स्वरूप होते हैं, जबकि साक्ष्य के रूप में हम कुछ कहते हैं और कुछ प्रदर्शित भी करते हैं। साक्ष्य के सातत्य से ऐतिहासिक आधार पर कैंची तथा गोंद शैली के समर्थक इतिहासकार प्राधिकारी के कथन को यथावत् स्वीकार कर लेते हैं, किन्तु वैज्ञानिक इतिहासकारों ने इस शैली को मान्यता प्रदान नहीं की। ये लोग प्राधिकारी के कथन को यथावत् स्वीकार न करके अन्य साक्ष्यों के विश्लेषण के परिप्रेक्ष्य में अपना यथार्थ कथन प्रस्तुत करते हैं। वह लिपिबद्ध अथवा अन्य ऐतिहासिक स्रोतों में उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं। कालिंगवुड के अनुसार प्रायः सिक्कों, इमारतों आदि में उपलब्ध साक्ष्य अधिक विश्वसनीय होते हैं और वैज्ञानिक इतिहासकार को मनोनुकूल परिणाम देते हैं । अतः आधुनिक शोधकर्ता उसी कथन को साक्ष्य के रूप में स्वीकार करता है जो उसके विचारों की पुष्टि कर सके।

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(10) अवलोकन-निरीक्षण एवं परीक्षण- अनुसंधान में अतीत की घटना और समसामयिक स्थिति का उचित ढंग से अवलोकन एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। तथ्यों की विश्वसनीयता के लिए उनका सभी प्रकार से निरीक्षण एवं परीक्षण भी किया जाना चाहिए। लेखककालीन परिस्थितियों की जाँच करके सत्य का अनुमान लगाया जा सकता है कि उसने जिस घटना का वर्णन किया है, वह सही है या गलत। हाकेट ने विज्ञान की भाँति इतिहास में भी विश्वसनीय निरीक्षण को आवश्यक बताया है। कभी-कभी प्रत्यक्षदर्शी का कथन भी असत्य हो जाता है और वह किन्हीं कारणों से तथ्य को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करता है। इसलिए निरीक्षण परीक्षण आवश्यक होता है।

(11) तर्क-प्रस्तुति- अनुसंधान में अपने कथनों को प्रतिष्ठित करने और अन्यों के विचारों को अपुष्ट सिद्ध करने के लिए तरह-तरह के साक्ष्यों को अपनी तार्किक शक्ति के सहारे प्रस्तुत किया जाता है। तर्क आवश्यक है, किन्तु वह विषयान्तर्गत एवं व्यावहारिक होना चाहिए। वह अनावश्यक एवं बिना कारण का नहीं होना चाहिए कि लोग उसे वितर्क की संज्ञा देने पर विवश हो जाये। अनुसंधानकर्ता को सदैव रचनात्मक तर्क प्रस्तुत करना चाहिए, विघटनकारी तर्क नहीं। तर्क देते समय उसकी सत्यता के प्रति सतर्क रहना चाहिए।

(12) सामान्यीकरण एवं निष्कर्ष प्राप्ति- घटनाओं की क्रमबद्धता के बाद, एक श्रेष्ठ शोधकर्ता सामान्यीकरण के माध्यम से महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष प्रस्तुत करता है। अनुसंधान कार्य में सामान्यीकरण का विशेष महत्त्व है। गार्डिनर का कथन है कि "सामान्यीकरण ऐतिहासिक घटना का मार्गदर्शक है।" यह जटिल विषय को सरल, सुबोध तथा सुगम बनाने की एक प्रक्रिया है। इतिहास में इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत कुछ इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया जाता है जो एक विशेष व्यवस्था की ओर संकेत करते हैं, जैसे—'प्रशियन अधिकारी','विक्टोरियन व्यापारी', 'प्यूरिटन मस्तिष्क' इत्यादि। इसी सामान्यीकरण के सिद्धान्त के अन्तर्गत हम 'चाणक्य' शब्द का जब प्रयोग करते हैं, तो एक प्रतिशोधयुक्त व्यक्ति की ओर संकेत होता है एवं जब 'विभीषण' का नाम लेते हैं, तो 'घर का भेदी लंका ढाहे' की उक्ति की ओर संकेत करता है। चार्ल्स फैकेल का कथन है कि सामान्यीकरण से अनुसन्धानकर्ता का वर्ण्य-विषय सजीव हो उठता है।

प्रत्येक रचना अपने आप में एक स्थान पर चलकर सीमित की जाती है, इसलिए उसके अन्त में पूरे लेखन कार्य का निष्कर्ष के साथ ही किसी अनुसंधान की समाप्ति मानी जाती है। रचना यदि सुन्दर प्रासाद है, तो उसे और अधिक सुन्दर बनाने के लिए निष्कर्ष एक बाग-बगीचे, फूल-पौधे और गमलों की तरह से हैं, जो कि उस प्रासाद की सुन्दरता में चार-चाँद लगाने की तरह है। अपनी रचना का रोचक एवं ग्राह्य बनाने के लिए एक शोधकर्ता कुछ नवीन विधाओं का प्रयोग करता है। इसी को निष्कर्ष-प्रक्रिया की संज्ञा दी जाती है। अनुसंधान का संबंध व्यक्ति के व्यक्तित्व-विचारों (मानसिक अवस्था) से होता है जिसे वह कल्पना के आधार पर नहीं, अपितु साक्ष्यों के आधार पर एक विशिष्ट साहित्यिक शैली से सुशोभित तथा परिष्कृत करता है जिससे कि लोग उसका अध्ययन करने के लिए आकर्षित किये जा सकें। इसी को किसी ऐतिहासिक अनुसंधान में निष्कर्ष-प्रक्रिया अथवा निष्कर्ष प्राप्ति की संज्ञा दी जा सकती है।

(13) भविष्यवाणी- इतिहास को विज्ञान की श्रेणी से अलग रखने वाले यह मानते हैं कि एक वैज्ञानिक की भाँति एक इतिहास भविष्यवाणी करने में असमर्थ होता है। ई.एच. कार ने भी इसे स्वीकृत किया है। वाल्श ने लिखा है कि "वैज्ञानिक एक सफल भविष्यवक्ता है, जबकि इतिहासकार में इस गुण का अभाव दिखाई देता है।" कार्ल और. पापर के अनुसार वैज्ञानिक भविष्यवाणी करता है और इतिहासकार परिस्थितियों के संदर्भ में भविष्य के लिए मार्गदर्शन करता है। प्रो. कार के अनुसार इतिहासकार की भविष्यवाणी तथा भावी मार्गदर्शन का आधार सामान्यीकरण का सिद्धान्त है। स्क्रीवेल का कथन है कि "परिकल्पना संभव है, भविष्यवाणी नहीं" गार्डिनर के अनुसार "इतिहास का अध्ययन अतीत से संबद्ध है, न कि भविष्य से। इतिहासकार का कार्य घटना का पूर्वाभ्यास नहीं होता है, इसलिए भविष्यवाण जैसी बात अनुसंधान का विषय हो ही नहीं सकता।" परन्तु घटना विशेष की सामयिक पुनरुक्ति के आधार पर अनुसंधानकर्ता भविष्यवाणी करने का प्रयास करता है।

2. अनुसंधान में विशिष्ट कार्य-

अनुसंधान में कुछ विशिष्ट कार्य ऐसे होते हैं जो अनुसंधान की दृष्टि से विशेष ध्यान देने योग्य होते हैं, जैसेवास्तविक तथ्यों की प्राप्ति (संग्रह), साक्ष्यों की प्रस्तुति, तथ्यों की व्याख्या, उनका स्पष्टीकरण, उनकी आलोचना-समालोचना आदि । विज्ञान तथा सामाजिक विज्ञान के विषयों में अनुसंधान अथवा ग्रन्थ-रचना के समय कुछ और भी विशिष्ट कार्यों को एक लेखक तथा अनुसंधानकर्ता सम्पादित करते हैं। वास्तव में इतिहास-लेखन एवं ऐतिहासिक अनुसंधान में 5 सूत्र एवं सिद्धान्प्त मुख्य होते हैं

(1) तथ्य (2) साक्ष्य (3) व्याख्या (4) स्पष्टीकरण (5) आलोचना।

तथ्यों का वर्गीकरण- शोधकर्ता को ऐतिहासिक तथ्यों का संकलन वर्गानुसार करना चाहिए-सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, प्रशासनिक तथा व्यक्तिगत उपलब्धियाँ इत्यादि। इस माध्यम से शोधकर्ता अपने विषय को सरल, सुबोध तथा बोधगम्य बनाता है। ऐतिहासिक तथ्य विभिन्न स्थानों पर बिखरे रहते हैं, उनका संकलन विभक्त वर्गों के अनुसार होना चाहिए। प्रायः एक ही घटना के विषय में विभिन्न मत होते हैं।

अकबर की धार्मिक नीति के संबंध में अबुलफजल, स्मिथ, बदायूँनी, एस.आर. शर्मा तथा डॉ. राय चौधरी ने अपने-अपने ढंग से तथ्यों को प्रस्तुत किया है। आधुनिक शोधकर्ता को इन तथ्यों से अवगत होना चाहिए। छोटी से छोटी घटना भी इतिहास की गति को सर्वाधिक प्रभावित करती है। हेनरी अष्टम, एडवर्ड षष्ठ, मेरी तथा अकबर की नीतियों के निर्धारण में वैवाहिक संबंधों का सर्वाधिक प्रभाव दिखाई देता है। अनुसंधानकर्ता को इन तथ्यों के विश्लेषण में रचनात्मक तर्क का उपयोग करना चाहिए।

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