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ऐतिहासिक अनुसंधान की अवधारणा

इतिहास में अनुसंधान की अवधारणा (ऐतिहासिक गवेषणा)

गवेषणा, शोध, खोज, अनुसंधान वस्तुतः एक ही वैज्ञानिक प्रक्रिया के पर्याय हैं। ऐतिहासिक अनुसंधान की आधुनिक विधाएँ 18वीं सदी की देन हैं। इस परम्परा के विद्वानों ने वैज्ञानिक विधाओं के आधार पर इतिहास का अध्ययन कर ऐतिहासिक अनुसंधान की आधारशिला तैयार की। वे भली-भाँति जानते थे कि विज्ञान ने भौतिक जगत् में क्रान्तिकारी परिवर्तन करके मानव- जीवन के लिए सुखद परिणाम प्रस्तुत किया है। यदि वैज्ञानिक विधाओं का प्रयोग इतिहास के अध्ययन में भी किया जाए, तो इस विषय के महत्त्व तथा उपादेयता में अवश्य वृद्धि होगी, इतिहास में वैज्ञानिक विधा के प्रबल समर्थक प्रो. जे.बी. ब्यूरी का कथन है कि "इतिहास विज्ञान है, न कम और न अधिक।"

परिणामस्वरूप वैज्ञानिक विधा में आस्था रखने वाले इतिहासकारों ने कठिन परिश्रम से ऐतिहासिक स्रोतों को क्रमबद्ध किया, त्रुटिपूर्ण स्रोतों की व्याख्या करके उनको विश्वसनीय स्वरूप प्रदान किया। इसके लिए विद्वानों ने आलोचनात्मक विधाओं का प्रयोग किया।

डेविड थामसन का कथन है कि "उनका उद्देश्य त्रुटियों मात्र को दूर करके ऐतिहासिक ज्ञान को सुनिश्चित तथा सुव्यवस्थित अध्ययन द्वारा एक सुदृढ़ आधार प्रदान करना था जो भावी शोधकर्ताओं के लिए सुगम मार्गदर्शन कर सके।"

प्रो. ब्यूरी के बाद जर्मनी में नेबूर तथा रांके, ब्रिटेन में एक्टन, अमेरिका में कार्ल बेकर तथा फ्रांस में टेने जैसे प्रसिद्ध इतिहासकारों ने भी ऐतिहासिक अनुसंधान की आधुनिक विधाओं का समर्थन किया। उन्होंने इतिहास-विज्ञान के तकनीकी ज्ञान की आधारशिला रखी। उन्होंने ऐतिहासिक अनुसंधान की आधुनिक विधाओं का प्रतिपादन किया और आलोचना पद्धति की नवीन विधियों को प्रस्तुत किया जिसे 'ऐतिहासिक अध्ययन की वैज्ञानिक प्रणाली' कह सकते हैं।

उन्नीसवीं सदी के इतिहासकारों ने ऐतिहासिक गवेषणा की विधाओं को परिपक्वता तथा प्रौढ़ता प्रदान की। बर्नहीम, लांग्लाय तथा सेनबास ने इतिहास-अध्ययन में वैज्ञानिक प्रणाली के माध्यम से अतीत का अवलोकन किया तथा अपने समसामयिक समाज के सम्मुख अनेक अन्तर्निहित तथ्यों को प्रस्तुत किया।

परिणामस्वरूप उनके उत्तराधिकारी इतिहासकारों ने न केवल उनकी विधाओं का अनुकरण किया, बल्कि समय-समय पर यथोचित उपादानों द्वारा उन्हें परिष्कृत भी किया। इन विद्वानों के प्रयासों के फलस्वरूप ऐतिहासिक गवेषणा में विज्ञान तथा कला का संगम स्थापित हुआ। उनका एकमात्र लक्ष्य अतीत से समसामयिक समाज के प्रश्नों का उत्तर प्रस्तुत करना था। अठारहवीं तथा उन्नीसवीं शताब्दी के इतिहासकारों की रचनाओं में विज्ञान तथा कला का सुन्दर सामंजस्य मिलता है।

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ऐतिहासिक अनुसंधान की अवधारणा


ऐतिहासिक अनुसंधान का अर्थ

गवेषणा अथवा अनुसंधान को विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया है।

1931 में कार्ल बेकर ने अमेरिकन इतिहास परिषद् के अध्यक्षीय भाषण में कहा था "इतिहासकार ऐतिहासिक अनुसंधान में उन्हीं ऐतिहासिक प्रतिमानों को पा सकता है, जो उसके समाज ने पाने के लिए सिखाया है और वह केवल उन्हीं तथ्यों का चयन करता है, जिन्हें उसका समाज महत्त्वपूर्ण बताता है।"

कार्ल बेकर के उक्त विचार का खण्डन करते हुए बर्नहीम लिखते हैं कि "शोध स्वयमेव इतिहास नहीं, अपितु इतिहासकार द्वारा अपने लक्ष्य तक पहुँचने का एक साधन तथा प्रक्रिया है। अतएव शोध का अभिप्राय केवल अतीत के अन्तर्निहित प्रतिमानों को खोजना ही नहीं है, अपितु इसके अतिरिक्त कुछ और भी है।"

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वेबर ने इतिहासकार और शोधकर्ता में अन्तर बतलाते हुए लिखा है कि "यदि भाग्य अथवा परिस्थितियों के परिणामस्वरूप कोई इतिहासकार ऐतिहासिक स्रोतों को प्राप्त कर उन्हें प्रकाशित करा देता है, तो ऐसे कार्य को शोध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। पोंगियों ने धूल-धूसरित ग्रन्थालयों से अनेक ऐतिहासिक स्रोतों की गवेषणा कर उन्हें प्रकाशित कराया। विद्वानों ने पोंगियों को अपने युग का महान् इतिहासकार कहा, परन्तु उन्हें कुशल अनुसंधानकर्ता की श्रेणी में स्थान नहीं दिया।"

प्रो. शेक अली ने लिखा है कि "शोध (अनुसंधान) एक प्रक्रिया है जिसका अभिप्राय अतीत संबंधी नवीन तथ्यों को प्रकाश में लाना तथा ज्ञान की सीमा को विस्तृत करना है।"

रेनियर का कथन है कि "शोधकर्ता का उद्देश्य नवीन तथ्यों की गवेषणा करना, उपलब्ध तथ्यों का संशोधन करना एवं नवीन साक्ष्यों के आधार पर अतीत की घटना का यथार्थ एवं परिकल्पनात्मक प्रस्तुतीकरण करना है। इस प्रकार नवीन साक्ष्यों के आलोक में घटना के महत्त्व तथा उसके अर्थ को स्पष्ट करना, घटना के संबंध में प्रचलित भ्रान्तियों को दूर करना तथा तत्कालीन सामाजिक मूल्यों के परिवेश में तथ्यों की व्याख्या करना अनुसंधानकर्ता का उद्देश्य होना चाहिए।"

एच. सी. हाकेट ने लिखा है कि "शोध का अभिप्राय अतीतकालिक घटना के संबंध में नवीन सूचना, तथ्य तथा विचार का प्रस्तुतीकरण है।"

इस प्रकार कहा जा सकता है कि ऐतिहासिक अनुसंधान में इतिहासकार अतीत के अन्तर्निहित प्रतिमानों की खोज करता है। इस तरह गवेषणा एक शोध है। शोध स्वयंमेव इतिहास नहीं, अपितु इतिहासकार द्वारा अपने लक्ष्य तक पहुँचने का एक साधन तथा प्रक्रिया है।

अनुसंधान की विधि

अनुसंधान अथवा उसकी कार्य-प्रणाली को निम्नलिखित तीन भागों में विभक्त कर सकते है-

1. नवीन तथ्यों की खोज-

शोधकार्य में पहला कार्य होता है अतीतकालिक घटना के संबंध में नये तथ्य, सूचना तथा विचारों की खोज कर उन्हें प्रस्तुत करना। भारतीय इतिहास में इस प्रकार के प्रमाण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। सर्वप्रथम प्रिंसेप ने ब्राह्मी लिपि को पढ़कर अशोक महान् के सम्बन्ध में अज्ञात तथ्यों को प्रकाशित किया। उनके इस अनुसंधान ने समस्त इतिहासकारों का ध्यान अशोक के विषय में शोधकार्य के लिए आकृष्ट किया। सर जान मार्शल तथा अन्य पाश्चत्य विद्वानों ने भारतीय अतीत के अगाध समुद्र में प्रवेश कर बहूमूल्य मोतियों को सामाजिक सतह पर लाने में सफलता प्राप्त की। ऐसी प्रक्रिया को अनुसंधान की साधारण प्रणाली के अन्तर्गत रखा जा सकता है। इसका एकमात्र उद्देश्य अतीत के उन तथ्यों को प्रकाश में लाना है जिनका ज्ञान समसामयिक समाज को न हो।

2. उपलब्ध तथ्यों की नवीन व्याख्या-

अनुसंधान की यह प्रणाली जटिल है। इसके अन्तर्गत शोधकर्ता ज्ञात तथ्यों का विश्लेषण, व्याख्या, स्पष्टीकरण, मूल्यांकन तथा आलोचनात्मक परीक्षण करता है। इस प्रणाली में शोधकर्ता अपनी मानसिक शक्ति के सहारे अपने पूर्ववर्ती लेखक के विचारों की आलोचनात्मक ढंग से व्याख्या करके उस लेखक के निष्कर्ष को गलत सिद्ध करता है तथा उसके स्थान पर अपने विचारों को प्रस्तुत करता है। भारतीय इतिहासकारों ने डॉ. वी.ए. स्मिथ के 'आक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इण्डिया' तथा 'अकबर दि ग्रेट मुगल' नामक ग्रन्थों में वर्णित विचारों को गलत सिद्ध किया है।

उदाहरणार्थ, डॉ. स्मिथ ने अकबर के दीन-ए-इलाहीके विषय में लिखा है कि "'दीन-ए-इलाही' अकबर की बुद्धिमत्ता का नहीं, अपितु मूर्खता का परिचायक है।" परन्तु भारतीय इतिहासकार प्रो. एस.आर. शर्मा तथा डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने अकबर की धार्मिक नीति की प्रशंसा की और डॉ. स्मिथ को पश्चिमी देशों का पक्षपाती इतिहासकार कहा। प्रो. एस. आर.शर्मा ने अकबर के नवीन धर्म 'दीन-ए-इलाही' की उपादेयता तथा औचित्य को सिद्ध करते हुए लिखा है कि "दीन-ए-इलाही सम्राट् अकबर की राष्ट्रीयता संबंधी उच्च कोटि का सर्वोच्च आदर्श था।" डॉ.ईश्वरी प्रसाद के अनुसार "दीन-ए-इलाही भ्रातृत्ववाद का परिचायक है।"

इस प्रकार स्पष्ट है कि पाश्चात्य इतिहासकारों ने अपनी भाषा में, अपने दृष्टिकोण से तथा अपनी रुचि के अनुसार भारतीय अतीत का इतिहास लिखा है। इन पाश्चात्य इतिहासकारों का एकमात्र उद्देश्य मुस्लिम शासकों की अपेक्षा भारतीयों के लिए ब्रिटिश शासन की उपादेयता को सिद्ध करना था। भारतीय शोधकर्ताओं ने बड़े परिश्रम से अतीत का निरूपण, व्याख्या तथा मूल्यांकन किया। उन लोगों ने पाश्चात्य इतिहासकारों के विचारों को गलत सिद्ध किया।

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इस प्रणाली में अनुसंधानकर्ता ऐतिहासिक अनुसंधान की विधाओं का प्रयोग तथ्यों के संकलन, उनके घनिष्ठ संबंधों को परखने तथा सामान्यीकरण सिद्धान्त के आधार पर उनमें सुधार करने में करता है। उसमें ऐसा कर सकने की क्षमता भी होना आवश्यक है। वेबर ने भी इसे आवश्यक कहा है। शोधकर्ता अपनी कथा की पुनर्रचना बदले हुए दृष्टिकोण के अनुसार समसामयिक सामाजिक आवश्यकता के अनुसार करता है। यदि वह अपने समसामयिक समाज को अतीत का अवबोध कराने में सक्षम नहीं है, तो उसे सफल शोधकर्ता नहीं कहा जा सकता है। अपने निष्कर्ष के प्रस्तुतीकरण में इतिहासकार को यह नहीं सोचना चाहिए कि अन्य इतिहासकारों की तुलना में उसका निष्कर्ष अन्तिम सत्य है। यदि इस तरह के विचार उसके मन-मस्तिष्क में उत्पन्न होते हैं, तो उसे इस विचार का परित्याग करना होगा, तभी उसे एक सफल शोधकर्ता कहा जा सकता है।

3. सिद्धान्तों के परिवेश में तथ्यों का निरूपण-

शोध प्रक्रिया का यह तीसरा स्तर और अधिक जटिल है। इस स्तर पर पहुँचकर अनुसंधानकर्ता दार्शनिक बन जाता है। वह एक सिद्धान्त के माध्यम से अतीत की घटनाओं का निरूपण करता है। वह सामान्य नियम के आधार पर ऐतिहासिक घटनाओं के व्यावहारिक स्वरूप की व्याख्या करता है। हीगेल, कार्ल मार्क्स, कॉम्टे, क्रोचे, स्पेंगलर, टायनबी, विको आदि ने अपने विशेष दृष्टिकोण से अतीत का मूल्यांकन किया तथा अपने दार्शनिक विचार प्रस्तुत किये।

इस प्रकार इन दार्शनिकों ने इतिहास में आदर्शवाद, भौतिकवाद, अध्यात्मवाद, सर्वोत्कृष्टवाद, व्यक्तिवाद, चुनौती तथा प्रत्युत्तर आदि के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। टायनबी ने चुनौती तथा प्रत्युत्तर के सिद्धान्त द्वारा विश्व की इक्कीस संस्कृतियों का विश्लेषण किया है। कार्ल मार्क्स द्वारा प्रस्तुत की गई इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या का प्रभाव सर्वाधिक पड़ा है। इसी प्रकार हीगेल, काम्टे, क्रोचे, स्पेंगलर, विको आदि ने अपने-अपने सिद्धान्तों द्वारा अतीत की घटनाओं की व्याख्या प्रस्तुत की है। इन विद्वानों की मौलिक रचनाएँ शोध का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत करती हैं।

ऐतिहासिक अनुसंधान के स्रोत

अनुसंधान के कार्य में स्रोत एक माध्यम का कार्य करते हैं। हमें जब कोई ठोस और तथ्यपूर्ण प्रामाणिक स्रोत मिलता है तभी हम किसी निश्चित दिशा में अनुसंधान का कार्य प्रस्तुत करते हैं। ये स्रोत संदर्भ अथवा साक्ष्य (प्रमाण) स्वरूप होते हैं। यदि किसी स्रोत से हमें संदर्भ न प्राप्त हों तो हम अनुसंधान का कार्य नहीं कर सकते। अनुसंधान के लिए जिन ऐतिहासिक स्रोतों की अवश्यकता होती है, उनमें संदर्भ ग्रन्थ, पुरातत्त्व पुरालेख एवं मुद्राशास्त्र भी समान रूप से उपयोगी हैं।

अनुसंधान के स्रोतों को दो भागों में बाँटा जाता है— (1) प्रधान स्रोत एवं (2) गौणस्रोत।

1. अनुसंधान के प्रधान स्रोत-

अनुसंधान के प्रधान स्रोतों में प्रत्यक्ष गवाह के साक्ष्य पाण्डुलिपि, हस्तलिखित प्रति, मौलिक एवं प्रकाशित ऐतिहासिक दस्तावेज शामिल किये जा सकते हैं। प्रधान स्रोत क्रमबद्ध किये जा सकते हैं। प्रो. मार्विक को यह संदेह है कि पाण्डुलिपि किसी लेखक की कल्पनाप्रसूत भी हो सकती है, इसलिए प्रधान स्रोतों की श्रेणी में मुद्रित दस्तावेजों को रखना ही उचित होगा। विद्वान् अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार अनुसंधान के प्रधान स्रोत निम्नलिखित हैं-

(1) समकालीन अभिलेख- इसमें अनुदेश, दस्तावेज, नियुक्ति, सूचना, युद्ध- भूमि के आदेश, विदेश मन्त्रालय से किसी राजदूत को भेजे हुए आदेश, आशुलेखन व ध्वनि लेखन, रिकार्ड, व्यापार-विधि-संबद्ध कागजात, हुण्डी, विधेयक, पत्रिकाएँ, आदेश, वसीयतनामा, कर अभिलेख, नोटबुक, स्मारक पत्र आदि सम्मिलित किये जाते हैं। राब्सपियर और जेफरसन के नोटबुक ऐतिहासिक महत्त्व के प्रधान स्रोत हैं। प्रो. गोटचाक ने लिखा है कि "समकालीन अभिलेख एक दस्तावेज है जिसमें संबद्ध व्यक्ति को अपने कार्य-संपादन के लिए अनुदेश दिए जाते हैं।"

(2) गोपनीय प्रतिवेदन- समकालीन दस्तावेजों से कम विश्वसनीय ये स्रोत सार्वजनिक द्रष्टव्य नहीं होते हैं। ये प्रायः घटना के बाद लिखे जाते हैं। सैनिक और राजनय संवाद पत्रिका और दैनन्दिनी (जो नियमित लिखी जाती है अथवा कुछ समय बाद स्मरण शक्ति के अधार पर लिखी जाती है),व्यक्तिगत पत्र आदि इसमें आते हैं। कम विश्वसनीय होने के कारण इनकी जाँच करके सत्यता होने पर ही प्रयोग में लाना चाहिए।

राष्ट्रीय अभिलेखागार में व्यक्तिगत पत्रों तथा समाचार पत्रों का संग्रह रहता है। प्रांतीय तथा क्षेत्रीय अभिलेखागारों में स्थानीय महत्त्व के पत्र रहते हैं। औरंगजेब ने अपने राजकुमारों को अनेक पत्र लिखे थे। उनसे मुगल साम्राज्य की समस्याओं पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।

(3) सार्वजनिक प्रतिवेदन- ये तीन तरह के होते हैं—(1) समाचार पत्र और विज्ञप्ति (2) संस्मरण और आत्मकथाएँ तथा (3) सरकारी या किसी व्यापारी घराने का सरकारी या अधिकृत इतिहास।

(i) समाचार पत्र और विज्ञप्ति ये महत्त्वपूर्ण और विश्वसनीय होते हैं क्योंकि घटना के साथ ही ये प्रकाशित कर दिए जाते हैं। कदाचित कम विश्वसनीय समाचार पत्रों में इसके सत्य समाचार भी प्रकाशित होने पर अपनी विश्वसनीयता घटा लेते हैं। सम्पादक, संवाददाता, पत्रकार आदि भी आजकल कुछ अर्थ में धन के लोभ में अथवा प्रभाव में आने से सत्य से दूर हटकर समाचार प्रकाशित करते हैं। आधुनिक समाचारपत्रों का झुकाव विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रति देखा गया है। कभी-कभी संवाददाता अनुमानित बातों को प्रकाशित कर देते हैं, जो प्रायः विश्वसनीय नहीं होती।

(ii) संस्मरण और आत्मकथाएँ संस्मरण और आत्मकथाएँ भी अधिक विश्वसनीय नहीं होते। इनकी रचना जीवन में अन्तिम समय में होने से बहुत से सत्य स्मरण नहीं रह गये होते हैं। ये जाली लेखकों द्वारा भी लिखे जाने से अविश्वसनीय हो सकते हैं। अपनी प्रतिज्ञा को ध्यान में रखकर लिखे जाने से भी ये कम सत्य एवं अविश्वसनीय हो सकते हैं। बाबर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मेवाड़ के शासक राणा सांगा ने उसे भारत पर आक्रमण करने के लिए आमन्त्रित किया था, परन्तु इस कथन की पुष्टि आज तक अन्य ऐतिहासिक स्रोतों से नहीं की जा सकी है। कुछ जीवन कथाओं का विवरण वस्तुनिष्ठ होकर आत्मप्रशंसा का विषय बन गया है। सेतुब्रियाँ तथा टेलीरेंड की जीवन कथाएँ ऐसी ही त्रुटियों से ओत-प्रोत हैं।

(iii) सरकार या किसी व्यापारी घराने का सरकारी या अधिकृत इतिहास इस श्रेणी का यह ऐसा सार्वजनिक प्रतिवेदन है जिसका अध्ययन बहुत सावधानी से करना चाहिए, क्योंकि देश और समाज के लिए अहितकर चीजें ये भी नहीं लिखते तथा उन्हें छिपाने का प्रयास करते हैं।

(4) प्रश्नावली- किसी प्रश्न पर लोगों के विचार संग्रह करके बनाई गई प्रश्नावली एक नूतन प्रणाली के रूप में अनुसंधान का प्रधान स्रोत है। इसे सावधानी से तैयार करना चाहिए और उत्तरदाता को विश्वास में लेकर सही उत्तर प्राप्त करना चाहिए।

(5) सरकारी दस्तावेज- वित्तीय आँकड़े, जनगणना प्रतिवेदन, राष्ट्रीय या प्रादेशिक वार्षिकी आदि इसमें आते हैं। इसे कुछ लोग अथवा कई लोग अपने-अपने ढंग से तैयार करते हैं, इसलिए इसमें भूल की संभावना भी होती है और लोग इसे प्रधान स्रोत मानने से इंकार करते हैं। आजकल तो प्रायः फर्जी आँकड़े सरकार दिया करती है जिसकी खिल्ली राजनीतिक दलों तथा आम जनता द्वारा उड़ायी जाती है।

(6) जनमत- सम्पादक के नाम पत्र, पुस्तिकाओं, सम्पादकीय संभाषणों, जनमत संग्रह आदि में इस स्रोत की झाँकी देखने को मिलती है। ये सदैव विश्वसनीय न होने से जाँच कर ही उपयोग में लाने योग्य होते हैं।

(7) साहित्य- साहित्य समाज का दर्पण होता है । अतएव यह भी एक महत्त्वपूर्ण स्रोत हो सकता है। परन्तु इसके साथ सरकारी कागजातों से भी सहायता लेनी चाहिए। पूरी तरह से इसी पर आधारित नहीं रहना चाहिए। मार्विक ने कहा है कि "इतिहासकार किसी युग विशेष के काल्पनिक साहित्य की अपेक्षा भी नहीं कर सकता और न उस पर अनन्य रूप से विश्वास ही कर सकता है।"

(8) लोकगीत एवं लोकोक्तियाँ- लोक गीतों के उपाख्यान तथा लोकोक्तियों के रीति-रिवाज, अन्धविश्वास, आशाएँ व आकांक्षाएँ भी एक उत्तम स्रोत बन सकती हैं, यदि उनमें उस युग के विषय में पूरी जानकारी हो तथा आख्यान और इतिहास में जो अन्तर होता है, उसे ध्यान से समझा जा सके।

2. गौण स्रोत-

प्रो. गोटचाक के अनुसार गौण स्रोत चार प्रकार से उपयोगी होते हैं-

(1) गौण वृत्तान्त को सुधारना,

(2) अन्य ग्रन्थ संदर्भो का संकेत करना,

(3) उद्धरणों को ग्रहण करना एवं

(4) व्याख्या करना।

ये गौण होने से महत्त्वहीन होते हैं, ऐसी बात नहीं है। सच तो यह है कि गौण स्रोतों की पूरी तरह से जानकारी के बाद ही एक अनुसंधानकर्ता प्रधान स्रोतों का उचित उपयोग कर सकता है, सामयिक दस्तावेजों को उचित स्थानों पर रख सकता है और गौण विवरणों में सुधार ला सकता है।

अनुसंधान के प्रधान स्रोतों एवं गौण स्रोतों में अन्तर-

प्रधान स्रोतों में प्रत्यक्ष साक्षी के साक्ष्य तथा मौलिक दस्तावेजों का नाम लिया जाता है। अनुसंधानकर्ता बिखरे हुए प्रधान स्रोतों को एकत्रित कर उन्हें गौण स्रोत बना देता है। गौण स्रोतों में उस व्यक्ति की गवाही अथवा साक्ष्य लेते हैं जो कि घटना के समय विद्यमान नहीं था। गौण स्रोत प्रधानस्रोत पर निर्भर हैं।

प्रो. मार्विक के अनुसार, “प्रधान स्रोत अप्रकाशित स्रोत हैं जबकि गौण स्रोत प्रकाशित पुस्तकें, निबन्धादि हैं।" प्रधान स्रोतों में गौण आँकड़े इतिहास हो सकते हैं, जैसे समाचारपत्र प्रधान स्रोत हैं तो उनमें प्रकाशित समाचार गौण स्रोत होंगे क्योंकि वे समाचार कुछ तो संवाददाताओं द्वारा प्रेषित होते हैं, जबकि कुछ सरकारी एजेन्सियों द्वारा भेजे जाते हैं। ये प्रकाशित समाचार प्रधान स्रोतों (समाचार पत्रों) पर आधारित नहीं होते।

कभी-कभी एक ही स्रोत प्रधान और गौण, दोनों ही श्रेणी में रखे जा सकते हैं, जैसे आत्मकथा। प्रायः आत्मकथा को लोग प्रधान स्रोत मानते हैं, परन्तु कभी इसे गौण सोत भी मानते हैं, क्योंकि इसकी रचना घटनाओं के घटित होने के बाद भी की जा सकती है और इन घटनाओं के उल्लेख में गौण स्रोतों की सहायता ली जा सकती है।

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