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यूरोप में धर्म सुधार आन्दोलन

धर्म सुधार आन्दोलन का अर्थ

पोप की धार्मिक प्रभुता, चर्च की बुराइयों तथा धर्माधिकारियों के पाखण्ड़ों और आडम्बरों को समाप्त करने के लिए जो आन्दोलन चलाया गया, वही यूरोप के इतिहास में धर्म सुधार आन्दोलन के नाम से पुकारा जाता है। 16 वीं शताब्दी में पोप के धार्मिक प्रभुत्व को नष्ट करने, चर्च की बुराइयों का अन्त करने एवं धार्मिक पाखण्डों को नष्ट करने के लिए जो आन्दोलन शुरू किया गया उसे धर्म सुधार आन्दोलन की संज्ञा दी गई।

वार्नर तथा मार्टिन लूथर का कथन है कि, "धर्म सुधार आन्दोलन पोप की सांसारिकता तथा भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक नैतिक विद्रोह था।'

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यूरोप में धर्म सुधार आन्दोलन


इतिहासकार हेज लिखते हैं कि, "वस्तुतः, सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में धार्मिक व विवेक की जागृति के कारण बहुसंख्यक ईसाई कैथोलिक चर्च के कटु आलोचक थे तथा वे धर्म की संस्था को एक सिरे से दूसरे सिरे तक सुधारना चाहते थे। इस सुधार प्रयास के परिणामस्वरूप जो धार्मिक आन्दोलन हुआ व उससे उत्पन्न ईसाई धर्म के अन्तर्गत जो नये-नये सम्प्रदाय बने, उसे समष्टि रूप से धर्म सुधार आन्दोलन कहा जाता है।

धर्म सुधार आन्दोलन के उद्देश्य

1.  पोप तथा प्रमुख धर्माधिकारियों के जीवन में नैतिक सुधार करना।

2.  चर्च की बुराइयों एवं भ्रष्टाचार को दूर करना।

3.  धर्माधिकारियों को भौतिकवाद से विमुख कर आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख करना।

4. कैथोलिक धर्म में आए हुए आडम्बरों को समाप्त करना तथा जनता के सामने धर्म का सच्चा स्वरूप प्रस्तुत करना।

धर्म सुधार आन्दोलन के कारण

धर्म सुधार आन्दोलन पुनर्जागरण की भाँति एक आकस्मिक घटना नहीं कही जा सकती। इसके अलावा इस आन्दोलन का क्षेत्र भी व्यापक था अतः इसके कारण भी केवल धार्मिक क्षेत्र तक ही सीमित न रहे। इस आन्दोलन को प्रेरणा मिली-बौद्धिक जागृति से, नवीन देशों की खोज से व विज्ञान के प्रसार से। अत: इसके कारण का क्षेत्र भी व्यापक बन गया। इसके महत्त्वपूर्ण कारण अग्रांकित हैं-

1. पुनर्जागरण का प्रभाव-

पुनर्जागरण के कारण यूरोपवासियों में तर्क एवं चिन्तन शक्ति का विकास हुआ। अब लोग ईसाई धर्म में प्रचलित विश्वासों तथा मान्यताओं को तर्क की कसौटी पर परखने लगे। इस बौद्धिक जागरण से मध्यकालीन धार्मिक अन्धविश्वासों तथा प्राचीन मान्यताओं पर से यूरोपवासियों का विश्वास उठ गया। मानववादियों ने चर्च में व्याप्त बुराइयों की कटु आलोचना की। देशी भाषाओं में बाइबिल के अनुवादित होने के कारण साधारण लोग भी बाइबिल का अध्ययन करने लगे और धर्म के सच्चे स्वरूप को समझने में समर्थ हुए। उनके अन्धविश्वास दूर होने लगे जिससे धर्म-सुधार आन्दोलन का मार्ग प्रशस्त हो गया।

2. धार्मिक कारण-

(1) पोप का स्वरूप विकृत होना- पोप कैथोलिक चर्च का सर्वोच्च एवं सर्वसत्ता सम्पन्न अधिकारी होता था। यह ईश्वर का प्रतिनिधि समझा जाता था परन्तु उत्तर मध्यकाल में पोप धर्म के क्षेत्र में रुचि न लेकर राजनीति में अधिक रुचि लेने लगा। पोप भव्य प्रासादों में निवास करता था व सांसारिक सुखों का आनन्द लेता था। परिणामस्वरूप जनसाधारण को धर्म से आस्था उठने लगी और उसमें सुधार चाहने लगे।

(2) धर्माधिकारियों द्वारा अपने कर्तव्यों की उपेक्षा- धर्माधिकारियों की नियुक्ति गिरिजाघरों में जनसाधारण को धर्म की शिक्षा देने के लिए की जाती थी। परन्तु उत्तर मध्यकाल में धर्माधिकारी जनसाधारण को न तो बाइबिल की सही व्याख्या कराते थे और न उनको धार्मिक शिक्षा देते थे। जनसाधारण धर्माधिकारियों की धार्मिक कार्य न कराने पर आलोचना करने लगे और गिरिजाघरों में सुधार करने की आवाज उठाने लगे।

(3) धर्माधिकरियों का विलाली जीवन- पोप के अधीनस्थ धर्माधिकारी भी पोप की भाँति सांसारिक सुखों का आनन्द लेने लगे। पैसे की उनके पास कोई कमी नहीं थी। अत: उनका कहना था कि भगवान ने उनको नाना प्रकार के सुख प्रदान किये हैं-हम उनका उपभोग क्यों न करें? अत: विलासिता उनकी संगिनी बनने लगी। नैतिकता क्या है-इसका उनके जीवन में कोई प्रश्न ही नहीं उठता था।

(4) धर्माधिकारियों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर न होना- धर्माधिकारियों की नियुक्ति के समय उनकी कुछ योग्यताओं पर अवश्य विचार होना चाहिए था पर उनके पद तो अब व्यावसायिक होते जा रहे थे। धनी पुरुष अपने पैसे के सहारे धर्माधिकारियों के पद प्राप्त कर रहे थे और जनता का शोषण कर रहे थे। क्योंकि धर्माधिकारियों को पैसे के अलावा भी कई अन्य विशेषाधिकार प्राप्त होते थे।

(5) छोटे पादरियों में असन्तोष व्याप्त होना- धर्माधिकारियों की भी कई श्रेणियाँ थीं। छोटे धर्माधिकारियों को धन-प्राप्ति के साधन कम प्राप्त होते थे। इस कारण वे बड़े पादरियों से उनके वैभव, धन व प्रतिष्ठा के कारण द्वेष रखते थे। इस कारण छोटे पादरी बड़े पादरियों की स्वयं आलोचना करते थे तथा उन्हें हटाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते थे।

(6) धर्म में मिथ्याडम्बरों का समावेश- कैथोलिक धर्म अब अन्धविश्वासों व मिथ्याडम्बरों का धर्म होता जा रहा था। धर्माधिकारी जनसाधार को धर्म का सही अर्थ न बताकर उनमें प्राचीन रूढ़ियों व परिपाटियों के सहारे ही धार्मिक आस्था बनाये रखने का प्रयास करते थे। पोप ने यह कहना आरम्भ कर दिया था कि वह किसी भी पापी को मुक्ति दिलाने में सक्षम है।

(7) विभिन्न धर्मसुधारकों का आविर्भाव- उस समय कोई भी व्यक्ति पोप तथा कैथोलिक धर्म की बुराइयों की आलोचना करने का साहस नहीं कर सकता था। विरोध करने वाले को पोप जाति च्युत व जीवित अग्नि देवता की भेंट चढ़ा देता था परन्तु इन अत्याचारों के बावजूद भी इस डैन्सैस, वाइक्लिक, जान हस, सैवीनारोला, इरास्मस आदि धर्म सुधारक हुए जिन्होंने धार्मिक आध्यात्मिक बनाये रखने के लिए धर्म तथा धर्माधिकारियों के जीवन में सुधार की माँग की। यद्यपि इस कार्य में उन्हें अपने प्राणों से हाथ धोने पड़े पर उन्होंने जनसाधारण में धर्मसुधार की माँग को प्रबल बना दिया।

3. राजनीतिक कारण-

(1) कैथोलिक चर्च का एक राजनीतिक संस्था होना- चर्च को सच्चे अर्थों में तो एक धार्मिक संस्था होनी चाहिए। पर मध्यकाल में धर्माधिकारियों ने धार्मिक क्रिया-कलापों से मन को हटाकर राजनीतिक कार्यों में प्रदर्शित करना आरम्भ कर दिया। धर्माधिकारी स्वयं की अदालतें लगाते थे। किसानों व सामान्य लोगों पर कई प्रकार के कर लगाते थे। धर्माधिकारियों का इस प्रकार विशेषाधिकार से सुसज्जित रहना राजा व जनता दोनों की ही निगाह में खटकने लगा था।

(2) राष्ट्रीय राज्यों का उदय- पन्द्रहवीं शताब्दी से यूरोप में अब शक्तिशाली राज्यों का उदय होने लग गया था। शासक राजनीतिक कार्यों में पोप व उसके अधीनस्थ धर्माधिकारियों का हस्तक्षेप सहन करने को उद्यत नहीं थे। जनता में व्यापारी वर्ग राष्ट्रीय राज्यों का पक्षपाती होता जा रहा था क्योंकि वह जानता था कि उसका व्यापार शक्तिशाली राज्यों के आश्रय में ही फलीभूत हो सकता है।

(3) शासकों में निरंकुशता की भावना- शासक वर्ग नहीं चाहता था कि धर्माधिकारी अपने यहाँ न्यायालयों की स्थापना कर न्याय प्रदान करने का अधिकार रखें। वे यह नहीं चाहते थे कि धर्माधिकारी किसानों से कर वसूल करें वे यह भी नहीं चाहते थे कि पादरी लोग विशाल भू-भाग के स्वामी बने रहें परन्तु शासक इन उद्देश्यों की प्राप्ति तभी कर सकते थे जबकि पोप से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर उसकी प्रभुता को नकार दें। पोप की प्रभुता से मुक्त होने का उस समय एक ही साधन था कि वे धर्मसुधार आन्दोलन में सम्मिलित हो जावें और पोप की प्रभुता का विरोध करें।

(4) राजनीति में पोप का घटता प्रभाव- सन् 1405 ई. में पीसा के सम्मेलन में पोप के तीन पद क्रमशः रोम अविगमन, पीसा में स्थापित हो गये थे। इससे स्पष्ट है कि पोप की सत्ता का दिनोंदिन ह्रास होता जा रहा था और उनके अधिकारों में कमी होती जा रही थी। इसके विपरीत शासक वर्ग में स्वतन्त्रता की भावना घर करने लगी थी। इस कारण भी धर्मसुधार आन्दोलन शीघ्रता से सफलता की ओर अग्रसर हुआ।

4. आर्थिक कारण-

(1) व्यापारिक क्रान्ति का आरम्भ- पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त तक यूरोप के देशों ने विश्व के कई देशों की खोज कर ली थी। यूरोप के देशों का अपना व्यापार इतनी तीव्र गति से बढ़ने लगा कि वहाँ व्यापारिक क्रान्ति का सूत्रपात हो गया। व्यापारी लोग स्वतन्त्र तथा व्यक्तिवादी भावना के होते थे। धन अर्जित हो जाने के कारण उनकी धर्म व भगवान में आस्था कम हो गई। इस कारण ये अब पादरी लोगों के जीवन व उनके वैभव की स्पष्ट रूप से आलोचना करने लगे।

(2) रोम का वैभव- मध्यकाल में रोम ईसाई धर्म का प्रस्दिध केन्द्र था और पोप भी रोम में ही निवास करता था। पोप ने जनता के धन से रोम में भव्य गिरिजाघरों का निर्माण करवाया। उसने रोम को वैभवशाली नगर बनाने के लिए धन को पानी की तरह बहाया। इससे यूरोपवासियों में असन्तोष उत्पन्न हुआ। वे नहीं चाहते थे कि उनका धन किसी भी रूप में रोम जाये और उनके धन से रोम में वैभव में वृद्धि होती रहे। मार्टिन लूथर ने कहा था कि रोम का पोप ऐसा चोर व डाकू है जैसा आज तक पृथ्वी पर पैदा नहीं हुआ और न होगा। हम दीन जर्मनी को धोखा दिया गया है।

(3) धर्माधिकारियों का खर्चीला जीवन- जब धर्माधिकारी दिन पर दिन पूँजीपति बनने लगे तो जनसाधारण उन्हें धर्माधिकारी न समझ धन एकत्रित करने वाला बनिया समझने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि एक तरफ तो पादरियों की प्रतिष्ठा जनसामान्य में गिरने लगी। दूसरी तरफ जनसाधारण उनका विरोध करने हेतु धर्मसुधार आन्दोलन में सम्मिलित होने लगा।

5. अन्य कारण-

(1) वैज्ञानिक प्रगति- पुनर्जागरण से चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी में जगत और ईश्वर सम्बन्धी वैज्ञानिक यूनानी विचारों का प्रादुर्भाव हुआ, जिसने चर्च की मान्यताओं को धूमिल किया। उदाहरणार्थ पूर्व काल में टालमी का यह विचार मान्य था कि पृथ्वी सौरमण्डल का केन्द्र है। यह विश्वास इतना गहरा था कि जब ब्रूनो ने इसका विरोध किया तब उसे जिन्दा जला दिया गया। जब कापर्निकस ने यह सिद्ध कर दिया कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है तो धर्माचार्यों ने उसे अपने निष्कर्ष वापस लेने को कहा। ऐसे ही समय विचारकों ने धार्मिक विश्वास के विपरीत यह प्रतिपादित किया कि मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता हो सकता है। मैरिनर्स कम्पास की खोज से यूरोप के लोगों के विभिन्न गैर-ईसाई संस्कृतियों से सम्बन्ध स्थापित हुए। परिणामस्वरूप ईसाई धर्माडम्बरों का पर्दाफाश हुआ।

(2) शिक्षा का प्रसार- पन्द्रहवीं शताब्दी के पूर्व तक यूरोपीय शिक्षा केन्द्रों में केवल धार्मिक शिक्षा दी जाती थी किन्तु पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप इटली और यूरोप के शेष भागों में धर्मनिरपेक्ष विषयों का अध्ययन किया जाने लगा। धर्मनिरपेक्ष शिक्षा के प्रसार से व्यक्ति ईसाई धर्म की कुरीतियों को समझने लगा। यूरोप में शिक्षा के इस प्रसार में छापेखाने के प्रवेश ने बहुत योगदान दिया। 50 वर्षों के थोड़े समय में ही यूरोप में लगभग दस लाख पुस्तकें तैयार हो चुकी थीं।

पुस्तकों के प्रसार से ज्ञान और नवीन विचारों का प्रसार सम्भव हुआ। बाइबिल का अनेक देशों की भाषाओं में अनुवाद होने से सामान्यजन भी ईसाई धर्म के मूल को समझने लगे। कई यूरोपीय राज्यों जर्मनी, फ्रांस और इंग्लैण्ड में नये विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई जो कालान्तर में धर्मसुधार आन्दोलन के अधिकांश नेताओं की गतिविधियों के केन्द्र बने।

(3) राजनीतिक कारण- पोप का राजनीतिक प्रभाव एवं राजाओं द्वारा पोप के प्रभाव से स्वतन्त्र होने की आकांक्षा भी धर्मसुधार आन्दोलन का कारण बनी। इस आन्दोलन के राजनीतिक उद्देश्यों की महत्ता के सम्बन्ध में डी.जे. हिल ने लिखा है "यदि प्रोटेस्टेन्ट आन्दोलन केवल धार्मिक आन्दोलन ही होता तो यह अपने सृजनकर्ताओं के जीवनकाल तक भी न पनप पाता। जिस बात ने इसे सफल बनाया वह था इसका राजनीतिक उद्देश्य।" मध्ययुग में पोप को व्यापक राजनीतिक अधिकार प्राप्त थे जैसे-रोमन कैथोलिक चर्च को मानने वाले राज्यों में आंतरिक एवं बाह्य हस्तक्षेप, राजा को धर्म से बहिष्कृत करने का अधिकार, राज्यों में चर्च के अधिकारियों की नियुक्ति, किसी राज्य की जनता को राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने का आदेश देना आदि किन्तु सोलहवीं शताब्दी के आरम्भ में स्थित बदल चुकी थी। राजाओं ने सामन्तों का दमन कर निरंकुश राजसत्ता की स्थापना कर ली थी। यूरोप के कुछ भागों में राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना हो चुकी थी। इन सबसे राजाओं की स्थिति मजबूत हो चुकी थी। ऐसी स्थिति में पोप का हस्तक्षेप शासक कैसे स्वीकार करते? प्रत्येक शासक विधानों, न्यायालयों और करारोपण को राष्ट्रीय आधार पर स्थापित कर रहा था किन्तु पोप चर्च के विधानों, अदालतों का प्रशासन और चर्च के करों का संग्रह अन्तर्राष्ट्रीय आधार पर करता था, जिसे शासक अपने अधिकारों के विरुद्ध समझते थे। वे चाहते थे कि चर्च के अधिकारों समेत सभी अभियुक्तों पर राष्ट्रीय न्यायालयों में मुकदमे चलाये जायें। शासक अपनी पूर्ण सत्ता चाहते थे, इसलिए पोप के प्रति उनके मन में कटुता थी।

(4) तात्कालिक कारण- चर्च के व्यय अत्यधिक होने के कारण चर्च ने वैधव अवैध, उचित तथा अनुचित उपायों एवं साधनों द्वारा धन वसूल करना आरम्भ कर दिया। धर्मसुधार आन्दोलन का तात्कालिक कारण था-पोप के अधिकृत पदाधिकारी, टेटजेल द्वारा जर्मनी में 'पाप-मोचन पत्रों' अथवा 'अनुग्रह-पत्रों', (इन्डल्जेन्सेज) का विक्रय। जब सन् 1517 ई. में टेटजेल नामक पोप का एजेन्ट जर्मनी के विटनबर्ग में पापमोचन-पत्रों' को खुलेआम बेचने लगा तो मार्टिन लूथर ने प्रसिद्ध '95 प्रसंगों' द्वारा इसका डटकर विरोध किया और पोप के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा खड़ा किया। लूथर ने इस तथ्य पर जोर दिया कि धन लेकर मोक्ष प्राप्त नहीं किया जा सकता है अपितु पापों से मुक्ति के लिए ईश्वर की असीम दया की आवश्यकता है। उसने 'श्रद्धा द्वारा दोष मुक्ति' का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। उसका विश्वास था कि यदि मनुष्य अपने पापों के लिए खेद प्रकट करता है और ईश्वर में विश्वास रखता है तो वह पापमोचन पत्रों के बिना भी क्षमा कर देगा। इस प्रकार पापमोचन पत्रों की बिक्री धर्मसुधार आन्दोलन का तात्कालिक कारण बनी। एच.जी. वेल्स ने लिखा है कि 'पोप के राज्य के विरुद्ध जॉन वाइक्लिफ और जॉन हस के समय से चली आ रही क्रान्ति को असाधारण और कौतूहलपूर्ण क्षमापत्रों की बिक्री ने और भड़का दिया।'

धर्म सुधार आन्दोलन के परिणाम

1. प्रतिवादी धर्मसुधार आन्दोलन-

सोलहवीं शताब्दी के धर्मसुधार आन्दोलन तथा प्रोटेस्टेन्टों की सफलता ने यह स्पष्ट कर दिया कि अपने स्थायित्व के लिए रोमन कैथोलिक चर्च में भी सुधार आवश्यक है। अत: अपनी सुरक्षा की दृष्टि से कैथोलिक मतावलम्बियों ने भी सुधार आन्दोलन का सूत्रपात किया जिसे प्रतिवादी या प्रतिवादात्मक धर्मसुधार आन्दोलन कहा गया है। विद्वान लेखक शैविल ने लिखा है "प्रतिवादी धर्मसुधार आन्दोलन वास्तव में कैथोलिक धर्म में सुधार के लिए किए गए प्रयत्नों का नाम है।" इस आन्दोलन का प्रमुख उद्देश्य चर्च के संगठन एवं कार्यविधि सम्बद्ध सिद्धान्तों में परिवर्तन लाना, धर्मसिद्धान्तों की व्याख्या और धर्मप्रचार का कार्य करना था। इसके लिए विविध उपाय काम में लाये गए।

2. ईसाई एकता का अन्त-

धर्मसुधार आन्दोलन के फलस्वरूप कैथोलिक ईसाई जगत में दरार पड़ गयी। सुधारवादियों ने कैथोलिक चर्च से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। सोलहवीं शताब्दी के अन्त तक प्रोटेस्टेन्टवाद उत्तरी जर्मनी, स्केंडेनेविया, बाल्टिक प्रान्तों, अधिकांश स्विट्जरलैण्ड, डच नीदरलैण्ड्स, स्कॉटलैण्ड और इंग्लैण्ड में विजयी हो चुका था। इसके अतिरिक्त फ्रांस, बोहेमिया, पोलैण्ड और हंगरी में भी इसके काफी अनुयायी हो गये थे किन्तु सुधारवादी भी लूथरवाद, काल्विनवाद, ऍग्लिकनवाद आदि शाखाओं में बँटे हुए थे।

3. असहिष्णुता का विकास-

प्रोटेस्टेन्टवाद के उदय के साथ ही कैथोलिकों और प्रोटेस्टेन्टों के बीच पारस्परिक वैमनस्य उत्पन्न हो गया। ये परस्पर एक दूसरे का मूलोच्छेदन करना चाहते थे परिणामस्वरूप घृणा एवं शत्रुता की भावना बढ़ती गई। धर्मसुधार आन्दोलन के विरुद्ध अपने संघर्ष में कैथोलिक चर्च ने अपने विरोधियों के सामूहिक निर्मूलन सहित सभी साधनों का उपयोग किया। धर्म को लेकर पहला युद्ध हॉलैण्ड में हुआ। 1560 ई.से लेकर 1585 ई. की अवधि में आठ धार्मिक युद्धों ने फ्रांस को तहस-नहस कर डाला। फ्रांस में कैथोलिकों ने प्रोटेस्टेंटों का कत्लेआम करवाया।

4. व्यक्ति की महत्ता का विकास-

धर्मसुधार आन्दोलन ने ईश्वर के साथ प्रत्येक व्यक्ति के सीधे सम्बन्ध को स्थापित कर व्यक्ति की स्वतंत्र अस्मिता के विकास में योगदान दिया। प्रत्येक व्यक्ति को बाइबिल पढ़कर स्वयं उसकी व्याख्या करने पर बल दिया। व्यक्ति पर धर्म का प्रभाव कम होने से व्यक्ति को महत्त्व प्राप्त हुआ। अब उसके चिन्तन के आयाम चारों दिशाओं में अपने पैर पसार सकते थे। धर्म का बंधन ढीला पड़ने से मानव का व्यक्तित्व निखरने लगा।

5. शासकों की शक्ति का विकास-

धर्मसुधार आन्दोलन के परिणामस्वरूप शासकों की शक्ति बढ़ी। स्केन्डेनेविया, जर्मनी, इंग्लैण्ड, स्विट्जरलैण्ड, हॉलैण्ड आदि राज्यों में शासकों ने धार्मिक मामलों में नियंत्रण का अधिकार प्राप्त करके और उसी के साथ चर्च की जमीनों को अधिकृत करके अपनी शक्ति एवं सम्पत्ति दोनों में वृद्धि की। कैथोलिक देशों में भी राजाओं ने पोप की कठिनाइयों का लाभ उठाते हुए बहुत सी सुविधाएँ प्राप्त कर ली, जिसके फलस्वरूप चर्च के मामले में उन्हें पहले से अधिक शक्ति प्राप्त हो गयी।

6. वाणिज्य-व्यापार को प्रोत्साहन-

पुनर्जागरण युग से सामन्तवादी व्यवस्था को समाप्ति और व्यापार की प्रगति से एक समृद्ध मध्यम वर्ग का उदय हुआ जिसकी रुचि भौतिक रूप से ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने में थी लेकिन परम्परागत ईसाई धर्म में धन संचय को हेय दृष्टि से देखा जाता था तथा चर्च सूद और अनुचित मुनाफे का विरोधी था इसलिए धर्मसुधार आन्दोलन की प्रवृत्ति इस वर्ग के लिए रुचिकर थी। धर्मसुधारकों द्वारा सूद एवं मुनाफे को उचित बताने से इस वर्ग को प्रोत्साहन मिला।

कुछ विद्वान यह स्वीकार करते हैं कि प्रोटेस्टेन्टों ने और विशेष रूप से काल्विनवादियों ने ब्याज लेने की तरफ उदार दृष्टिकोण अपनाया और मितव्ययता, कठोर श्रम आदि पर जोर दिया जो कि व्यवसाय में वृद्धि एवं पूँजीवाद के विकास के लिए आवश्यक गुण थे। फिर भी पूँजीवाद के विकास में सुधारवादी आन्दोलन की भूमिका का सही मूल्यांकन करना कठिन है क्योंकि इसका उदय तो सुधारवादी आन्दोलन के पूर्व ही कैथोलिक इटली में हो चुका था। प्रोटेस्टेन्ट देशों में पूँजीवाद का उदय अवश्य ही बाद में हुआ था। इसके अतिरिक्त कैथोलिक चर्च के कमजोर हो जाने से चर्च और मठों की भूमि एवं सम्पत्ति में मध्यम वर्ग को सबसे ज्यादा लाभ मिला। इस मध्यम वर्ग ने व्यापार एवं वाणिज्य को बढ़ावा दिया।

7. राष्ट्रीय भाषा और साहित्य का प्रचार-प्रसार-

धर्मसुधार आन्दोलन का एक परिणाम यह भी हुआ कि लोकभाषाओं एवं साहित्य का विकास हुआ। लूथर ने स्वयं ही बाइबिल का जर्मन में अनुवाद किया। धर्म-सम्बन्धी अनेक पर्चे तथा लेख, उसने अपनी मातृभाषा में लिखे एवं प्रकाशित कराये। अन्य देशों में भी जहाँ नये मत को प्रधानता मिली वहाँ की लोकभाषा में धर्म सम्बन्धी साहित्य अनूदित एवं प्रसारित हुआ। अब तक लैटिन को जो प्रतिष्ठा प्राप्त थी वह अब लोकसभाओं को भी मिलने लगी। नवीन धर्मप्रचारकों ने भी अपने-अपने क्षेत्रों में क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षा का प्रसार कार्य किया जिसके परिणामस्वरूप लोगों में अपनी मातृभाषा के प्रति श्रद्धा की भावना का विकास हुआ।

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2 Comments

  1. Sir, Very very important line in this page.

    Thank you so much 🙏

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  2. धन्यवाद... यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।

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