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इतिहास की विषय-वस्तु

इतिहास की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में इतिहासकारों में मतभेद है। प्रारम्भिक इतिहासकारों ने घटना मात्र को ही इतिहास की विषय-वस्तु माना है। यूनानी इतिहासकार हेरोडोट्स तथा थ्यूसिडाइडीज ने अपने पूर्वजों से सम्बन्धित घटनाओं का उल्लेख इतिहास में किया है। उनका इतिहास जनश्रुतियों पर आधारित है।

पन्द्रहवीं शताब्दी में इटली में पुनर्जागरणकालीन विद्वानों ने इतिहास की विषय-वस्तु के अन्तर्गत सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रकरणों को लेकर उसका क्षेत्र विस्तृत किया। उन्होंने प्राचीन यूनानी इतिहास के अध्ययन पर बल दिया। इस प्रकार पुनर्जागरण काल में इतिहास के सामाजिक तथा सांस्कृतिक पक्षों के अध्ययन पर जोर दिया गया। निरन्तर परिवर्तित स्वरूप का एकमात्र कारण सामाजिक मान्यताओं तथा मूल्यों में परिवर्तन रहा है। इतिहासकारों ने अपने युग की मान्यताओं तथा सामाजिक रुचि के अनुसार अतीत का प्रस्तुतीकरण किया है। अतः इतिहास की विषय-वस्तु सामाजिक आवश्यकता के अनुरूप हुई।

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इतिहास की विषय-वस्तु


जब इतिहासकारों ने घटना का सम्बन्ध मानवीय मस्तिष्क के साथ श्रृंखलाबद्ध किया, तो इतिहास-दर्शन गूढ़ विषय बन गया। दार्शनिकों ने अतीत के अध्ययन में रुचि दिखाई तथा इतिहास का दार्शनिक स्वरूप प्रस्तुत किया। इस प्रकार इतिहास सामाजिक विज्ञान का ही नहीं, अपितु दर्शन का भी विषय बन गया। रांके तथा सीले ने इतिहास की विषय-वस्तु को राजनीतिशास्त्र से सम्बद्ध किया है। परन्तु इतिहास के अध्ययन में व्यक्ति और समाज की बौद्धिक, भौतिक और भावनात्मक क्रियाओं का अध्ययन भी सम्मिलित किया जाता है। इतिहास साहित्य की एक शाखा नहीं है, न ही गणित जैसा विज्ञान, अपितु इतिहास मनुष्य के सामाजिक जीवन का, उसके भौतिक और सांस्कृतिक दोनों ही क्षेत्रों का अध्ययन करता है। आधुनिक समय में इतिहास का अध्ययन केवल राजनीतिक अध्ययन तक ही सीमित नहीं है, अब वह मनुष्य जीवन के सभी क्षेत्रों से भी सम्बद्ध हो गया है।

विषय-वस्तु के सम्बन्ध में दार्शनिकों तथा इतिहासकारों में मतभेद हैं। दोनों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से अतीत का निरूपण किया तथा समसामयिक रुचि के अनुसार उसका प्रस्तुतीकरण किया है।

इतिहास की विषय-वस्तु को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- (1) दार्शनिक वर्ग, (2) व्यावसायिक वर्ग।

दार्शनिक वर्ग की अवधारणा

1. इतिहास की विषय-वस्तु प्राकृतिक विज्ञान की विषय-वस्तु से भिन्न है-

इतिहास एक प्रकार का अनुभव है, अत: इतिहासकार को प्राकृतिक, वैज्ञानिक विधाओं से भिन्न विधाओं द्वारा इतिहास की विषय-वस्तु की गवेषणा करनी चाहिए। इतिहास में प्रायोगिक तथा वर्गीकरण की विधाओं की आवश्यकता नहीं है। कालिंगवुड के अनुसार ऐतिहासिक ज्ञान अतीत में मनुष्य के मस्तिष्क का ज्ञान है। इतिहासकार अतीत के कार्यों को वर्तमान में निरन्तरता प्रदान करता है। इसकी विषय-वस्तु विचार-प्रक्रिया है। इतिहासकार जिन प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है, उन्हें वह मात्र देखता ही नहीं, बल्कि अपने मस्तिष्क में अनुभव द्वारा सजीव करता है। अतः इतिहास की विषय-वस्तु वह है जिसकी पुनरानुभूति इतिहासकार के मस्तिष्क में हो सके।

इस प्रकार यह एक प्रकार का अनुभव है। वह अनुभव, जिसकी पुनरानुभूति इतिहासकार के मस्तिष्क में न हो सके, इतिहास की विषय-वस्तु नहीं हो सकती। इतिहासकार विचार-प्रक्रिया का अनुभव पूर्ण रूप से नहीं कर पाता। वह उसका अनुभागी होता है। वैज्ञानिक अपनी आँखों से अपनी विषय-वस्तु को देखता है। इतिहासकार अपनी विषय-वस्तु को देख नहीं सकता। वैज्ञानिक जिसे देखता है, उसका इतिहास नहीं होता है। प्राकृतिक वैज्ञानिक विधि ऐतिहासिक विधि से भिन्न है। अतः प्रकृति का ज्ञान इतिहास का ज्ञान नहीं है।

इतिहास में अनुभव तथा अवबोध का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है। डिल्थे के अनुसार केवल अनुभव ही नहीं, अपितु अवबोध भी इतिहास की विषय-वस्तु के निर्धारण में आवश्यक होता है। डिल्थे ने लिखा है कि मानव जाति उस समय मानव-अध्ययन का विषय बन जाती है, जब सजीव वाणी में उसकी अभिव्यक्ति होती है जो बोधगम्य है। जीवन के मस्तिष्क तथा शरीर घटक को सजीव अनुभव तथा समझ के द्वैत सम्बन्धों द्वारा ही समझा जा सकता है।

2. इतिहास की विषय-वस्तु इतिहासकार से दूरस्थ नहीं होती-

इतिहासकार तथा इतिहास की विषय-वस्तु की दूरी समाप्त होनी चाहिए। इतिहास की विषय-वस्तु की यह भी एक विशेषता होती है कि वह इतिहासकार से दूरस्थ नहीं होती, बल्कि इतना समीप होती है कि इतिहासकार उसकी पुनरानुभूति कर सकता है। अतः इतिहास की विषय-वस्तु तथा इतिहासकार की दूरी समाप्त करके ही इतिहासकार उसकी पुनरानुभूति कर सकता है। ऐसी स्थिति में इतिहासकार विषय-वस्तु के अध्ययन के लिए उपयुक्त हो जाता है, क्योंकि वह अतीतकालिक व्यक्तियों के विचारों की स्वयं अनुभूति करता है। इस प्रकार इतिहासकार का मस्तिष्क अतीत-विचार का आश्रय-स्थल बन जाता है।

3. इतिहास में विचार प्रधान होता है, विशेष विचार का इतिहास नहीं होता-

इतिहास में विचार प्रधान होता है, परन्तु विशेष विचार का इतिहास नहीं होता, क्योंकि इसकी पुनरानुभूति इतिहासकार के मस्तिष्क में सम्भव नहीं है। कालिंगवुड के अनुसार इतिहास की विषय--वस्तु वह विचार हो सकता है जिसकी पुनरानुभूति इतिहासकार कर सके। उदाहरण के रूप में आत्मकथा की रचना अनैतिहासिक सिद्धान्त पर होती है, क्योंकि उसमें विचार प्रधान नहीं होता। इसलिए आत्मकथा इतिहास नहीं, अपितु साहित्य है।

4. हीगेल के अनुसार समाज तथा राज्य इतिहास की विषय-वस्तु होते हैं-

मनुष्य अपने व्यावहारिक जीवन तथा वस्तुनिष्ठ मस्तिष्क की अभिव्यक्ति क्रिया तथा संस्थाओं में करता है। कला, विज्ञान, धर्म, दर्शन इतिहास की विषय-वस्तु हो सकते हैं, क्योंकि इनमें संस्कृति, राष्ट्र तथा राष्ट्रीय आन्दोलन इतिहास की विषय-वस्तु होते हैं। इसी भावना को हम टायनबी तथा मार्क्स में पाते हैं। टायनबी ने संस्कृतियों का तुलनात्मक अध्ययन किया है तथा मार्क्स ने समाज तथा आर्थिक शक्तियों की व्याख्या की है।

5. मनुष्य के कार्य, विचार और व्यवहार इतिहास की विषय-वस्तु होते हैं-

गार्डिनर के अनुसार इतिहास की अध्ययन-विषयकघटनाएँ अतीत की नहीं, अपितु वर्तमान की होती हैं। इनके अन्तर्गत यदि ऐतिहासिक अतीत बोधगम्य होता है, तो इसका सम्बन्ध वर्तमान अनुभव से होता है। ऐतिहासिक अतीत का पुनर्निर्माण साक्ष्यों पर आधारित होता है, परन्तु साक्ष्य का सम्बन्ध वर्तमान से होता है, क्योंकि इतिहासकार वर्तमान में साक्ष्यों का उपयोग करता है। मनुष्य के कार्य, विचार और व्यवहार जैसे जीवन्त पदार्थ इतिहास की विषय-वस्तु होते हैं। मृत पदार्थ विज्ञान की विषय-वस्तु होते हैं।

6. प्रत्येक उद्देश्यपूर्ण परावर्तित प्रक्रिया ही इतिहास की विषय-वस्तु है-

कालिंगवुड के अनुसार प्रत्येक उद्देश्यपूर्ण परावर्तित प्रक्रिया ही इतिहास की विषय-वस्तु है। राजनीतिज्ञ का कार्य योजनापूर्ण होता है। वह किसी विचारयुक्त योजना को पहले बनाता है। इसका क्रमशः विकास उसके कार्य की प्रगति के साथ होता है। सेनानायकों का इतिहास क्रमबद्ध एवं योजनापूर्ण होता है। इतिहासकार उनकी योजना तथा उद्देश्यों को पुनरानुभूति अपने मस्तिष्क में कर सकता है। इस सन्दर्भ में इसे इतिहास की विषय-वस्तु कह सकते हैं, क्योंकि यह एक उद्देश्यपूर्ण क्रिया है।

कालिंगवुड के अनुसार मनुष्य का कार्य-व्यवहार ही इतिहास की विषय-वस्तु होता है। वैज्ञानिक तथा दार्शनिक इतिहासकार का कार्य उद्देश्यपूर्ण तथा व्यावहारिक होता है। आर्थिक एवं नैतिक क्रिया, दोनों ही इतिहास की विषय-वस्तु हो सकती हैं। आर्थिक क्रिया इतिहास की विषय- वस्तु हो सकती, क्योंकि एक कारखाने का निर्माण उद्देश्यपूर्ण होता है। इसी प्रकार नैतिक क्रिया भी इतिहास की विषय-वस्तु हो सकती है, क्योंकि मनुष्य किसी योजना से कार्य करता है।

7. वाक्यों की पुनरावृत्ति इतिहास की विषय-वस्तु नहीं हो सकती-

प्रायः इतिहासकार विचारों की पुनरानुभूति में असमर्थ होकर तत्कालीन वाक्यों तथा कथनों को लिखता है। इस प्रकार वाक्यों की पुनरावृत्ति इतिहास की विषय-वस्तु नहीं हो सकती। वाक्य और कथन निर्जीव अस्थि-पंजर मात्र होते हैं। इतिहासकार अपने व्यक्तित्व, समसामयिक सामाजिक अभिरुचि के अनुसार इतिहास का पुनर्निर्माण करता है। उसकी व्यक्तिगत अभिरुचि युग के अनुरूप होती है। प्रत्येक पीढ़ी की अपनी अभिरुचि होती है। इतिहासकार अपने पूर्वजों के अस्थि-पंजर इतिहास को रक्त-युक्त, मांसल तथा सजीव बनाकर युग की रुचि के अनुरूप उसे प्रस्तुत करता है। ऐतिहासिक चिन्तन अनुभव चेतना नहीं, बल्कि प्रतिबिम्बित विचार होता है। इस प्रकार प्रतिबिम्बित विचार ही इतिहास की विषय-वस्तु होती है।

8. इतिहास में विशिष्ट का अध्ययन होता है-

इतिहासकार व्यक्ति विशेष एवं घटना विशेष का अध्ययन करता है। लुई चौदहवाँ इसलिए विशेष है कि उसने विशेष समय में फ्रांस पर शासन किया, परन्तु वह एक मनुष्य के रूप में विशेष नहीं है। नार्मन-विजय एक विशेष घटना है, क्योंकि वह विशेष समय में घटी थी।

फिशर के अनुसार इतिहासकार इतिहास की पुनर्रचना में वैयक्तिक एवं विशेष के सन्दर्भ में सामान्य नियमों की उपेक्षा नहीं कर सकता। इतिहासकार विषय-वस्तु की गवेषणा में प्रत्येक घटना के बाह्य तथा आन्तरिक स्वरूप की विवेचना करता है। बाह्य स्वरूप का सम्बन्ध शारीरिक गतिविधियों से तथा आन्तरिक स्वरूप का विचारों से होता है। कोई भी कार्य बाह्य तथा आन्तरिक प्रभाव का परिणाम होता है। इतिहासकार कार्यों के परिवेश में विचार को समझता है, क्योंकि सभी इतिहास विचारों के इतिहास होते हैं।

व्यावसायिक वर्ग की अवधारणा

(इतिहास की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में इतिहासकारों का दृष्टिकोण)

इतिहासकारों की इतिहास की विषय-वस्तु की अवधारणा दार्शनिकों से भिन्न होती है। इतिहास की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में विभिन्न इतिहासकारों के दृष्टिकोण का विवेचन निम्नानुसार किया गया है-

इतिहासकार प्रत्येक युग की सामाजिक आवश्यकता के अनुसार विषय-वस्तु का निर्धारण करता है। प्राचीन यूनान में इतिहास अतृप्त, ज्ञान-पिपासा को तृप्त करने का साधन था।

हेरोडोट्स तथा थ्यूसिडिडीज ने अपने पूर्वजों की स्मृति को सजीव रखने के लिए इतिहास की विषय-वस्तु का चयन किया।

टायनबी के अनुसार मानव-जीवन से सम्बद्ध सम्पूर्ण कार्य-व्यापार इतिहास की विषय-वस्तु है।

रेनियर के अनुसार, "इतिहास एक कहानी है, न अधिक और न कम। इतिहास की विषय-वस्तु अतीत सम्बन्धी कहानी का प्रस्तुतीकरण है।"

हेनरी पिरेन के अनुसार, "इतिहास समाज में रहने वाले मनुष्यों के कार्यों तथा उपलब्धियों की कहानी है।"

क्रोचे ने लिखा है कि वह कार्य जिसका इतिहास होता है, उसे इतिहासका की आत्मा में सजीव होना चाहिए। क्रोचे के अनुसार यदि हम इतिहास की विषय-वस्तु के अन्तर्गत समस्त मानवीय कार्यों को लेते हैं, तो इतिहास का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत दिखाई देगा।

प्रो. ए. एल. राउज का कथन है कि इतिहास की विषय-वस्तु समाज के सभी पक्षों का वर्णन है। इसके अन्तर्गत भौगोलिक परिस्थिति, वातावरण, आर्थिक व्यवस्था, भूमि-व्यवस्था, उद्योग, व्यापार, प्रशासनिक व्यवस्था, धार्मिक तथा सांस्कृतिक दशा आदि का उल्लेख किया जा सकता है। इनका पारस्परिक घनिष्ठ सम्बन्ध होता है।

अत: बीसवीं शताब्दी के प्रायः सभी इतिहासकार समाज के सभी पक्षों का वर्णन करते हैं। मानव-कार्य-व्यापार का विस्तृत विवरण प्रस्तुत कर सकना बहुत ही कठिन कार्य है। फलस्वरूप विशेषज्ञ इतिहासकारों के योगदान से कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया', 'ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इण्डिया', 'कम्ब्रिहेंसिव हिस्ट्री ऑफ इण्डिया' आदि ग्रन्थों की रचना की गई।

इतिहास की विषय-वस्तु को मनोविनोद का साधन मानना-

19वीं सदी के अधिकांश इतिहासकार इतिहास की विषय-वस्तु को मनोविनोद का साधन मानते थे। इन इतिहासकारों ने समसामयिक सामाजिक आवश्यकता को प्राथमिकता देने का प्रयास किया। परिणामस्वरूप धर्म और नैतिकता को इतिहास की विषय-वस्तु स्वीकार किया गया। मैकाले, कारलायल, सर वाल्टर स्काट आदि ने इतिहास की विषय-वस्तु को सामाजिक मनोरंजन का साधन माना।

इतिहास की विषय-वस्तु के स्वरूप में क्रान्तिकारी परिवर्तन-

बीसवीं शताब्दी के वैज्ञानिक इतिहासकारों ने इतिहास की विषय-वस्तु के स्वरूप में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया। इन इतिहासकारों ने गिबन, मैकाले, कारलायल तथा सर वाल्टर स्काट की रचनाओं को इतिहास नहीं स्वीकार किया। वैज्ञानिक इतिहासकारों ने उनके इतिहास को उपन्यास तथा काल्पनिक रचना की श्रेणी में रखा। रांके जैसे इतिहासकार ने आलोचनात्मक और वैज्ञानिक विधाओं के अनुसार इतिहास की विषय-वस्तु के प्रस्तुतीकरण पर जोर दिया। इस प्रकार इतिहास की विषय-वस्तु के स्वरूप में निरन्तर परिवर्तन होता रहा है। विषय-वस्तु की आवश्यकता के अनुसार इतिहास का क्षेत्र निरन्तर विस्तृत होता जा रहा है। इतिहास की विषय-वस्तु के अन्तर्गत निम्नलिखित विषय रखे जा सकते हैं-

(1) राजनीतिक इतिहास, (2) संवैधानिक इतिहास, (3) आर्थिक इतिहास (4) सामाजिक इतिहास, (5) धार्मिक इतिहास, (6) सांस्कृतिक इतिहास, (7) अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, (8) कूटनीतिक इतिहास, (9) औपनिवेशिक इतिहास, (10) युद्ध-प्रणाली का इतिहास, (11) विश्व-इतिहास, (12) कॉमनवेल्थ का इतिहास, (13) भौगोलिक इतिहास।

निष्कर्ष-

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इतिहास की विषय-वस्तु का स्वरूप सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार निरन्तर विस्तृत होता जा रहा है। आधुनिक युग में सामान्य इतिहास के ज्ञान के साथ विषय की दक्षता पर विशेष जोर दिया जाता है। अन्त में हम कह सकते हैं कि इतिहास की विषय-वस्तु युग तथा सामाजिक आवश्यकता की देन होती है। इसका स्वरूप युग-रुचि तथा समसामयिक सामाजिक आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित होता रहेगा।

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