Heade ads

जर्मनी का एकीकरण

जर्मनी अपने एकीकरण से पूर्व 200 से भी अधिक स्वतन्त्र राज्यों में विभाजित था। नेपोलियन महान् ने जर्मनी के 200 राज्यों के स्थान पर 39 राज्यों का जर्मन संघ बनाया जिसे 'राइन राज्य संघ' की संज्ञा दी गई। उसके इस कार्य से जर्मनी में राष्ट्रीय एकता की भावना का संचार हुआ। परन्तु नेपोलियन महान् के पतन के पश्चात् 1815 में वियना कांग्रेस ने जर्मनी को 9 राज्यों के एक शिथिल संघ में परिवर्तित कर दिया और आस्ट्रिया को इसका अध्यक्ष घोषित किया। संघीय शासन चलाने के लिए एक राज्य-परिषद् बनाई गई जिसमें विभिन्न राज्यों के राजाओं द्वारा मनोनीत सदस्य होते थे। इस प्रकार वियना कांग्रेस ने जर्मनी की राष्ट्रीय एकता को प्रबल आघात पहुँचाया। उसने वहाँ जिस प्रकार के संघीय शासन की स्थापना की थी, वह जनतन्त्रवादी सिद्धान्तों के विरुद्ध थी। परिणामस्वरूप जर्मन लोगों में इस व्यवस्था के विरुद्ध तीव्र असन्तोष व्याप्त था।

जर्मनी के एकीकरण के चरण
जर्मनी का एकीकरण


जर्मनी में राष्ट्रीयता और एकीकरण की भावना को प्रोत्साहित करने वाले प्रमुख तत्व या कारण निम्नलिखित हैं-

1. राष्ट्रीय चेतना और आन्दोलन-

शीघ्र ही जर्मनी में वियना कांग्रेस द्वारा स्थापित व्यवस्था के विरुद्ध आन्दोलन प्रारम्भ हो गये। इन आन्दोलनों के केन्द्र जर्मनी के विश्वविद्यालय थे। जैना विश्वविद्यालय क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था। जर्मन विद्यार्थियों ने 'बरशेनशाफ्ट' नामक संस्था की स्थापना की जिसका उद्देश्य लोगों में राजनैतिक जाग्रति उत्पन्न करना था। 19 अक्टूबर, 1817 को जैना विश्वविद्यालय के छात्रों की ओर से वार्टर्बग-उत्सव आयोजित किया और राष्ट्रवाद का प्रचार किया।

2. कार्ल्सवाद के आदेश-

आस्ट्रिया के प्रतिक्रियावादी प्रधानमंत्री मेटरनिख ने जर्मनी के राष्ट्रवादियों का दमन करने के लिए 1819 में कार्ल्सवाद में राज्य परिषद का अधिवेशन बुलाकर कई दमनकारी एवं कठोर नियम पारित करवाये जो इतिहास में 'कार्ल्सवाद के आदेश' के नाम से विख्यात है। कार्ल्सवाद के आदेशों के अनुसार समस्त जर्मनी में सभाओं और जुलूसों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया, सर्वत्र गुप्तचरों का जाल बिछा दिया गया और अनेक क्रांतिकारियों को बन्दीगृह में डाल दिया गया। अध्यापकों तथा विद्यार्थियों की गतिविधियों पर निगरानी करने के लिए प्रत्येक विश्वविद्यालय में एक एजेण्ट की नियुक्ति की गई तथा प्रेस पर प्रतिबन्ध लगा दिये गये। इस प्रकार कार्ल्सवाद के आदेशों के द्वारा जर्मनी में पूर्ण रूप से प्रतिक्रियावादी व्यवस्था स्थापित कर दी गई।

3. 1830 एवं 1848 की क्रांतियाँ-

1830 की फ्रांस की क्रांति से प्रभावित होकर जर्मनी के अनेक राज्यों में देशभक्तों ने विद्रोह किया। ब्रुसविक के शासक को सिंहासन छोड़कर भागना पड़ा। इसी प्रकार हेस केसल, सेक्सनी, हेनोवर, बवेरिया आदि के शासकों को जनता को नवीन संविधान देने पड़े। किन्तु कुछ समय पश्चात् ही मेटरनिख की सहायता से क्रांतिकारियों को कुचल दिया गया और जर्मन कार्क्सवाद के आदेशों की पुनरावृत्ति की गई।

1848 की क्रांति का भी जर्मनी के क्रांतिकारियों पर व्यापक प्रभाव पड़ा। बोदन, बवेरिया, देश, केसल,बुर्टम्बर्ग, हेनोवर, सेक्सनी आदि राज्यों के शासकों को उदार मंत्रिमण्डलों की नियुक्ति करनी पड़ी और वैधानिक शासन तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को स्वीकार करना पड़ा। प्रशा के सम्राट फेडरिक विलियम चतुर्थ को भी क्रातिकारियों के समक्ष झुकना पड़ा और उसे भी अपनी जनता को उदारवादी विधान देने का वचन देना पड़ा।

4. फ्रैंकफर्ट की संसद-

अप्रैल, 1848 में जर्मन-संघ की राज्य परिषद् ने सम्पूर्ण जर्मनी के लिए एक नवीन संघीय संविधान बनाने के उद्देश्य से फ्रैंकफर्ट में एक राष्ट्रीय विधानसभा आमंत्रित करने का निर्णय किया। 3 मई, 1848 ई. को राष्ट्रीय विधानसभा के चुने हुए 509 सदस्यों की प्रथम बैठक हुई। पर्याप्त वाद-विवाद के पश्चात् मार्च, 1849 में नया संविधान तैयार हुआ तथा प्रशा के सम्राट फ्रेडरिक विलियम चतुर्थ को जर्मन राज्यों के राजमुकुट को धारण करने को कहा गया परन्तु उसने नवीन जर्मन सम्राट का राजमुकुट अस्वीकार कर दिया। वह जनता के प्रतिनिधियों के द्वारा भेंट किया गया राजमुकुट प्रहण करना अपना अपमान समझता था। वह इस लज्जाजनक मुकुट (Crown of Shame) को ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं था। इसके अतिरिक्त उसे आस्ट्रिया के विरोध का भी भय था। अत: उसने राजमुकुट धारण करने से इन्कार कर दिया। इस प्रकार फ्रैंकफर्ट की योजना असफल हो गई और वैधानिक तरीकों से जर्मनी के एकीकरण के प्रयासों पर पानी फिर गया। अनेक जर्मन राज्यों में पुनः प्रतिक्रियावादी तथा निरंकुश शासन स्थापित कर दिया गया।

5. इरफर्ट संघ की योजना-

कुछ समय पश्चात् प्रशा के सम्राट फ्रेडरिक विलियम चतुर्थ ने जर्मनी के एकीकरण के लिए पुनः प्रयास किया और जर्मनी के अनेक राज्यों की सहायता से मार्च, 1850 में इरफर्ट नामक स्थान पर एक दूसरी पार्लियामेन्ट बुलाई। यह निर्णय किया गया कि जर्मनी के नवीन संघ से आस्ट्रिया को निकाल दिया जाये। प्रशा की अध्यक्षता में जर्मन-संघ का निर्माण करना था, परन्तु आस्ट्रिया ने इसका तीव्र विरोध किया। आस्ट्रिया जर्मनी में अपने प्रभुत्व को बनाये रखना चाहता था। 1850 में आस्ट्रिया ने ओल्मुज नामक स्थान पर एक कन्वेंशन बुलाई और पुराने जर्मन-संघ को पुनः मान्यता दिला दी। इस प्रकार जर्मनी के एकीकरण की योजना असफल हो गई।

जर्मनी के एकीकरण की मन्द गति-

1815 से 1848 तक जर्मनी के एकीकरण की गति मन्द रही, जिसके निम्नलिखित कारण थे-

(1) जर्मनी की शिथिलता-

नेपोलियन महान् के विरुद्ध निरन्तर युद्धों से जर्मनी थक गया था, जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय विचारधारा मन्द गति से विकसित हुई।

(2) राजनीतिक दलों में एकता का अभाव-

जर्मनी के राजनीतिक दल एकीकरण के विषय में सहमत नहीं थे। कुछ राज्य प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण करना चाहते थे और कुछ राज्य स्वतन्त्र गणतन्त्र के रूप में। कुछ राज्य हैम्सवर्ग वंश के नेतृत्त्व में जर्मन साम्राज्य के संगठन के समर्थक थे।

(3) आस्ट्रिया की शत्रुता-

जर्मनी के एकीकरण में आस्ट्रिया प्रमुख बाधक था। मेटरनिख ने जर्मनी में प्रारम्भ होने वाले राष्ट्रीय आन्दोलन को कठोरतापूर्वक कुचल दिया। उसने कार्ल्सवाद के आदेशों द्वारा क्रांतिकारियों का दमन किया और उनके विरुद्ध कठोर नियम लागू किये। इन कठोर कानूनों के द्वारा उसने जर्मनी में आस्ट्रिया का प्रभुत्त्व स्थापित रखा।

(4) आस्ट्रिया और प्रशा के मध्य वैमनस्य-

आस्ट्रिया और प्रशा के पारस्परिक विद्वेष के कारण भी जर्मनी के एकीकरण में विलम्ब हुआ। आस्ट्रिया की नीति जर्मनी को कमजोर और विभाजित करने की थी, जबकि प्रशा जर्मनी को संगठित करना चाहता था।

(5) राष्ट्रीय जाग्रति का अभाव-

राजनैतिक दृष्टि से जर्मनी पिछड़ा हुआ था। उनमें राष्ट्रीय जाग्रति का अभाव था। जर्मन राज्यों के शासक अपने स्वार्थों को ही दृष्टिगत रखते थे। वे राष्ट्र की कभी नहीं सोचते थे।

राष्ट्रीयता और एकीकरण की विचारधारा का विकास-

यद्यपि 1815 से 1848 तक जर्मनी में राष्ट्रीयता और एकीकरण की भावना का विकास मन्द गति से हुआ, परन्तु निम्नलिखित तत्त्व राष्ट्रीय एकीकरण की विचारधारा के विकास में सहायक सिद्ध हुए-

1. बौद्धिक आन्दोलन-

फ्रांसीसी क्रांति के पश्चात् जर्मनी के साहित्यकारों और लेखकों ने जर्मन राष्ट्रीयता की भावना को जाग्रत किया। कवियों ने जर्मनी की महानता का गीत गाया, दार्शनिकों ने उसे सर्वश्रेष्ठ देश बताया और इतिहासकारों ने उसके प्राचीन गौरव पर प्रकाश डाला। फिश्ते, हीगल, डालमेन, बोमर, हासर, हेनरिक हाइन आदि की रचनाओं ने जर्मन देशभक्तों को प्रभावित किया। हॉफमेन, बाम, फालरस्लेवन और निकोलस देकर के गीत जर्मन युवकों के राष्ट्रीयता के नारे बन गये। बर्लिन, ब्रेसला, बाने, लिजिग और अन्य विश्वविद्यालय नव जाति के केन्द्र बन गये।

2. जोलवरीन या सीमा शुल्क संघ-

प्रशा ने 1818 में पहली बार श्वार्ज वर्ग सोदर शोसन नामक एक छोटे-से राज्य से सीमा शुल्क सम्बन्धी सन्धि करके जोलवरीन या सीमा शुल्क संघ का निर्माण किया था। 1834 तक इसमें बेवरिया, सेक्सनी आदि 18 राज्य सम्मिलित हो गये। इस संघ के द्वारा इन राज्यों ने आपस में स्वतन्त्र व्यापार शुरू कर दिया। एक-दूसरे के राज्य से आने वाले माल पर कोई कर (Tariff) नहीं लगाया जाता था। 1850 तक आस्ट्रिया को छोड़कर लगभग सभी जर्मन राज्य इस आर्थिक संघ के सदस्य बन चुके थे। इस प्रकार आस्ट्रिया को जर्मनी की आर्थिक बिरादरी से निष्कासित कर दिया गया। जोलवरीन ने आर्थिक दृष्टि से जर्मनी में एकता का सूत्रपात किया। यह वास्तव में प्रशा के उदयीमान महत्त्व का प्रतीक था। केटलबी का कथन है "जोलवरीन ने प्रशा को जर्मनी का आर्थिक नेतृत्त्व प्रदान कर दिया था तथा उसके साथ छोटे राज्यों को आर्थिक समृद्धि रूपी सीमेन्ट से जोड़ दिया।"

3. औद्योगिक विकास-

1834 में जोलवरीन की स्थापना से जर्मनी के व्यापार और उद्योगों के विकास का मार्ग प्रशस्त हो गया। 1850 और 1860 के बीच जर्मनी का तीव्र गति से औद्योगीकरण हुआ। इस औद्योगीकरण का जर्मनी के राजनैतिक जीवन पर भी प्रभाव पड़ा। उद्योगों के विकास के फलस्वरूप समाज में एक नये पूँजीपति वर्ग का प्रादुर्भाव हुआ। जर्मनी के उद्योगपति और पूँजीपति अपने आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए संयुक्त जर्मनी के समर्थक हो गये। डेविड टामसन का कथन है, “पूँजीपति वर्ग का सहयोग मिल जाने से एकीकरण के आन्दोलन को ऐसा बल प्राप्त हुआ जो पहले के आन्दोलनों को प्राप्त नहीं हो सका था।"

4. विलियम प्रथम और जर्मनी-

1861 में फ्रेडरिक विलियम चतुर्थ की मृत्यु हो गई और उसके पश्चात् विलियम प्रथम प्रशा की गद्दी पर बैठा। वह परिश्रमी, ईमानदार और व्यावहारिक व्यक्ति था। उसका यह निश्चित मत था कि जर्मनी का एकीकरण प्रशा के द्वारा ही सम्पन्न हो सकता है। वह महान् सैनिकवादी था और उसका सम्पूर्ण जीवन सेना में ही व्यतीत हुआ था। उसका विश्वास था कि प्रशा का भाग्य उसकी सेना पर निर्भर है। उसने एक बार कहा था, "जो जर्मनी का शासक बनना चाहता है, उसे जर्मनी की विजय करनी होगी और यह कार्य शब्दों में नहीं हो सकता।" अतः सिंहासनारुढ़ होते ही विलियम प्रथम ने प्रशा की सेना का पुनर्गठन करने का निश्चय किया। उसने मोल्तके को सेनाध्यक्ष और रून को युद्ध मंत्री नियुक्त किया। उसने शाँतिकाल में प्रशा की सेना लगभग दो लाख और युद्ध काल में 45 लाख रखने की योजना बनाई। इन सैनिक सुधारों की योजना को कार्यान्वित करने के लिए अतिरिक्त धनराशि की आवश्यकता थी, परन्तु संसद ने धन-सम्बन्धी प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया। इस संकटपूर्ण परिस्थिति में विलियम प्रथम ने त्याग-पत्र देने का निश्चय कर लिया, परन्तु अपने युद्ध मंत्री रूने की सलाह पर उसने बिस्मार्क को आमंत्रित करने का निश्चय किया। 23 सितम्बर, 1862 को विलियम प्रथम ने बिस्मार्क को फ्रांस से बुलाकर प्रशा के प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त किया।

जर्मनी के एकीकरण के विभिन्न चरण

डॉ. मथुरालाल शर्मा का कथन है कि, "जर्मनी का एकीकरण बिस्मार्क की 'लौह और रक्त' की नीति का परिणाम था। इस नीति का अनुसरण बिस्मार्क ने तीन लड़ाइयों में किया। पहली लड़ाई डेनमार्क के साथ सन् 1864 ई. में, दूसरी आस्ट्रिया के साथ सन् 1866 ई. में और तीसरी फ्रांस के साथ सन् 1870 ई. में हुई।" निम्नलिखित तीन युद्धों में विजय प्राप्त करके बिस्मार्क ने जर्मनी के एकीकरण का कार्य पूरा किया-

1. प्रथम चरण डेनमार्क के साथ युद्ध-

सन् 1864 ई. में प्रशा डेनमार्क युद्ध का कारण श्लेसविग तथा हालस्टीन की दो डचियाँ थीं। सन् 1852 ई. की लन्दन संधि के अनुसार दोनों डचियों का अस्तित्व अलग-अलग बना रहना आवश्यक था। दोनों इचियों की जर्मन जनता उन्हें जर्मनी के साथ संयुक्त करना चाहती थी। सन् 1863 ई. में डेनमार्क के शासक क्रिश्चियन नवम् ने सन् 1852 ई. की लन्दन संधि का उल्लंघन किया। उन्होंने श्लेसविग तथा हालस्टीन को डेनमार्क में सम्मिलित कर लिया। बिस्मार्क ने डेनमार्क को दंडित करने का निश्चय कर लिया। उसने आस्ट्रिया को भी लालच देकर अपनी ओर मिला लिया और दोनों देशों ने मिलकर सन् 1864 ई. में डेनमार्क को पराजित कर दिया। डेनमार्क ने श्लेसविग तथा हालस्टीन के प्रदेश आस्ट्रिया और प्रशा को सौंप दिये।

गेस्टाइन की संधि (1865)-

14 अगस्त, 1865 को आस्ट्रिया के सम्राट फ्राँसिस जोसेफ तथा प्रशा के सम्राट विलियम प्रथम के मध्य एक संधि जिसे 'गेस्टाइन की संधि' कहते हैं। इस संधि के अनुसार निम्नलिखित शर्ते निश्चित की गईं-

(i) श्लेसविग पर प्रशा का अधिकार स्वीकार कर लिया गया।

(ii) हालस्टीन पर आस्ट्रिया का अधिकार मान लिया गया।

(iii) लाइनबर्ग प्रशा को बेच दिया गया।

(iv) कील के बन्दरगाह पर आस्ट्रिया और प्रशा का संयुक्त अधिकार रहा।

किन्तु प्रशा को किलेबन्दी करने तथा समुद्र तक नहर खोदने का अधिकार मिल गया। डेनमार्क से युद्ध छेड़ने का बिस्मार्क का उद्देश्य दोनों डचियों को प्राप्त कर प्रशा के साम्राज्य का विस्तार करना तो था ही, किन्तु ऐसा करने का उसका वास्तविक उद्देश्य यही था, कि जर्मनी के अन्य राज्य प्रशा की सैनिक शक्ति और बढ़ी हुई प्रतिष्ठा से प्रभावित हो जाए तथा प्रशा को जर्मनी जाति का नेता मानते हुए उसके नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण स्वीकार कर ले। इस प्रकार जर्मनी का प्रशा के नेतृत्व में एकीकरण करने का यह पहला कदम था।

2. द्वितीय चरण आस्ट्रिया से युद्ध -

बिस्मार्क ने यह अनुभव किया कि जब तक आस्ट्रिया को जर्मनी से बाहर नहीं निकाल दिया जायेगा, तब तक प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण असम्भव है। साथ ही गेस्टाइन के समझौते के बाद आस्ट्रिया और प्रशा के सम्बन्ध बिगड़ते चले गये थे। अतः आस्ट्रिया से युद्ध होना अवश्यम्भावी था।

आस्ट्रिया की पराजय-

आस्ट्रिया-प्रशा युद्ध का तत्कालीन कारण श्लेसविग और हालस्टीन की डचियों पर विवाद था, जिन पर दोनों देशों का संयुक्त अधिकार था। बिस्मार्क ने आस्ट्रिया को अलग-थलग करने के लिए कूटनीति का सहारा लिया, उसने इटली को आस्ट्रिया से वेनेशिया दिलाने का आश्वासन दिया और इटली ने आस्ट्रिया के विरुद्ध दक्षिण में दूसरा मोर्चा खोलने का वचन लिया, फ्रांस के सम्राट नेपोलियन तृतीय को बिस्मार्क ने राइन नदी के कुछ प्रदेश का इशारा किया और इस प्रकार फ्रांस को तटस्थ रखने में सफल रहा। सन् 1866 ई. के सात सप्ताहों में ही आस्ट्रिया-प्रशा युद्ध का निर्णय हो गया, आस्ट्रिया 'सेड़ोवा के युद्ध' में बुरी तरह परास्त हुआ, प्राग की संधि के अनुसार प्रशा को श्लेसविग और हालस्टीन की डचियाँ पूर्णतया प्राप्त हो गई और इटली को वेनेशिया दे दिया गया। युद्ध के हर्जाने के रूप में प्रशा को 30 लाख पौंड मिले।

इस युद्ध के परिणामस्वरूप प्रशा की प्रतिष्ठा बढ़ गई और जर्मनी में आस्ट्रिया के प्रभाव का अन्त हो गया। प्राग की संधि बहुत उदार शर्तों वाली थी। महान् कूटनीतिज्ञ बिस्मार्क आस्ट्रिया को अधिक नाराज नहीं करना चाहता था। क्योंकि वह जानता था कि शीघ्र ही जर्मनी एकीकरण के सर्वाधिक बाधक फ्रांस से उसे उलझना पड़ेगा।

उत्तरी जर्मन संघ की स्थापना-

आस्ट्रिया को पराजित कर बिस्मार्क ने जर्मनी के उत्तरी भाग में स्थित सभी राज्यों को मिलाकर उत्तरी जर्मनी का निर्माण किया, जिसमें प्रशा सहित 22 राज्य सम्मिलित थे। प्रशा के राजा विलियम प्रथम को संघ का स्थायी सदस्य बनाया गया तथा प्रशासनिक कार्यों के सम्पादन के लिए एक कौंसिल की स्थापना की गई, इस कौंसिल को कानूनों के निर्माण तथा संघ के शासन संचालन का अधिकार दिया गया। संघीय कौंसिल पर बिस्मार्क (या दूसरे अर्थ में प्रशा) को पूर्ण रूप से प्रभुत्व प्राप्त था तथा वही अकेला शासन सम्बन्धी कार्यों के लिए प्रशा के राजा के प्रति उत्तरदायी था। संघीय कौन्सिल के अतिरिक्त रीशटेग (लोकसभा) की भी स्थापना की गई जिसका निर्वाचक वयस्क मताधिकार पर हुआ। रीशेटग को पर्याप्त अधिकार सौंपे गये, किन्तु उसकी स्थिति इंग्लैण्ड के हाऊस ऑफ कामन्स जैसी शक्तिशाली व सुदृढ़ नहीं थी। इस प्रकार बिस्मार्क ने इस संघ को बना कर प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी के एकीकरण की ओर एक और कदम बढ़ाया।

दक्षिण जर्मन राज्यों की स्थिति-

यद्यपि प्रशा ने आस्ट्रिया को परास्त कर, उसे जर्मनी से बाहर कर दिया था। प्रशा की शक्ति की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई थी और प्रशा के नेतृत्व में उत्तरी जर्मन संघ की स्थापना हो चुकी थी। फिर भी दक्षिणी जर्मनी के बड़े राज्य जैसे कुरटेम्बर्ग, बेंडने, बवेरयिा, हेस आदि प्रशा के प्रभाव से दूर थे, बिस्मार्क ने उन्हें धमकी या बल प्रयोग के द्वारा प्रशा का नेतृत्व स्वीकार करने या जर्मन-संघ में सम्मिलित होने के लिए विवश नहीं किया। उसने इन राज्यों के प्रति आदर व सहानुभूति का व्यवहार रखा और उनकी स्वतन्त्रता में किसी प्रकार की कमी नहीं आने दी। इसका यह भी कारण था कि कैथोलिक आस्ट्रिया के साथ कैथोलिक राज्यों की अभी भी सहानुभूति थी। बिस्मार्क गृह युद्ध छेड़ कर जर्मनी एकीकरण की प्रगति रोकना नहीं चाहता था। अब जर्मनी दो भागों में बँट गया-प्रशा के नेतृत्व में उत्तरी जर्मनी संघ तथा दक्षिण जर्मनी के बड़े, किन्तु असंगठित राज्य।

3. अंतिम चरण फ्राँस-प्रशा युद्ध-

इस समय तक जर्मनी में ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण यूरोप में प्रशा की शक्ति में बहुत वृद्धि हो गई थी। बिस्मार्क यह भली-भाँति जानता था कि बिना फ्राँस को पराजित किये जर्मनी का एकीकरण असम्भव है। सन् 1870-71 ई. में फ्राँस और प्रशा के मध्य भीषण युद्ध हुआ। जिसके कारणों का सम्बन्ध प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जर्मनी के एकीकरण के साथ था, ये निम्नलिखित कारण थे-

(1) आस्ट्रिया की पराजय-

आस्ट्रिया से युद्ध आरम्भ करने से पूर्व बिस्मार्क ने फ्रांस के सम्राट नेपोलियन तृतीय को राइन नदी के आस-पास के कुछ प्रदेश देने का संकेत किया था और इस प्रकार फ्राँस को आस्ट्रिया की सहायता देने से रोक दिया था। युद्ध की समाप्ति पर बिस्मार्क ने अपना वायदा पूरा नहीं किया, जिससे नेपोलियन बहुत क्रोधित हो गया। आस्ट्रिया के सात सप्ताह में ही घुटने टेक देने से सम्पूर्ण यूरोप और विशेषतः फ्राँस आश्चर्यचकित रह गया। नेपोलियन तृतीय ने सोचा था कि प्रशा और आस्ट्रिया के आपस में भिड़ने से दोनों ही कमजोर हो जायेंगे।

(2) फ्रांस की अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा में कमी-

प्रशा की आस्ट्रिया पर विजय ने उसे यूरोप का सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य बना दिया और उसकी प्रतिष्ठा में बहुत वृद्धि हो गई। प्रशा ने आस्ट्रिया जैसी प्राचीन, शक्तिशाली और प्रतिष्ठित देश को सात सप्ताहों में ही घुटने टेकने को विवश कर दिया और फ्रांस दर्शक की भाँति सब देखता रहा। यह अभिमानी और महत्त्वाकांक्षी नेपोलियन तृतीय को बहुत अखरा। अत: उसने प्रशा को नीचा दिखाने का निश्चय किया।

(3) नेपोलियन तृतीय की लोकप्रियता का अंत-

जब जर्मन जनता विशेषत: दक्षिणी जर्मनी के कुरटेम्बर्ग, बवेरिया आदि की जनता और शासकों को यह पता चला कि नेपोलियन तृतीय जर्मनी राज्य के कुछ भागों की मांग कर रहा है तो वे उससे घृणा करने लगे। ऐसा होना बिस्मार्क के हित में हुआ, जो अब जर्मन जनता और दक्षिणी जर्मनी के राज्यों का, प्रशा और फ्रांस का युद्ध होने पर, सहयोग प्राप्त करने के सम्बन्ध में आश्वस्त हो गया, क्योंकि प्रशा भी फ्रांस से शीघ्र देर से युद्ध कर जर्मनी का एकीकरण और स्थायी सुरक्षा चाहता था। दूसरी ओर फ्रांस में भी नेपोलियन तृतीय के प्रति असन्तोष बढ़ गया और यह कहा जाने लगा कि सेडोवा में, आस्ट्रिया की नहीं, वरन् फ्रांस की पराजय हुई थी। नेपोलियन तृतीय की चारों ओर कटु आलोचना होने लगी। अत: अपनी खोई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त करने के लिए वह युद्ध करने को लालायित हो गया।

(4) तात्कालिक कारण-

युद्ध का तात्कालिक कारण स्पेन के उत्तराधिकार का प्रश्न था। जब वहाँ का सिंहासन रिक्त हुआ, तो स्पेनिश नेताओं ने प्रशा के शासक के भाई लियोपोल्ड को स्पेन का शासक बनाना चाहा। यह सुनकर नेपोलियन तृतीय सशंकित हो उठा, क्योंकि ऐसा होने पर प्रशा बहुत शक्तिशाली हो जाता और फ्राँस दोनों ओर से घिर जाता। प्रशा के शासक ने नेपोलियन तृतीय के विरोध को देखते हुए लियोपोल्ड से स्पेन का राजा बनने का प्रस्ताव अस्वीकृत करवा दिया। परन्तु नेपोलियन तृतीय इससे ही सन्तुष्ट नहीं हुआ और उसने अपने राजदूत से कहा कि वह भविष्य के लिए प्रशा से इस सम्बन्ध में लिखित गारन्टी माँगे। एम्स नामक स्थान पर फ्रैंच राजदूत ने प्रशा के राजा से ऐसा करने को कहा। किन्तु प्रशा के राजा ने शिष्टतापूर्वक केवल मौखिक आश्वासन देकर राजदूत को विदा कर दिया।

इस घटना की सूचना तार द्वारा बिस्मार्क को भेज दी गई। जिसने तार को संशोधित कर दिया। जब संशोधित तार जर्मन समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ तो जर्मन जनता भड़क उठी, क्योंकि उन्होंने इसे अपने सम्राट और अपने देश का अपमान समझा। उधर फ्रांस में भी जब इस घटना का विवरण समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ, तो जनता यह समझी कि उसके राजदूत और राष्ट्र का घोर अपमान किया गया। अत: फ्राँस ने 15 जुलाई, 1870 के दिन प्रशा पर आक्रमण कर दिया।

फ्रांस की पराजय-

अपनी कूटनीतिक चतुराई से बिस्मार्क ने फ्रांस को ही युद्ध को घोषणा करने पर विवश कर दिया, जिससे यूरोप के अन्य राष्ट्रों ने फ्रांस को ही आक्रान्ता समझा और वे तटस्थ रहे। इस युद्ध को प्रशा की जनता ने ही नहीं वरन् दक्षिणी जर्मनी की जनता ने भी राष्ट्रीय संग्राम समझा और उन्होंने अपनी सेनाएँ प्रशा के सहायतार्थ भेजीं। प्रशा पूरी तैयारी के साथ युद्ध में कूदा था, जबकि फ्रांस ने कोई विशेष तैयारी नहीं की थी। फलतः सितम्बर, 1870 में सीडान के रणक्षेत्र में फ्रांस की निर्णायक पराजय हुई। नेपोलियन तृतीय ने आत्मसमर्पण कर दिया और वह बन्दी बना लिया गया। फ्रांस में गणतन्त्र की स्थापना हो गई, जिसने कुछ समय तक युद्ध जारी रखा, लेकिन अन्त में 18 जनवरी, 1871 के दिन पेरिस के पतन के साथ ही युद्ध समाप्त हो गया।

फ्रेंकफर्ट की संधि (10 मई, 1871) के अनुसार स्ट्रासबर्ग और मेत्ज के दुर्गों के साथ फ्रांस के अक्सास और लारेन प्रान्तों को जर्मन साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया तथा फ्राँस से युद्ध के हर्जाने के रूप में 20 करोड़ पौण्ड की राशि वसूल की गई।

जर्मन साम्राज्य की स्थापना-

18 जनवरी, 1871 के दिन वर्साय शीशमहल में एक शानदार दरबार लगाया गया। जिसमें प्रशा के शासक को जर्मन सम्राट बनाया गया। जर्मनी के विभिन्न राज्यों के शासकों की उपस्थिति में बिस्मार्क ने घोषणा कि "जर्मन राज्य संघ आज से जर्मन साम्राज्य के नाम से सम्बोधित किया जायेगा। राजा विलियम प्रथम जर्मन सम्राट कहलायेंगे। सभी जर्मन राजा संघ के यथा पूर्व सदस्य माने जायेंगे तथा संघ का संविधान ही बिना किसी परिवर्तन के साम्राज्य का संविधान माना जावेगा।" इस प्रकार जर्मनी के एकीकरण का कार्य सम्पन्न हो गया।

आशा हैं कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।

Post a Comment

0 Comments