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वाणिज्यवाद का अर्थ, कारक एवं महत्त्व

वाणिज्यवाद का अर्थ

वाणिज्य क्रान्ति का विकास एवं प्रगति को जिस नीति के अन्तर्गत प्रोत्साहन मिला, वह नीति ही वाणिज्यवाद कहलाती है। आधुनिक युग में प्रत्येक यूरोपीय देश अधिक से अधिक धन प्राप्त करने के लिए लालायित था। अधिकाधिक धन केवल अनुकूल अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता था। अतः आधुनिक काल के प्रारम्भ में राजाओं ने सोना और चांदी को अपने देश की ओर आकृष्ट करने और अपने देश से उनको बाहर जाने से रोकने के लिए नियम बनाए। इस प्रकार, व्यापार और उद्योग को नियमित कर के सोना और चांदी प्राप्त करने की नीति ही 'वाणिज्यवाद' कहलाती है।

वाणिज्यवाद उस विचारधारा का नाम है जो पश्चिमी यूरोप, विशेष रूप से इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा जर्मनी के सोलहवीं, सत्रहवीं तथा अठारहवीं शताब्दी के प्रथम 6 दशकों में विद्यमान थी। वाणिज्यवाद ऐसा शब्द है जिसका प्रयोग उन नीतियों, सिद्धान्तों एवं व्यवहारों के लिए किया गया जिन्हें राष्ट्रों द्वारा तत्कालीन परिस्थितियों में अपनाया गया था और जिनके आधार पर वे राष्ट्र आर्थिक क्षेत्र में शक्ति, सम्पत्ति एवं समृद्धि प्राप्त कर सके। वाणिज्यवादी विचारधारा के अन्तर्गत बहुमूल्य धातुओं के अपने देश में आगमन को प्रोत्साहित करने एवं निगर्मन को रोकने, आयातित वस्तुओं की अपेक्षा निर्यातित वस्तुओं के मूल्यों का अधिक निर्धारण, देश के निर्यात में वृद्धि के प्रयत्न, देश के उद्योगों की एवं राष्ट्रीय बचत आदि को प्रोत्साहित करने जैसी बातें सम्मिलित थीं।

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वाणिज्यवाद का अर्थ, कारक एवं महत्त्व 


वाणिज्यवाद का सिद्धान्त

वाणिज्यवाद का मौलिक सिद्धान्त यह है कि सम्पत्ति बहुमूल्य धातुओं से प्राप्त होती है तथा प्रत्येक देश के हित में हैं कि वह सोना-चांदी का अधिकाधिक संग्रह करे। वाणिज्यवादियों के अनुसार राष्ट्र विदेशियों के धन से फलता- फूलता है और इस तरह आक्रामक युद्ध को कुछ हद तक न्याय संगत माना गया।

वाणिज्यवाद का उद्देश्य

वाणिज्यवादी राष्ट्रीय आर्थिक प्रभुत्व को प्राप्त करने के उद्देश्य से वाणिज्य तथा विदेशी व्यापार को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे। वे सोना-चांदी को प्राप्त करने पर बहुत बल देते थे। वाणिज्यवाद का उद्देश्य बहुमूल्य धातुओं को एकत्र करना था। इस कारण कुछ लेखकों ने वाणिज्यवाद को बहुमूल्य धातुवाद की संज्ञा दी है।

वाणिज्यवाद को जन्म देने वाले कारक

वाणिज्यवाद अथवा वणिकवाद को जन्म देने वाले कारक निम्नलिखित हैं-

1. पुनर्जागरण-

पुनर्जागरण का विज्ञान, साहित्य, कला के साथ-साथ वाणिज्यवाद के विकास पर भी क्रांतिकारी प्रभाव पड़ा। पुनर्जागरण के कारण मनुष्य के जीवन के प्रति दृष्टिकोण में भारी परिवर्तन हुआ। आध्यात्मिक अथवा पारलौकिक जीवन के स्थान पर मानववाद एवं मानव जीवन को और अधिक सुखी एवं समृद्ध बनाने की प्रवृत्ति का जन्म हुआ। पारलौकिक जीवन के स्थान पर वर्तमान जीवन को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा। भौतिक सुखों के लिए धन-संग्रह आवश्यक था, इससे वाणिज्यवाद को प्रोत्साहन मिला।

2. धर्म सुधार-

पुनर्जागरण के साथ धार्मिक क्षेत्र में आये परिवर्तनों से वाणिज्यवाद को नयी शक्ति प्राप्त हुई। धर्मसुधार आन्दोलन के प्रवर्तकों ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर बल दिया तथा चर्च की प्रधानता की आलोचना की। धर्म सुधारकों ने व्यक्तिगत सम्पत्ति व संविदा की स्वतन्त्रता, जो आर्थिक विकास के लिए आवश्यक है, का समर्थन किया, इससे व्यक्तिवाद का विकास हुआ। लोगों ने जीवन में भौतिक सुखों के उपभोग पर बल दिया जिससे आर्थिक क्रियाकलाप में वृद्धि हुई।

3. भौगोलिक खोजें-

भौगोलिक अन्वेषणों से भी वाणिज्यवाद को प्रोत्साहन मिला। भौगोलिक खोजों ने एशियाई देशों, अफ्रीका, एवं अमेरिका में नये व्यापारिक बाजारों को खोल दिया। वाणिज्यवाद के विकास ने उपनिवेशवादी होड़ को जन्म दिया। इस प्रकार व्यापार की लाभदायक वृद्धि होने से पूँजी का संचय सम्भव हो सका।

4. जनसंख्या वृद्धि-

मध्यकाल में यूरोप की जनसंख्या में तीव्र वृद्धि हुई। जनसंख्या वृद्धि के कारण मजदूरी सस्ती हुई। वस्तुओं की माँग में वृद्धि होने से कीमतें बढ़ीं। इससे स्पष्ट है कि जनसंख्या वृद्धि ने उद्योग एवं व्यापार का विकास किया। फलतः व्यापारी वर्ग समाज में शक्तिशाली बन गया।

5. मुद्रा का प्रचलन-

मध्यकाल में सम्पूर्ण आदान-प्रदान वस्तु विनिमय के द्वारा होता था। किन्तु मुद्रा के प्रचलन से जब यह बाधा दूर हो गई तो व्यापार-वाणिज्य के क्षेत्र का भी विस्तार हुआ। सिक्कों में सुधार करके बड़े पैमाने पर व्यापार तथा उद्योग प्रणाली को सम्भव बना दिया।

6. राष्ट्रीय राज्यों का उदय-

यूरोप में राष्ट्रीय राज्यों के उदय ने भी वाणिज्यवाद को प्रोत्साहन दिया। सर्वप्रथम पन्द्रहवीं शताब्दी में इंग्लैण्ड और फ्रांस में राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना हुई। उसके बाद सोलहवीं शताब्दी में पुर्तगाल, स्पेन, हालैण्ड में, सत्रहवीं शताब्दी में स्वीडन आदि राष्ट्रीय राज्य बने। शक्तिशाली राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना से शांति और सुरक्षा की स्थापना हुई जो व्यापार के विकास के लिए आवश्यक थी। भौगोलिक क्षेत्रों में वृद्धि के कारण व्यापार का विकास होने लगा, इससे वाणिज्यवाद को नई शक्ति प्राप्त हुई।

7. अन्य आर्थिक परिवर्तन-

बैंकों के जन्म से इस युग में बैंकों ने आन्तरिक तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार बढ़ाने तथा पूँजी के निर्माण में अभूतपूर्व सहयोग प्रदान किया। वाणिज्य-व्यापार के विकास से प्रतियोगिता का युग प्रारम्भ हुआ। इससे कुशल तथा साहसी व्यक्तियों को बड़े पैमाने पर व्यापार उद्योग के क्षेत्र में प्रवेश करने का अवसर प्राप्त हुआ। परिणामस्वरूप वाणिज्यवाद का तेजी से विकास हुआ।

वाणिज्यिक क्रांति

पुनर्जागरण के दौर में यूरोप में व्यापार के क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आये। यूरोपीय व्यापार पर इटली के नगर-राज्यों का एकाधिकार समाप्त हो गया। यूरोप के अन्य देशों पुर्तगाल, स्पेन, हॉलैण्ड, फ्रांस और इंग्लैण्ड के व्यापारियों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। भौगोलिक खोजों से व्यापार में वृद्धि हुई। व्यापार में वृद्धि से व्यापारियों के लाभ में वृद्धि हुई। राष्ट्रीय राज्यों द्वारा उपनिवेशों की स्थापना से भी व्यापारी वर्ग को लाभ पहुँचा। धन एवं समृद्धि बढ़ी। धन की पूर्ति एवं पूँजी निवेश के लिए बैंकों की स्थापना हुई। नये प्रकार के व्यापारिक संगठनों का विकास हुआ। व्यापार का विकास हुआ। दुनिया के देशों से आयात-निर्यात में वृद्धि हुई। इस प्रकार तत्कालीन समय में विभिन्न कारकों से व्यापार में बड़े-बड़े परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप यूरोपीय व्यापार का स्वरूप निर्धारित हुआ। व्यापार के क्षेत्र में आये ये अभूतपूर्व परिवर्तन ही वाणिज्यिक अथवा व्यापारिक क्रांति कहलाती है।

व्यापार एवं वाणिज्य में हुए क्रांतिकारी परिवर्तन

वाणिज्यिक अथवा व्यापारिक क्रांति के परिणामस्वरूप व्यापार एवं वाणिज्य के क्षेत्र में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए-

1. वाणिज्यिक अर्थव्यवस्था में तीव्रता-

(1) मौद्रिक अर्थव्यवस्था का विकास- 16वीं 17वीं सदी के दौरान यूरोप में मुद्रा के प्रचलन के क्षेत्र में तीव्र गति से विकास हुआ। हुण्डी, ऋणपत्र तथा विनिमय पत्रों को स्वीकार किया जाने लगा। इससे मौद्रिक अर्थव्यवस्था का विकास हुआ।

(2) वितरण व्यवस्था का विकास- वितरण व्यवस्था के अन्तर्गत व्यापक तथा स्थायी बाजार स्थापित हुए। साप्ताहिक बाजारों ने इसके विकास में सहायता की। एण्टवर्प, पेरिस, लन्दन एवं एण्डरस्टम में मेलों का स्थान स्थायी बाजारों ने ले लिया। खुले बाजारों से हटकर व्यापार माल-गोदामों में पहुँच गया। निलामी की प्रथा शूरू हो गई। थोक व्यापार के बढ़ने से बिचौलियों की संख्या में तेजी से वृद्धि होने लगी।

(3) संचार एवं परिवहन व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव- विकसित होते हुए व्यापार से संचार साधनों की आवश्यकता बढ़ी। डाक सेवाएँ सुधारी गईं और उन्हें प्रभावी बनाया गया। 1500 ई. तक स्पेन, इंग्लैण्ड और फ्रांस में सरकारी डाक सेवाएँ शुरू हो चुकी थीं। सन् 1600 ई. तक यूरोप के सभी प्रमुख नगरों में डाक सेवाओं की शुरूआत हो चुकी थीं। जिससे व्यापार-वाणिज्य सम्बन्धी समाचार अधिकाधिक मिलने लगे। जल परिवहन में अनुकूल बदलाव आया। जहाजों की गति तीव्र हुई।

2. अन्तक्षेत्रीय व्यापार में वृद्धि-

(1) भूमध्यसागरीय क्षेत्र में व्यापार में वृद्धि- 1500 ई. के आसपास सम्पूर्ण भूमध्यसागरीय क्षेत्र में खाद्य पदार्थों का खूब व्यापार होने लगा। मसाले इस क्षेत्र में एशिया से एलेक्जेंड्रिया और त्रिपोली के रास्ते से आते थे तथा वहाँ से वेनिस, जेनेवा और पीसा भेजे जाते थे। बाद में इन स्थानों से स्पेन सहित यूरोप के अन्य स्थानों पर पहुँचते। व्यापारिक उन्नति से भूमध्य सागर क्षेत्र आत्मनिर्भर क्षेत्र नहीं रहा और जीवन निर्वाह के लिए बाहर से आपूर्ति पर अधिकाधिक निर्भर हो गया।

(2) मध्य यूरोप- मध्य यूरोप का क्षेत्र जो अब तक यूरोप के व्यापार का भागीदार न था, 16वीं शताब्दी में यूरोप की अर्थव्यवस्था से अधिकाधिक जुड़ता गया। जर्मनी की चाँदी ने इटली की मांग को पूरा किया। किन्तु जर्मनी में धार्मिक संघर्ष अमेरिकी चाँदी के आयात से मध्य यूरोप की चाँदी को आघात आदि ऐसे कारण थे, जिनसे 16वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इस क्षेत्र के व्यापार में गिरावट आई।

(3) बाल्टिक सागरीय क्षेत्र- 16वीं शताब्दी में यूरोप की अर्थव्यवस्था के साथ बाल्टिक क्षेत्र की अर्थव्यवस्था जुड़ने लगी। बाल्टिक और पूर्वी यूरोपीय क्षेत्र में सामान्यतः दो प्रकार की व्यापार प्रणालियाँ थीं- समुद्र मार्गी और स्थल मार्गी। दोनों ने रोजमर्रा के काम आने वाली स्थूल वस्तुओं जैसे अनाज, नमक, मछली, ऊनी कपड़ा, फर, इमारती लकड़ी, कोलतार, पटसन, लोहा और ताम्बा का कारोबार संभाला।

(4) अटलांटिक क्षेत्र- सोलहवीं शताब्दी के दौरान अटलांटिक क्षेत्र व्यापार की दृष्टि से भूमध्यसागरीय क्षेत्र तथा पूर्वी क्षेत्र से पूरी तरह जुड़ गया। यह व्यापार मुख्यतः कपड़ा, मछली, शराब, नमक जैसी दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं का था। पुर्तगाल, डच और अंग्रेज व्यापारियों ने शीघ्र ही इस क्षेत्र में ही नहीं सम्पूर्ण यूरोप के व्यापार पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया।

3. समुद्रपारीय व्यापार का विकास-

वाणिज्यिक क्रांति के परिणामस्वरूप यूरोप की एशिया और अमेरिका के साथ व्यापार प्रारम्भ हुआ। गुलामों के व्यापार एवं उपनिवेशों की स्थापना के कारण समुद्रपारीय व्यापार में तेजी से आश्चर्यजनक वृद्धि हुई जिसके द्वारा एशियाई एवं अमेरिकी माल यूरोपीय उच्च वर्ग के ज्यादातर लोगों तक पहुँचने लगा था। डचों और अंग्रेजों ने उन्नत किस्म के जहाज बनाये। इंग्लैण्ड और हालैण्ड की व्यापारिक कम्पनियों ने एशिया के साथ व्यापार पर शीघ्र ही एकाधिकार कर लिया। इस प्रकार यूरोप के इतिहास में पहली बार महाद्वीपों के बीच नियमित ढंग से व्यापार प्रारम्भ हुआ।

4. बाजार का व्यापक तथा बढ़ता हुआ प्रभाव-

वाणिज्यिक क्रांति के परिणामस्वरूप बाजार विस्तृत हुए और उनका प्रभाव बढ़ा। क्षेत्रीयता के स्थान पर अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की अभिवृद्धि हुई।

5. नवीन व्यापारिक संगठनों का विकास-

वाणिज्यिक क्रांति के अन्तर्गत नवीन प्रकार के व्यापारिक संगठनों का विकास हुआ। कई व्यापारिक संगठनों की स्थापना ने व्यापार के स्वरूप में परिवर्तन कर दिया। आर्थिक गतिविधियों में साझेदारी प्रथा का विकास हुआ। संयुक्त पूँजी कम्पनी जैसे विशाल संगठनों ने व्यापार में क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिया। संयुक्त पूँजी अथवा साझेदारी की व्यवस्था से बड़े उद्यम स्थापित करना सरल हो गया।

इस प्रकार स्पष्ट है कि वाणिज्यिक क्रांति ने अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन कर दिये। इन परिवर्तनों ने सोलहवीं शताब्दी तथा उसके बाद की शताब्दियों में यूरोपीय व्यापार का स्वरूप और भविष्य निर्धारण में अहम् भूमिका निभाई।

वाणिज्यवाद के पतन के कारण

वाणिज्यवाद यूरोप के देशों में लगभग 250 वर्षों तक विद्यमान रहा। अठारहवीं शताब्दी के अन्त में इसका पतन प्रारम्भ हुआ। इसके पतन के मुख्य कारण इस प्रकार थे-

1. धन को अत्यधिक महत्त्व-

वाणिज्यवाद ने धन को अत्यधिक महत्त्व दिया, इसके परिणामस्वरूप मानव जीवन का उद्देश्य एकमात्र धन संग्रह हो गया। श्रमिकों का शोषण बढ़ गया। लोक कल्याण की भावना समाप्त होने लगी। ऐसी स्थिति में ऐसा राज्य स्थायी नहीं हो सकता था। अतः वाणिज्यवाद का पतन हुआ।

2. राजा की शक्तियों में वृद्धि-

वाणिज्यवादी राज्यों में राजा की शक्ति में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। राजाओं ने अक्सर अपनी इन निरंकुश शक्तियों का दुरुपयोग किया। परिणामस्वरूप वाणिज्यवादी व्यवस्था के विरुद्ध असंतोष फैलने लगा। उदारवादी विचारधारा की प्रवृत्तियों ने इस असंतोष में वृद्धि की।

3. कृषि का पतन-

वाणिज्यवादी प्रवृत्ति के कारण कृषि का स्थान व्यापार एवं उद्योग की तुलना में पिछड़ गया। फलतः कृषक और कृषि दोनों की स्थिति दयनीय हो गई। कृषक सुधारों के प्रति उदासीन हो गये। कृषि के स्थान पर विदेशी व्यापार को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा। इससे जनता में असंतोष फैला और जनता खुलकर वाणिज्यवाद की आलोचना करने लगी।

4. अस्थिर विचारधारा-

वाणिज्यवादी विचारधारा एक अस्थिर विचारधारा थी। अत: इसका लम्बे समय तक अस्तित्व में रहना असम्भव था। ज्यों-ज्यों उत्पादन के क्षेत्र में नये-नये अनुसंधान होने लगे त्यों-त्यों उत्पादन के क्षेत्र तथा तकनीक में भी विस्तार होता चला गया। परिणामस्वरूप उत्पादन एवं व्यापार सम्बन्धी वे प्रतिबन्ध जो अव्यावहारिक हो चुके थे, उन्हें धीरे-धीरे हटाया जाने लगा। अब स्वतंत्र व्यापार को अधिक उपयोगी समझा जाने लगा। निजी कम्पनियों की संख्या बढ़ने लगी। इस प्रकार जो नियम वाणिज्यवाद को जीवित रखने के लिए आवश्यक थे, वे ही समाप्त होने लगे तो वाणिज्यवाद का पतन स्वाभाविक ही था।

वाणिज्यवाद का महत्त्व अथवा परिणाम

वाणिज्यवाद जिस युग में उत्पन्न हुआ था उस युग की परिस्थितियों के अनुकूल था। सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री कीन्स ने अपनी पुस्तक 'जनरल थ्योरी' में वाणिज्यवादियों की प्रशंसा की है। कीन्स के अनुसार वाणिज्यवादियों ने, शासन कला (जो समस्त अर्थव्यवस्था की समस्याओं तथा समस्त उत्पादन कारकों के अधिकतम उपयोग से सम्बन्धित है) की नींव डाली थी।

वाणिज्यवाद के महत्त्व को हम निम्न बिन्दुओं में स्पष्ट कर सकते हैं-

1. शक्तिशाली राज्यों की स्थापना-

वाणिज्यवाद के परिणामस्वरूप शक्तिशाली राज्यों की स्थापना हुई। मध्यकाल में जब सामन्तवाद एवं चर्च की सर्वोच्चता स्थापित थी, शक्तिशाली राज्यों की स्थापना हुई। यह मध्यकालीन परम्पराओं की समाप्ति के लिए आवश्यक था।

2. पूँजीवाद की स्थापना-

वाणिज्यवाद के परिणामस्वरूप पूँजीवाद की अवधारणा का जन्म हुआ। लोगों में पूँजी निवेश कर लाभ कमाने की प्रवृत्ति बढ़ी। संयुक्त पूँजी कम्पनियों का विकास हुआ, बैंकों की स्थापना हुई।

3. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का विकास-

वाणिज्यवाद के अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार व्यापक स्तर पर प्रारम्भ हुआ। वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का इतिहास वाणिज्यवाद से ही प्रारम्भ होता है।

4. औपनिवेशिक व्यवस्था का उदय-

वाणिज्यवाद की प्रवृत्तियों के परिणामस्वरूप औपनिवेशिक व्यवस्था का भी उदय हुआ।

5. औद्योगिक क्रांति-

वाणिज्यवाद का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम औद्योगिक क्रांति का उदय था। अधिक से अधिक वस्तुओं को तैयार करने की प्रवृत्ति ने उत्पादन के नवीन तरीकों का विकास किया।

6. मध्यम वर्ग का उदय-

वाणिज्यिक क्रांति के परिणामस्वरूप मध्यम वर्ग के व्यक्तियों की संख्या और शक्ति में काफी वृद्धि हुई। व्यापार और व्यवसाय के द्वारा मध्यम वर्ग को समृद्ध होने का अवसर प्राप्त हुआ। धर्म सुधार आन्दोलन ने भी मध्यम वर्ग की शक्ति में वृद्धि की।

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