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बर्लिन सम्मेलन अथवा बर्लिन समझौता

बाल्कन की पहेली

3 मार्च, 1878 को रूस और टर्की के बीच हुई सेन्ट स्टीफेनो की सन्धि से ब्रिटेन और आस्ट्रिया में बहुत उत्तेजना फैल गई। रूस के बाल्कन में बढ़ते हुए प्रभाव से आस्ट्रिया बहुत क्रोधित हो गया। ब्रिटेन भी रूस द्वारा काला सागर पर एकाधिपत्य स्थापित करने के प्रयत्नों से बहुत रुष्ट हो गया। रूस और बल्गेरिया को छोड़कर कोई देश इस सन्धि से सन्तुष्ट नहीं था। सर्बिया, मान्टीनीग्रो और यूनान विशाल बल्गेरिया का निर्माण देखकर चिन्तित और ईर्ष्यालु हो गये थे।

जर्मनी की बाल्कन प्रायद्वीप में कोई रुचि नहीं थी लेकिन वह आस्ट्रिया का पक्ष लेकर उसे लाभ पहुँचाना चाहता था। आस्ट्रिया और ब्रिटेन इस बात पर एकमत थे कि टर्की के साम्राज्य की समस्या में सभी यूरोपीय राज्यों की दिलचस्पी है और कोई एक राज्य अकेले अपने स्वयं के लाभ को दृष्टि में रखकर इसे हल नहीं कर सकता है। आस्ट्रिया ने इस प्रश्न पर विचार करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन की माँग की जिसका समर्थन इंग्लैण्ड ने किया। रूस ने कुछ समय तक सम्मेलन के प्रस्ताव का विरोध किया, लेकिन वह इंग्लैण्ड से लड़ने की स्थिति में न था, इसलिए अन्त में राजी हो गया।

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बर्लिन सम्मेलन अथवा बर्लिन समझौता


बर्लिन सम्मेलन

यह सम्मेलन 13 जून, 1878 से 13 जुलाई, 1878 तक जर्मनी की राजधानी बर्लिन में वहाँ के चांसलर बिस्मार्क की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। सम्मेलन प्रारम्भ होने के पूर्व मुख्य प्रश्नों पर ब्रिटेन की रूसी राजदूत काउन्ट शुवेलाफ और ब्रिटेन के विदेशमन्त्री लार्ड सैलिसवरी में 30 मई को समझौता हो चुका था। अत: वाद-विवाद में अधिक समय नहीं लगा और 13 जुलाई को एक सन्धि पर हस्ताक्षर हो गये। बर्लिन सम्मेलन में बिस्मार्क ने "निष्पक्ष दलाल" के रूप में कार्य किया, इस सम्मेलन के बर्लिन में आयोजित होने से विश्व में जर्मनी की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई।

बर्लिन की सन्धि

इसकी निम्नलिखित मुख्य धाराएं थीं-

(i) आस्ट्रिया को बोस्निया तथा हर्जेगोविना पर शासन संचालन का अधिकार दिया गया, यद्यपि टर्की की प्रभुसत्ता नाम मात्र के लिए इन प्रदेशों पर कायम रही। नोवी बाजार के सजंक पर भी आस्ट्रिया का सैनिक अधिकार हो गया जो सर्बिया और मान्टेनीग्रो के मध्य में स्थित था। इससे सर्बिया और मान्टेनीग्रो एक दूसरे से पृथक् हो गये।

(ii) सर्बिया, मान्टेनीग्रो तथा रूमानिया स्वतन्त्र राज्य स्वीकार कर लिये गये।

(iii) वृहत् बल्गेरिया तीन भागों में विभक्त कर दिया गया।

(iv) रूस को बेसराबिया,कार्स,बालूम तथा अर्मीनिया के कुछ प्रदेश प्राप्त हुए।

(v) इंग्लैण्ड को साइप्रस का द्वीप मिला।

(vi) तुर्की को अल्बानिया और मैसीडोनिया के क्षेत्र पुनः प्राप्त हो गए। थेसेली और एपीरस पर भी उसका अधिकार बना रहा।

(vii) रूमानिया को बेसराबिया का प्रदेश रूस को देना पड़ा और उसके बदले में उसे दोबूजा का प्रदेश प्राप्त हुआ।

बर्लिन सन्धि के प्रभाव व उसका कूटनीतिक महत्त्व

प्रो. फिलिप्स के अनुसार, "बर्लिन की सन्धि एक प्रकार का समझौता था और समस्त समझौतों के समान उसमें कई कठिनाइयों के बीज विद्यमान थे।" जहाँ तक बाल्कन की समस्या का प्रश्न है, बर्लिन की सन्धि, प्रो. गूच के शब्दों में, "बाल्कन प्रदेश की पेचीदा समस्या का कोई समाधान नहीं था।" सन्धि वार्ता में बाल्कन राष्ट्रों की सहमति नहीं ली गई और इसमें बड़े राष्ट्रों द्वारा ही निर्णय लिये गए। बर्लिन की सन्धि के प्रभाव का उसका कूटनीतिक महत्त्व इस प्रकार है-

1. तुर्की का विघटन-

बर्लिन सम्मेलन में राजनीतिज्ञों ने प्रमुखतया अपने स्वार्थो से प्रेरित होकर कार्य किया। उन्होंने तुर्की प्रदेशों का आपस में बँटवारा कर लिया। रूस को बेसराबिया, आस्ट्रिया को बोस्निया तथा हर्जेगोविना और इंग्लैण्ड को साइप्रस देकर तुर्की साम्राज्य को संकुचित कर दिया गया। न्यू कैम्ब्रिज ऑफ हिस्ट्री के अनुसार, "इंग्लैण्ड तथा आस्ट्रिया के समर्थन से तुर्की को अपने यूरोपीय साम्राज्य का बहुत बड़ा भाग पुनः प्राप्त हो गया, परन्तु सन् 1875 ई. से सन् 1878 ई. तक तुर्की की वास्तविक शक्ति समाप्त हो चुकी थी। इसके पश्चात् वह किसी प्रकार जर्जर स्थिति में 30 वर्षों तक घिसटता रहा। बर्लिन कांग्रेस के निर्णायकों ने बाल्कन क्षेत्र में अनेक स्वतन्त्र राज्यों का निर्माण करके और स्वयं उसके कुछ भागों पर अधिकार करके उसके विघटन पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगा दी।" आगे चलकर इस सन्धि से उत्पन्न परिणामों के फलस्वरूप सन् 1912 ई. और सन् 1913 ई. के बाल्कन युद्ध और अन्ततः सन् 1914 ई. में प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया।

2. राष्ट्रीयता के सिद्धान्त की अवहेलना-

बर्लिन की सन्धि ने राष्ट्रीयता के सिद्धान्त की उपेक्षा की। ब्रिटेन द्वारा साइप्रस पर तथा आस्ट्रिया द्वारा बोस्निया और हर्जेगोविना पर आधिपत्य करना सभी सिद्धान्तों के प्रतिकूल था। जिन राज्यों ने तुर्की की प्रादेशिक अखण्डता के नाम पर हस्तक्षेप किया, वे स्वयं तुर्की को लूटने में लग गये।

3. बाल्कन देशों में तनाव और संघर्ष की स्थिति-

मैसीडोनिया, पूर्वी रूमेलिया, आर्मिनिया तथा क्रीट पर तुर्की का अधिकार कायम रहा। तुर्की के अधीनस्थ राज्यों में राष्ट्रीय आन्दोलन तेज हो गया जिसका निर्दयतापूर्वक दमन कर दिया गया, तुर्की के सुल्तान ने अपनी ईसाई प्रजा पर अत्याचार जारी रखे और उनकी राजनीतिक प्रगति और संवैधानिक सुधार करने के वायदों की परवाह नहीं की। बाल्कन प्रदेश के स्वतन्त्र राज्यों-सर्बिया, मोन्टीग्राफी और रूमानिया को पराधीन राज्य ललचाई निगाहों से देखते थे। बड़े राष्ट्रों ने अपनी स्वार्थपूर्ण नीतियों के कारण इन प्रदेशों की उपेक्षा की, जिससे तनाव और संघर्ष की स्थितियाँ सदा बनी रहीं।

4. तुर्की के विरुद्ध विद्रोह-

बर्लिन की सन्धि के परिणामस्वरूप तुर्की के विरुद्ध निम्न विद्रोह हुए-

(i) मेसीडोनिया- बर्लिन की सन्धि ने मेसीडोनिया की समस्या का कोई हल नहीं निकाला और उसके अधिकारों की उपेक्षा करते हुए उसे तुर्की के अधीन कर दिया। मेसीडोनिया चारों ओर से बाल्कन देशों-सर्बिया, बल्गारिया, रूमानिया आदि से घिरा हुआ था। मेसीडोनिया की आरक्षित दशा ने इन बाल्कन राष्ट्रों की साम्राज्य लिप्सा जागृत की, जिसके कारण सन् 1912 और 1913 ई. के बाल्कन युद्ध हुए।

(ii) आर्मीनिया- आर्मीनिया में तुर्की ने भयंकर अत्याचार किये। सन् 1895-96 ई. में वहाँ एक बड़ा विद्रोह हुआ जिसमें लगभग 26 हजार लोग मारे गये। सन् 1904 और 1906 ई. में वहाँ पर फिर विद्रोह हुए, लेकिन उन्हें भी निर्दयता से कुचल दिया गया। यूरोपीय राज्यों ने हस्तक्षेप किया, लेकिन उसका कुछ फल नहीं हुआ।

(iii) बल्गारिया- बर्लिन की सन्धि से बल्गारिया को सर्वाधिक असन्तोष था। वृहतर बल्गारिया का जो विभाजन किया गया वह बिल्कुल अस्वाभाविक था। यही कारण है कि सन् 1885 ई. में पूर्वी रूमेलिया और बल्गारिया का एकीकरण हो गया जिससे यूरोप में गम्भीर स्थिति उत्पन्न हो गई।

(iv) यूनान- यूनान की थेसेली, एपीरस और क्रीट को सम्मिलित करने की मांग भी बर्लिन काँग्रेस ने स्वीकार कर दी जिससे न केवल यूनान क्षुब्ध था वरन् क्रीट, एपीरस और थेसेली की ईसाई जनता को बड़ी निराशा हुई।

(v) सर्बिया- सर्बिया को भी काँग्रेस के निर्णयों से बड़ी निराशा हुई। नोवी बाजार से संजक में आस्ट्रिया को सेना रखने का अधिकार देने से सर्बिया और माण्टोनिग्रो से सबका एकीकरण नहीं हो सका।

5. रूस पर प्रभाव-

मेरियट के अनुसार, "बर्लिन कांग्रेस में रूस को पराजित होना पड़ा। केथरीन महान् के बाद रूस को भी इतनी अपमानजनक कूटनीतिक पराजय का आघात सहन नहीं करना पड़ा था।" यद्यपि उसने सेनस्टीफेनो की सन्धि से अनेक लाभ प्राप्त किये, परन्तु आस्ट्रिया और इंग्लैण्ड ने उसके हाथ से विजय का पारितोषिक छीन लिया। रूस की पराजय से सर्वस्लावादी विचारधारा को भी ठेस पहुंची । बर्लिन कांग्रेस के निर्णयों से निराश होकर रूस ने अफगानिस्तान, तिब्बत और फ्रांस में अपना प्रभुत्व बढ़ाने का निश्चय किया जिससे रूस और इंग्लैण्ड के बीच तनाव उत्पन्न हुआ।

6. रूस और जर्मनी के मध्य तनाव-

यद्यपि बिस्मार्क ने यह घोषणा की थी कि वह निष्पक्ष दलाल की भाँति आचरण करेगा, परन्तु उसने रूसी हितों की उपेक्षा करके आस्ट्रिया का पक्ष लिया और उसे बोस्निया तथा हर्जगोविना के प्रदेश दिला दिये। परिणामस्वरूप रूस जर्मनी से नाराज हुआ और उसने घोषणा की कि "जर्मनी ने एक मित्र को प्राप्त करने के लिए दूसरा मित्र खो दिया।" इतिहासकार गूच का कथन है कि "उच्च राजनीति के क्षेत्र में बर्लिन कांग्रेस का विशिष्ट परिणाम यह था कि रूस जर्मनी से विमुख हो गया।"

7. जर्मनी पर प्रभाव-

सन् 1878 ई. के बलिन समझौते का जर्मनी की राजनीति पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा। रूस के प्रबल विरोध को देखकर बिस्मार्क को अत्यधिक चिन्ता हुई। एक ओर फ्राँस पहले से ही जर्मनी से नाराज था और अब रूस फ्रांस के साथ मिलकर जर्मनी की सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर सकता था। अत: सन् 1879 ई. में बिस्मार्क ने आस्ट्रिया के साथ सन्धि करके जर्मनी की सुरक्षा को सुदृढ़ बनाने का प्रयास किया।

8. रूस का फ्राँस की ओर झुकाव-

सन् 1878 ई. के बर्लिन समझौते से रूस अकेला पड़ गया। अब उसे भी अपनी सुरक्षा के लिए एक शक्तिशाली मित्र की तलाश थी। यह मित्र फ्रांस ही हो सकता था। अतः सन् 1894 ई. में रूस और फ्रांस में समझौता सम्पन्न हुआ जिसने यूरोप के कूटनीति क्षेत्र में क्रान्ति ला दी।

9. आस्ट्रिया और सर्बिया में वैमनस्यता-

बर्लिन समझौते ने आस्ट्रिया और सर्बिया के बीच वैमनस्यता को और भी बढ़ा दिया। आस्ट्रिया को बोस्निया तथा हर्जगोविना के प्रदेश मिल जाने से सर्बिया बड़ा नाराज था। परिणामस्वरूप आस्ट्रिया और सर्बिया में शत्रुता बढ़ती चली गई। यही वैमनस्यता आगे चलकर प्रथम महायुद्ध के लिए उत्तरदायी सिद्ध हुई।

10. टर्की को इंग्लैण्ड के व्यवहार से असंतोष-

यद्यपि इंग्लैण्ड ने टर्की साम्राज्य के विघटन को रोकने की बार-बार घोषणा की थी। परन्तु बर्लिन सम्मेलन में इंग्लैण्ड स्वयं ही टर्की की लूट में सम्मिलित हो गया। उसने टर्की पर दबाब डालकर साइप्रस का द्वीप प्राप्त कर लिया। परिणास्वरूप टर्की इंग्लैण्ड से दूर होता चला गया और जर्मनी की ओर आकृष्ट हुआ। अत: जर्मनी और टर्की के बीच घनिष्ठता बढ़ती चली गई।

11. अन्तर्राष्ट्रीय तनाव में वृद्धि-

बर्लिन कांग्रेस के पश्चात् इंग्लैण्ड और रूस के सम्बन्ध भी तनावपूर्ण बने रहे, क्योंकि रूस, इंग्लैण्ड से अप्रसन्न था और इंग्लैण्ड को रूस पर विश्वास नहीं था। इटली भी बर्लिन की सन्धि से असन्तुष्ट था। बर्लिन कांग्रेस के पश्चात् बिस्मार्क की नीति के कारण यूरोप में गुटबन्दी आरम्भ हो गई। इस प्रकार बर्लिन सम्मेलन के निर्णयों से अन्तर्राष्ट्रीय तनाव में वृद्धि हुई।

बर्लिन कांग्रेस पूर्वी समस्या का समाधान नहीं कर सकी

बर्लिन कांग्रेस पूर्वी समस्या का समाधान नहीं कर सकी। प्रो. डेविड टामसन का कथन है कि "बर्लिन कांग्रेस के निर्णयों का विशिष्ट परिणाम यह निकला कि उससे प्रत्येक राज्य पहले की अपेक्षा अधिक असन्तुष्ट और चिन्तित हो गया।" बर्लिन की सन्धि से रूस, सर्बिया, मेसीडोनिया, बल्गारिया, यूनान, रूमानिया आदि सभी राज्य असतुष्ट थे। बर्लिन सम्मेलन टर्की के चंगुल से सुरक्षा दिला सका। परिणामस्वरूप बर्लिन काँग्रेस के निर्णयों के विरुद्ध मेसीडोनिया, एपीरस, क्रीट, थेसेली आदि प्रदेशों में तुर्कों के विरुद्ध विद्रोह हुए, जिन्होंने बाल्कन क्षेत्र को विस्फोटक बना दिया।

अतः स्पष्ट है कि बर्लिन ने काँग्रेस के बाल्कन क्षेत्र के राज्यों की राष्ट्रीयता की भावना की अवहेलना करके केवल अपने स्वार्थों को ध्यान में रखकर तथा तुर्कों को पुनः स्थापित करने के उद्देश्य से जो निर्णय किये, उनके फलस्वरूप बाल्कन समस्या सुलझने की बजाय और भी अधिक उलझ गई।

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