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पाषाण युग का इतिहास

भारतीय पाषाण युग का संक्षिप्त विवरण

पृथ्वी पर मानव की उत्पत्ति एक अद्भुत घटना है। मानव के जन्म और पृथ्वी पर पदार्पण के बाद से उसने विकास की अनेक मंजिलों को पार किया और आज विकास की इस ऊंचाई पर पहुंच गया है। किंतु मानव सभ्यता का विकास एक धीमी और क्रमिक घटना थी।

मानव-जाति का इतिहास विश्व-सभ्यता के विकास का इतिहास है। प्राचीन मिस्र, यूनान, बेबीलोन, रोम, भारत, चीन आदि देशों की नदी-धाटियों में मानव सभ्यता का जन्म और विकास हुआ। मानव सभ्यता का इतिहास सिर्फ पाँच हजार वर्ष पुराना है। यह मानव-सभ्यता का प्रारंभिक काल है। हाल तक लोगों का विश्वास था कि मनुष्य एक ईश्वरीय सृजन है, संसार के विभिन्न धर्मग्रंथों से भी इसकी पुष्टि होती है। किन्तु चार्ल्स डार्विन (1859 ई०) के विकासवाद के सिद्धान्त ने इस मत का खंडन किया। उसके अनुसार मानव-सभ्यता का विकास धीरे-धीरे हुआ है और यह विकास का प्रतिफल है। इसके अनुसार प्रारंभ में पृथ्वी का तापमान इतना अधिक था कि इस पर किसी जीवधारी का रहना संभव नहीं था। शनैः शनैः पृथ्वी का तापमान कम होने लगा और परिवर्तन होने लगा। हजारों वर्षों के इन परिवर्तनों के पश्चात् पृथ्वी की जलवायु जीवोत्पत्ति के लिए अनुकूल हो गई। किंतु कुछ समय तक जीव उत्पन्न नहीं हुए। यह युग जीव-विहीन' युग के नाम से प्रसिद्ध है।

जीव-विहीन युग के अन्त में पृथ्वी पर सर्वप्रथम पनीले (पानी में रहने वाले) जन्तुओं ने जन्म लिया, ये अस्थिविहीन थे। इन पनीले जन्तुओं की काया में समयानुकूल कई परिवर्तन हुए और हजारों वर्षों के बाद इसने मछली का रूप धारण किया। डार्विन के अनुसार, यह जीवन के विकास की दूसरी अवस्था थी। तीसरी अवस्था में स्थल पर वृहद् शरीर वाले जानवर उत्पन्न हुए। पृथ्वी पर जंगल उत्पन्न हाने लगे। समुद्र और विशाल झीलों तथा नदियों के तट पर इन जंगलों में वृहद् जीव पेट के बल रेंगते थे। इनकी उत्पत्ति और वृद्धि अंडों द्वारा होती थी। धीरे-धीरे उनका आकार छोटा होता गया, क्योंकि वृहद आकार के कारण उन्हें जीवन-निर्वाह में कठिनाई होती थी। इसी समय आकाश में उड़ने वाले वृहद आकार के पक्षियों का भी विकास हुआ तथा कुछ जीवों की उत्पत्ति अंडों के स्थान पर माता के गर्भ से होने लगी। इस प्रकार जीव विकास की प्रक्रिया जारी रही। लाखों वर्ष व्यतीत होने पर कई वृहद आकार जन्तु या तो नष्ट हो गए या उनका शरीर छोटा हो गया। इस काल में औरग, औटरंग, चिम्पांजी आदि लंगूरों से मनुष्य की उत्पत्ति हुई। प्रागैतिहासिक युग के इस काल को 'हिम युग' भी कहते हैं।

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पाषाण युग का इतिहास

प्रारंभ में मनुष्य और पशु में कोई अंतर नही था। प्रारंभ में मनुष्य को प्राकृतिक आपदा तथा हिंसक पशुओं से संघर्ष करना पड़ता था। इसके लिए उसने अनेक हथियारों और औजारों का अविष्कार किया। ये औजार पहले, पाषाण प्रागैतिहासिक काल, नवपाषाण काल व धातु युग के फिर बाद में धातुओं के होने लगे। औजारों की बनावट, प्रकार तथा तकनीक के आधार पर पाषाण काल को तीन कालों अर्थात् पुरापाषाण काल (Palaeolithic Period), मध्यपाषाण काल (Mesolithic Period) तथा नवपाषाण काल (Neolithic Period) में बांटा गया।

पुरापाषाण काल (Palaeolithic Period)

प्रागैतिहासिक काल की संस्कृतियों के बारे में सर्वप्रथम जानकारी पाषाण युग में देखने को मिलती है। लुब्बाक ने सर्वप्रथम पाषाण युग के भिन्न-भिन्न कालों को विभाजित किया, इनके अनुसार प्रथम पुरापाषाणकाल (Palaeolithic Age) तथा तथा द्वितीय नवपाषाण (Neolithic Age) था। इन्होंने यह विभाजन पाषाण उपकरणों के प्रकार तथा तकनीकी विशेषताओं आधार पर किया।

1970 में लारटेट ने पुरापाषाण काल को तीन भागों में विभाजित किया- (1) पूर्व पुरापाषाणकाल (2) मध्यपाषाण काल (3) उत्तर पाषाण काल। इन्होंने यह विभाजन उपकरणों की विधि में परिवर्तन तथा उस काल की जलवायु में आए परिवर्तनों कि आधार पर किया।

1961 में कॉमसन तथा ब्रेडवुड ने नवपाषाण काल तक के काल को तीन भागों में बाँटा। प्रथम काल भोजन संग्रहण तथा द्वितीय मध्य पाषाण काल को उन्होंने भोजन इक्ट्ठा करने वाला तथा तीसरे नवपाषाण काल को उन्होंने भोजन उत्पादन का काल कहा है। दूसरे शब्दों में पुरापाषाण काल शिकारी अवस्था, मध्यपाषाण काल को शिकारी एवम् भोजन संग्रहित करने वाला तथा नवपाषाण काल का भोजन उत्पादित का काल कहा गया है। परन्तु प्रागैतिहासिक संस्कृतियों के कालनिर्धारण एवम् नामकरण मे लारटेट का वर्गीकरण सर्वाधिक मान्य है।

प्रागैतिहासिक मानव का इतिहास जानने का स्त्रोत मात्र उस काल के मानव द्वारा बनाए पाषाण के औजार है, जो मानव ने स्वयं अपनी आवश्यकतानुसार बनाए थे। लिखित साक्ष्यों के अभाव में मात्र यही स्त्रोत है जो काल के मानव के तकनीकी विकास को दर्शाता है। आज से करीब पाँच लाख वर्ष पूर्व मध्य प्लीस्टोसीन काल से हमें यह मिलने शुरू होते है, जिन्हें पुरापाषाण कहा जाता है। परन्तु कुछ विद्वान इनसे पूर्व भी मानव को किसी प्रकार के स्वयं बनाए या प्राकृतिक रूप से निर्मित, हथियारों का प्रयोग करते बताया है, जिन्हें इयोलिथ कहते है। 1867 में दक्षिणी ओरलियन से उपकरण प्राप्त हुए। 1877 में इस प्रकार के औजार फ्रांस से भी प्राप्त हुए, लेकिन आजकल के विद्वान इन एक तरफ फलक उतरे (One sided flaking) हथियारों को प्राकृतिक तौर से उतरे फलक मानते है, जिन्हें इस काल के मानव ने उपयोग किया होगा इसके अतिरिक्त इन उपकरणों से मानव को स्वयं औजार बनाने का संकेत भी मिला होगा।

मानव ने अपनी आवश्यकता के अनुरूप औजार बनाने की प्रक्रिया सभंवत लकड़ी तथा अन्य कार्बनयुक्त पदार्थ के औजार बनाने से शुरू की जो आज उपलब्ध नहीं है। परन्तु जब उसने पाषाण उपकरण बनाने शुरू किए तब से हमें पुरातात्विक प्रमाण उपलब्ध होने लगे। ये उपकरण मानव ने अपनी जरूरतों के अनुसार तथा उनके कार्य के अनुरूप निर्मित किए थे। जैसे मांस काटने तथा छीलने के लिए चॉपर (Chopper) तथा खुरचनी (Scrapers) का निर्माण किया पुरापाषाण काल को तीन अवस्थाओं में विभाजित किया गया है, साधारणतः 50000 ई. पूर्व से 8000 ई. पूर्व तक के काल को पुरापाषाण युग माना जाता है।

निम्न पुरा पाषाण काल (Lower Palaeolithic Period)

मानव द्वारा प्रचीनतम उपकरण हमें इस काल में प्राप्त होते हैं, जब मानव ने सर्वप्रथम पत्थर का स्वयं फलकीकरण कर अपनी आवश्यकतानुसार औजार बनाए। प्राचीनतम औजार वे है जिनमें पैबुल (Pebble) के एकतरफ फलक उतार कर चापर औजार बनाए गए। ये प्राचीन उपकरण हमें सर्वप्रथम मोरोक्को तथा मध्य अफ्रीका में ओल्डुवई गर्ज के सबसे प्रथम तह से प्राप्त होते हैं। प्रथम स्थान पर इनके साथ विल्लफ्रेन्विय (Villefranchian) प्रकार के पशुओं की हड्डियाँ भी मिलती है, जो अभिनूतनकाल (Pleistocene) से पहले काल के जानवर थे जो अभी भी बचे रह गये थे। इनमें बड़े-बड़े दातों वाले हाथी (Tusks), बड़े-बड़े नुकीले दांतों वाले चीते, लकड़बग्घा इत्यादि शामिल थे।

अभिनूतनकाल (Pleistocene) काल में पथ्वी पर कुछ ऐसे परिवर्तन हुए जिनके कारण मानव का जन्म हुआ मानव के प्राचीनतम अवशेष हमें अफ्रीका में ओल्डुवई गर्त (Olduvai Garge) तन्जानिया, कीनिया की झील रूडोल्फ (Lake Rudolf) इत्यादि में प्राप्त हुए इसके अतिरिक्त बीजिंग (चीन) में झाऊ काऊ तेन (Zhou-kaou Ten) तथा जावा में भी प्राचीनतम मानव के अवशेष प्राप्त हुए। भारत में हाल ही तक पाषाण कालीन मानव के अवशेष प्राप्त नहीं हुए थे परन्तु 1982 में मध्य प्रदेश की नर्मदा घाटी में हथनोरा (Hathnora) से तथा इसी क्षेत्र में 1997 में निम्न पुरा पाषाण कालीन मानव (Homo-eractus) के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।

भारतीय उपमहाद्वीप में सिन्ध तथा केरल को छोड़ सभी स्थानों से निम्न पुरापाषण कालीन अवशेष प्राप्त होते हैं जो कि नदी के किनारों (Terraces) कन्दराओं (Caves), rock shelters तथा खुले स्थलों से भी प्राप्त हुए है। पत्थर के इन उपकरणों के साथ पशु तथा वनस्पति के अवशेष (Fossil) भी कई स्थलों से प्राप्त हुए है। इनके अतिरिक्त हन्तकुठा या विदरणी भी मिलती है। भारत में अलग-२ क्षेत्रों में अलग-२ उपकरण बनाने की विधियों के आधार पर इस काल के उपकरणों को दो प्रमाणों में बाँटा जा सकता है।

1. चापर चांपिग उपकरण (Chopper Chopping tools) जो पाकिस्तान की सोहन घाटी में मिलने के कारण सोहन संस्कृति कहलाए तथा

2. मद्रास के समीप हस्थ कुठार (Hanrdaxe) के अधिक मिलने के कारण इसे हस्थ कुठार संस्कृति (Handaxe culture) या मद्रास संस्कृति कहा जाने लगा।

डी. टैरा (De-Terra) तथा टी. टी. पैटरसन (T.T. Patterson) ने सोहन घाटी में इस काल के मानव को द्वितीय अन्तर हिम युग (Second interglacial age) या आप से साढ़े चार लाख वर्ष पहले का बताया है जबकि हसमुख धीरज संकालिया इसकी उत्पत्ति 5 लाख वर्ष पहले मानते हैं।

औजार (Tools)-

इस काल का मानव कोर (Core) निर्मित औजारों का प्रयोग करता था यानि जिस पत्थर का औजार बनता था उसके फलक (Flake) उतार कर फैंक दिए जाते थे तथा बीच के हिस्से की ही औजार बनता था। इस काल के बने उपकरणों में chapper/chapping tools (चॉपर/चौंपिग औजार), hand-axes (हस्त कुल्हाड़ियों), Cleavers (विदारणी), Scrappers (खुरचमियां) इत्यादि प्रमुख थे। इनसे मानव काटने, खाल साफ करने इत्यादि कार्यो के लिए तथा मिट्टी से जड़ें और कन्दमूल आदि निकालने के काम में लाता था।

औजार बनाने की तकनीक-

(i) (Block-on-anvil Technique)- इस विधि में जिस पत्थर द्वारा औजार का निर्माण करना होता था उसे किसी चट्टान पर प्रहार करके उसका फलक उतारकर औजार बनाये जाते थे। इस विधि द्वारा बड़े आकार के तथा अनघड़ का ही निर्माण संभव था।

(ii) (Stone Hammer Technique or Block-on-Block Technique)- पूर्वपाषाण काल में मानव द्वारा औजार बनाने को सर्वाधिक प्रयोग में लाई जाने वाली विधि थी। इसमें जिस पत्थर का औजार बनाना होता था उसे एक स्थान पर रखकर दूसरे हाथ से एक अन्य पत्थर द्वारा चोट करके फलक उतार कर औजार बनाया जाता था। इस विधि द्वारा मानव bi-ficial (द्विधारी) औजार भी बना सकता था।

(iii) (Step Flacking Technique)- इस तकनीक द्वारा जिस पत्थर का औजार बनाना होता था उस पर दूसरा पत्थर मारते समय जिस प्रकार का औजार बनाना था, उसे ध्यान में रखकर सर्वप्रथम मध्य भाग मे चोट कर उस पत्थर पर एक निशान बना लिया जाता था। बाद में उसी की मदद से Steps (पट्टियों) में फलक उतार कर औजार बनाए जाते थे। इस विधि द्वारा हस्त कुल्हाड़ियों का निर्माण किया जा सकता था।

(iv) (Cylinderical Hammer Technique)- इस विधि द्वारा पत्थर का औजार बनाने के लिए एक सिलैंडरनुमा हथौडे का प्रयोग किया जाता था जिससे कि छोटे-छोटे फलक भी उतारे जा सकते थे। इनसे सुन्दर एशुलियन प्रकार की हस्त कुल्हाड़िया बनाई जाती थी।

विस्तार क्षेत्र-

आधुनिक सर्वेक्षण एवं उत्खननों के कारण हमें निम्न पुरापाषाण काल के बहुत से स्थलों का ज्ञान हो चुका है। अब यह साफ हो गया है कि यह संस्कृति पूरे भारत में फैली हुई थी। इसका कहीं अधिक तथा कहीं कम विस्तार (ecological factors) के कारण है जैसे गंगा की घाटी में इस संस्कृति का न होना उपकरण बनाने के लिए उपयुक्त पत्थरों का न मिलना हो सकता है या शायद गंगा तथा उसकी सहायक नदियों द्वारा लाई गई मिट्टी के नीचे प्राचीन स्थल दब गए होंगे।

भारत में इस संस्कृति के प्रमाण उत्तर पश्चिमी भारत (आज के पाकिस्तान की सोहन घाटी में) में जम्मू कश्मीर लिद्दर नदी हिमाचल की ब्यास बाण गंगा घाटी, पंजाब में होशियारपुर क्षेत्र (विशेषकर अटवारपुर क्षेत्र), हरियाणा में कालका पिंजोर क्षेत्र, हिमाचल तथा हरियाणा में काला अम्ब नाहन क्षेत्र में मारकंडा नदी पर, दिल्ली तथा दक्षिण हरियाणा के अरावली क्षेत्र में अधिकतर चापर-चांपिग (Chopper-Chopping) उपकरण प्राप्त होते हैं।

दक्षिण भारत तथा मध्य भारत में अधिकतर (Hand axes) हस्थ कुठार संस्कृति का विस्तार है इन में अधिकतर स्थल तमिलनाडु में अंतरिम पक्कम (Attiramppakam), मन्जनकरणई, वादमदुराई गुडियम (Gudiyam cave) इत्यादि हैं। कर्नाटक में अनगवाडी (Anagwadi), हुन्स्गी (Hunsgi), गुलबर्ग में इसामपुर (Isampur) तथा येदियापुर (Yediapur) इत्यादि महत्वपूर्ण हैं इसके अतिरिक्त कृष्णा तथा इसकी सहायक नदियों पर भी बहुत से स्थलों से इन संस्कृति के प्रमाण मिले हैं।

अलूर (तलकवाद Talakwad) के समीप हीरं मुलंगी (Hire Mulangi) एक महत्वपूर्ण स्थल हैं। नित्तूर (Nittur) (जिला बिल्लेरी) में उपकरणों के साथ-२ जंगली भैंसे (Bos nomadicus) के अवशेष भी प्राप्त हुए आन्ध्र प्रदेश में कर्नूल (Kurnool), गिडलूर (giddalur), करेमपुडी (Karempudi) तथा नागार्जुन कोण्डा (Nagarjunna Konda) से हस्थ कुठार संस्कृति के प्रमाण मिले हैं। इसके अतिरिक्त नालगोंडा (Nalgonda) तथा गुन्तुर (Guntur) जिलों से भी इस संस्कृति के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।

महाराष्ट्र गोदावरी-प्रवर नदी (Godavari-Pravara) की घाटी में न केवल हस्थ कुठार (hand axes) तथा अन्य उपकरण प्राप्त हुए हैं अपितु जंगली भैंसा, जंगली हाथी, गैंडा इत्यादि जानवरों के अवशेष भी प्राप्त हुए है। नेवासा तथा संगम से भी इसी तरह के प्रमाण मिले हैं। धुलिया (Dhulia), जलगाँव बुल्सर जिलों में इसी तरह के प्रमाण मिले। अहमद नगर (Ahmadnagar) जिले का चिरकी नेवासा (Chirki Nevasa), नासिक (Nashik) जिले का गंगापुर स्थल, शोलापुर जिले का पन्धारपुर (Pandharpur) काफी महत्वपूर्ण है। कोंकण तथा मुम्बई क्षेत्र में वोरली, कान्डीवली, बोरीवली (Borivli) मलाद (Malad) इत्यादि महत्वपूर्ण स्थल हैं इसके अतिरिक्त गोवा में भी इस संस्कृति के प्रमाण मिलते हैं।

मध्य प्रदेश में सर्वप्रथम डी टेरा (De-Terra) तथा पैटरसन (Patterson) ने नर्मदा घाटी पर उत्तर-पश्चिमी भारत की चापर चापिंग संस्कृति तथ दक्षिण भारत की हस्थ कुठार संस्कृति के मेल की संभावना खोजने के लिए कार्य किया। यहां से न केवल उपकरण बल्कि उस काल के जानवरों तथा वक्षों के अवशेष (Fossils) भी पाए गए। यहां पर आस्ट्रेलियाई संस्कृति (Acheuilan culture) तथा सोहन संस्कृति (Sohan Culture) के इक्ट्ठे मिलने के प्रमाण मिले। इस संस्कृति के महत्वपूर्ण स्थल होशंगाबाद, नरसिंगपुर, महादेवपिपरिया है। जहां से उपकरण स्तर स्तरविन्यास के संदर्भ में भी प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त दुरकाडी नाले (पश्चिमी नीमार जिले) से भी महत्वपूर्ण अवशेष प्राप्त हुए। उपकरणों के अतिरिक्त इस क्षेत्र से जंगली हाथी, भैंसे, हिप्पोपोटमस, जंगली घडियाल, सूअर, इत्यादि के प्रमाण भी मिले। इसके अतिरिक्त चम्बल घाटी, बेतवा, सोनार, सोन नदियों की घाटियों में भी इस संस्कृति के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। भोपाल के पास भीमबेटका (Bhimbetka) आदमगढ़ भी महत्वपूर्ण स्थल हैं।

राजस्थान में दक्षिण पूर्वी क्षेत्र में अधिक तर इस संस्कृति के प्रमाण मिलते हैं। लूनी, बणाभ, गम्भीरी, चम्बल की घाटियों के कई स्थलों पर कई महत्वपूर्ण स्थल है। चितौड़ जिले में तो सोहन संस्कृति तथा मद्रास संस्कृति के इक्ट्ठे मिलने के प्रमाण मिलते हैं। पूरे गुजरात में हमें निम्न पुरापाषाण काल के प्रमाण प्राप्त होते हैं, साबरमती नदी, माही, करजन (Karjan) नदियों पर बहुत से महत्वपूर्ण स्थल मिले हैं। यहां से चापर-चापिंग (Chopper chopping) तथा कुठार (handaxes) दोनों प्रकार के उपकरण मिलते हैं सौराष्ट्र क्षेत्र में रोजड़ी (Rojdi) एक महत्वपूर्ण स्थल है। कच्छ में भुज समीप भी नखराणा (Nakhrana) से इस संस्कृति के प्रमाण मिले हैं। उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर (Mirzapur) जिले की बेलन घाटी, रीवा जिले में लेखाइया (Lekhaiya) कौशाम्बी जिले में बरियारी (Bariyari) में इलाहबाद जिले के बतौबीर (Bataubir) स्थलों से इस संस्कृति के प्रमाण मिले हैं। यमुना नदी पर देहरादून जिले में कलगी (Kalgi), झांसी जिले में ललितपुर (Lalitpur) इत्यादि भी महत्वपूर्ण स्थल हैं। बिहार तथा झारखंड के बहुत से स्थलों पर तथा कोटा नागपुर पठार के अनेक स्थलों से इस संस्कृति के प्रमाण प्राप्त हुए है। पश्चिमी बंगाल के बंकुश, पुर्लिया, सिंहभूम, मेवाकुई, बीरभूम बर्दबान इत्यादि जिलों से इस संस्कृति के प्रमाण मिले हैं। उड़ीसा में कुलियाना (म्यूरभंज) स्थल से इस संस्कृति के महत्वपूर्ण प्रमाण मिले। इसके अतिरिक्त बहुमानी, महानदी, बैतर्णी, स्वर्णलोवा नदी घाटियों से धनेकनाल (Dhenkanal) म्यूरभंज, सुन्दरगढ़, क्योंझार इत्यादि से इस काल के उपकरण प्राप्त हुए है। आसाम तथा मेघालय की गारो, खासी तथा जयन्तियां पहाड़ियों से इस संस्कृति के उपकरण जिनमें हस्थ कुठार, चापर, खुरचनी इत्यादि प्राप्त हुए हैं।

मानव जीवन-

विश्व में विभिन्न स्थलों से निम्न पुरापाषाण काल के मानव के प्रमाण प्राप्त हुए है। परन्तु हाल ही तक भारत में ये प्रमाण उपलब्ध नहीं थे, 1982 में मध्य प्रदेश में नर्मदा घाटी में हथनोरा (Hathnora) नामक स्थल से होमोइरैक्टस (Homo-erectus) की खोपड़ी तथा 1997 में इसी प्रकार के मानव के कन्धे की हड्डियां (Clavicle) प्राप्त हुई। मात्र यही प्रमाण हमें इस काल के मानव के भारत को प्राप्त है।

इस काल के मानव का निवास स्थल नदी घाटियां शिलाश्रय तथा गुफा इत्यादि थे। स्टुअर्ट पिगंट के अनुसार इस युग के मानव के जीवन का आधार शिकार करना तथा भोजन एकत्रित करना था, इनका जीवन अस्थायी और खतरों से भरा से भरा एवम् अलग-अलग थ। इस काल का मानव उपकरणों की सहायता से जंगली जानवरों का शिकार करता था। भोजन के तौर पर उनका मांस कच्चा था कई स्थानों पर पकाने के भी प्रमाण हैं। इसके अतिरिक्त कन्दमूल, जंगली फल तथा खाने वालद जड़े भी उसके भोजन में शामिल था। इस काल का मानव विलेचैम्यियन प्रकार के पशुओं के अलावा हाथी, गैंडा, घोड़ा, पानी की भैंस, बारहसिंगे, कछुए, मछली, पक्षी, मेंढ़क, कई प्रकार के मगरमच्छ इत्यादि का शिकार करता था।

तिथिक्रम-

तिथिक्रम के हिसाब से निम्न पुरापाषाण काल के अवशेषों को मध्य अभिनूतन काल (Mid pleistocene period) के द्वितीय अन्तर हिम युग (Second interglacial period) में रखा जा सकता है। डी. टेश तथा टी.टी. पैटरसन ने इस काल की सोहन संस्कृति को 4,35,000 वर्ष पूर्व की माना है जबकि एच. डी. संकालिया इसे 5 लाख सवा लाख वर्ष पूर्व के मध्य रखा जाता है। परन्तु हाल ही में कई स्थानों पर वैज्ञानिक तिथिक्रम से कुछ तिथियां प्राप्त हुई है जो कि निम्नलिखित हैं :-

महाराष्ट्र में बोरी से 5,37,000 वर्ष पूर्व, नेवासा से 3,50,000 वर्ष पूर्व कर्नाटक के तेग्गीहल्ली जो कि बैचबल घाटी में से 3,50,000 से 2,87,333 वर्ष पूर्व, राजस्थान में डिडवाना से 3,90,000 से 2,90,000 वर्ष पूर्व गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र के उम्रेठी नामक स्थान से 1,90,000 वर्ष पूर्व, कर्नाटक में हुन्स्गी घाटी के कालदेवनहल्ली स्थल से 1,66000 वर्ष पूर्व इस प्रकार हम देखतें हैं कि यह सभी तिथियां साढ़े पांच लाख से डेढ़ लाख वर्ष के बीच की है। यदि इन में कुछ त्रुटियां भी मान लेता भी यह 5 लाख से सवा लाख के मध्य की ही है।

उद्गम (Origin)-

इस संस्कृति का प्रारम्भ अफ्रीका में ओल्डुवई गर्त (Olduvai gorge) जो कि तन्जानिया में हुआ था। यहीं से मानव ने अलग-२ स्थलों पर जा कर इस संस्कृति का विकास किया। कुछ विद्वानों का मत है कि इस काल में अफ्रीका भारत से जुड़ा हुआ था इसलिए इस काल का मानव स्थल मार्ग से ही सीधा भारत आ गया। परन्तु महाद्वीप तो इस काल से बहुत पहले ही अलग हसे चुके थे। इसलिए यह मत संभव नही है। दूसरा मत है कि इस काल का मानव ओल्डुवई से उत्तरी अफ्रीका होता हुआ मांऊट कार्मल (Mount Carmel) के रास्ते आया यहां से एक शाखा ने पश्चिम की ओर जाकर युरोप में तथा दूसरी शाखा ने पूर्व की ओर जाकर एशिया में इस संस्कृति को फैलाया।

मध्य पुरापाषाण काल (Middle Palaeolithic Period)

मध्य पुरापाषाण में नियडरस्थल मानव के अवशेष मिलने शुरू हुए और इन्होंने अपनी संस्कृति का विकास किया। पूर्व पुरापाषाणकाल के औजार कोर निर्मित थे, जिसमें फलकों का प्रयोग औजारों में नहीं किया गया था। लेकिन इस काल के मियंडर स्थल मानव ने अपने उपकरणों को फलक पर बनाना प्रांरभ किया, जो अपेक्षाकृत आकार में छोटे थे जो अच्छे बने हुए थे। इस संस्कृति के प्रमुख उपकरण है- (1) बेधक (2) बेधक खुरचनी (3) फलक जैसे स्थूल शल्क (4) बेधनियाँ।

औजार बनाने की तकनीक

इस काल के फलक उपकरण दो तकनीकों द्वारा बनाए जाते थे। इस विधि में सर्वप्रथम पत्थर से फलक उतारी जीती थी, फिर उस फलक को दोबारा तीखा कर (retouching) आवश्यकतानुसार आकार का उपकरण बना लिया जाता था। दूसरी विधि को लवलवा विधि (Levalloisian technique) का नाम दिया गया । इस विधि द्वारा निर्मित औजार सर्वप्रथम फ्रांस के तावलवा नामक स्थान से प्राप्त हुए इसलिए इसे लवलॅवा तकनीक का नाम दिया गया। इस विधि द्वारा पत्थर से जो फलक अलग किया तीखे उपकरण से जिस प्रकार का औजार बनाना होता था उसकी रूपरेखा दी जाती थी। दूसरे चरण में उसके भीतरी हिस्से को ऊपर से छील दिया जाता था इसे Tortoise Ore कहा जाता था। ततीय चरण में एक छोटा प्लेट फार्म तैयार किया जाता था। जहां तीखी रखकर उसे पर हथौड़े से आघात किया जाता था। इस प्रकार मनचाहे आकार का उपकरण बनाया जा सकता था। पुरापाषाण का मानव (Australopithecus) का अन्त हो गया तथा इसका स्थान एक नई किस्म के मानव ने ले लिया। जिसे नियान्डर मानव (Neanderthal man) या (Homo Neanderthals) कहा जाता है।

विस्तार

भारत में मध्य पुरापाषाण के स्तर विन्यास पर आधारित प्रमाण सर्वप्रथम नेवासा नामक स्थल से प्राप्त हुए। यद्यपि इससे पहले भी डी. टेरा तथा पैटरसन ने इन्हें नर्मदा घाटी में नरसिंहपुर (Narsinghpur) तथा होसान्गाबाद (Hoshangabad) से प्राप्त किए परन्तु इस समय इसे काली मिट्टी की संस्कृति (Black soil industry) या प्राग-नवपाषाणीय संस्कृति की संज्ञा दी गई। परन्तु मध्य पुरापाषाण काल के एक अलग संस्कृति के रूप में प्रमाण नेवासा से प्राप्त हुए, जो कि तिथिक्रम, स्तरविन्यास तथा उपकरण प्रकार तथा तकनीक के आधार पर मध्यपुरापाषाण संस्कृति को माने गए। तथा तभी से इसे अलग संस्कृति के रूप में लिया जाता है। पूरे महाराष्ट्र में यह संस्कृति पनप रही थी परन्तु प्रवर नदी पर स्थित नेवासा (Nevasa) तथा गोदावरी पर स्थित बेल पन्धारी, सुरेगांव, कालेगांव नान्दूर तथा मध्यमेश्वर महत्वपूर्ण है। तापती नदी की सह नदी रंका नाला (Ranka Nala) भी एक महत्वपूर्ण स्थल है।

मुम्बई क्षेत्र में बोरीवली तथा खांडीवली (Borivli and Khandivli) से भी बहुत से फलक उपकरण चर्ट (Chert), जैसपर (Jaspar) तथा बसाल्ट (Basalt) पर बने प्राप्त हुए हैं। कर्नाटक के तटीय क्षेत्र के दो महत्वपूर्ण स्थलों तमिनहल (Taminhal) तथा अलमट्टी (Alamatti) से काफी मात्रा में उपकरण प्राप्त होते हैं। गुलबर्ग के शोरापुर दोआब तथा कोवल्ली (Kovalli) तथा अनगवाडी (Anagwadi) महत्वपूर्ण है। हरगुन्डगी (Haragundi) से तो जंगली हाथी तथा भैंसे के प्रमाण (fossils) भी प्राप्त हुए है। आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल से मध्य पुरापाषाण काल के उपकरण प्राप्त हुए। इसके अतिरिक्त नालगोंडा तथा कृष्णा नदी पर स्थित रामतीर्थअपय तथा रायगीरवगु से भी उपकरण प्राप्त हुए हैं।

तमिलनाडु में इस संस्कृति के प्रमाण उत्तरी क्षेत्र में अत्तिरमपक्कम तथा वादमदुराई उत्खननों से इस काल का उपकरण प्राप्त हुए है। इसके अतिरिक्त गुडियम कान्दरा उत्खनन से भी स्तर विन्यास के आधार पर मध्यपाषण काल के छोटे उपकरणों के पहले के फलक उपकरण प्राप्त हुए है। उड़ीसा से म्यूरभंज, क्योन्झार, सुन्दरगढ़ येनकनाल जिलों से फलक उपकरण क्वार्टज जैसपर तथा क्वार्टजाइट नामक पत्थरों पर बने प्राप्त हुए है।

पश्चिमी बंगाल में बंकुरा, बीरभूम, मिदनापुर, पूर्लिया जिलों से फलक उपकरण प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त 24 परगना, जलपाइगुडी जिलों से तथा असम मेघालय की गारो पहाड़ियों से भी इस संस्कृति के प्रमाण मिले हैं। बिहार में पटना, गया, भागलपुर, मुंगेर जिलों तथा झारखंड के छोटा नागपुर पठार, पलमाऊ सिंहभूम इत्यादि से फलक उपकरण जिनमें अधिकतर पॅवाइन्टस तथा बोरर से प्राप्त हुए हैं। उत्तर प्रदेश में टोनस घाटी तथा इलाहबाद जिले के बेलन घाटी में यह उपकरण प्राप्त हुए है। परन्तु गंगा घाटी में अभी तक इस काल के उपकरण प्राप्त नहीं हुए हैं। मध्य प्रदेश में नर्मदा घाटी में नरसिंहपुर, होशंगाबाद, महेश्वर, सिहोर (सागर जिला) गोंची जो बेतवा नदी पर स्थित है इस काल के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त दामोह जिले तथ सोन घाटी से भी उपकरण प्राप्त हुए हैं। नर्मदा नदी पर महादेव पिपरिया, शिवना नदी पर मन्दसोर, बाहरगढ़ भी महत्वपूर्ण स्थल है। यही खरकी माता स्थल से उस काल के उपकरण बनाने की वर्कशाप भी खोजी गई है। गुजरात के सौराष्ट्र की नदी भादर पर रोजडी तथा जेतपुर महत्वपूर्ण स्थल है इसके अतिरिक्त बुलसर जिले दक्षिण कच्छ के कई स्थलों से मध्य पुरापाषाण कालीन फलक उपकरण मिलते है।

राजस्थान के पश्चिमी तथा दक्षिण पूर्वी क्षेत्रों से इस काल के उपकरण मिलते है। यहां चम्बल, गम्भीरी लूनी इत्यादि नदी घाटियों में इस संस्कृति के प्रमाण मिलते है। लूनी घाटी में तो फलक उपकरणों के साथ कुछ फलक पर बने छोटे हस्थ कुठार तथा क्लीवर भी प्राप्त होते हैं। राजस्थान में अधिकतर फ्लिंट, चर्ट तथा जैस्पर पत्थरों का प्रयोग उपकरण बनाने के लिए किया गया है। कश्मीर में पहलगाव के समीप मन्दिर टीले से तथा गणेशपुर से इस काल के उपकरण प्राप्त होते हैं। पाकिस्तान में पेशावर के समीप संघाओं कान्दरा से इस संस्कृति के प्रमाण प्राप्त हुए है। इसके अतिरिक्त सोहन संस्कृति के उपकरण भी मध्य पुरापाषाण कल के है। पंजाब में कई स्थलों दिल्ली तथा हरियाणा के अरावली पर्वत श्रृंखला में अनेक स्थलों से भी इस काल के उपकरण मिले हैं।

काल

राजस्थान, गुजरात के कई स्थलों से हाल ही में कुछ वैज्ञानिक ढंग से इस काल के तिथिक्रम के प्रमाण प्राप्त हुए है जो कि 150000 से 20,000 वर्ष पूर्व के मध्य है। राजस्थान में डिडवाना से मध्य पुरापाषाण काल की दो तिथियां 1,50,000 तथा 1,40,000 वर्ष पूर्व की है। जबकि गुजरात के सौराष्ट्र से ये तिथियां 56,800 वर्ष पूर्व आई हैं। इससे पूर्व महाराष्ट्र में प्रवरगोदावरी घाटी से प्राप्त अर्जुन वक्ष के अवशेष की तिथि 39,000 वर्ष पूर्व अंकित हुई थी। इसके अतिरिक्त पैठन, इनामगांव तथा द्योन बांध से भी मध्य पुरापाषाणकाल की तिथि 30,000 वर्ष के आसपास ही निर्धारित रेडियो कार्बन विधि से निश्चित हुई है। इस तरह हम इस संस्कृति को सुरक्षित रूप से 1,25000 से 20,000 वर्ष पूर्व तो रख ही सकते हैं।

उद्भव

मध्य पुरापाषाणकाल के उद्भव के बारे में विद्वान एक ही मत नहीं है। एच. डी. संकालिया तथा ए.पी. खत्री का विचार है कि भारत में इस संस्कृति के उद्भवकर्ता अफ्रीका से आए थे। एलचिन महोदय का विचार है कि प्रारम्भ में इस संस्कृति के लोग इसी प्रकार की मध्य एशिया की संस्कृति के सम्पर्क में आए तथा बाद में इन्होंने अलग थलग रूप में सिन्ध के मरूस्थल के दक्षिण पूर्व में इस संस्कृति का उत्थान किया। परन्तु जब तक इस काल के मानव के अवशेष हमें प्राप्त नहीं होते तब तक इस बारे में अधिक कह पाना संभव नहीं है। दूसरी ओर कुछ विद्वान इसे भारत में ही उद्भव मानते है। के.डी. बैनर्जी ने नेवासा तथा उत्तरी कर्नाटक से प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर दर्शाने की कोशिश की है कि यह संस्कृति यहां पर पहले की हस्थ कुठार, क्लीवर संस्कृति से ही सौन्दर राजन भी इसे भारत में ही प्रारम्भ हुई संस्कृति मानते हैं।

उत्तर पुरापाषाण काल (Upper Palaeolithic Period)

उत्तर पुरापाषाण काल संस्कृति अभिनूतन काल की अन्तिम संस्कृति है। इस काल में मानव ने अपने उपकरण क्रोड या फलक के स्थान पर ब्लेड पर बनाने प्रारम्भ कर दिए। साथ ही हड्डी का प्रयोग भी औजार बनाने के लिए होने लगा। इस काल की विशेषता ब्लेड तथा ब्यूरिन, बोरर नामक उपकरण है। इसके अतिरिक्त विलो तथा लारेल नामक पेड़ के पत्तों के आधार के प्वांइट, हड्डी के तीराग्र हारपून, तीर सीधे करने का उपकरण, डार्ट इत्यादि हैं।

भारत में यद्यपि इस संस्कृति के उपकरण यदा कदा मिलते रहे हैं जैसे कि राबर्ट ब्रूस फुटे को कर्नूल जिले के बिल्लासुरगम नामक स्थल से उत्तर पुरापाषाण कालीन उपकरण, जो कि पश्चिमी युरोप के मैगडलेनियन प्रकार के मिले। इसी प्रकार भारत के दक्षिणी पूर्वी क्षेत्र में भी यह उपकरण मिले । नेवासा से भी ब्लेड तथा ब्यूरीन प्राप्त हुए। परन्तु 1970 के दशक तक भारत में इस संस्कृति की अलग पहचान नहीं थी। परन्तु आन्ध्र प्रदेश में चित्तूर तथा कर्नूल नामक स्थलों से हमें इस संस्कृति के अलग स्वरूप के पुरातात्विक, स्तरविस्थापिक प्रमाण मिलने शुरू हुए। हाल में तो बहुत से स्थानों से इस संस्कृति के प्रमाण प्राप्त हुए।

विस्तार

आन्ध्र प्रदेश में चित्तूर जिलों से इस संस्कृति के ब्लेड तथा ब्यूरिन प्राप्त हुए है। बिस्लासुरगम गुफा से तथा रेनिगुन्ता के अतिरिक्त मल्लागुध्डलु तथा प्रकाशन जिले की येशगोण्डा पल्लम, नागार्जुनकोण्डा भी महत्वपूर्ण स्थल है। परन्तु सबसे महत्वपूर्ण है मुच्चन्त चिन्तामणि गवि जहां से 90% से अधिक उपकरण हड्डियों पर बने है।

कर्नाटक में सल्वादगी तथा मेरलमवी क्षेत्र (शोरापुर दोआब) महत्वपूर्ण है। यहां एक फैक्ट्री उस काल के उपकरण बनाने की मिली। बिहार में सिंहभूम से प्राप्त हुए है, उत्तरप्रदेश में मिर्जापुर जिले के लेखाहिया तथा राजपूत नामक स्थलों से उत्तरपुरापाषाण कालीन उपकरण मिले है परन्तु ये विशुद्ध उत्तर पाषाण कालीन पश्चिमी युरोप एवं पश्चिमी एशिया प्रकार के नहीं है। बेलन घाटी ने स्तरविन्यास संदर्भ मे ये उपकरण प्राप्त हुए है। मध्यप्रदेश में सर्वप्रथम सोन घाटी में सिधि तथा शाहडोल जिलों में उत्तरपाषाणीय उपकरण प्राप्त हुए। इसके अतिरिक्त रायसीन जिले की भीमबेटका गुफा तथा चट्टान आश्रय से औरगनेश्यिन प्रकार थे उत्तर पाषाणीय उपकरण प्राप्त हुए है।

महाराष्ट्र बोरिवली तथा कान्डीवली से टाड नामक विपण्णन ने ब्लेड तथा ब्यूरिन प्रकार के उपकरण खोजे थे। इसके अतिरिक्त नेवासा तथा धूलिया जिले के भदने स्थल से इस काल के उपकरण प्राप्त हुए। इस राज्य में सबसे महत्वपूर्ण है पटने का स्थल जहां उत्खनन में इस काल के उपकरण तथा अन्य वस्तुएं प्राप्त हुई है। जलगांव जिले के चालिस गांव तालुक क स्थित इस स्थल से प्रथम दो कालों में जैस्पर पर बने उपकरण प्राप्त हुए तथा अन्तिम दो चालसीडोनी का प्रयोग किया गया प्रथम काल में उत्तरपाषाण कालीन उपकरणों के साथ कुछ फलक उपकरण भी मिले जबकि दूसरा काल इस संस्कृति का सर्वप्रथम काल है। तीसरे काल में उपकरण छोटे बनने लगे तथा शर्तुमुर्ग के अंडे के खोल का डिस्क प्रकार का मनका भी प्राप्त हुआ। जो कि भारत का सबसे प्राचीन अलंकर्ण है। चौथा काल इस संस्कृति का अन्तिम काल है। जिसमें मध्य पाषाण कालीन लघु उपकरण मिलने शुरू हो गए। गुजरात में मध्य गुजरात के पावगढ़ क्षेत्र में इस काल के प्रमाण विसादि से प्राप्त हुए हैं जिन्हें 40000 से 12000 वर्ष पूर्व माना जा सकता है

तिथि

पश्चिमी यूरोप तथा पश्चिमी एशिया के स्थलों से प्राप्त रेडियो कार्बन तिथिक्रम के अनुसार इस संस्कृति को 30000.10000 वर्ष पूर्व माना जाता है। भारत में भी कई स्थलों से वैज्ञानिक तिथियां प्राप्त हुई है। पाकिस्तान की संघाओं गुफा से इस काल की तिथि 41825 से 20660 वर्ष पूर्व आई है राजस्थान की डिडवाना से 26210 वर्ष पूर्व । मध्य प्रदेश के स्थलों से प्राप्त शुतरवमुर्ग के अंडों की तिथि 36550 से 30680 वर्ष पूर्व महाराष्ट्र से 27000-25000 वर्ष पूर्व तथा बेलन घाटी से 25000 से 9000 वर्ष पूर्व तिथि आई है। इस प्रकार हमें इस संस्कृति को 35000-10000 वर्ष पूर्व के बीच राव सकत है।

मानव का जीवन तथा निवास

इस काल में मानव गुफाओं तथा चट्टान आश्रयों में रहा करता था। नदी के किनारों तथा खुले क्षेत्रों में रहने के प्रमाण भी है। उस समय का मानव बर्बर था और जंगली जानवरों को मारकर अपना पेट भरता था। आवास या जीविका का कोई ठोस आधार नहीं था। मानव-जीवन बड़ा संघर्षमय था। हिंसक जानवरों के कारण उसका जीवन सर्वदा खतरे में रहता था। आदिम मानव नंगा ही रहता था। बिजली की चमक या बादलों के गर्जन या वर्शा के बौछारों से बचने के लिए गुफा में वह शरण लेता था। कुछ समय के बाद में मनुष्य में लज्जा की भावना आई और वह तन ढकने लगा। बाद में वह जानवरों की खाल का प्रयोग होने लगा। उसने आवश्यकतानुसार अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों व हथियारों का अविष्कार किया।

आदि मानव के प्रारंभिक अस्त्र-शस् , हाथ-पाँव, नाखून, दाँत आदि थे। लेकिन जंगली तथा हिंसक जानवरों के भय से उसने लकड़ी तथा बाद में पत्थरों के हथियार बनाए। पत्थर के टुकड़ों को घिस-पीटकर नुकीले और सीधे-चुभने वाले (मानव प्रकार तथा 16 प्राचीन काल से 1526 ई० वाले,) अस्त्र-शस्त्र बनाए गए। पत्थर के औजारा हथौड़ा, कुल्हाड़ी, मुसल आदि बनाने लगे। आगे चलकर हड्डियों, और सींग के औजार भी बनाए जाने लगे। रस्सी बांटने और टोकरियों के काम भी होने लगे।

इस युग में कोई सामाजिक और आर्थिक संगठन नहीं था। व्यक्तिगत सम्पत्ति का विकास अभी नहीं हुआ था। जंगल और जानवरों पर किसी व्यक्ति या परिवार-विशेष का अधिकार नहीं था। सामाजिक संबंध-शिथिल था। पुरूष और नारी के बीच मुक्त यौन संबंध था। पति-पत्नी की चेतना अभी जाग्रत नहीं हुई थी। नृ-विज्ञान-वेत्तओं का कथन है कि उस समय स्त्रियों का महत्व बहुत अधिक था। इस समय के समाज को नारी प्रधान समाज या मातृसत्तात्मक समाज भी कहते है।

कला

इस काल में युरोप तथा पश्चिमी एशिया में मानव ने कला का विकास कर लिया था। भारत में भी मानव ने कलाकृतियां जैसे पेंटिग, कुरेद कर बनाए चित्र बनाना प्रारम्भ किया था या नही इसे बारे में विद्वानों के मत एक नहीं है। डा. वाकंकर भीमटेका के III.A-28 से प्राप्त हरे चित्रों को उत्तर पाषाण कालीन मानते है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र के पटने से शतुरमुर्ग के अंडे के खोल पर कुरेद बनाई लाइने तथा बेलन घाटी में लोहन्डा नाला से प्राप्त एक हड्डी की प्रतिमा, जिसे कतिपय विद्वान मातृदेवी मानते है, इस काल की कला के प्रमाण है।

उद्भव

भारत में इस काल के मानव के कोई अवशेष न मिलने के कारण इस संस्कृति के उद्भव एवं निर्माताओं के बारे में कुछ ठीक नहीं कहा जा सकता। कुछ विद्वान इस संस्कृति का उद्भव पश्चिमी एशिया के मांऊट अफ्रीका से मानते है जबकि कुछ विद्वान रेनीगुन्ता से प्राप्त साक्ष्यो के आधार पर इस संस्कृति का उद्भव स्थानीय ही मानते हैं।

मध्यपाषाण काल (Mesolithic Period)

मध्य पाषाण कालीन संस्कृति शिकार एवं भोजन संग्रहण का काल

लगभग 10000 वर्ष पूर्व अभिनूतन काल का अंत हो गया और जलवायु भी आजकल के समान हो गई। हिमयुग के दौरान जमी बर्फ की परत पिघलने लगी तथा अधिकतर निचले इलाकों में पानी भर गया। पानी के जमाव के साथ जमी मिट्टी की तहों की गिनती से स्कन्डेनेनिया में इस काल की शुरूआत 7900 ई. पू. रखी जा सकती है जबकि रेडियों कार्बन तिथि से हिम युग काल का अंत 8300 ई. पू. निर्धारित किया जा सकता है। बर्फ पिघलने से समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी हुई जिस कार उतरी समुद्र से अधिक पानी फैल गया। जलवायु में हुए परिवर्तन का असर वनस्पति तथा पशु-पक्षियों पर भी हुआ। यूरोप में चौड़ी पत्ती वाले पेड़-पौधे होने लगे और साथ ही रेडियर, घोड़े, बिसन आदि के स्थान पर हिरण, जंगली सूअर, बारहसींगा इत्यादि पशु अधिक पाए जाने लगे। पश्चिमी एशिया के क्षेत्रों में इस प्रकार की वनस्पति के पौधे पाए गए जो आजकल के गेहूं और जौ के जंगली प्रकार थे। इस प्रकार की वनस्पति को प्रयोग में लाने तथा शिकार में जानवरों को मारने के लिए इस काल के मानव को अपने औजारों में भी परिवर्तन करना पड़ा।

निकट सीमा के भीतर छोटे-छोटे पशुओं के आखेट के लिए किसी विशेष सामूहिक गतिविधि की जरूरत नहीं थी, और अब तक आते-आते मनुष्य की जन-संख्या भी बढ़ चुकी थी, परिणामतः छोटी-छोटी टोलियाँ बन गई थीं। बढ़ी हुई जनसंख्या और भारी जलवायु परिवर्तनों के प्राकृतिक दबाव के कारण इन टोलियों को अधिक गतिशील रहना पड़ता था। जलवायु में इन परिवर्तनों की श्रृंखला के साथ जो सबसे मौलिक परिवर्तन आया, वह था प्रक्षेपास्त्र-तकनीक के विकास का प्रयास। यह निश्चय ही एक महान् तकनीकी क्रांति थी। समायोजन की पहली आवश्यकता ऐसी उपकरण-तकनीक पर अधिकार करने की थी जहाँ कार्यकुशलता के हित में भार का त्याग कर दिया जाए।

तकनीक-

इस काल में अत्यंत सूक्ष्म पाषाण औजारों का निर्माण किया गया। ये औजार इतने सूक्ष्म थे कि इन्हें अकेले प्रयोग में नहीं लाया जा सकता था बल्कि किसी अन्य चीज के साथ जोड़कर ही इन औजारों को प्रयोग किया जा सकता था। इन उपकरणों में प्वांइट, तीर का अग्र भाग, सूक्ष्म ब्यूरिन, खुरचनियां, हस्त कुल्हाडियां, त्रिकोण, ट्रॉपे, चन्द्राकार और अर्द्धचन्द्रकार इत्यादि प्रमुख है। ये उपकरण दो भागों में बांटे जा सकते हैं। दोनों प्रकार के औजारों को प्रकार के आधार पर बांटा गया है।

अत्यधिक सूक्ष्म औजारों के छोटे-छोटे फलक पत्थर से निकालने के लिए प्रैसर तकनीक (Pressure Technique) का प्रयोग किया जाता था। इस तकनीक में एक विशेष आकार का फलक किसी नुकीले उपकरण को पत्थर पर रख उस पर ऊपर से दबाव डालकर फलक अलग किया जाता था। इस उपकरणों को किसी लकड़ी के आगे लगाकर तीराग्र (Points) का तीर बनाते थे। कुछ प्वांइट अथवा ब्लेडस को किसी जानवर की हड्डी या लकड़ी में फिट करके दरांती (Sickle) बनायी जा सकती थी। इनके उपकरणों के उपयोग से ही पता चलता है कि इस काल में मानव में जंगली रूप से उगे पौधों को काट कर उनके दाने अलग करना सीख लिया था। कई स्थानों से तो सिल-बट्टे भी प्राप्त हुए है El-wad जैसे गुफा से, जो इसी प्रमाण की द्योतक है।

भारी तथा बड़े-बड़े औजारों के स्थान पर सूक्ष्म औजार बनाए जाने लगे जिन्हें लकड़ी के हत्थों में फंसाकर विभिन्न प्रकार के औजार बनाना प्रारम्भ कर दिया इसी समय तीर-कमान का विकास जो कि 15वीं शताब्दी या 16वीं शताब्दी तक मनुष्य के पास रहा। तीर की नोंक बनाने के लिए जो प्रस्तर उपकरण बनाए गए थे वे अन्य बहुत से घरेलू कार्यों के लिए भी उपयोगी सिद्ध हुए।

इस तकनीकतंत्र के अंतर्गत विशेष रूप से तैयार किए गए बेलनाकार क्रोडों पर दबाव डालकर पहले लघु शल्क उतारे जाते हैं और फिर (करीब 5 सेमी लंबे और 12 मिमी चौड़े) फलक बनाए जाते हैं। इस विशिष्ट तकनीक को नाली अलंकरण तकनीक (fluting technique) कहा जाता है। इस तकनीक से तैयार किए गए फलक उत्तर पुरापाषाणकालीन फलकों से भिन्न होते हैं, क्योंकि एक तो इनका आकार भिन्न होता है, दूसरे इनकी अनुप्रस्थ काट महीन होती है। नाली-अलंकरण तकनीक से बनाए गए फलक बाद में एक किनारे से इस तरह घिस दिए जाते हैं कि खुंडा किनारा हत्थे के अंदर घुसाया जा सके। एक श्रृंखला में ऐसे अनेक फलक लगा देने से निरंतर तीक्ष्ण धार बन सकती है।

यह धार पुरापाषाणकालीन तीक्ष्ण धार की तुलना में निम्नलिखित तकनीकी गुणों से संपन्न थी-

(1) इसमें कच्चा माल कम लगता है।

(2) यदि फलक संचित करके रखे जा सकें तो थोड़े ही समय में उपकरण तैयार किए जा सकते हैं।

(3) हत्था लगा देने से उत्तोलक प्रणाली के कारण कार्यकुशलता बहुत बढ़ाई जा सकती है।

(4) एक शृंखला में एक साथ लगाए गए फलकों में एक के टूट जाने पर उसकी जगह तुरंत दूसरा लगा सकते हैं जिससे संपूर्ण उपकरण दुबारा काम करने लगता है। इस तरह अतिरिक्त पुर्जे' की संकल्पना से हानि कम हो जाती है और साथ ही कार्यकुशलता बढ़ जाती है।

मध्यपाषाणकालीन उपकरण-

(1) इकधार फलक (Backed blade): ये ऐसे फलक हैं जिनमें एक किनारे की ऊर्ध्वाधर छेदन के द्वारा खुंडा कर देते हैं। यह पृष्ठ कार्य इस ढंग से कर सकते हैं कि फलक का आयातकार रूप ज्यों-का-त्यों बना रहे या पृष्ठित किनारा तीक्ष्ण धार तक बढ़ा दिया जाए।

(2) वेधनीः कोई भी ऐसा फलक जिसे तिकोना तोड़ा गया हो और फिर एक या दोनों ढलवाँ किनारों के साथ-साथ नुकीले सिरे की ओर घिसकर पैना किया गया हो, वेधनी कहलाता है।

(3) अर्धचंद्राकार (Lunate): जब कोई आयताकार फलक लेकर उसके एक तीक्ष्ण किनारे को अर्धवृत्ताकार रूप में खुंडा कर देते हैं ताकि वह दोनों सिरों पर तीक्ष्ण किनारे से मिला रहे, तो उसे अर्धचन्द्राकार (लूनेट) कहते हैं।

(4) समलंब (Trapeze): यह ऐसा फलक है जिसे समलंब रूप में तोड़ा जाता है और फिर एक से अधिक किनारों पर खुंडा कर दिया जाता है।

विस्तार-

भारत में कुछ ही क्षेत्रो को छोड़ सभी क्षेत्रों में इस संस्कृति के प्रमाण मिलते हैं। केवल आसाम, पंजाब, केरल तथा उत्तर प्रदेश की गंगा-यमुना घाटियों से अभी तक इसके प्रमाण नहीं मिले। पश्चिमी बंगाल में यद्यपि कई स्थलों से हमें इस संस्कृति के प्रमाण मिलते हैं। परन्तु दामोदर नदी पर स्थित बीरभानपुर महत्वपूर्ण है जहां से ज्यामिति उपकरणों के रहित उपकरण तथा मद्-भांड रहित संस्कृति के प्रमाण मिले है। जिन्हें 4000 ई. पू. रखा जा सकता है। बिहार से ज्यामिति तथा गैर ज्यामिति दोनों प्रकार प्रकार के उपकरण जिनके नवचन्द्राकार ब्लेड, समलम्ब औजार, समलम्बनुमा, त्रिभुज, नुकीले औजार, बोरर, ब्यूरिन, खुरचनी इत्यादि प्राप्त हुए है। झारखंड के पलमाऊ सन्थाल परगना इत्यादि से इस प्रकार के उपकरण प्राप्त हुई है।

उत्तरप्रदेश में सबसे महत्वपूर्ण लघुपाषाण का स्थल सराए नाहर राय है जो प्रतापगढ़ जिले में है। यहां से मदुभांड से पूर्व की संस्कृति के उपकरण, मानव के खाद्यान्न रहने के फर्स चुल्हे इत्यादि के प्रमाण भी प्राप्त हुए है। सराय नाहर राय के लघु पाषाण उपकरण अज्यामितीय थे। ये अपने मृतकों का पश्चिमपूर्व की दिशा में दबाते थे। हिरण, बारहसिंगा, गैंडा, मछली, कछुआ इत्यादि का मांस खाते थे। भारत में इस संस्कृति की सबसे पुरानी तिथि 8395 ई. पू. यही से प्राप्त हुए है। इसके अतिरिक्त लेखाहिया, जिला मिर्जापुर उत्तर प्रदेश से उत्खन्न से प्रथम चरण में अज्यामितीय उपकरण बिना मदुभांडो के प्राप्त हुए। द्वितीय चरण में बिना मद्भांडो के ज्यामितीय उपकरण, ततीय तथा चौथे चरण में ज्यामितीय उपकरणों के साथ मदभांडो के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। संग्रौली घाटी तथा मिर्जापुर में बरकचा तथ रौन्य से भी इसे अज्यामितीय उपकरण प्राप्त हुए है।

उडीसा में भी कुछ जिलों में अज्यामितीय उपकरण बिना मदभांड के प्रमाण के प्राप्त हुए है। आन्ध्र में नागार्जनकोंडा, गिड्डलूर तथर संगनकल्लु इत्यादि से इस काल के उपकरण प्राप्त हुए है। कर्नाटक में बहुत से स्थलो से इस संस्कृति के प्रमाण प्राप्त हुए है। जलाहली से लघुपाषाण उपकरण बिना मदभांड के प्रमाण के दोनों ज्यामितीय तथा अज्यामितीय प्रकार के है। ब्रह्तगिरी भी एक अन्य महत्वपूर्ण स्थल है। तमिलनाडु में तिन्नीवैली जिले में तेरी स्थलों से बहुत से स्थलों से लघुपाषाण उपकरण मिले हैं। इनमें मैगनानापुरम सबसे प्राचीन है तथा अज्यामितीय उपकरण यहां से प्राप्त हुए जबकि कुलात्तूर सबसे बाद का स्थल है। यहां मानव उस समय रहता था जग समुद्र का स्तर आज से 20-30 फुट ऊंचा था। जहां उस समय रेत के टीले जमा हो गए जिन पर उस समय मानव रहता था। बाद में मौसम के बदलाव के कारण इन टीलों पर लाल काई जम गई जिस कारण से एक स्थान पर जम गए।

महाराष्ट्र में पूना के समीप दीघी, इलोरा करला गुफाओं के आस पास इस काल के उपकरण प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त गोदावरी, प्रवर नदियों के किनारों एवं कोंकण क्षेत्र से भी इसी तरह के प्रमाण मिले हैं। गुजरात में सबसे महत्वपूर्ण स्थल लंघनाज है जहां उपरी सतहों में लघुपाषाण उपकरण मद्भांडो सहित प्राप्त हुए तथा निचली सतहों में बिना मदभांडों के उपकरणों के साथ पशु तथा मानव अवशेष भी प्राप्त हुए। इस काल का मानव फिलीस्तीन के नाटूफियनों जैसा था। यहां की संस्कृति 2500 ई.पू. के आस पास की है।

मध्य प्रदेश में चम्बल घाटी तथा नर्मदा घाटी में बहुम से स्थलों पर इस संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इनमें आदमगढ़, मैहर इत्यादि तो प्रमुख हैं परन्तु सबसे महत्वपूर्ण है भोपाल के समीप भीमबेटका जहां बहुत सी गुफाएं तथा शिलाश्रय मिले हैं। जिनके उत्खनन से मध्य पाषाण कालीन उपकरण प्राप्त हुए है जो कि अज्यामितीय तथा मदभांड रहित से बाद में ज्यामितिय तथा मद्भांडो सहित प्राप्त होते हैं। इन्ही स्थलों पर बहुत सी पेंटिग तथा कुरेद कर बनी चित्रकारी भी इसी काल की प्राप्त हुई हैं। रंगों में सफेद, काला तथा पीला, हरा, लाल, भूरा गहरा बैंगनी रंग का प्रयोग है। गुफाओं की दिवारों तथा छत्रों, दोना स्थलों पर चित्रकारी प्राप्त होती है। विभिन्न खनिजों को मिला रंग बनाते थे। इन चित्रों में उस समय की सांस्कृतिक का पता चलता है। मुख्यतः पशु उनका विषय थे साथ ही मनुष्य भी दर्शाए गए है। शिकार के दश्य विभिन्न पशुपक्षी, तीर कमान का प्रयोग, संगीत नत्य, सीढ़ी पर चढ़ शहद के छत्ते से शहद निकालती स्त्री इत्यादि महत्वपूर्ण विषय है। राजस्थान में बागोर एक महत्वपूर्ण स्थल है यहां उत्खनन से इस संस्कृति के प्रमाण प्राप्त हुए है। इसके अतिरिक्त निम्बाहेडा मन्दाजिया भी महत्वपूर्ण है ये दोनों स्थल बागोर से पहले के हैं।

मानव जीवन-

जलवायु बदलाव से इस काल के जीव जन्तुओं तथा वनस्पति पर भी पड़ा। इस का प्रभाव मानव के उपकरण बनाने पर भी पड़ा। अब वह लघुपाषाण उपकरण बनाने लगा जिन्हें वह तीर, भाले, दराती, चाकू इत्यादि में प्रयोग कर सकता था। शिकार तो प्रमुख कार्य इस समय मानव का था ही परन्तु अब शिकार में उसे अधिक भेड़ बकरिया तथा पशुओं का सहारा था। जंगली जानवरों का शिकार भी वह किया करता था। इसके अतिरिक्त फल, कन्दमूल के साथ-२ जंगली दानों को इक्ट्ठा कर भोजन के रूप में प्रयोग करता था। इसके लिए वह छोटे-२ प्वाइंटों का लकडी या हड्डी में जड़ कर दराती बना लेता था तथा सिलबट्टों से वह आटा भी बना लेता था। मदभांडों का प्रचलन अनाज रखने इत्यादि के लिए होने लगा था। जंगलों से शहद इक्ट्ठा करने के प्रमाण भी इस समय के हैं। सामुहिक रूप से शिकार करने के साथ मानव इस समय नत्य इत्यादि से अपना मनोरंजन भी करता था। साथ ही अपने रहने की गुफाओं चट्टान आश्रयों में चित्रकारी इत्यादि भी करने लगा था। इपने मतक का वह संस्कार जमीन में दबा कर करता था तथा साथ कुछ उपकरण भी रख दिया करता था।

चूंकि इस काल में मौसम आजकल जैसा हो गया था इसका असर उस समय के मानव के रहने के स्थल पर भी पड़ा। अब वह ने केवल गुफा, चट्टानआश्रयों तथा नदियों के किनारों पर रहता था परन्तु समुद्र के किनारे, खुले मैदानों, पहाड़ों के ऊपर, रेतीला या पथरीले सभी प्रकार के स्थलों पर रह सकता था।

तिथि-

इस काल की बहुत से रेडियों कार्बन तिथियां हमें प्राप्त हुई है। जिनमें सबसे पहले की 8395 ई.पू. सराय नाहर राय से है। मध्य प्रदेश में आदमगढ़ से 5500 ई.पू., बागोर से 4480 ई.पू. उत्तर प्रदेश में लेखाहिया से 2410 ई.पू. तथा गुजरात में लंघनाज से 2040 ई.पू. है, इस प्रकार हम देखते हैं कि यह संस्कृति 8000-2000 ई. पूर्व के मध्य में पनपी।

उद्भव-

भारत में युरोप, अफ्रीका, एशिया के अन्य भागों की तरह यह संस्कृति पनपी। परन्तु यह पश्चिमी एशिया फिलीस्तीन, मध्य एशिया की संस्कृति से अधिक मिलती है जिससे प्रतीत होता है कि इस संस्कृति बनाने वाले लोग यहां से उत्तर पश्चिम होते हुए भारत में आए। दूसरी ओर कुछ विद्वान ऐसी भी है जो यह मानते है कि यह संस्कृति यही पर ब्लेड तथा ब्यूरिन संस्कृति से बनी। इसके लिए कुर्नल तथा संगनकल्लु स्थलों का प्रमाण देते हैं। जहां मध्यपुरापाषाण संस्कृति, उत्तर पुरापाषाण से मध्य पुरापाषाण में परिवर्तित हुई।

संस्कृति और वितरण-

1970-74 के दौरान गंगा के मैदान में मध्यपाषाणकालीन संस्कृति की खोज से भारत के प्रागैतिहास में एक सर्वथा नवीन और महत्वपूर्ण अध्याय जुड़ गया है। इस खोज से पहले प्रागैतिहासकार नवपाषाणयुगीन तथा परवर्ती संस्कृतियों के सूक्ष्मपाषाणों से पृथक करने में काफी कठिनाई आती थी। यद्यपि मध्यभारत में अठारहवीं शताब्दी तक के कबायली सूक्ष्मपाषाण तैयार करते रहे हैं। परन्तु वास्तविक मध्यपाषाण संस्कृति कृषि प्रारम्भ होने से पहले की संस्कृति है। वास्तविक प्राचीन मध्यपाषाणकालीन संस्कृति में यद्यपि भारत में अनगिनत स्थल है परन्तु इनमें सबसे प्रमुख गंगा द्रोणी की प्रतिलब्धियों के अतिरिक्त, पश्चिमी बंगाल में वरियानपुर गुजरात में लंधनाज और तमिलनाडू में टेरी समूह, मध्यप्रदेश में आदमगढ़ तथा राजस्थान में बागोर। बागोर जहाँ शुद्ध मध्यपाषाणकाल की तिथि 5000 अद्यपूर्व में आसपास निर्धारित की जाति है जो 2800 B.C. तक चलती रही, स्थल से आवास निर्माण के अवशेष मिले हैं जहाँ फर्श बनाने के लिए पत्थर लाए गए थे और यहाँ घास-फूस के वातरोधी पर्दे भी बनाए गए होंगे। उद्योगों में बहुत ही छोटे औजारों का निर्माण होता था। इस प्रावस्था में नर कंकाल भी मिले हैं जिन्हें सुनियोजित ढंग से दफन किया गया था।

गंगा द्रोणी की मध्यपाषाणकालीन प्रतिलब्धियाँ मुख्यतः इसलिए आकर्षण का केन्द्र बनी चूंकि यहाँ अब तक ढाई दर्जन ऐसे स्थलों का वर्णन मिलता है जहाँ ढेर सारे नर कंकाल अवशेष दफन पाए गए हैं। प्रतापगढ़ जिले में सराय नाहर राय तथा महादहा दो महत्वपूर्ण स्थल है जिनकी तिथि ईसापूर्व 8,395 मानी जाती है। ये पहले स्थल है जहाँ स्तम्भगर्त पाए गए हैं जिनसे स्पष्ट है कि आवास के लिए झोंपड़ियाँ बनाई गई होंगी। सराय नाहर से मानवीय आक्रमण या युद्ध का भी महत्वपूर्ण प्रमाण प्राप्त हुआ है जैसा कि एक शवाधान में एक कंकाल की शिरा अस्थि में एक सूक्ष्मपाषाण जुड़ा हुआ है।

भारत की मध्यपाषाणकालीन संस्कृति के साथ गुफा चित्रकारी भी मिलती है। विन्द्ययाचल के शैलाश्रयों तथा गुफाओं में अनेक एसे प्रागैतिहासिक चित्र मिले हैं जिनमें आखेट, नृत्य और युद्ध के दृष्य है। इस प्रकार मध्य-पाषाणकाल के अंतिम भाग में पत्थरों के छोटे-छोटे हथियार बनने लगे। इन्हें लघु-अस्त्र कहते है। इसका उपयोग तीर के अग्रभाग के रूप में होने लगा। बिना पहिए की गाडी जैसी चीज भी बनने लगी।

प्राचीन काल से 1526 ई० अनाज का उपयोग शुरू हो गया और संभवतः इसी युग में कुत्ता पालतु जानवर बना लिया गया। जो आखेट (शिकार) में बड़ा सहायक सिद्ध हुआ।

प्रागैतिहासिक काल में मानव जातियां-

आस्ट्रेलोपिथिकस (Australopithecus)- इस जाति के मानव का निवास स्थान मध्य अफ्रीका था। वह सीधा चलने की कला जान गया था और होमिनिड मानव से मिलता जुलता था।

जिंजानथ्रोपस (Zinjanthropus)- यह आस्ट्रेलोपिथिकस की एक उपजाति था। यह स्तनपायी पशुओं की तरह नंगा रहता था। इसका मुख्य काम औजारों का निर्माण करना था।

पिथिकाथ्रोपस इरेक्टस (Pithecanthropus-Erectus)- 1891 ई० में जावा द्वीप में खोपड़ी के एक हिस्से, कुछ दाँत और बायें जांघ की हड्डी मिली है। मानव शास्त्रवेत्ताओं ने इसे सर्वाधिक प्राचीन मानव बतलाया है। ये खड़े होकर चल सकते थे। इसलिए इन्हें सीधा खड़ा वानर-मानव (Pithecanthropus-Erectus) कहा गया है।

सिनांथ्रोपस (Sinanthropus)- पीकिंग के निकट एक गुफा में कुछ जीवाश्म (fossils) मिले हैं जिन्हें सिनांथ्रोपन कहा जाता है। यह जावा मनुश्य से कुछ अधिक विकसित था और संभवतः आग के प्रयोग से परिचित था।

निअंडरथल (Neanderthal)- जर्मनी में वानर-मानव के एक अन्य अवशेष का पता चला है, जिसे निअंडरथल मानव कहा जाता है। यह जावा मानव से अधिक उन्नत था। यह मानव जाति पश्चिम यूरोप, पश्चिम एशिया, मध्य एशिया तथा अफ्रीका महाद्वीप में फैली हुई थी। इसकी गर्दन छोटी थी चेहरा चौड़ा था, माथा चौड़ा और ढलवा था, यह गर्दन घुमाकर सीधा चलता था तथा मस्तिष्क क्षमता आधुनिक मानव के समान थी।

क्रो-मेनन (Cro-Magnon)- इनके अस्थि-पंजर फ्रांस से प्राप्त हुए हैं। ये निअंडरथल से अधिक उन्नत थे। वे हार्पून या भालों से शिकार करते थे और मछली पकडते थे। यूरोप की कुछ गुफाओं में उनके बनाए चित्र बड़े कलात्मक है।

नवपाषाण काल (Neolithic Period)

इस काल 10,000 ई० पू० से 3,000 ई० पूर्व माना जाता है। नवपाषाण में बड़े-बड़े परिवर्तन जिनके फलस्वरूप मानव सभ्यता की नींव पड़ी। नव-पाषाण युग, पूर्व-पाषाण युग से विकसित काल था। मानव-जीवन के विकास में इस युग को अत्यन्त ही क्रांतिकारी माना जाता है। इस युग में इतने क्रांतिकारी परिवर्तन हुए कि इस युग के विकास के क्रम को नव पाषाण युगीन क्रांति" कहा जाता है। नव पाषाण युग में ही सर्वप्रथम मानव-सभ्यता की नींव पड़ी। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में क्रांतिकारी विकास हुआ।

नवपाषाण काल आप अगली पोस्ट में पढेंगें- नवपाषाण काल

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