सिन्धु घाटी सभ्यता (Indus Valley Civilization) की खोज, उत्पत्ति तथा विकास के बारे में आप पिछली पोस्ट में पढ़ चुके है। आज सिन्धु घाटी सभ्यता (Indus Valley Civilization) में राजनीतिक जीवन (political life), सामाजिक जीवन (social life), धार्मिक जीवन (religious life) तथा आर्थिक जीवन (economic life) के बारे में विस्तार से जानेंगें तथा सिन्धु सभ्यता के पतन के बारे में भी जानेंगे।
सिन्धु सभ्यता में राजनीतिक जीवन
सिन्धु सभ्यता के भवनों, सार्वजनिक इमारतों, स्नानागारों, विस्तृत सड़कों, गलियों आदि का नियोजन एवं निर्माण तथा व्यवस्था को देखकर कोई भी कल्पना कर सकता है कि यहां नागरिक प्रशासन जैसी कोई प्रणाली रही होगी और दीर्घकाल तक सिन्धु सभ्यता में कोई परिवर्तन न आना इस तथ्य को इंगित करता है कि यहां का प्रशासन विकसित, सुसंगठित तथा प्रभावकारी रहा होगा। हमें लिखित सामग्री मिली है लेकिन पुराविद अभी तक उसे पढ़ नहीं पाये हैं अतः हम सिन्धु घाटी के प्रशासनिक स्वरूप को जानने के लिए केवल मात्र भौतिक अवशेषों पर आश्रित हैं।
इन अप्रत्यक्ष प्रमाणों के अनुशीलन के आधार पर कह सकते हैं कि यहां के नागरिकों का जीवन सुरक्षित, शांतिपूर्ण और व्यवस्थित था। इन्हीं अवशेषों के आधार पर विभिन्न विद्वानों ने सिन्धु सभ्यता के राजनीतिक जीवन से संबंधित विविध विचार व्यक्त किये हैं-
पश्चिमी विद्वान हंटर
तथा मैके के अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि सिन्धु संस्कृति का
प्रशासन जनतांत्रिक प्रणाली के अनुसार चलता था जबकि रूस के पुराविद स्टूवे
का मानना है कि सिन्धु सभ्यता का प्रशासन गुलामों के आधार पर चलता था।
स्टूअर्ट पिगट नामक
पुराविद का मानना है कि हडप्पा साम्राज्य पर दो राजधानियों द्वारा शासन चलाया जाता
था, जो एक-दूसरे से
350 मील की दूरी पर स्थित थीं किन्तु ये दोनों नगर नदियों द्वारा जुड़े हुए थे।
व्हीलर नामक पुराविद के अनुसार, हड़प्पा के के स्वामी
अपने नगरों का शासन लगभग उसी प्रकार करते थे जैसे सुमेर तथा अक्काद के पुरोहित
राजा, सुमेर में नगर का अनुशासन तथा धन मुख्य देवता के हाथों में
रहता था। यह देवता पुरोहित राजा कहलाता था तथा यहां मंदिर सार्वजनिक जीवन का
केन्द्र था। इसका प्रबन्ध अलौकिक शक्तियों द्वारा होता था। इस प्रकार के राज्य को
वास्तव में नौकरशाही राज्य कहा जा सकता है जिससे तत्कालीन संगठन, अतिरिक्त धन का वितरण तथा
रक्षा आदि के कार्य संपन्न होते थे। इस प्रकार के राज्य में साधारण व्यक्ति को
अधिकार प्राप्त नहीं थे।
इस प्रकार स्पष्ट
है कि विभिन्न पुराविदों ने भिन्न-भिन्न शासन प्रणाली का होना
सिन्धु सभ्यता में बताया है अतः जब तक सिन्धु लिपि को पढ़ने में सफलता नहीं मिलती
तब तक हम किसी ठोस निष्कर्ष में नहीं पहुंच सकते हैं।
सिन्धु सभ्यता में सामाजिक जीवन
सिंधु सभ्यता के प्राप्त स्रोतों से
यहां आभास होता है कि उस समय समाज वर्गों में विभाजित नहीं था। किंतु
अलग-अलग परिवारों में रहने की व्यवस्था थी। घरों का निर्माण अत्यंत कुशलता पूर्वक
किया जाता था। इतिहासकारों का कहना है कि वर्ग अथवा वर्ण में विभाजित न होने पर भी
समाज व्यवसाय के आधार पर चार भागों में विभाजित हो गया था-
1. विद्वान-
इसमें ज्योतिषी वैद्य तथा पुरोहित आते थे।
2. योद्धा-
सुरक्षा एवं प्रशासनिक कार्यों में अधिकारी इस वर्ग में आते थे।
3. व्यवसायी-
उद्योगपति एवं व्यापारी इसमें आते थे।
4. श्रमजीवी-
किसान, मछुआरे, मजदूरी करने वाले आदि।
भवन-
हङप्पा का स्थल मोहनजोदङो
एक योजनानुसार निर्मित नगर प्रतीत होता है। मैके का कथन है कि सङकों का
विन्यास कुछ इस प्रकार था कि हवा स्वयं ही सङकों को साफ करती रहे। वे सङकें समकोण
पर एक दूसरे को काटती थी। इनके घर पक्की ईंटों से बनाये जाते थे। घरों में सादगी
झलकती है, खिङकियो का प्रयोग नहीं किया गया है। लोगों में पर्दा प्रथा
नहीं थी। अनाज रखने के लिए फर्श के अंदर बङे–बङे मर्तबान थे।
उनमें गेहूँ आदि खाने की चीजें रखी जाती थी। गलीयों से गंदे पानी के निकास के लिए
ईंटों की नालियाँ थी। प्रत्येक घर में एक या उससे अधिक स्नानागार होते
थे। इन सभी बातों से यही निष्कर्ष निकाला
जा सकता है कि सैंधव लोग अपने घरों को साफ तथा व्यवस्थित रखते थे।
भोजन-
सिंधु सभ्यता के लोगों का
मुख्य आहार गेहूं और चावल, मटर, दूध तथा दूध से बने खाद्य पदार्थ, सब्जियां फलों के
अतिरिक्त गाय, भेड़, मछली, कछुए, मुर्गे आदि जंतुओं
के मांस का भी सेवन करते थे, वे खजूर भी खाते थे लेकिन
उनका मुख्य आहार गेहूं ही था।
वस्त्र एवं आभूषण-
सूती तथा ऊनी वस्त्रों
का प्रयोग होता था। सादी वेशभूषा थीं। पुरुष लम्बी शाल या दुपट्टा दाएँ कंधों के
ऊपर फेंककर औढ़ते थे। स्त्रियाँ सिर पर एक प्रकार का वस्त्र पहनती थीं, जो सिर के पीछे की
ओर पंखे की भाँति उठा रहता था। पुरुष छोटी दाढ़ियाँ और मूंछ रखते थे। बालों को
काटकर छोटा कर दिया जाता था या मोड़कर उनका जूडा बाँधा जाता था। स्त्रियाँ अपनी
चोटी को कई वृत्तों में लपेटती थीं और कभी-कभी वे बालों का जूड़ा बनाकर पीछे फीते
से बांध लेती थीं।
धनवान स्त्री-पुरुष
केशों को बाँधने के लिए सुनहरे फीतों का उपयोग करते थे। स्त्री-पुरुष आभूषणों का
प्रयोग रुचिपूर्वक करते थे। हार, अंगूठियाँ, कड़े, कुंडल और बालियाँ
स्त्री–पुरुष दोनों ही पहनते थे। स्त्रियों के आभूषणों में कई
लड़ों वाली करधनी, कान के काँटे, कर्णफूल तथा पग-पायल मुख्य
थे। कान के लटकनों तथा नाक के आभूषणों का अभाव था। आभूषण सोने-चाँदी, हाथीदाँत तथा रत्नों
के होते थे। निर्धन और साधारण लोग अस्थियाँ, घोंघों, सीपों, ताँबे, काँसे तथा पक्की
मिट्टी के आभूषण पहनते थे।
सौंदर्य प्रसाधन
सामग्री-
ऐसा प्रतीत होता
है कि आधुनिक युग के समान भी सिंधु सभ्यता में भी स्त्री व पुरुष सौंदर्य
प्रसाधन को अत्यंत पसंद करते थे। इस बात की पुष्टि के लिए खुदाई में प्राप्त
सामग्री से होती है। स्त्रियां दर्पण, कंघी, कागज, सुरमा, सिंदूर व बालों के चित्र
तथा पाउडर का प्रयोग करती थी। दर्पण उस समय कांसे के तथा कंघी हाथी के दांत के
बनाए जाते थे। दर्पण अंडाकार होते थे, कांसे के बने हुए रेजर भी पुरुषों द्वारा प्रयोग में लाए
जाते थे।
स्त्रियों की दशा-
सिंधु सभ्यता में स्त्रियों का सम्मान
होता था एवं परिवार में उन्हें महत्वपूर्ण स्थान मिलता था स्त्रियां पुरुषों के
साथ विभिन्न सामाजिक एवं धार्मिक कृत्यों से में भाग लेती थी सिंधु
सभ्यता में परिवार मातृसत्तात्मक होता था खुदाई में प्राप्त मानव आकृतियों
के चित्रों में अधिकांश स्त्रियों के चित्र हैं स्त्रियों का मुख्य कार्य संतान का
लालन पालन एवं गृह कार्य को संपन्न करना था संभवत उस समय पर्दा प्रथा का प्रचलन
नहीं था। सिन्धु सभ्यता में सबसे अधिक मृण्य मूर्तियां नारी की प्राप्ति हुई है।
इससे अनुमान लगाया जाता है कि समाज में उनकी दशा अच्छी थी परन्तु इस विषय में
उल्लेखनीय तथ्य यह है कि राजस्थान और गुजरात से किसी भी नारी की मृण्य मूर्ति के
प्रमाण नहीं प्राप्त हुए हैं। लोथल और कालीबंगा से युगल शवाधान के आधार पर सती
प्रथा का अनुमान लगाया जा सकता है सिन्धु सभ्यता में दास प्रथा प्रचलित थी।
मनोरंजन के साधन-
सिंधु सभ्यता के निवासियों में मनोरंजन
के साधन में प्रमुख शिकार खेलना, नाचना, गाना, बजाना तथा मुर्गों की
लड़ाई देखना था,
जुआ खेलना भी
मनोरंजन के प्रमुख साधनों में से एक था विभिन्न प्रकार के पार्षदों का मिलना इस
बात की पुष्टि करता है। बच्चों के मनोरंजन के लिए विभिन्न प्रकार के खिलौनों का
निर्माण किया जाता था।
औषधियां-
इतिहासकारों का कहना है कि सिंधु सभ्यता के निवासी विभिन्न औषधियों से परीचित थे। और वे हिरण बारहसिंगा के सींग, नीम की पत्तियों एवं शिलाजीत को औषधियों की तरह प्रयोग करते थे, चिकित्सा के उदाहरण भी कालीबंगा एवं लोथल से प्राप्त होते हैं।
शवाधान (अंतिमसंस्कार)-
सिंधु घाटी सभ्यता के लोग तीन प्रकार से शवों
की अन्तेष्टी करते थे। कुछ कब्रों में मृदभांड तथा आभूषण मिले हैं, पुरुषों तथा महिलाओं
दोनों के शवाधानों से ही आभूषण मिले हैं। 1980 के दशक के मध्य में हङप्पा के
कब्रिस्तान में हुए उत्खननों में एक पुरुष की खोपङी के समीप शंख के तीन छल्लों, जैस्पर (एक प्रकार
का रत्न) के मनके तथा सैकङों की संख्या में मनकों का बना एक आभूषण मिला है।
कहीं-कहीं पर मृतकों को ताँबे के दर्पणों के साथ दफनाया गया था। इससे अनुमान लगाया
जाता है कि सैंधव लोग मृतकों के साथ बहुमूल्य वस्तुएँ दफनाने में विश्वास नहीं
करते थे।
सिन्धु सभ्यता में धार्मिक जीवन
सिन्धु घाटी की खुदाई से
जो साक्ष्य मिले हैं उनके आधार पर कहा जा सकता है कि इस सभ्यता में धार्मिक
जीवन और विश्वास की एक दीर्घ परंपरा थी। इस धर्म में बाहरी विशेषताओं के अतिरिक्त
कुछ ऐसी विशेषताएं भी पायी जाती हैं जो आज भी हिन्दू धर्म में मौजूद
हैं, इनके
अंतर्गत शिव-शक्ति पूजा, नाग पूजा, वृक्ष
पूजा ,पाषाण पूजा, लिंग-योनि पूजा तथा
योग को सम्मिलित किया जा सकता है-
1. परमपुरुष की
उपासना-
सिन्धु घाटी की एक मुद्रा
में शिव के पूर्व रूप अर्थात परम पुरूष की आकृति अंकित मिलती है, इस आकृति के तीन मुख है तथा तीन
आंखें हैं। चौकी पर विराजमान इस आकृति के दाहिनी ओर हाथी तथा बाघ और बांयी ओर
गैंडा एवं भैंसा अंकित हैं, चौकी के नीचे हिरण के समान
सींगों वाला पशु अंकित है। राधाकुमुद मुखर्जी ने इसे पशुपति
माना है।
सिन्धु सभ्यता की कला, संस्कृति व पतन |
एक अन्य मुद्रा में
नागों से घिरे योगासीन पुरूष की आकृति अंकित मिलती है जबकि एक अन्य
मुद्रा में धनुषधारी पुरूष का आखेटक रूप में अंकन किया गया है। सिन्धु घाटी
से अनेक लिंगाकारों की प्राप्ति हुई है अतः कहा जा सकता है कि यहां शिव की
लिंग रूप में भी पूजा होती थी। सिन्धु सभ्यता में कुछ इस प्रकार के छल्ले मिले हैं
जिन्हें पुराविदों ने योनिपूजा से समीकृत किया है, लिंग पूजा तथा योनि पूजा का
घनिष्ठ संबंध है ये दोनों सृष्टिकर्ता के सृजनात्मक रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं।
ये सभी प्रतीक एवं संकेत हमें बताते हैं कि उस काल में परमपिता परमेश्वर के
पुरूषरूप तथा प्रतीक चिह्नों के रूप में सिन्धु सभ्यता में शिवोपासना प्रचलित थी। मार्शल
नामक पुराविद तो सिन्धुघाटी को शैव धर्म की उत्पति का क्षेत्र मानते हुए
उसे विश्व का प्राचीनतम धर्म मानता है।
2. मातृदेवी की पूजा-
मोहनजोदड़ो, चन्हूदाड़ो तथा हड़प्पा से
प्राप्त मातृदेवी की प्रतिमाओं तथा इन प्रतिमाओं में अंकित विविध आभूषण इत्यादि
मातृदेवी के विविध रूपों तथा प्रतीकों के परिचायक हैं। मातृदेवी के इन अंकनों में
उसके वनस्पति के रूप में उपास्य, जगत जननी के रूप में पूज्य
तथा पशु जगत की अधीश्वरी का आभास मिलता है। विद्वानों की यह धारणा है कि मातृदेवी
के ये विविध रूप उसकी विविध शक्तियों के परिचायक हैं। मार्शल नामक पुराविद
के अनुसार सिन्धु प्रदेश में मातृदेवी को आद्य शक्ति के रूप में
पूजा जाता था।
3. वृक्ष पूजा-
सिन्धु घाटी की मुद्राओं
तथा मृणभाण्डों में एसे अनेक वृक्षों का अंकन मिलता है जो विशिष्ट प्रतीत
होते हैं और जिन्हें सिन्धु नागरिकों के धार्मिक विश्वास से जोड़ा जा सकता है।
यहां से प्राप्त एक मुद्रा में मानव आकृति पीपल की पत्तियां पकड़े हुए प्रदर्शित
है, जबकि दूसरी
मुद्रा में जुड़वां पशु के सिर पर पीपल की पत्तियों का अंकन मिलता है, कुछ मुद्राओं में देवताओं को वृक्ष की रक्षा करते हुए प्रदर्शित किया गया
है। चित्रों में जिन धार्मिक महत्व के वृक्षों को पहचाना गया है उनमें पीपल के
अलावा नीम, बबूल ,शीशम ,खजूर के वृक्ष उल्लेखनीय हैं।
4. जल पूजा-
मोहनजोदड़ो से प्राप्त विशाल स्नानागार
तथा अनेक अन्य स्नानागारों की प्राप्ति सिन्धु सभ्यता में जल पूजा पर
प्रकाश डालती हैं। कुछ विद्वानों ने तो मोहनजोदड़ो के विशाल स्नानागार को
जल देवता का मंदिर भी बताया है। जल पूजा बाद के हिन्दू धर्म में महत्वपूर्ण
रही है अतः संभव है कि सिन्धु सभ्यता में जल पूजा की जाती रही हो।
5. पशु-पक्षी एवं नाग पूजा-
सिन्धु घाटी के कुछ
पशु-पक्षी भी विशिष्ठ प्रतीत होते हैं, इनमें बैल और विशेषकर कूबड़वाला बैल प्रमुख
है जो बाद के काल में शिव के वाहन के रूप में आराध्य रहा है। इसके अतिरिक्त बत्तख भी
सिन्धु नागरिको की आस्था का केन्द्र प्रतीत होती है। एक मुद्रा में नाग की पूजा
करते हुए व्यक्ति का अंकन मिला है। अतः इन तथ्यों के आधार पर सिन्धु घाटी में
पशु-पक्षी एवं नाग पूजा की कल्पना भी की जा सकती है।
6. अग्नि तथा बलि पूजा-
कालीबंगा, लोथल आदि स्थानों में कुछ ऐसे
संकेत मिलते हैं जो सिन्धु सभ्यता में अग्नि तथा बलि पूजा की ओर
इशारा करते हैं। मोहनजोदड़ो में एक धारदार हथियार के समीप एक पशु का अंकन, कालीबंगा की अग्निशालाएं एवं पशुओं की हड्डी से भरे गड्डे इत्यादि सिन्धु
सभ्यता में अग्नि तथा बलि पूजा की ओर संकेत करते हैं यद्यपि इस संबंध में
प्रामाणिकता के साथ कहना संभव नहीं है।
7. मृतक संस्कार-
प्रमाणों से लगता है
कि सिन्धु निवासी अपने मृतकों को भूमि पर दफनाकर, चिता में जलाकर तथा शव को
जंगलों में खुला छोड़कर मृतक संस्कार करते थे। विभिन्न स्थलों से अनेक घड़ों की
प्राप्ति हुई है जिनमें मानव अस्थियां तथा भस्म मिली है। वे मृतकों की कब्रों में
मरणोत्तर जीवन पर विश्वास रखते हुए शव के साथ अनेक जीवनोपयोगी सामग्री भी रख देते
थे।
8. अन्य तथ्य-
सिन्धु घाटी से भारी
मात्रा में ताबीजों की प्राप्ति भी हुई है जो उनके जादू-टोने
इत्यादि में अतिरेक विश्वास को दर्शाते हैं। सिन्धु नागरिक मूर्तिपूजक थे और ऐसा
प्रतीत होता है कि वे चिन्तन की अपेक्षा साकार उपासना पर बल देते हुए मूर्ति पूजा
करते थे। उन्होंने अपने देवी-देवताओं का मानवीयकरण किया था और उनकी मूर्तियां
निर्मित की थीं। उत्खनन में दीपक भी मिले हैं और कुछ स्तंभों के शीर्ष भाग में
दीपक तथा नीचे अग्नि जलाने के प्रमाण भी मिले हैं। अभी तक जो प्रमाण मिले हैं उनके
आधार पर हम उनके धर्म दर्शन पर अधिक नहीं कह सकते पर इतना तो निश्चित है कि सिन्धु
निवासी बहुदेववाद में आस्था रखने के साथ-साथ एकेश्वरवादी भी थे।
सिन्धु सभ्यता में आर्थिक जीवन
सिन्धु सभ्यता से प्राप्त
साक्ष्यों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि वहां अर्थव्यवस्था पर्याप्त उन्नत थी, मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के
वैभवशाली और विलासमय जीवन के प्रमाण वहां किसी सुसंगठित आर्थिक व्यवस्था का होना
बतलाती है।सिन्धु सभ्यता के आर्थिक जीवन का अध्ययन हम विभिन्न शीर्षकों के अंतर्गत
कर सकते हैं-
1. सिन्धु सभ्यता में कृषि-
प्राप्त साक्ष्यों
के अध्ययन से पता चलता है कि सिन्धु सभ्यता में कृषि का प्रमुख स्थान था।
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में पाये गये विशाल अन्नागार इस तथ्य को उजागर करते
हैं कि इस सभ्यता में खाद्य अतिरेक होता था और उसके भण्डारण की इन्होंने समुचित
व्यवस्था की थी। वे कृषि कार्यों से भली-भांति परिचित थे और सिन्धु तथा उसकी सहायक
नदियों की उर्वर भूमि में वे खेती करते थे। अवशेषों के अध्ययन से पता चलता है कि
वे गेहूं, जौ,
तिल, कपास, धान, सरसों आदि की खेती करते थे।
2. सिन्धु सभ्यता में
व्यापार तथा वाणिज्य एवं सम्पर्क-
सिन्धु सभ्यता में आंतरिक
व्यापार समृद्ध था। नाप के लिए ये सीप की पटरियों का प्रयोग करते थे। मैके
के अनुसार पटरियों का लम्बाई 13.2 इंच थी। उनके अनेक बांट-बटखरे मिले हैं, अधिकांश बांट 16 अथवा उसके गुणज
भार के हैं। अपनी लिपि होने के कारण वे संभवतः व्यापार का लेखा-जोखा भी रखते हों।
सिन्धु सभ्यता के नगरों में निर्मित होने वाली अनेक वस्तुओं के लिए जरूरा कच्चा
माल वहां उपलब्ध नहीं था। वे धातु की मुद्रा का प्रयोग नहीं करते थे। बहुत संभव है
कि व्यापार वस्तु-विनिमय के माध्यम से चलता हो। निर्मित वस्तुओं और संभवतः अनाज के
बदले वे पड़ोसी प्रदेशों से धातुएं प्राप्त करते थे और उन्हें नौकाओं तथा
बैलगाड़ियों में ढोकर लाते थे।
अरब सागर में तट के पास
उनकी नौकाएं चलती थीं, वे
पहिये का उपयोग जानते थे और लगता है कि वे आधुनिक इक्के जैसे किसी वाहन का प्रयोग
भी करते थे। ऐसा लगता है कि उस काल में व्यापार का क्षेत्र विस्तृत हो चला था।
व्यापार के द्वारा नजदीक ही नहीं वरन् सुदूर देशों से भी सामग्री प्राप्त की जाती
थी और उस सामग्री का प्रयोग नगर के स्थापत्य तथा वहां के नागरिकों की आवश्यकताओं
के लिए किया जाता था।
सिन्धु सभ्यता में मिला सोना ऐसी ही एक
सामग्री है, एडविन पेस्को के अनुसार, सोना उस समय केवल मैसूर
की कोलार खानों में मिलता था। इसी प्रकार मोहनजोदड़ो में प्रयुक्त हरा पत्थर
नीलगिरि की पहाड़ियों में स्थित दोछाबेट्टा नामक स्थान से मिलता था। यह भारतीय हरा
पत्थर शाम में ऊर नामक स्थान पर भी प्रयुक्त हुआ है। अन्य सुदूरवर्ती प्रदेशों से
लाये गये पदार्थों में बदख्शां के लाजवर्द, खुरासान के
फीरोजे और पामीर पूर्वी तुर्कीस्तान और तिब्बत के भरगज या भसार प्रमुख हैं।
जैसलमेर से पीला पत्थर और किरथर की पहाड़ियों से खड़िया प्राप्त की जाती थी। लगभग
2350 ईसा पूर्व से आगे के मेसोपोटामियाई अभिलेखों में मैलुह्ह के साथ व्यापार करने
के उल्लेख मिलते हैं। यह संभवतः सिन्धु प्रदेश का प्राचीन नाम था। मेसोपोटामियाई अभिलेखों
में बीच के दो स्थलों दिलबन तथा मकन का उल्लेख भी आया है। इनमें से दिलबन संभवतः
फारस की खाड़ी में स्थित बाहरीन था।
विदेशी व्यापार के
अंतर्गत सिन्धु नागरिकों के संबंध सुमेर और संभवतः अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, ईरान, बदख्शां, बाहरीन, ओमान, और मध्य एशिया से थे। बेबीलोन से प्राप्त कीलाक्षर लेखों से पता
चलता है कि व्यापार पश्चिम एशिया में 800 मील लम्बे समुद्र तट के किनारे-किनारे
किया जाता था। उर मेसापोटामिया मे प्रवेश के लिए प्रमुख बन्दरगाह
था। सोना संभवतः दक्षिण भारत तथा अफगानिस्तान से मिलता था। चांदी संभवतः अफगानिस्तान
तथा ईरान से प्राप्त की जाती थी।
3. वस्त्र निर्माण-
सिन्धु निवासी कपास की
खेती भी करते थे। खुदाई में बहुत से तकुए एवं सूत की नलियां प्राप्त हुई हैं, जो इस बात के परिचायक हैं कि
कताई साधारण जनता में लोकप्रिय थी। कपास को कात कर सूत बनाया जाता था तथा इसके द्वारा
अनेक प्रकार के कपड़े बनाये जाते थे। वस्त्र बनाने के लिए सिन्धु निवासी ऊन का
प्रयोग भी करते थे। रंगाई के अनेक हौजों की प्राप्ति से वस्त्रों की रंगाई पर भी
प्रकाश पड़ता है। उत्खनन में हड्डियों तथा सीपों के बटन तथा धातु की सूइयां भी
मिली हैं जिनसे पता चलता है कि उन्हें वस्त्रों की सिलाई-कड़ाई का भी ज्ञान था।
सिन्धु सभ्यता में निर्मित वस्त्रों का निर्यात सुदूर देशों को किया जाता था।
4. विनिमय माध्यम-
इस अत्यधिक विकसित
अर्थ व्यवस्था में हमें ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला है जिसके आधार पर हम किसी सांकेतिक
मुद्रा की कल्पना कर सकें। बहुत संभव है कि आंतरिक व्यापार-वाणिज्य में वे वस्तु
विनिमय प्रणाली का प्रयोग करते रहे हों और विदेशी व्यापार के अंतर्गत वे
अपने माल की बिक्री के बदले बहुमूल्य धातऐं, मणि-रत्नों-कीमती पत्थरों अथवा सिन्धु घाटी
में अप्राप्य वस्तुओं का विनिमय करते हों।
5. धातुकर्म-
खुदाई से प्राप्त
वस्तुओं के निरीक्षण से पता चलता है कि सिन्धु निवासियों को अनेक धातुओं की
जानकारी थी। अनेक ऐसी धातु भी मिली हैं जो सिन्धु घाटी क्षेत्र में नहीं पायी जाती
हैं अवश्य ही ऐसी धातुऐं व्यापार के माध्यम से प्राप्त की गयी होंगी। जिन धातुओं
की सिन्धु निवासियों को जानकारी थी उनमें तांबा, सोना, चांदी, टिन, कांसा, सीसा प्रमुख थे।
धातुकर्म विकसित था और धातुकारों की भट्टियां इस बात के प्रमाण हैं कि विविध
प्रकार की वस्तुओं का निर्माण किया जाता था। हमें खुदाई में धातु के उपकरण,
अस्त्र-शस्त्र, मूर्तियां, बरतन इत्यादि प्राप्त हुए हैं।
6. अन्य उद्योग-
सिन्धु सभ्यता के अध्ययन
से यह तथ्य उजागर होता है कि इस सभ्यता में बहुत अधिक औद्योगिक विशिष्ठीकरण एवं
श्रम-विभाजन था। जीवन की विविध आवश्यकताओं की पूर्तिविभिन्न उद्योगों द्वारा की
जाती थी। सिन्धु घाटी से कैंची, कुल्हाड़ी, हंसिया हथौड़ा, सुई, विभिन्न प्रकार के बर्तन, मूर्तियां मुद्राऐं, अनेक प्रकार के खिलौने, ताबीज, विविध आकार-प्रकार की ईंटें, आभूषण इत्यादि भारी मात्रा में प्राप्त हुए हैं। इनके अतिरिक्त
जीवनोपयोगी सामग्रियां, प्रसाधन सामग्रियां इत्यादि का भी
यहां के नागरिकों में पर्याप्त प्रचलन था। इन तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि
सिन्धु सभ्यता में बढ़ई, सुनार, जौहरी, मूर्तिकार, कुंभकार, रंगरेज
एवं धातुकारों के उद्योग खूब फलफूल रहे थे।
हड़प्पा संस्कृति की मूतियाँ तथा कला
मूर्तियाँ-
सिन्धुवासी सुन्दर धातुओं की प्रतिमाएं
बनाते ये। कांसे की नर्तकी की मूर्ति बहुत सुन्दर है। कुछ पत्थर की
मूर्तियां भी मिली हैं। दो पुरुषों की मूर्तियों में से एक को पूरी तरह सजाया गया
है तो दूसरी मूर्ति पूरी निर्वस्त्र है।
खिलौने या छोटी-छोटी मूर्तियाँ-
पक्षी, पशुओं की छोटी-छोटी
मूर्तियां भी मिली हैं। शायद ये खिलौने थे जिन्हें मनोरंजन के लिए प्रयोग किया
जाता था, परन्तु ये मूर्तियां उच्च कोटि की नहीं हैं तथा मिस्र की मूर्तियों की
तरह कलात्मक भी नहीं हैं।
मिट्टी के बर्तन-
सिन्धु लोग कुम्हार
के चाक का प्रयोग करते थे। मिट्टी के बर्तनों पर अनेक रंगों की चित्रकारी
की जाती थी। वे पेड़ों एवं मानव के चित्र बनाते थे. मिट्टी के खिलौनों एवं मोहरों
के अलावा नई प्रकार के मिट्टी के बर्तन मिले हैं।
नक्काशी-
हड़प्पा संस्कृति के
निवासी नक्काशी जैसा कलात्मक काम जानते थे। इस बात का प्रमाण खुदाई
से मिली सुन्दर मोहरें दे रही हैं। नक्काशी का काम पत्थर, धातु, मिट्टी से बनी
वस्तुओं तथा हाथी दांत पर किया जाता था।
चित्रकला-
मूर्तिकला, बर्तन निर्माण एवं
लेखन कला के साथ-साथ सिन्धवासियों को चित्रकला से भी लगाव था। खुदायी में
मिली अनेक वस्तुयें, जैसे बर्तन व खिलौनों पर बनें चित्र इस बात के बहुत बड़े
प्रमाण हैं। वे मुख्यतः बेल, पत्तियों, पशुओं एवं पक्षियों
के चित्र बनाते थे।
सिन्धु संस्कृति का ऐतिहासिक महत्त्व
भारतवर्ष के लिए हड़प्पा
संस्कृति का अत्यधिक ऐतिहासिक महत्त्व है। कुछ इतिहासकार इस संस्कृति को ताम्र-पाषाणिक
संस्कृति से भी पुरानी मानते हैं। चाहे ताम्र व कांस्य युग की सभी सभ्यताओं से
हड़प्पा संस्कृति सर्वाधिक प्राचीन न हो तो भी इसे निःसंकोच विश्व की प्राचीनतम
उत्कृष्ट सभ्यता कहा जा सकता है क्यों कि यह विश्व की प्रथम ज्ञात
और प्रमाणित सभ्यता है।
इस सभ्यता की
खोज ने भारत के इतिहास के आरम्भ को कम से कम तीन हजार वर्ष अधिक प्राचीन कर दिया
है। हड़प्पा संस्कृति की जानकारी से पूर्व भारतीय इतिहास को आर्यों के आगमन, विस्तार एवं उनकी
सभ्यता से शुरू किया जाता था। इसे अन्धकार से प्रकाश में लाने का श्रेय श्री
माधो स्वरूप वत्स, राय बहादुर श्री दयाराम साहनी, तथा श्री राखल दास बनर्जी को प्राप्त है। उन्होंने हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो
की खोज करके यह प्रमाणित कर दिया कि भारत में आर्यों के आगमन से हजारों वर्ष पूर्व
एक उच्चकोटि की संस्कृति विकसित हो चुकी थी, न केवल काल की प्राचीनता ही हड़प्पा
संस्कृति के ऐतिहासिक महत्त्व को स्थापित करती है अपितु इस सभ्यता की भव्यता, महान् विशेषताएं
आदि भी इस संस्कृति के महत्त्व को बढ़ाती हैं। इस संस्कृत की खोज ने भारत के
प्राचीनतम लोगों के जीवन को ग्रामीण होने से ऊपर उठाकर एक शहरी होने का श्रेय
प्रदान किया।
हड़प्पा संस्कति का अध्ययन करने के
बाद स्पष्ट हो जाता है कि यहूं विश्व की प्राचीनतम सुनियोजित नगरों की सभ्यता थी। सिन्धु
सभ्यता के नगरों की योजना जाल पद्धति की है और इनमें सड़कें, नालियों, और मलकुंडों की
अच्छी व्यवस्था की गई है। पश्चिमी एशिया की समकालीन (मैसोपोटामिया की
सभ्यता) सभ्यताओं से सम्बन्धित नगरों, में ऐसी नगर योजना देखने को
नहीं मिलती। सम्भवतः क्रीट द्वीप के कनोसस नगर को छोड़कर प्राचीन मुग के किसी भी
नगर में जल-निकासी का ऐसा उत्तम प्रबन्ध देखने को नहीं मिलता।
हड़प्पा संस्कृति के लोगों, ने पकी इंटों के
प्रयोग में जिस कौशल का परिचय दिया वैसा पश्चिमी एशिया के लोग नहीं दे पाए।
हड़प्पा के लोगों के मिट्टी के बर्तन और उनकी मुहरें विशिष्ट प्रकार की थीं। इन
मुहरों पर स्थानीय पशुओं की आकृतियाँ अंकित हैं। इन सबके अलावा सिन्धुवासियों ने
अपनी एक लिपि बनाई जिसका मिस्र या मेसोपोटामिया की लिपि से कोई
साम्य नहीं है। इसके अतिरिक्त हड़प्पा संस्कृति का विस्तार जितने अधिक क्षेत्र में
रहा उतना अन्य किसी भी समकालीन सभ्यता का नहीं रहा। हड़प्पा संस्कृति के नगरों के
पतन के साथ भारत के इतिहास में अभाव का एक दौर चला।
यद्यपि हड़प्पा
संस्कृति की कुछ विशेषताएं कायम रहीं, परन्तु बाद में आए लोग नगर
जीवन के बारे में कुछ नहीं जानते थे। एक हजार साल का लम्बा समय गुजर जाने के बाद
ही भारत में पुनः नगरों का उत्थान हुआ।
सिन्धु सभ्यता का पतन
लिपि की अनभिज्ञता के कारण हम
स्पष्ट रूप से यह नहीं कह सकते कि सिन्धु सभ्यता का पतन किन कारणों
से हुआ लेकिन उत्खनन के फलस्वरूप जो तथ्य प्रकाश में आये उनके आधार पर इस सभ्यता
के पतन के लिए जिम्मेदार कारणों का विश्लेषण विद्वानों ने किया है। इनके
अन्तर्गत विद्वानों ने सिन्धु सभ्यता के पतन में आत्मघाती कमजोरियों का योगदान, आर्यों का उत्तरदायित्व, विदेशी तत्वों की भूमिका
और प्राकृतिक आपदाओं के योगदान को शामिल किया है। इन कारणों को अध्ययन की सुविधा
के लिए शीर्षकवार समझा जा सकता है-
सिन्धु नागरिकों की
आत्मघाती कमजोरियां-
1. सुमेर
के साथ व्यापारिक संबंध के बावजूद भी सिन्धु नागरिकों ने तत्कालीन सर्वाधिक
विकासवादी सभ्यता से अपने विकास के लिए किसी भी प्रकार के तकनीकी ज्ञान को सीखने
का प्रयास नहीं किया, जो कि प्रत्येक विकासशील सभ्यता के लिए आवश्यक हैं।
2. हड़प्पा
नागरिकों की मानसिक स्थिरता का पता उनकी लिपि से लगता है, जिसमें 20 चिन्हों से
अधिक नहीं मिलते हैं और बहुधा 10 चिन्हों से अधिक प्रयोग नहीं किया गया है। दीर्घ
काल में भी इसमें परिवर्तन न होना सिन्धु नागरिकों के अत्यधिक कम मानसिक परिवर्तन
के दोष का द्योतक है।
3. हड़प्पा से
प्राप्त फलक और चौरस आसानी से मोड़े जा सकते हैं, जबकि सुमेर
निवासियों ने बहुत पहले ही ऐसे चाकू तथा भाले बनाये थे जिनके मध्यभाग में अतिरिक्त
शक्ति के लिए तीलियां लगायी गयी थीं और कुठारों के सिरे से छिद्र बनाये थे जिनमें दण्ड
डाला जा सकता था। यह सत्य है कि हड़प्पा वासियों ने भी ऐसे आरे का निर्माण
कर लिया था जिसमें लहरदार दांत थे। यह बढ़ई के लिए तो उपयोगी था किन्तु सुरक्षा के
रूप में उसका कोई उपयोग नहीं था।
ये कुछ उदाहरण
हैं जो सिन्धु सभ्यता में गति या बदलती हुई परिस्थितियों के साथ सामन्जस्य
बैठाने में असमर्थता के दोष को बतलाती हैं। सिन्धु नागरिकों ने अपनी रक्षा के विषय
में कोई विशेष आविष्कार नहीं किये थे, यही कारण है कि जब उन पर
आक्रमण हुआ तो वे अपने से अविकसित लोगों से भी पराजित हो गये।
आर्यों का
उत्तरदायित्व-
आर्यों ने भारत आगमन से पूर्व
अनेक नगरीय संस्कृतियों को क्षति पहुंचायी थी। इन्द्र ने हरियूपिया
के ध्वंसावशेषों को समाप्त किया था, जिस जाति को समाप्त किया
गया था उससे यवजावति नदी (आधुनिक रावी नदी) के किनारे सामना हुआ था। इससे हड़प्पा
में किसी वास्तविक युद्ध की संभावना होती है। अतः प्रतीत होता है कि हड़प्पा में
स्थित कब्रिस्तान ‘एच जो कि बाद का है, अवश्य ही आर्यों से
संबंधित होगा।
ऋग्वेद में यह उल्लेख प्राप्त
है कि इन्द्र ने अनेक नदियों को मुक्त किया था, जो कि कृत्रिम अवरोधकों
द्वारा रोकी गयी थीं। “चुडैल वृत्र पहाड़ी ढलान में एक बड़े सांप के समान लेटी थी, जब इन्द्र द्वारा इस
चुडैल को चूर दिया गया तो पत्थर गाड़ी के पहियों की भांति लुड़कने लगे।" इस
कथन का आशय किसी बांध के विनाश से ही हो सकता है। अनेक भाषाशास्त्रियों के अनुसार “वृत्र" शब्द का अर्थ अवरोधक
होता है। अगर इस विचार को मान लिया जाय तो आर्यों ने सिन्धु नागरिकों द्वारा
सिन्धु नदी पर खड़े किये अवरोधकों को समाप्त कर सैंधव्यों को भूखे मरने को छोड़
दिया। यह तथ्य ज्ञात है कि सिन्धु सभ्यता के इतिहास के अन्तिम चरण में दरिद्रता
की स्थिति पैदा हो गयी थी।
ऋग्वेद में सौ स्तभों वाले शत्रु
के किलों का वर्णन है, जिनसे कि आर्यों का मुकाबला हुआ। इसके अलावा ऋग्वेद
में लिंग पूजकों के भय का भी वर्णन है। लिंग पूजकों का यह भय यजुर्वेद काल
में समाप्त हो गया, जब इसको मान्यता दे दी गयी।
उत्तर वैदिक काल में
शिव प्रमुखता पाने लगे और यजुर्वेद में तो शिव, महेश्वर या महान् देव के
रूप में पूजे जाने लगे। उत्तर वैदिक कालीन ग्रन्थों में मातृदेवी का उल्लेख
मिलता है। उपनिषद के ऋषियों द्वारा किया गये चिन्तन में वैदिक देवताओं को
प्रमुखता नहीं दी गयी है, वरन् इसमें सिन्धु सभ्यता के धार्मिक तत्वों
का समावेश मिलता है। इन तथ्यों से पता चलता है कि आर्यों ने सिन्धु सभ्यता को
क्षति पहुंचायी लेकिन आने वाले युगों में आर्यों ने लिंग पूजा और दस्युओं को अपनी
सभ्यता में आत्मसात कर लिया। इन तथ्यों के बावजूद भी सिन्धु सभ्यता के पतन में
आर्यों का उत्तरदायित्व सन्देहास्पद प्रतीत होता है, क्योंकि यदि हड़प्पा
को आर्यों द्वारा ध्वंस या समाप्त किया गया तथा कब्रिस्तान “एच" को आर्यों से
संबंधित किया जाये तो यह तार्किक दृष्टि से अटपता लगता है कि हड़प्पा के समीप ही
स्थित कालीबंगा पर आक्रमण नहीं किया गया।
इसके अलावा
सरस्वती और पंजाब क्षेत्र की अनेक हड़प्पीय बस्तियां, इन्द्र और अग्नि के
आक्रमण के पूर्व ही पतनोन्मुख हो चुकी थीं। और यह ज्ञात है कि काली चमड़ी वाले लोग
अन्य स्थानों को पलायन कर गये थे। पुरातात्विक सामग्री से भी यह प्रमाणित होता है
कि नवागंतुकों द्वारा इन स्थानों को अधिगृहित नहीं किया गया वरन् इन्हें त्याज्य
समझ कर छोड़ दिया गया। यह अजीब है कि कोई इन स्थानों की जीतकर इन्हें अधिकृत न कर
छोड़ दें।
विदेशी तत्वों की
भूमिका-
रानाघुण्डई के प्राचीनतम स्तर से
पता चलता है कि अश्वारोही आक्रामकों के दल वहां 3000 ई0 पू0 में विद्यमान थे, वे वहां कृषि सभ्यता
को स्थान देकर शीघ्र ही लुप्त हो गये। यह कृषि सभ्यता, सिन्धु सभ्यता के समकालीन
थी। लेकिन 2000 ई0 पू0 के आसपास गाँवों को जलाने तथा एक नवीन, भद्दे आकार के मृत्तिका
पात्रों की प्राप्ति से पुनः आक्रामकों की उपस्थिति का पता चलता है। इसके बाद अन्य
आक्रामक आये जो अरंजित ढक्कनदार मृतिका पात्रों का प्रयोग करते थे। ऐसे ही प्रमाण
उत्तरी बलूचिस्तान में भी मिलते हैं जबकि दक्षिणी बलूचिस्तान में एक अनैतिक
संस्कृति ने सुत्कांगेन्डोर के समीप शाही टंप में बस्ती बना
ली थी।
प्रतीत होता है
कि बलूचिस्तान के आक्रामकों ने वहां के ग्रामीण लोगों को सिन्धु नगरों में
शरण लेने पर बाध्य किया। विदेशी तत्वों का प्रभाव और उनके द्वारा सिन्धु नगरों में
उत्पन्न अस्थिरता का पता कुछ तथ्यों से लगता है। हड़प्पा में बाद की बस्तियों की
संरचना निकृष्ट कोटि की है। भवनों के स्थान पर झोपड़ियां बनायी जाने लगीं।
जल-वितरण प्रणाली को त्याग दिया गया, मृणभाण्डों के निर्माण
में प्रयुक्त तकनीकी परिवर्तित हो गयी। बाद के आभूषण निम्न स्तर के हैं। शहर के
मध्य में और कभी कभी सड़क के बीच में ईंट के भट्टे बनाये जाने लगे। इसी प्रकार के
पतनोन्मुख चिन्ह काठियावाढ़ प्रायद्वीप के स्थलों में भी मिलते हैं। लोथल का अन्य
नगरों के साथ सम्बन्ध धीरे-धीरे कमजोर और फिर टूट गया।
प्राकृतिक आपदाएं-
कुछ प्राकृतिक
आपदायें एव कमजोरियां भी सिन्धु सभ्यता के पतन में जिम्मेदार रहीं थीं-
1. सिन्धु सभ्यता
के नगरों की बढ़ती जनसंख्या की भोजन आपूर्ति के लिए कृषकों की उत्पादन
बढ़ाने में असमर्थता।
2. सिन्धु सभ्यता
के नगरों में लगातार आने वाली बाढें।
3. एक प्रमुख हाइड्रोलोजिस्ट
के अनुसार एक टेक्टोनिक किया से समुद्र का जल स्तर उठ गया, जिससे सिन्धु नगर
जल स्तर के नीचे आ गये और उनमें बाढ़ आ गयी, मोहन-जो-दड़ो में जल स्तर के नीचे भी
बस्ती के प्रमाण मिलते हैं।
4. सिन्धु का
बहाव नील नदी से दुगुना है।
5. मिटटी के लवणीकरण की गति बढ़ना, राजपुताना के मरूस्थल का फैलाव तथा सिन्धु नदी द्वारा अपना मार्ग परिवर्तित करना भी ऐसे कुछ कारण हैं जिन्होंने सिन्धु संस्कृति के पतन में योगदान दिया।
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