नीति निदेशक तत्त्व
(अध्याय 4 अनुच्छेद 36 से 51 तक)
भारतीय संविधान के अध्याय 4 के
16 अनुच्छेद (अनुच्छेद 36 से 51 तक) में राज्य के नीति-निर्देशक
तत्त्वों का वर्णन मिलता है। इनके अलावा कुछ अन्य अनुच्छेदों में भी इन
तत्त्वों का वर्णन मिलता है।
राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों का वर्णन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत दिया जा रहा है-
आर्थिक सुरक्षा
सम्बन्धी निदेशक तत्त्व-
इन तत्त्वों का उद्देश्य देश में आर्थिक सुरक्षा एवं आर्थिक
न्याय पर आधारित लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। संविधान
में इस प्रकार के निम्नलिखित तत्त्वों का उल्लेख है-
1. राज्य प्रत्येक स्त्री-पुरुष को समान रूप से जीविका के
साधन उपलब्ध कराने का प्रयत्न करेगा।
2. राज्य देश के भौतिक साधनों के स्वामित्व तथा नियन्त्रण
की ऐसी व्यवस्था करेगा कि अधिकतम सार्वजनिक हित हो सके।
नीति निदेशक तत्व |
3. राज्य इस बात का ध्यान रखेगा कि सम्पत्ति तथा उत्पादन के
साधनों का इस प्रकार से केन्द्रीकरण न हो कि सार्वजनिक हित को किसी प्रकार हानि
पहुँचे।
4. राज्य प्रत्येक नागरिक को, चाहे वह स्त्री हो
अथवा पुरुष, समान कार्य के लिए समान वेतन उपलब्ध कराने का प्रयत्न करेगा।
5. राज्य श्रमिक पुरुषों तथा स्त्रियों के स्वास्थ्य
और शक्ति तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का आर्थिक परिस्थितियोंवश दुरुपयोग न होने
देगा।
6. राज्य अपने आर्थिक साधनों के अनुसार और विकास की सीमाओं
के भीतर यह प्रयास करेगा कि सभी नागरिक अपनी योग्यता के अनुसार रोजगार पा
सकें, शिक्षा पा सकें एवं बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी तथा अंगहीनता
आदि दशाओं में सहायता प्राप्त कर सकें।
7. राज्य ऐसा प्रयत्न करेगा कि व्यक्तियों को अपनी अनुकूल
अवस्थाओं में ही कार्य करना पड़े तथा स्त्रियों को प्रसूतावस्था में कार्य
न करना पड़े।
8. राज्य का कर्तव्य होगा कि गाँवों में व्यक्तिगत या
सहकारी आधार पर कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन दे।
9. वैज्ञानिक आधार पर कृषि को राज्य प्रोत्साहन दे।
10. राज्य इस बात का प्रयत्न करेगा कि कृषि तथा उद्योगों
में लगे हुए सभी मजदूरों को अपने जीवन-निर्वाह के लिए यथोचित वेतन मिल सके, उनका
जीवन स्तर ऊँचा उठ सके,
वे अवकाश के समय का उचित प्रयोग कर सकें तथा उन्हें सामाजिक
एवं सांस्कृतिक उन्नति का अवसर प्राप्त हो सके।
11,
राज्य पशुपालन की अच्छी प्रणालियों का प्रचलन करेगा
और गायों, बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्ल सुधारने और उनके वध को रोकने का
प्रयत्न करेगा।
12. नवीन अनुच्छेद 30A के
अनुसार राज्य इस बात का प्रयल करेगा कि कानून व्यवस्था का संचालन समान अवसर के
आधार पर न्याय प्राप्ति में सहायक हो तथा उचित व्यवस्थापन, योजना
या अन्य किसी प्रकार से समाज में कमजोर वर्गों के लिए निःशुल्क कानूनी सहायता की
व्यवस्था हो,
जिससे आर्थिक रूप से असमर्थ या अन्य किसी प्रकार से असमर्थ
व्यक्ति न्याय प्राप्त करने से वंचित न रहे।
13. नवीन अनुच्छेद 43A के
अनुसार राज्य उचित व्यवस्थापन अथवा अन्य प्रकार से औद्योगिक संस्थाओं के प्रबन्ध
में कर्मचारियों को भागीदार बनाने का प्रयत्न करेगा।
सामाजिक हित सम्बन्धी निदेशक तत्त्व
इस सम्बन्ध में राज्य को निम्नलिखित निर्देश दिये गये हैं-
1. राज्य लोगों के जीवन स्तर और स्वास्थ्य को सुधारने के
लिए प्रयत्न करेगा। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए औषधियों में प्रयोग किये जाने के
अलावा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मादक द्रव्यों तथा अन्य मादक पदार्थों के सेवन पर
प्रतिबन्ध लगायेगा।
2. राज्य जनता के दुर्बलतम अंगों के विशेषतया अनुसूचित
जातियों तथा अनुसूचित आदिम जातियों के, शिक्षा तथा अर्थ सम्बन्धी
हितों की विशेष सावधानी से रक्षा करेगा तथा सामाजिक अन्याय तथा सभी प्रकार के शोषण
से उनको रक्षा करेगा।
न्याय, शिक्षा, लोकतन्त्र तथा प्राचीन स्मारकों की रक्षा से सम्बन्धित निदेशक तत्त्व-
इन क्षेत्रों के लिए राज्यों को निम्नलिखित निर्देश दिए गए
हैं-
1. न्याय की प्राप्ति हेतु राज्य सभी नागरिकों के लिए समान
कानून बनायेगा तथा अपनी सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् करने का
प्रयत्ल करेगा।
2. शिक्षा के सम्बन्ध में यह निर्देश दिया गया कि
संविधान के लागू होने के बाद दस वर्ष के समय में राज्य 14 वर्ष तक के बालकों
के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा प्रदान करने की
व्यवस्था करेगा।
3. लोकतन्त्र की भावना के लिए राज्य पंचायतों के
संगठन की ओर कदम उठायेगा तथा उन्हें इतने अधिकार दिए जाने की व्यवस्था करेगा कि ये
संगठन स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य कर सकें।
4. नीति निर्देशक तत्त्वों में प्राचीन स्मारकों, कलात्मक
महत्त्व के स्थानों तथा राष्ट्रीय महत्त्व के भवनों की रक्षा का कार्य भी राज्य को
सौंपा गया है। राज्य का यह कर्तव्य निश्चित किया गया है कि वह प्रत्येक स्मारक तथा
कलात्मक या ऐतिहासिक रुचि के स्थान की, जिसे संसद ने राष्ट्रीय
महत्त्व का घोषित कर दिया हो, रक्षा करने का प्रयत्न करेगा।
अन्तर्राष्ट्रीय शांति तथा सुरक्षा सम्बन्धी निदेशक तत्त्व-
राज्य अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में
निम्नलिखित आदर्शों को लेकर चलने का प्रयत्ल करेगा-
1. अन्तर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा में वृद्धि।
2. राष्ट्रों के मध्य न्याय और सम्मानपूर्ण सम्बन्ध स्थापित
रखना।
3. राष्ट्रों के पारस्परिक व्यवहार में अन्तर्राष्ट्रीय
कानून तथा सन्धियों के प्रति आदर बढ़ाना।
4. अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को मध्यस्थता द्वारा सुलझाने को
प्रोत्साहन देना।
5. राष्ट्रीय नीति के रूप में युद्ध का परित्याग करना।
42वें तथा 44वें संविधान संशोधनों के अन्तर्गत सम्मिलित किये गये निदेशक तत्त्व-
42वें संविधान संशोधन, 1976 द्वारा निम्नलिखित
निर्देशक तत्त्व शामिल किये गये हैं-
1. अनु.39 (i) के अनुसार "राज्य विशेष रूप से ऐसी नीति का निर्माण करे, जिसके
द्वारा बच्चों को स्वतन्त्रता तथा गौरव की अवस्थाओं में स्वस्थ रूप से विकसित होने
के अवसर और सुविधाएँ प्राप्त हो सकें तथा युवकों को शोषण और नैतिक एवं भौतिक
आत्म-समर्पण से रक्षा हो सके।"
2. एक नया अनुच्छेद 39-A जोड़कर
यह व्यवस्था की गई है कि "राज्य इस बात का यत्न करेगा कि कानून प्रणाली समान
अवसरों के आधारों पर न्याय को विकसित करे। इन उद्देश्यों के लिए विशेष रूप से उचित
कानून या योजनाओं या किसी अन्य विधि से नि:शुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था करे
ताकि कोई भी नागरिक,
आर्थिक अथवा कुछ अन्य अयोग्यताओं के कारण न्याय प्राप्त
करने के अवसरों से वंचित न रह जाए।"
3. एक नया अनुच्छेद 43-A जोड़कर यह प्रावधान किया गया है कि "राज्य उचित कानून या किसी अन्य विधि
से इस उद्देश्य के लिए प्रयत्न करेगा कि किसी भी उद्योग से सम्बन्धित कारोबार के
प्रबन्ध में या अन्य संस्थाओं में श्रमिकों को भागीदार बनाने का अवसर प्राप्त
हो।"
4. एक नया अनुच्छेद 48-A जोड़कर
यह प्रावधान किया गया है कि "राज्य वातावरण की सुरक्षा तथा सुधार के लिए और
देश के वनों तथा जीवन की रक्षा के लिए यत्न करेगा।" 44वें संविधान संशोधन
द्वारा अनुच्छेद 38 में एक और निर्देशक सिद्धान्त जोड़ा गया है। इसके अनुसार, “राज्य
न केवल व्यक्तियों में बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के समूहों या
व्यवसायों में लगे लोगों की आय की असमानता और स्तरों सुविधाओं व अवसरों की
असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा।"
गाँधी विचारधारा से सम्बन्धित निदेशक तत्त्व
गाँधी विचारधारा से सम्बन्धित प्रमुख
निर्देशक तत्त्व निम्न हैं-
अनुच्छेद 40 के अनुसार राज्य
पंचायतों का संगठन करेगा। राज्य पिछड़ी हुई तथा निर्बल जातियों की विशेष रूप से
शिक्षा तथा आर्थिक हितों की उन्नति करेगा।
अनुच्छेद 43 के अनुसार राज्य
कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देगा।
अनुच्छेद 44 के अनुसार राज्य सारे
देश के लिए एक समान दीवानी और फौजदारी कानून बनाने का प्रयत्ल करेगा।
अनुच्छेद 46 के अनुसार राज्य कृषि
तथा पशुपालन को आधुनिक ढंग से संगठित करेगा।
अनुच्छेद 47 के अनुप्तार राज्य
नशीली वस्तुओं के प्रयोग को औषधियों के अतिरिक्त विशेष उद्देश्यों के लिए मना
करेगा।
अनुच्छेद 49 के अनुसार राष्ट्रीय
एवं ऐतिहासिक महत्त्व वाले स्मारकों और स्थानों की सुरक्षा करेगा।
अनुच्छेद 50 के अनुसार राज्य
न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के लिए कदम उठायेगा।
नीति निदेशक तत्त्वों का महत्त्व तथा प्रासंगिकता
नीति-निदेशक तत्त्वों का महत्व
निम्नलिखित है-
1. असंगत या असामयिक
हो जाने का तर्क गलत-
आलोचकों का यह तर्क कि ये तत्त्व कुछ वर्षों में पुराने पड़
जायेंगे तथा अव्यावहारिक हो जायेंगे, अनुचित है। प्रो. वी.एम.
पायली ने इस सम्बन्ध में कहा है, "यदि ये सिद्धान्त
पुराने पड़ जायेंगे, तो इनका आवश्यकतानुसार संशोधन किया जा सकता है या उनका पूर्णतः
परित्याग भी किया जा सकता है। जब तक इनके संशोधन का समय आयेगा तब तक भारत
इनका पूरा लाभ उठा चुका होगा और भारत में लोकतन्त्र की जड़ें अधिक गहरी हो चुकी
होंगी। संविधान का निर्माण वर्तमान समस्याओं को सुलझाने के लिए होता है। यदि हम
वर्तमान का निर्माण सुदृढ़ नींव पर करें तो भविष्य की चिन्ता करने की कोई आवश्यकता
नहीं रहेगी।"
2. संवैधानिक
पवित्रता-
निर्देशक सिद्धान्त उसी
प्रकार पवित्र हैं जिस प्रकार संविधान के अन्य अनुच्छेदान्यायालय की शक्ति के अभाव
में उसकी संवैधानिक पवित्रता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। न्यायालयों ने अपने
निर्णयों में यह स्पष्ट किया है कि यदि कोई कानून निदेशक तत्त्वों का विरोध
करता है तो उसे अवैध घोषित कर दिया जायेगा। पं. नेहरू ने चौथे संशोधन के
समय स्पष्ट रूप से कहा था कि अगर संविधान का कोई अनुच्छेद निर्देशक सिद्धान्तों को
व्यावहारिक रूप देने में बाधा पहुंचाता है,तो संविधान में आवश्यक संशोधन
किया जा सकता है।
3. वास्तविक
लोकतन्त्र का विश्वास दिलाते हैं-
ये सिद्धान्त भारत में वास्तविक लोकतन्त्र का
विश्वास दिलाते हैं। यह मान्यता है कि आर्थिक लोकतन्त्र के अभाव में राजनीतिक
लोकतन्त्र अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सकता। इन सिद्धान्तों का उद्देश्य भारत में
आर्थिक स्वतन्त्रता की स्थापना करना भी है, जिससे कि राजनीतिक लोकतन्त्र
वास्तविक लोकतन्त्र बन सके।
4. देश के प्रशासन
का आधार-
नीति-निर्देशक तत्त्व वाद
योग्य न होते हुए भी संविधान की अन्तरात्मा है। वे केन्द्रीय व राज्य
सरकारों पर यह उत्तरदायित्व डालते हैं कि कानूनों का निर्माण करते समय इनका ध्यान
रखा जाये। इस प्रकार ये राज्य का पथ-प्रदर्शन करते हैं।
5. केन्द्र तथा राज्य
सरकारों के लिए प्रकाश स्तम्भ-
ये सिद्धान्त केन्द्र तथा राज्य सरकारों का पथ-प्रदर्शन
करते हैं । अनुच्छेद 37 में कहा गया है कि "इन सिद्धान्तों को शासन के मौलिक
आदेश घोषित किया गया है, जिन्हें कानून बनाने तथा लागू करते समय
ध्यान में रखना प्रत्येक सरकार का कर्त्तव्य माना गया है।" चाहे भी दल सरकार
बनाये, उसे अपनी आन्तरिक तथा बाह्य नीति निश्चित करते समय इन सिद्धान्तों को अवश्य
ध्यान में रखना पड़ेगा।
इस प्रकार अपने कानूनी तथा कार्यकारी कामों में ये
सिद्धान्त प्रत्येक राजनीतिक दल के लिए मार्गदर्शक, दार्शनिक
तथा मित्र हैं।
6. अतिवादिता से
सुरक्षा–
लोकतान्त्रिक राज्य में विभिन्न विचार वाले दल सत्तारूढ़ हो
सकते हैं- कभी दक्षिणपंथी,
कभी वामपंथी, कभी मध्यवर्गीय। भारतीय
संविधान के निर्माता इस तथ्य से भली-भांति परिचित थे, इसलिए
राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों के द्वारा सभी प्रकार के दलों को मर्यादित
करने का प्रयत्न किया गया है जिससे एकतरफा परिवर्तन या सुधार न किये जा सकें।
7. सरकारों के
मूल्यांकन की कसौटी–
यद्यपि इन निर्देशक तत्त्वों को न्यायालय द्वारा
क्रियान्वित नहीं किया जा सकता, फिर भी इनके पीछे जनमत की शक्ति होती है
और जनमत लोकतन्त्र में सबसे महान् और शक्तिशाली न्यायालय होता है जिसकी उपेक्षा कर
कोई सरकार अधिक समय तक सत्ता में नहीं रह सकती। विधानमण्डल के बाहर मतदाता
तथा विधानमण्डल के अन्दर विरोधी दल के हाथों में नीति-निर्देशक तत्त्व ऐसी
तलवार है जिसका प्रयोग सामान्य हित में सदैव किया जा सकता है और लोक-हित के प्रति
उदासीन सरकार को लोक-हित के प्रति जागरूक बनने को विवश किया जा सकता है।
8. नैतिक प्रेरणा के
स्रोत-
नीति-निर्देशक तत्त्वों का
महत्त्व इसलिए भी है कि उनमें से अधिकांश का आधार नैतिक है, इसलिए
वे नैतिक प्रेरणा प्रदान करते हैं। इसलिए संविधान में इनका समावेश करते समय यह आशा
की गई है कि ये तत्त्व भारतीय नीति को निर्देशित एवं प्रभावित करेंगे। जिस
प्रकार ब्रिटेन में मेग्नाकार्टा, फ्रांस में मानवीय तथा
नागरिक अधिकारों की घोषणा और अमेरिका में उसके संविधान की प्रस्तावना उन
देशों के लिए महत्त्वपूर्ण है, इसी प्रकार यह आशा की गई है कि भारत में
भी नीति-निर्देशक तत्त्व इतने ही महत्त्वपूर्ण बन जावेंगे।
मूल अधिकार और नीति निदेशक तत्त्वों में पारस्परिक सम्बन्ध
मूल अधिकार और नीति निदेशक तत्त्वों
के पारस्परिक सम्बन्धों को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-
नीति निर्देशक तत्त्वों
और मूल अधिकारों में अन्तर
मूल अधिकार एवं नीति निर्देशक तत्त्वों में मुख्य अन्तर निम्न हैं-
(1) मूल अधिकार निषेधाज्ञायें हैं जबकि नीति निर्देशक
तत्त्व सकारात्मक आज्ञाएँ- मूल अधिकार राज्य की सत्ता को मर्यादित करते हैं
तथा उसे कुछ कार्य न करने के लिए कहते हैं जबकि नीति-निर्देशक तत्त्व
सकारात्मक आज्ञायें हैं। वे राज्य को सामान्य हित में समाज की प्रगति के लिए कुछ
कार्य करने के लिए निर्देश देते हैं।
(2) कानूनी बन्धन का अन्तर- मूल अधिकार राज्य पर
कानूनी बन्धन उत्पन्न करते हैं जबकि नीति निर्देशक तत्त्व नैतिक बन्धन
उत्पन्न करते हैं। जी.एन. जोशी ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि, "राज्य-नीति के निर्देशक सिद्धान्त मानवीय आदर्शवाद के ढेर हैं जिन्हें ऐसे की
व्यक्तियों ने संगृहीत किया है जो दीर्घकालीन स्वातन्त्र्य संघर्ष के पश्चात्
स्वप्निल भावातिरेक की स्थिति में थे।"
(3) मूल अधिकार वाद योग्य हैं जबकि नीति-निर्देशक
तत्त्व वाद योग्य नहीं हैं- जब कभी कार्यपालिका आदेश या व्यवस्थापिका के कानून
नागरिकों के मूल अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं तो वे न्यायालयों से संरक्षण
प्राप्त कर सकते हैं,
जबकि नीति के निर्देशक तत्त्व वादयोग्य नहीं हैं। अनुच्छेद
37 स्पष्ट रूप से कहता है कि निर्देशक तत्त्वों को किसी न्यायालय द्वारा बाध्यता
नहीं दी जा सकेगी।
(4) मौलिक अधिकारों को (अनु. 20 व 21 में वर्णित
अधिकारों को छोड़कर) अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत घोषित आपातकालीन स्थिति में
प्रवर्तन काल में स्थगित किया जा सकता है जबकि निर्देशक तत्त्वों का जब तक
क्रियान्वयन नहीं होता तब तक वे स्थायी रूप से स्थगन की अवस्था में ही बने रहते
हैं।
(5) मूल अधिकारों का विषय व्यक्ति है, जबकि
निर्देशक तत्त्व राज्य के लिए हैं। ये राज्य को नैतिक दृष्टि से इसके लिए निर्देश
देते हैं कि वह सार्वजनिक हित के लिए इन्हें लागू करे।
(6) मौलिक अधिकार नागरिकों को प्रदत्त किये जा चुके
हैं लेकिन निर्देशक सिद्धान्त अभी तक लोगों को प्राप्त नहीं हुए हैं। सरकार इन
सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप देने का प्रयत्न कर रही है।
(7) जहाँ मौलिक अधिकारों द्वारा राजनीतिक लोकतन्त्र
की स्थापना की गई है,
वहाँ नीति निर्देशक सिद्धान्तों द्वारा आर्थिक
लोकतन्त्र की स्थापना होती है। ग्रेनविल ऑस्टिन ने इसी कारण इन निर्देशकों को
घोषणा कहा है आर्थिक स्वाधीनता की घोषणा।
(8) मूल अधिकार व्यक्ति (नागरिक) के निजी अधिकारों
की रक्षा करते हैं और नीति निर्देशक तत्त्वों का सम्बन्ध निजी अधिकारों से नहीं है, इनका
सम्बन्ध समाज के अधिकारों से है। इन्हें सार्वजनिक हित में सार्वजनिक उद्देश्यों
की प्राप्ति के लिए कानून द्वारा कार्यान्वित किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, मूल
अधिकारों का विषय व्यक्ति है और नीति निर्देशक तत्त्व राज्य के लिए हैं।
(9) निर्देशक तत्त्वों का क्षेत्र मूल अधिकारों के
क्षेत्र से कहीं अधिक व्यापक है। मूल अधिकारों का क्षेत्र भारत राज्य की
सीमाओं के अन्तर्गत है जबकि निर्देशक तत्त्वों में अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व के
सिद्धान्त के साथ-साथ विश्व-बन्धुत्व और विश्व-शान्ति का सन्देश भी अन्तर्निहित
है।
(10) मौलिक अधिकार सार्वभौम नहीं हैं, उन
पर प्रतिबन्ध है जबकि निर्देशक सिद्धान्तों पर प्रतिबन्ध नहीं है।
नीति निर्देशक तत्त्वों और मूल अधिकारों में परस्पर पूरकता
सर आइवर जेनिंग्स ने भारत के संविधान में प्रदत्त नीति
निर्देशक तत्त्वों तथा मूल अधिकारों में परस्पर विरोध बताया है, लेकिन
वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। वस्तुस्थिति यह है कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधी
नहीं। यदि संविधान का भाग III भारतीय संविधान के दर्शन को अभिव्यक्त करता है तो भाग IV उसके द्वारा प्राप्त किये
जाने वाले आदर्शों और उन आदर्शों को पूरा करने वाली रीतियों को अभिव्यक्त करता है।
उदाहरण के लिए,
यदि भाग III के अनुच्छेद 14 से 18 'नागरिकों को कानून के समक्ष समानता' तथा 'विधियों के अधीन समान संरक्षण' का अधिकार
प्रदान करते हैं तो भाग IV अनुच्छेद 38 और 39 उन समान परिस्थितियों
की रचना करने की बात करते हैं।
भूतपूर्व न्यायाधीश हेगड़े के अनुसार, "संविधान के चौथे भाग में दिये गये उपबन्ध तीसरे भाग में दिये गये उपबन्धों को पूरा करते हैं और ये दोनों भाग मिलकर कल्याणकारी लोकतान्त्रिक राज्य के निर्माण के लिए एक योजना प्रस्तुत करते हैं।" मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) तथा अन्य कुछ विवादों के निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर बल दिया है कि "मूल अधिकार तथा निर्देशक तत्त्व एक-दूसरे के पूरक हैं।"
आशा हैं कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।
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