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भारतीय निर्वाचन व्यवस्था के दोष

भारत में चुनाव व्यवस्था की प्रमुख कमियाँ/दोष

भारत में निर्वाचन व्यवस्था से सम्बन्धित चिन्ताजनक तथ्य निर्वाचन व्यवस्था की असंगतियाँ एवं दोष हैं। चुनाव व्यवस्था में निम्नांकित दोषों के कारण निष्ठावान, ईमानदार एवं जन सेवा में समर्पित जनप्रतिनिधियों के चयन की लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में संकट उत्पन्न होता है।

1. राजनीतिक दलों को प्राप्त जन-समर्थन और स्थानों के अनुपात में गम्भीर अन्तर-

भारत में साधारण बहुमंत की वयस्क मताधिकार निर्वाचन पद्धति अपनायी गयी है। इस पद्धति के अन्तर्गत प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से वह उम्मीदवार विजयी घोषित होता है जिसे सबसे अधिक मत मिलते हैं; चाहे उन मतों का प्रतिशत, उस क्षेत्र के कुल मतदाताओं और मतदान करने वाले मतदाताओं का प्रतिशत कितना ही कम क्यों न हो। इसके कारण निम्न गम्भीर स्थितियाँ भी पैदा हो जाती हैं-

(i) किसी दल को प्राप्त जन-समर्थन की तुलना में कम सीटें मिलें।

(ii) किसी दल को प्राप्त जन-समर्थन की तुलना में अधिक सीटें मिलें।

(iii) उस दल को सरकार बनाने का अवसर मिल जाये जिसे देश के बहुमत का समर्थन प्राप्त न हो।

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प्रथम से 15वीं, 16वीं तथा 17वीं लोकसभा के चुनाव परिणामों का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि केन्द्र में स्पष्ट बहुमत एवं दो-तिहाई बहुमत का दावा करने वाले दलों को व्यवहारत: 50 प्रतिशत का भी जनादेश प्राप्त नहीं होता है। अगर मतदान के प्रतिशत और विजेता उम्मीदवार को मिले वोटों के हिसाब से देखें तो जीतने वाले के पक्ष में 35 प्रतिशत से अधिक लोग नहीं होते हैं। अत: राजनीतिक दलों को प्रास जन समर्थन एवं प्राप्त स्थानों का अन्तर न्यायोचित नहीं कहा जा सकता।

2. शासक दल द्वारा प्रशासनिक तन्त्र का दुरुपयोग-

चुनाव के दौरान प्रायः सत्तारूढ़ दल अपने दलीय हितों की पूर्ति के लिये प्रशासनिक तंत्र का दुरुपयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त सत्तारूढ़ दल चुनाव के अवसर पर अपने राजनीतिक लाभ के लिये विविध संगठित वर्गों को अनेक रियायत और सुविधायें देने तथा विकास योजनाओं की घोषणा करते हैं, जिनमें से अधिकांश की क्रियान्विति नहीं होती है। इस प्रकार वर्ग प्रशासनिक तन्त्र का दुरुपयोग कर निर्वाचन व्यवस्था की 'निष्पक्षता' को बने रहने में व्यवधान डालता रहता है।

3. चुनावों में धन की बढ़ती हुई भूमिका-

भारत में चुनाव जीतने के लिए केवल सर्वाधिक वोट हासिल करना ही पर्याप्त नहीं है। उम्मीदवारों को अपने चुनावी अभियान में अपार धन खर्च करना पड़ता है। यद्यपि चुनाव आयोग ने सांसदों एवं विधायकों के चुनाव खर्चों की सीमा का निर्धारण तथा समय-समय पर संशोधन किया है। नवीन संशोधन के अनुसार चुनाव खर्च की सीमा 15 लाख से बढ़ाकर 25 लाख कर दी गई है।

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भारतीय निर्वाचन व्यवस्था के दोष

प्रत्येक उम्मीदवार को चुनाव पूर्ण होने के बाद खर्च का हिसाब-किताब चुनाव आयोग को सौंपना पड़ता है। ऐसा न करने पर इसे भ्रष्ट कृत्य माना जाता है और इस आधार पर उम्मीदवारों को कानूनी तौर पर छः वर्ष चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है। किन्तु चुनाव की निर्धारित खर्च की सीमा का प्रत्येक उम्मीदवार ने उल्लंघन किया है।

4. चुनाव में बाहुबल और हिंसा का प्रयोग, मतदान केन्द्रों पर कब्जा तथा जाली मतदान-

भारतीय निर्वाचन व्यवस्था में घर कर गया एक अन्य गंभीर दोष यह है कि चुनाव में अनेक क्षेत्रों में बाहुबल प्रयोग, शराब की शक्ति, मतदान केन्द्रों पर कब्जा, जाली मतदान आदि की प्रवृत्ति अत्यधिक बढ़ गई है। बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, प. बंगाल आदि राज्यों में यह घनीभूत हो गई है। ऐसी स्थिति में शान्ति पसन्द विवेकशील व्यक्ति चुनाव लड़ने और मतदान का प्रयोग करने से घबराते एवं कतराते हैं।

5. अनुपस्थित मतदाताओं का अत्यधिक प्रतिशत-

अन्य प्रजातांत्रिक देशों की तुलना में भारत मे 'अनुपस्थित रहने वाले मतदाताओं अर्थात् अपने मताधिकार का प्रयोग न करने वाले मतदाताओं का प्रतिशत बहुत अधिक है। भारत में औसतन 60 प्रतिशत मतदान होता है और 30 से 40 प्रतिशत मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करते हैं, उसके प्रति उदासीन बने रहते हैं। ऐसी स्थिति में विजयी उम्मीदवार अधिकांश जनता का प्रतिनिधत्व नहीं कर पाता है। दूसरे, अधिकतर मतदाताओं की अनुपस्थिति के कारण ही चुनाव में भ्रष्टाचार तथा जाली मतदान को बढ़ावा मिला है।

6. निर्दलीय उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या-

भारतीय निर्वाचन व्यवस्था का एक अन्य दोष यह है कि चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवार बड़ी संख्या में खड़े हो जाते हैं, जिनके कारण चुनाव संचालन में अनेक परेशानियाँ पैदा हो जाती हैं। यथा-

(i) ये उम्मीदवार चुनाव को मखौल बना देते हैं।

(ii) कई बार ये उम्मीदवार दूसरे गंभीर प्रत्याशी से धनराशि प्राप्त करने के लिये खड़े हो जाते है।

(iii) इनके कारण मतदान पत्र छपवाने, उन्हें चुनाव चिह्न प्रदान करने में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

(iv) इनके कारण निर्वाचन आयोग का जाँच कार्य बढ़ जाता है।

16वीं लोकसभा (2014) चुनावों में 3234 निर्दलीय उम्मीदवार थे जिनमें से महज तीन उम्मीदवार विजयी हुए।

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इन सभी कारणों से निर्दलीय उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या निर्वाचन व्यवस्था में परेशानियाँ पैदा करती हैं और ये चुनाव प्रबन्ध के लिये गम्भीर चुनौती बनते जा रहे हैं।

7. निर्वाचक याचिकाओं पर विलम्ब से निर्णय-

भारतीय निर्वाचन व्यवस्था का एक अन्य दोष निर्वाचक याचिकाओं पर निर्णय अत्यधिक विलम्ब से किया जाना है। प्रायः जब तक याचिका का निर्णय होता है, तब तक उस निर्वाचन का कार्यकाल ही समाप्त हो जाता है और विवादग्रस्त सदस्य अपने पद पर बना रहता है। यह चिन्ताजनक स्थिति है। इस स्थिति ने भ्रष्ट साधन अपनाकर विजय प्राप्त करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया है।

8. मतदाता सूचियों की गल्तियाँ तथा दोषपूर्णता-

भारतीय निर्वाचन व्यवस्था का एक अन्य दोष यह है कि निर्वाचन अधिकारी राजनीतिक दबाव में आकर मतदाता सूचियों में गड़बड़ी कर देते हैं। अनेक ऐसी गड़बड़ियाँ प्रकाश में आई हैं। जैसे- मंत्रियों ने दबाव डालकर विपक्षी संसद सदस्यों के नाम मतदाता सूची से निकाल दिये, ताकि वे चुनाव न लड़ सकें; विपक्षी उम्मीदवारों के नामांकन पत्र बिना किसी गम्भीर त्रुटि के रद्द कर दिये गये आदि।

9. अन्य दोष-

भारतीय निर्वाचन व्यवस्था के अन्य दोष हैं-छोटे-मोटे अनेक राजनीतिक दलों की भरमार, निर्दलीय प्रत्याशियों की बहुलता, अवैध मतों की काफी संख्या का होना तथा उन पर विवाद होना आदि।

चुनाव व्यवस्था में सुधार हेतु सुझाव

सरकार द्वारा जनप्रतिनिधित्व कानून में 1996 में चुनाव सुधारों हेतु किये गये संशोधन के पश्चात् भारतीय चुनाव व्यवस्था के दोषों को दूर करने के लिए प्रमुख रूप से निम्न सुझाव दिये जा सकते हैं-

1. चुनावों में धन की भूमिका को नियंत्रित करने हेतु सुझाव-

चुनावों का एक प्रमुख दोष चुनावों में धन की निरन्तर बढ़ती हुई भूमिका है। इस भूमिका को नियंत्रित करने के लिए प्रमुख सुझाव ये हैं-

(i) चुनाव खर्च का भार पूर्णतया या आंशिक रूप से राज्य के द्वारा वहन किया जाना चाहिए। सरकार निर्वाचन अधिनियमों में संशोधन कर राजकोष से निर्वाचन के लिए राजनीतिक दलों एवं प्रत्याशियों को धन प्रदान करे।

(ii) लोक सभा एवं राज्य विधान सभाओं के निर्वाचन एक साथ करवाये जाने की व्यवस्था हो। निर्वाचन व्यय की व्यावहारिक सीमा का निर्धारण हो तथा उसका कठोरता से पालन हो। राजनीतिक दलों के आय-व्यय के विवरण की विधिवत् एवं नियमित लेखा परीक्षण द्वारा जाँच हो। चुनाव प्रसार की अवधि में कटौती हो।

2. चुनाव आयोग को वस्तुतः स्वतन्त्र व निष्पक्ष बनाया जाये-

चुनाव आयोग को कार्यपालिका के दबाव से पूर्णतया मुक्त किया जाना चाहिए। इस प्रसंग में एक सुझाव यह है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयोग के अन्य सदस्यों की नियुक्ति एक ऐसी समिति द्वारा की जाये जिसमें प्रधानमन्त्री और गृहमन्त्री के अतिरिक्त संसद में विपक्ष का नेता व भारत का मुख्य न्यायाधीश भी सदस्य हों। यद्यपि 1993 से लेकर 2014 की अवधि में चुनाव आयोग ने बहुत अधिक सीमा तक स्वतंत्रता और निष्पक्षता का परिचय दिया है।

3. अपराधियों के चंगुल से मुक्त चुनाव-

लोकतन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक है कि हमारे भाग्य विधाता अपराधी न हों। मौजूदा चुनाव कानूनों में संशोधन कर अपराधियों को चुनाव प्रक्रिया में खड़े होने से रोकना होगा। इसमें राजनीतिक दलों की सद्बुद्धि तथा जनता का दबाव भी सहायक हो सकता है। मतदान के सूचना के अधिकार के तहत मतदाताओं को प्रत्याशी की आपराधिक पृष्ठभूमि जानने का अधिकार है किन्तु इस दोष पर सीधे नियन्त्रण की आवश्यकता है। अपराधियों अथवा अभियुक्तों के संसद एवं विधानमण्डलों में पहुंचने से पहले ही नियन्त्रणकारी उपाय करने होंगे।

4. शासन के लिए कार्यवाहक सरकार की स्थिति-

चुनावों में दलीय लाभ के लिए प्रशासनिक तंत्र के दुरुपयोग की स्थितियाँ देखी गई हैं। इसलिए कानूनी तौर पर ऐसी व्यवस्था कर दी जानी चाहिए कि चुनावों की घोषणा होने के दिन से लेकर नवीन सरकार बनने तक केन्द्रीय और राज्य सरकारें केवल कामचलाऊ सरकारों के रूप में कार्य करें। उन्हें नीति सम्बन्धी कोई घोषणा करने, किन्हीं वर्गों को अतिरिक्त रियायतें देने या सरकारी कर्मचारियों के वेतन-भत्ते आदि में वृद्धि की घोषणा करने का कोई अधिकार नहीं हो।

5. राजनीतिक दलों द्वारा आचार संहिता का पालन-

चुनाव की समस्त प्रक्रिया में राजनीतिक दलों को ईमानदारी के साथ आचार संहिता का पालन करना चाहिए तभी चुनाव प्रणाली में सुधार हो सकता है।

6. चुनाव याचिकाओं पर शीघ्र निर्णय-

चुनाव याचिकाओं पर शीघ्रता के साथ निर्णय की स्थिति को अपनाना बहुत अधिक आवश्यक है। इस सम्बन्ध में कानून बनाकर 6 माह या अधिक से अधिक एक वर्ष में चुनाव याचिका पर निर्णय अनिवार्य किया जा सकता है।

7. अन्य सुझाव-

निर्वाचन सुधार के प्रसंग में कुछ अन्य सुझाव भी दिये जाते हैं। ये हैं-

प्रथम, लोकसभा और विधानसभा चुनाव में साधारण बहुमत की पद्धति के स्थान पर आनुपातिक प्रतिनिधित्व की पद्धति को अपनाया जाये।

द्वितीय, मताधिकार का प्रयोग न करने वाले व्यक्तियों के लिए आर्थिक दण्ड की व्यवस्था की जाये।

तृतीय, मतदाताओं को अधिकार दिया जाये कि वे अपने प्रतिनिधियों को वापस बुला सकें, अर्थात् प्रत्याह्वान (Recall) की व्यवस्था की जाये।

चौथे, नकारात्मक मताधिकार की व्यवस्था की जाये अर्थात् वोटिंग मशीन में एक कालम उपर्युक्त में से कोई नहीं' का भी रखा जाये जिससे मतदाता यदि उल्लिखित उम्मीदवारों में से किसी को उचित नहीं समझे तो अपने मत को अभिव्यक्त कर सके और यदि बहुमत में ऐसे वोट पड़ें तो वहाँ दुबारा चुनाव की प्रक्रिया प्रारम्भ की जाये।

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यह व्यवस्था नवम्बर-दिसम्बर 2013 के विधानसभा चुनावों तथा 2014 के लोकसभा चुनावों में 'NOTA' का विकल्प प्रदान करके की गई जिसमें लोकसभा चुनावों में 1.1% मतदाताओं ने 'नोटा' वाला बटन प्रयोग किया है। 2019 के लोकसभा चुनावों में भी 'नोटा' बटन का विकल्प जनता की पसंद रहा है। इससे राजनीतिक दलों में सतर्कता बढ़ेगी तथा साफ-सुथरी छवि वाले लोगों को ही टिकट देने को मजबूर होंगे।

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